परंपरा और स्वतंत्रता (यात्रा साहित्य)

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परंपरा और स्वतंत्रता; छटपटाहट अभी बाकी है!

लेखक- सचिन कुमार जैन
          कच्छ के बन्नी अंचल का एक गांव है सैराड़ा। यहाँ जत समुदाय रहता है। ये मुसलमानों का ही एक वर्ग है। अब से लगभग 500 से 600 साल पहले पर्सिया और सिंध से आकर ये लोग यहाँ रहने लगे। इनमें तीन उपसमूह हैं – फकिरानी जत, गार्सिया जत, और धानेता जत। इन्हें मज़बूत लोग माना जाता है। जो मुसलमानों को रूढ़िवादी मानते हैं उनके लिए एक सूचना है। जत समुदाय के इस गांव में 400 सालों के इतिहास में किसी भी शादी में दहेज लेने और देने का काम नहीं हुआ है। इतना ही नहीं शादी में भी कोई दिखावा नहीं होता है। सिर्फ़ 30 किलो सींगदाना (मूंगफली) मेहमानों के लिए रखी जाती है और सब एक-एक मुट्ठी लेकर विवाह कार्यक्रम में शामिल होते हैं। शिकार करने की परंपरा भी उनमें नहीं है। ऐसा नहीं है कि किसी क़ानून से उन्हें कोई डर है। वे मानते हैं जानवरों-पशुओं के साथ ही मानव समाज का अस्तित्व सुरक्षित है। जब भी किसी परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु होती है तो हर परिवार उस परिवार को 500-500 रूपए देकर आर्थिक मदद करता है। सैराड़ा के एक प्रभावशाली साहब सोडा भाई जत 150 भैंसों को पालते हैं। वे 1979 से एक राजनीतिक दल, जो गुजरात में अभी सत्ता में है, के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, पर सत्ता के बारे में उनका विश्लेषण बहुत साफ़ है। 300 परिवारों का यह गांव योजना आयोग के मापदंडों पर तो ग़रीब नहीं ही हैं, पर कुछ दूसरे मापदंडों का यहाँ सन्दर्भ लिया जाना ज़रूरी है।
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          550 बच्चों के इस गांव में सातवीं कक्षा तक स्कूल है। अभी लगभग 120 बच्चे ही स्कूल जाते हैं। सैराड़ा में बच्चों को स्कूल भेजना शुरू करवाना भी एक चुनौती का काम रहा। सातवीं के बाद 40 किलोमीटर दूर घूरियावाली जाना पड़ता। जत एक ऐसा समुदाय है जिसमे महिलायें 3 इंच के व्यास वाली सोने की नथणी (नाक की बाली) पहनती हैं। संभवतः ये नथ एशिया में सबसे बड़ी मानी जाती है। इन महिलाओं के चित्र नहीं खींचे जा सकते हैं। सोडा भाई जत कहते हैं कि हमारी परंपरा को नकारात्मक तरीके से पेश किया जाता है, इसलिए जत महिलाओं के फोटो खींचे जाने को प्रतिबंधित कर दिया गया है। हमारे गांव में स्कूल बना, पर उसमें पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी, तब गांव के लोगों ने 400 फीट दूर से मुख्य जल आपूर्ति लाइन से पाईप डलवाया। गांव में बिजली की लाइन है, यदि ट्रांसफार्मर जल जाए तो गांव के लोग ही अपने खर्चे से उसका रख-रखाव करते हैं। स्वास्थ्य के मामले में हर महिला कहती है कि माँ बनना एक चुनौती है क्योंकि चार कांधों पर खाट रखके 21 किलोमीटर दूर स्वास्थ्य केंद्र जाते हैं। गुजरात में भी “108” स्वास्थ्य सेवा वाहन चलता है पर वह सैराड़ा नहीं आता है। इसके चलते रास्तों में भी प्रसव हो जाते हैं। कच्छ के भीतर बसे गांवों को अब भी बुनियादी और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं मयस्सर नहीं हैं। इसके चलते 4 महिलाओं और 6 बच्चों की मृत्यु हुई है। गुजरात सरकार सुरक्षित मातृत्व के लिए चिरंजीवी योजना चलाती है, जिसमे आर्थिक सहायता दिए जाने का प्रावधान है। पिछले एक साल में इस गांव में तीन महिलाओं को चिरेगा (चिरंजीवी) योजना के चेक मिले हैं, इन तीनों पर किसी ज़िम्मेदार अफ़सर के हस्ताक्षर ही नहीं हैं। वे सोडा भाई जत बताते हैं कि दस सालों में मैने अपनी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री से मिलने की 11 कोशिशें कीं, पर मैं उन तक पंहुच नहीं पाया। यह बात तो है कि वे हम जैसे लोगों से मिलते नहीं हैं।
          केवल सोडा भाई नहीं कहते, बल्कि अध्ययन भी बता रहे हैं कि गुजरात में महिलायें आर्थिक लाभ न मिलने पर भी अस्पताल में ही प्रसव करवाना चाहती हैं। बस उन्हें परिवहन, अस्पताल में गुणवत्तापूर्ण इलाज, दवाओं और जटिल प्रसव से निपटने वाली सेवाओं की दरकार है। गुजरात में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्रों को बढ़ावा दिया जा रहा है, इस स्थिति में ज़रूरत यह है कि निजी क्षेत्र को सुरक्षित प्रसव सेवाएं देने के लिए पाबन्द किया जाए।

