जमशेद जी टाटा

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जमशेद जी टाटा
जमशेदजी टाटा
पूरा नाम जमशेदजी नुसीरवानजी टाटा
जन्म 3 मार्च, 1839
जन्म भूमि नवसेरी क़स्बा, गुजरात
मृत्यु 19 मई, 1904
मृत्यु स्थान जर्मनी
अभिभावक नुसीरवानजी, जीवनबाई
पति/पत्नी हीरा बाई दबू
कर्म भूमि मुम्बई
कर्म-क्षेत्र उद्योगपति
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
शिक्षा ग्रेजुएट
विद्यालय 'एलफ़िंसटन कॉलेज', मुम्बई
प्रसिद्धि मुम्बई की शान ताज महल होटल का निर्माण किया।
विशेष योगदान जमशेदजी ने वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षा के लिए बेहतरीन सुविधाएँ उपलब्ध करायीं और राष्ट्र को महाशक्ति बनने का मार्ग दिखाया।
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख टाटा परिवार, जे. आर. डी. टाटा, रतन टाटा, टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान
अन्य जानकारी जमशेदजी टाटा वर्तमान में भारत के विश्वप्रसिद्ध औद्योगिक घराने 'टाटा समूह' के संस्थापक थे।
अद्यतन‎

जमशेदजी नुसीरवानजी टाटा (अंग्रेज़ी: Jamsetji Tata, जन्म- 3 मार्च, 1839, गुजरात; मृत्यु- 19 मई, 1904, जर्मनी) भारत के विश्व प्रसिद्ध औद्योगिक घराने "टाटा समूह" के संस्थापक थे। भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी ने जो योगदान दिया, वह असाधारण और बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने भारतीय औद्योगिक विकास का मार्ग ऐसे समय में प्रशस्त किया था, जब उस दिशा में केवल यूरोपीय, विशेष रूप से अंग्रेज़ ही कुशल समझे जाते थे। इंग्लैण्ड की अपनी प्रथम यात्रा से लौटकर जमशेदजी टाटा ने चिंचपोकली की एक तेल मिल को कताई-बुनाई मिल में परिवर्तित करके औद्योगिक जीवन का सूत्रपात किया था। टाटा साम्राज्य के जनक जमशेदजी द्वारा किए गये अनेक कार्य आज भी लोगों को प्रेरित एवं विस्मित करते हैं। भविष्य को भाँपने की अपनी अद्भुत क्षमता के बल पर ही उन्होंने एक स्वनिर्भर औद्योगिक भारत का सपना देखा था। उन्होंने वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षा के लिए बेहतरीन सुविधाएँ उपलब्ध करायीं और राष्ट्र को महाशक्ति बनने के मार्ग पर अग्रसर किया।

जन्म तथा शिक्षा

जमशेदजी टाटा का जन्म सन 3 मार्च, 1839 में गुजरात के एक छोटे-से कस्बे नवसेरी में हुआ था। उनका परिवार पारसी पुजारियों का था। उनके पिता का नाम नुसीरवानजी तथा माता का नाम जीवनबाई टाटा था। पारसी पुजारियों के अपने ख़ानदान में नुसीरवानजी पहले व्यवसायी व्यक्ति थे। जमशेदजी का भाग्य उन्हें मात्र चौदह वर्ष की अल्पायु में ही पिता के साथ बंबई (वर्तमान मुम्बई) ले आया। यहाँ उन्होंने व्यवसाय में क़दम रखा। जमशेदजी अपनी छोटी नाज़ुक उम्र में ही पिता का साथ देने लगे थे। सत्रह वर्ष की आयु में जमशेदजी ने 'एलफ़िंसटन कॉलेज', मुम्बई में प्रवेश ले लिया। इसी कॉलेज से वे दो वर्ष बाद 'ग्रीन स्कॉलर' के रूप में उत्तीर्ण हुए। तत्कालीन समय में यह उपाधि ग्रेजुएट के बराबर हुआ करती थी।[1] कुछ समय बाद इनका विवाह हीरा बाई दबू के साथ हो गया।

