नाज़िश प्रतापगढ़ी

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नाज़िश प्रतापगढ़ी
नाज़िश प्रतापगढ़ी
पूरा नाम नाज़िश प्रतापगढ़ी
जन्म 24 जुलाई, 1924
जन्म भूमि प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 10 अप्रैल, 1984
मृत्यु स्थान लखनऊ
कर्म-क्षेत्र उर्दू शायर
पुरस्कार-उपाधि ग़ालिब पुरस्कार, मीर पुरस्कार
प्रसिद्धि मशहूर उर्दू शायर
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी मात्र 9 वर्ष कि छोटी आयु में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिए थे। ग़ालिब पुरस्कार और मीर पुरस्कार जैसे उर्दू साहित्य के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित।
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नाज़िश प्रतापगढ़ी (अंग्रेज़ी: Nazish Pratapgarhi, जन्म: 24 जुलाई, 1924, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश; मृत्यु: 10 अप्रैल, 1984, लखनऊ) उर्दू के सुप्रसिद्द शायरकवि थे। भारत भूमि से नाज़िश को विशेष लगाव था। देश के बंटवारे के बाद उनके माता-पिता, भाई-बहन आदि सभी पाकिस्तान चले गए, लेकिन नाज़िश ने भारत में ही रहना स्वीकार किया। हालांकि इस समय उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और वे तंगी हालात में जी रहे थे। नाज़िश प्रतापगढ़ी को 'साहित्य का हिमालय' कहा जाता है। उन्होंने अपने नाम के साथ 'बेल्हा' का नाम भी पूरी दुनिया में रोशन किया। उनके अब तक 12 संग्रह प्रकाशित हो चुके है और सभी पर उन्हें एवार्ड प्राप्त हुआ है। सन 1984 में नाज़िश को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के लिए उर्दू साहित्य के सर्वश्रेष्ठ सम्मान 'गालिब' से सम्मानित किया गया था।

जीवन परिचय

उर्दू शायरी कौमी एकता और गंगा-जमुनी तहजीब के अलम्बरदार अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि नाज़िश प्रतापगढ़ी प्रतापगढ़ जिले के सिटी कस्बे मे एक बड़े ज़मींदार परिवार में 22 जुलाई, 1924 को जन्मे थे। नाज़िश साहब जब कक्षा-9 में थे तभी से ‘‘हिन्दुस्तान छोड़ो आन्दोलन’’ शुरू हो गया। इन्होंने इसमें बढ़-चढकर भागेदारी की और उन्होंने देश की बंटवारे की मांग को ग़लत ठहराते हुए इसका विरोध किया और ‘‘एक राष्ट्र एक कौम’’ की बात पर बल दिया। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से भी इसका विरोध किया।

देशप्रेम

नाज़िश का यह जुर्म कि वह एक सच्चे राष्ट्रवादी थे, उनके लिए महंगा पड़ा। 1950 ई. में बंटवारे के बाद उनके भाई-बहन व माँ पाकिस्तान चले गये और जाने से पहले सारी ज़मीन-जायदाद व घर बेंच दिये और इनको पाकिस्तान चलने के लिए विवश करने लगे। उस समय नाज़िश बेरोज़गार थे और जीवन यापन करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। ऐसी परिस्थिति में परिवार का विरोध करके उन्होंने अपनी मातृभूमि भारत में ग़रीबी में ही रहना पसन्द किया, जो कि उनके देशप्रेम की अनूठी मिसाल है। उन्होंने खुद्दारी पर कभी ऑंच नहीं आने दिया और किसी काम के लिए किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया जबकि उनके प्रसंशकों में आम आदमी से लेकर देश के प्रधानमंत्रीराष्ट्रपति शामिल थे। पं. जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इन्दिरा गाँधी, ज्ञानी ज़ैल सिंह, लाल बहादुर शास्त्री, फ़खरुद्दीन अली अहमद, शंकरदयाल शर्मा, शेखअब्दुल्ला और इन्द्रकुमार गुजराल आदि उनके शायरी के ख़ास प्रसंशक रहे। नाज़िश प्रतापगढ़ी की कौमी एकता की शायरी के बारे में जनाब रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने लिखा है कि ‘‘नाज़िश के दौरे हाजिर के शायरों में अपने लिए ख़ास मुकाम पैदा कर लिया है ’’ उनकी कौमी शायरी देशभक्ति के जज्बात को उभारने में बेहद मद्द देती है।[1]