व्यवसायिक जीवन की शुरुआत

सुदूर पूर्व और यूरोप में अपने शुरू-शुरू के व्यापारिक उद्यमों के बाद जमशेदजी टाटा ने वर्ष 1868 में 29 साल की उम्र में 21 हज़ार रुपये की पूंजी के साथ एक निजी फर्म प्रारंभ की। वे कई बार मैनचेस्टर जा चुके थे और इसी दौरान उनके मन में कपड़ा मिल शुरू करने का विचार आया। अपने कुछ दोस्तों की साझेदारी में उन्होंने एक पुरानी तेल मिल ख़रीदी और उसे कपड़ा मिल में बदल दिया और फिर दो साल बाद उसे मुनाफे पर बेच दिया। इसके बाद जमशेदजी ने अपनी मिल उस प्रदेश में लगाने की सोची, जहाँ कपास की पैदावार अधिक होती थी। इस कार्य के लिए उन्होंने नागपुर को चुना। वर्ष 1874 में उन्होंने अपने दोस्तों के समर्थन से पन्द्रह लाख रुपये की पूंजी से एक नई कंपनी शुरू की। कंपनी का नाम रखा 'सेंट्रल इंडिया स्पिनिंग, वीविंग एंड मैनुफैक्चरिंग कंपनी'। 1 जनवरी, 1877 को इस मिल ने कार्य करना प्रारम्भ किया। बाद के समय में इसका नाम बदलकर 'इम्प्रेस मिल' कर दिया गया।

व्यक्तित्व

जमशेदजी के रूप में भारत को एक ऐसा व्यक्ति मिल गया था, जिसके पास नई-नई कल्पनाएँ और विचार थे। जिन्हें वह वास्तविकता में बदल सकता था। अपने लक्ष्यों को हासिल करने में उन्होंने अपनी संपदा, अनुभव और प्रतिष्ठा का उपयोग किया। अपने साथियों का पूरा सहयोग अधिकार भाव से प्राप्त करने का उनमें एक असाधारण गुण था। उनकी दिनचर्या काफ़ी सवेरे शुरू हो जाती थी। कभी-कभी वे मुम्बई के समुद्री तट पर टहलने निकल जाते। टहलते-टहलते कभी वे अपने दोस्तों के यहाँ पहुँच जाते। कई बार तो उनके दोस्त सोते ही रहते। नाश्ते के समय वे अपने परिवार, रिश्तेदारों और मित्रों से चर्चा करते थे। मध्याह्व तक अपने दफ्तर पहुँचने से पहले वे अध्ययन और लेखन कार्य अवश्य करते। दफ्तर के बाद वे अपनी घोड़ागाड़ी में सैर के लिए निकल पड़ते, या एलफिंस्टन क्लब में ताश खेलते और बातचीत करते। वहाँ से लौटकर खाना खाते। अच्छा खाना अगर उनकी कमज़ोरी थी तो दूसरी ओर ज्ञान की उनमें जबरदस्त प्यास भी विद्यमान थी।[1]

होटल ताज का निर्माण

विश्व प्रसिद्ध 'ताजमहल होटल' सिर्फ़ मुम्बई ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत में ख्यातिप्राप्त है। 'ताजमहल होटल' के निर्माण के पीछे एक रोचक कहानी छुपी हुई है। सिनेमा के जनक लुमायर भाईयों ने अपनी खोज के छ: महीनों बाद अपनी पहली फ़िल्म का शो मुम्बई में प्रदर्शित किया था। वैसे तो वे ऑस्ट्रेलिया जा रहे थे, लेकिन बीच रास्ते में उन्होंने मुम्बई में भी शो रखने की बात सोची। 7 जुलाई, 1896 को उन्होंने मुम्बई के तत्कालीन आलीशान वोटसन होटल में अपनी छ: अलग-अलग फ़िल्मों के शो आयोजित किए। इन शो को देखने के लिए मात्र ब्रिटिश लोगों को ही आमंत्रित किया गया था, क्योंकि वोटसन होटल के बाहर एक तख्ती लगी रहती थी, जिस पर लिखा होता था कि "भारतीय और कुत्ते होटल में नहीं आ सकते हैं"। 'टाटा समूह' के जमशेदजी टाटा भी लुमायर भाईयों की फ़िल्में देखना चाहते थे, लेकिन उन्हें वोटसन होटल में प्रवेश नहीं मिला। रंगभेद की इस घृणित नीति के ख़िलाफ़ उन्होंने आवाज भी उठाई। इस घटना के दो साल बाद ही वोटसन होटल की सारी शोभा धूमिल कर दे, एक ऐसे भव्य 'ताजमहल होटल' का निर्माण जमशेदजी ने शुरू करवा दिया। 1903 ई. में यह अति सुंदर होटल बनकर तैयार हो गया। कुछ समय तक इस होटल के दरवाज़े पर एक तख्ती भी लटकती थी, जिस पर लिखा होता था कि- "ब्रिटिश और बिल्लियाँ अंदर नहीं आ सकतीं।[2] तत्कालीन मुम्बई में ताज होटल की इमारत बिजली की रोशनी वाली पहली इमारत थी, इसीलिए इसकी चकाचौंध हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती थी। इसकी गणना संसार के सर्वश्रेष्ठ होटलों में की जाने लगी थी। जमशेदजी का यह उद्यम उनके अन्य उद्यमों की तुलना में बिल्कुल अलग था। सच तो यह था कि वे इसे उद्योग की तरह चलाना भी नहीं चाहते थे। इसीलिए उन्होंने खर्च का कभी हिसाब भी नहीं लगाया।

सजगता का गुण

जमशेदजी टाटा अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए हमेशा तत्पर रहा करते थे। इसके साथ ही उनके व्यक्तित्व का एक और बड़ा गुण था, और वह था- सजगता। जिन दिनों मुम्बई में जानलेवा प्लेग विकराल रूप में फैली, तब जमशेदजी ने अपने सब काम एक ओर रख दिये और प्लेग के विभिन्न प्रकारों के इतिहास और उनके इलाज संबंधी अध्ययन में जुट गये। वे जानना चाहते थे कि इस भयानक बीमारी के फैलाव को कैसे रोका जा सकता है। मानवीय प्रयत्नों के हर क्षेत्र पर जमशेदजी ने सोचा और काम किया, हालाँकि उनकी याद मुख्यत: राष्ट्रीय महत्त्व की तीन परियोजनाओं और विख्यात 'ताजमहल होटल' के निर्माता के रूप में की जाती है। जमशेदजी जब भी विदेश जाते, अधिकतर ख़रीददारी खुद ही करते। यूरोप में जो भी श्रेष्ठ वस्तुएँ मिल सकती थीं, उन्हें जमशेदजी ने ख़रीदा और ताज पर न्योछावर कर दिया।

विदेश यात्राएँ

अपनी युवावस्था में ही जमशेदजी ने चीन, सुदूर पूर्व देशों, यूरोप, मध्य पूर्व और उत्तरी अमेरिका तक की यात्रा की थी। उन्होंने अपनी इन यात्राओं का लाभ विदेशों में इस्पात कारखानों, कोयला खानों और अन्य किस्म के कारखानों का अध्ययन करने की दृष्टि से उठाया। जब वे फ़्राँस में थे तो उन्होंने रेशम के कीड़े पालने की विधि का अध्ययन किया। जब वे 1893 में जापान गये तो जापानियों को रेशम की खेती के बारे में प्रयोग करने के लिए आमंत्रित किया। जलवायु के ख्याल से उन्होंने मैसूर को चुना और रेशम उद्योग को फिर से जीवित किया।[1]

दृढ़ निश्चयी

वर्ष 1886 में जमशेदजी ने एक 'पेंशन फंड' प्रारंभ किया और 1885 में ही वे दुर्घटनाग्रस्त लोगों को मुआवजा देने लगे। उनकी 'इम्प्रेस मिल' ने यह दिखा दिया था कि उनकी निगाह सिर्फ़ मुनाफे पर नहीं थी, उनके साथ काम करने वाले लोग भी उनके लिए महत्त्वपूर्ण थे। 1886 में तो वे एक ऐसी मिल ख़रीदने का इरादा करने लगे, जो उस क्षेत्र के कई महारथियों के लिए हानिप्रद सिद्ध हुई थी। इस समय तक जमशेदजी 47 वर्ष के हो चुके थे। उन्होंने एक बेकार मिल को चलाने की चुनौती स्वीकार कर ली। 'राष्ट्रीय स्वदेशी आंदोलन' की शुरुआत का संकेत देने के लिए मिल का नाम 'स्वदेशी मिल्स' रखा गया था। भारतीय शेयर होल्डरों से इसे भारी समर्थन मिला। उन्होंने जमशेदजी के काम में खुशी-खुशी पूँजी लगायी।