कैरियर

सन् 1983 मे नाज़िश साहब की एक पुस्तक का विमोचन करते हुए मशहूर शायर कैफी आजमी ने कहा था कि ‘‘नाज़िश की कौमी नज्में एक धरोहर हैं।’’ नाज़िश प्रतापगढ़ी को "साहित्य का हिमालय" कहा जाता है। उन्होंने अपने नाम के साथ बेल्हा का नाम भी पूरी दुनिया में रोशन किया। नाज़िश प्रतापगढ़ी के अब तक 12 संग्रह प्रकाशित हो चुके है और सभी पर उन्हें एवार्ड प्राप्त हो चुके है। सन् 1984 में देश के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने नाज़िश को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के लिए उर्दू साहित्य के सर्वश्रेष्ठ सम्मान ‘‘गालिब’’ सम्मान से सम्मानित किया। दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, चेन्नई, हैदराबाद, कश्मीर आदि देश के जगहों या स्थानों पर नाज़िश साहब मुशायरों में बडे अदब के साथ बुलाये जाते थे। नाज़िश मानवता व समाज के लिए रहनुमा उसूल बनाते रहे जिन पर चलकर मानवता अपनी मन्जिल पा सके। 10 अप्रैल, 1984 को लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में उनका निधन हो गया। मगर अफ़सोस इस बात का है कि ज़िले मे आज तक यादगार स्थापित नहीं की जा सकी है। ‘‘हद दर्जा भयानक है, तस्वीरे जहाँ नाज़िश। देखे न अगर इंसा, कुछ ख्वाब तो मर जाए।।’’[1]

प्रमुख रचना

नाज़िश के 12 काव्य संग्रहों का प्रकाशन हो चुका है। अवध विश्वविद्यालय में उनकी रचनाओं पर शोध भी हुआ और नाज़िश प्रतापगढ़ी शख्शियत उर्दू में प्रकाशित हुई।

सम्मान

दिल्ली के लाल क़िले के मुशायरे में नाज़िश प्रतापगढ़ी ने 1984 में जब अपनी लिखी लाइनें पढ़ीं तो देश के प्रथम नागरिक अपनी उमंगों पर काबू नहीं रख सके। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने उन्हें 'गालिब सम्मान' से नवाजा। यह और बात है कि जब उन्हें उर्दू शायरी के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया तो उसे ग्रहण करने के लिए वे जिंदा नहीं थे। नाजिम साहब 'ग़ालिब पुरस्कार' और 'मीर पुरस्कार' जैसे उर्दू साहित्य के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित हुए।[1]

दीपावली पर एक काव्य

उर्दू के विख्यात शायर नाज़िश प्रतापगढ़ी अपनी नज़्म 'दीपावली' में कहते हैं कि प्रकाश के इस त्योहार के अवसर पर हम अँधेरे से निकलने के लिए ईश्वर से विनती करते हैं, परंतु दिवाली की रात के बाद हम अपनी इस विनती को भूल जाते हैं। नाज़िश का अंदाज़ देखिए -

(1)

बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
कदम-कदम पर हज़ारों दीये जलाते हैं।
हमारे उजड़े दरोबाम जगमगाते हैं
हमारे देश के इंसान जाग जाते हैं।
बरस-बरस पे सफीराने नूर आते हैं
बरस-बरस पे हम अपना सुराग पाते हैं।
बरस-बरस पे दुआ माँगते हैं तमसो मा
बरस-बरस पे उभरती है साजे-जीस्त की लय।
बस एक रोज़ ही कहते हैं ज्योतिर्गमय
बस एक रात हर एक सिम्त नूर रहता है।
सहर हुई तो हर इक बात भूल जाते हैं
फिर इसके बाद अँधेरों में झूल जाते हैं।

एक जश्न के अवसर पर एक नया उर्दू शायर महबूब राही इन शब्दों में अपनी प्रसन्नता का इज़हार कर रहा है -

(2)

दिवाली लिए आई उजालों की बहारें
हर सिम्त है पुरनूर चिरागों की कतारें।
सच्चाई हुई झूठ से जब बरसरे पैकार
अब जुल्म की गर्दन पे पड़ी अदल की तलवार।
नेकी की हुई जीत बुराई की हुई हार
उस जीत का यह जश्न है उस फ़तह का त्योहार।
हर कूचा व बाज़ार चिराग़ों से निखारे
दिवाली लिए आई उजालों की बहारें।

(3)

फिर आ गई दिवाली की हँसती हुई यह शाम
रोशन हुए चिराग खुशी का लिए पयाम।
यह फैलती निखरती हुई रोशनी की धार
उम्मीद के चमन पे यह छायी हुई बहार।
यह ज़िंदगी के रुख़ पे मचलती हुई फबन
घूँघट में जैसे कोई लजायी हुई दुल्हन।
शायर के इक तखय्युले-रंगी का है समां
उतरी है कहकशां कहीं, होता है यह गुमां।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 ‘गालिब’ एवं ‘मीर’ सम्मान से सम्मानित हुए थे नाज़िश प्रतापगढ़ी (हिन्दी) (पी.एच.पी) Rainbow News। अभिगमन तिथि: 18 मई, 2012।

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