मज़दूरों के चिंतक

एक उद्योगपति के रूप में जमशेदजी की प्रतिष्ठा बढ़ती जा रही थी। वे अपने उद्योग को जीवित रखने के संघर्ष में काफ़ी व्यस्त रहते थे और स्वास्थ्य की देखभाल के लिए समय नहीं निकाल पाते थे, फिर भी श्रमिकों के स्वास्थ्य के बारे में सोचने के लिए उनके पास काफ़ी समय था। गंदा पानी अक्सर बीमारी की जड़ होता है। इसलिए उन्होंने जल के शुद्धीकरण के लिए एक प्लांट भी लगवाया। अनाज की एक दुकान मज़दूरों के लिए खोली गई। इसके बाद उनके लिए एक अस्पताल भी खुल गया। वस्त्र उद्योग में उनके दो उद्यमों को कामयाबी मिल चुकी थी। लेकिन मुनाफे के लिए और ज़्यादा मिलें लगाने के बजाय उन्होंने एक अलग रास्ता चुना। वे भारत को बड़े पैमाने पर इस्पात और जलविद्युत देना चाहते थे, जबकि इन उद्यमों में अच्छा ख़ासा जोखिम था। ऊँचे दर्जे के प्रबंधन कुशलताओं की ज़रूरत थी और मुनाफे की गति भी दुखदायी रूप से बहुत ही कम थी।[1]

स्वामी विवेकानन्द से भेंट

जमशेदजी टाटा के साथ स्वामी विवेकानन्द का प्रथम साक्षात्कार उस समय हुआ, जब वह एक साधारण संन्यासी के रूप में बिना किसी परिचय पत्र के अमेरिका में आयोजित 'शिकागो धर्मसभा' में भाग लेने जा रहे थे। जापान के इयाकोहामा से वह जिस जहाज़ से यात्रा कर रहे थे, उसमें जमशेदजी टाटा भी थे। स्वामीजी ने जमशेदजी से कहा कि- "वे क्यों जापान से दियासलाई ख़रीद कर अपने देश में बेचते हैं और जापान को पैसा देते हैं। इसमें लाभांश तो कोई ख़ास होता नहीं। इससे अच्छा तो यही होता कि अपने ही देश में दियासलाई का कारखाना होता। इससे उन्हें लाभ भी काफ़ी होता, दस लोगों का भरण-पोषण भी होता और देश का रुपया देश में ही रह जाता।" लेकिन जमशेदजी ने उनको विभिन्न प्रकार की असुविधाओं की जानकारी देकर उनसे असहमति जाहिर की। उन दिनों टाटा की जापानी दियासलाई की देश में अत्यधिक माँग थी। 30 वर्ष का एक अनजान युवा साधु जमशेदजी जैसे एक विख्यात व्यवसायी को उपदेश दे रहा हो, यह घटना आश्चर्यजनक होते हुए भी स्वामीजी के प्रभावकारी व्यक्तित्व की तस्वीर प्रस्तुत करती है, क्योंकि अन्य जगहों की तरह यहाँ भी स्वामीजी को किसी परिचय पत्र की आवश्यकता कदापि नहीं हुई। इस संदर्भ में परवर्तिकाल में जमशेदजी ने सिस्टर निवेदिता से कहा था कि- "स्वामीजी जब जापान में थे, तब जो कोई उन्हें देखता बुद्ध से उनका सादृश्य पाकर आश्चर्यचकित रह जाता था।" इसके बाद जमशेदजी से स्वामीजी की भेंट फिर कब एवं कहाँ हुई, इस संदर्भ में ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी जब जापान में दियासलाई का कारखाना देखने गये थे, तब जमशेदजी से उनका प्रथम परिचय हुआ। स्वामी बलरामानन्द के अनुसार संभव है जापान के इयाकोहामा शहर में 'ओरियन्टल होटल रेस्टोरेंट' प्रवास के दौरान उनका प्रथम परिचय हुआ हो। जो भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी अमेरिकी यात्रा के दौरान इयाकोहामा से वेंकुलर तक की यात्रा में पानी के जहाज़ पर जमशेदजी से स्वामीजी की घनिष्ठता हुई थी।[3]

भारत में उच्च शिक्षा के पक्षधर

सन 1893 में बुद्ध स्वरूप स्वामी विवेकानन्द की शक्ति जब अमेरिका में प्रज्ज्वलित हुई तो 'शिकागो विश्वधर्म महासम्मेलन' के माध्यम से उस समय जमशेदजी भी उनकी तरफ़ आकृष्ट हुए थे। भारत में आने के बाद जब भारतीयों ने उन्हें श्रद्धा के सर्वोच्च स्थान पर बैठाया, तब भी स्वामीजी के प्रभाव से जमशेदजी अछूते नहीं रहे। उसके बाद उनके जीवन में अचानक एक बदलाव आया। वह भारत में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए एक प्रतिष्ठान स्थापित करने के उद्देश्य से किसी एक उपयुक्त रूप से सुसंगठित कमेटी के हाथों कुछ भू-सम्पत्ति देना चाहते थे। उन्होंने भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा की अग्रगति हेतु विचार करना शुरू किया। उन्होंने देश में छात्रों के शोध-कार्य हेतु शोध संस्थाओं की स्थापना एवं उसके लिए ग्रंथागारों की व्यवस्था, जहाँ पर छात्र प्रख्यात शिक्षकों के अधीनस्थ शोध कार्य कर सकें, आदि पर गहरा चिंतन प्रारंभ किया। अपने उपरोक्त प्रस्ताव के पूर्व उन्होंने यूरोप में प्राथमिक खोज-खबर ले ली थी तथा इंग्लैण्ड एवं अन्य विश्वविख्यात वैज्ञानिकों से सलाह मशवरा भी कर लिया था। जमशेदजी का यह प्रस्ताव उस समय आया, जब अंग्रेज़ शासित भारत में शिक्षा के प्रसार पर अंकुश लगाने की सरकारी व्यवस्था हो रही थी। भारत के शिक्षित समुदाय में जमशेदजी का यह प्रस्ताव गंभीर चिंतन का विषय बना। सचमुच यह एक साहसी कदम था।

अंग्रेज़ों की चाल

अंग्रेज़ भारत में उच्च शिक्षा के ख़िलाफ़ थे। वे अपना काम चलाने तक ही लोगों की शिक्षा को सीमित रखना चाहते थे। मौलिकता के साथ उस शिक्षा का कोई संबंधी नहीं था। देश की संपदा वृद्धि से भी इसका कोई सरोकार नहीं था। इन परिस्थितियों में जमशेदजी उच्च शिक्षा के लिए अर्थ सहायता देकर एक बहुत बड़ा साहसी कदम उठाने जा रहे थे, जिसे शिक्षित समाज ने काफ़ी सराहा। लेकिन जमशेदजी के इस प्रस्ताव को रोकने के लिए तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार बहुत ही चालाकीपूर्ण एवं निम्नश्रेणी के रवैये अपनाने से नहीं चूकी। लॉर्ड कर्ज़न ने जमशेदजी के इस प्रस्ताव के प्रति अपनी पूर्ण सहानुभूति जताते हुए कई मामलों में इसे सफल होने में संदेह जाहिर किया, जैसे- इसके लिए यथेष्ठ छात्र मिलेंगे या नहीं, शिक्षा समाप्ति के उपरान्त उन लड़कों को नौकरी मिलेगी या नहीं इत्यादि। सरकारी विरोध से जमशेदजी को बहुत धक्का लगा। सरकारी तौर पर इसमें और अधिक अर्थ की आवश्यकता बताई गई। अंत में हारकर जमशेदजी ने इस प्रस्ताव को वापस लेने पर विचार शुरू कर दिया, जबकि देश के सारे बुद्धिजीवी निराश होकर आंर्तनाद करने लगे, क्योंकि उनकी दृष्टि में भारत का विकास प्रौद्योगिक विकास पर बहुत हद तक आधारित था।[3]

स्वामी विवेकानन्द जमशेदजी के इस प्रस्ताव के बहुत ही आग्रही थे। वह व्याकुलता से अपने जीवन स्वप्न को रूपायित होते देखना चाह रहे थे। वह जानते थे कि इस देश का उत्थान केवल कृषि से ही संभव नहीं है, बल्कि औद्योगिकीकरण की भी आवश्यकता है। वह देश में शिल्प उद्योगों की स्थापना करना चाहते थे। वह सन्न्यासियों का एक दल बनाकर इस कार्य को आगे बढ़ाना चाहते थे, ताकि देश की जनता की आर्थिक दशा सुधरे। अमेरिका भारत में प्रचार के लिए धर्म शिक्षकों को न भेजकर शिल्प शिक्षकों को भेजे, आधुनिक भारतवर्ष में सामाजिकता एवं शिल्प शिक्षा की आवश्यकता है, ऐसा स्वामीजी ने अमेरिका में कहा था। हो सकता है कि स्वामीजी ने अपनी यात्रा के दौरान देश हितैषी व्यवसायी जमशेदजी को भारत में शिल्प-शिक्षा प्रदान करने की अपनी कल्पना से पूर्णरूपेण अवगत कराया हो और उसी के प्रभाव से जमशेदजी ने रिसर्च इंस्टीट्यूट खोलने की परिकल्पना की हो।

जमशेदजी का पत्र

विवेकानन्द जी के साथ पाँच वर्ष पूर्व हुई अपनी मुलाकात को ताजा करते हुए जमशेदजी टाटा ने उन्हें 23 नवम्बर, 1898 को एक पत्र लिखा था कि- "भारत में वैज्ञानिक शोध हेतु एक शोध संस्थान खोलने संबंधी मेरी परिकल्पना से आप अवश्य अवगत होंगे। इस संदर्भ में मैं आपके चिन्तन एवं भावधारा में जाने की बात गहराई से सोच रहा हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कुछ त्यागव्रती मनुष्य यदि आश्रम जैसे आवासीय स्थल में अनाडंबर जीवन यापन कर, प्राकृतिक एवं मानविक विज्ञान की चर्चा में अपने जीवन को उत्सर्ग कर दें तो इससे बड़ा त्याग का आदर्श और दूसरा नहीं हो सकता।" जमशेदजी ने यह समझा था कि उनकी परिकल्पना सिर्फ़ पैसे से साकार नहीं हो सकती, मनुष्य चाहिए और इस संबंध में मनुष्यों का आह्वान कर उन्हें जगाने में स्वामीजी ही सक्षम हो सकते हैं। अत: जनसाधारण के उन्नयन के लिए उन्होंने स्वामीजी से अग्निमय वाणी संकलित कर एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करने का आग्रह किया था, जिसका पूरा व्यय वह देने को तैयार थे।[3]

सर्वधर्म प्रेमी

इस्पात कारखाने की स्थापना के लिए स्थान का अंतिम रूप से चयन होने के ठीक पाँच साल पहले ही यानी 1902 में उन्होंने विदेश से अपने पुत्र दोराब को लिखा था कि- "उनके सपनों का इस्पात नगर कैसा होगा"। उन्होंने लिखा था कि- "इस बात का ध्यान रखना कि सड़कें चौड़ी हों। उनके किनारे तेजी से बढ़ने वाले छायादार पेड़ लगाये जाएँ। इस बात की भी सावधानी बरतना कि बाग़-बगीचों के लिए काफ़ी जगह छोड़ी जाये। फुटबॉल, हॉकी के लिए भी काफ़ी स्थान रखना। हिन्दुओं के मंदिरों, मुस्लिमों की मस्जिदों तथा ईसाईयों के गिरजों के लिए नियत जगह मत भूलना।"

मृत्यु

जमशेदजी टाटा ने 19 मई, 1904 को जर्मनी के बादनौहाइम में अपने जीवन की अंतिम साँसें लीं। अपने आखिरी दिनों में पुत्र दोराब और परिवार के नजदीकी लोगों से उन्होंने उस काम को आगे बढ़ाते रहने के लिए कहा, जिसकी उन्होंने शुरुआत की थी। उनके योग्य उत्तराधिकारियों ने काम को सिर्फ़ जारी ही नहीं रखा, बल्कि उसे फैलाया भी। जमशेदजी की मृत्यु के बाद सर दोराब टाटा, उनके चचेरे भाई जे. आर. डी. टाटा, बुरजोरजी पादशाह और अन्य लोगों ने टाटा उद्योग को आगे बढ़ाया। जमशेदजी ने कहा था कि- "अगर किसी देश को आगे बढ़ाना है तो उसके असहाय और कमज़ोर लोगों को सहारा देना ही सब कुछ नहीं है। समाज के सर्वोत्तम और प्रतिभाशाली लोगों को ऊँचा उठाना और उन्हें ऐसी स्थिति में पहुँचाना भी ज़रूरी है, जिससे कि वे देश की महान् सेवा करने लायक़ बन सकें।"[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 राष्ट्र निर्माण के प्रेणेताओं में अग्रणी थे- जमशेदजी टाटा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2 मार्च, 2013।
  2. ताजमहल होटल के निर्माण की रोचक कथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2 मार्च, 2013।
  3. 3.0 3.1 3.2 जब स्वामी विवेकानन्द जमशेदजी टाटा की प्रेरणा बने (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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