यह भी सच है कि उनके आसपास एक परकोटा बना हुआ है जो ज़मीनी लोगों को उनसे मिलने नहीं देता। उनके कर्मचारी कहते हैं – आवेदन दे जाओ। इसके उलट सैराड़ा में उनके विपक्षी दल के लोगों और समुदाय के काम होते हैं; इन परिस्थितियों में भी 2100 की जनसँख्या में से 1500 मतदाताओं में से 1450 एक ख़ास राजनीतिक दल, जो अभी सत्ता में है, को ही को मत देते हैं। सवाल यह कि क्यों? क्योंकि सत्तारूढ़ दल (2013 में) का मानना है कि ये 1450 तो अपने ही हैं, हमें उन बाक़ी बचे लोगों का काम करना चाहिए ताकि दूसरे दल के लोग हमारे पास आ जाएँ। हमें यहाँ विपक्ष के अस्तित्व के खत्म करना है। हम उम्मीद करते रहे हैं कि ये हमारी बात सुनेंगे और हमारी मूल समस्याएं हल करेंगे। क्या हैं उनकी मूल समस्याएं? 400 साल से यह गांव बस हुआ है। इस गांव के 300 परिवारों में से एक के पास भी खेती की कोई जमीन नहीं है। इतना ही नहीं जमीन के जिन टुकड़ों पर वे रह रहे हैं उसका भी कोई कागज़ सरकार ने उन्हें नहीं दिया है। एक-एक घर 10 लाख रूपए से बनाया गया है, जब हम मातृत्व मृत्यु या कोई और काम न होने की बात करते हैं तो तालुका का अफ़सर कहता है कि क्यों आप लोग ये मामले उठा रहे हो; कुछ कहोगे तो सरकार भी पूछेगी कि क्या इस घर की जमीन पर आपके मालिकाने हक का कोई प्रमाण है? बस इसी तरह सरकार अपना आधिपत्य समाज पर बनाए हुए है।
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          हम अपनी कला और पशुधन के कारण ज़िन्दा हैं, नहीं तो सच बात यह है कि आप सरकार को अपना नहीं कह सकते हैं। कलकत्ता की फरीदा की शादी पांच साल पहले इस गांव में हुई। उन्होंने 3 इंच के व्यास वाली वह नाथ कभी नहीं पहनी और न ही समाज ने उन्हें मजबूर किया। फरीदा कहती हैं कि “यदि बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा की व्यवस्था हो जाए तो यहाँ महिलाओं की स्थिति भी बदल जायेगी; इस गांव के लोग भी दुनिया देखना चाहते हैं और बदलाव चाहते हैं। आज गांव के स्कूल में लड़कियाँ जाने लगी हैं, ज़रूरत यह है कि हमें मूल सुविधाएँ मिल पायें।” सोडा भाई जत भी सहमत हैं कि जो “लड़कियां पढ़ती-लिखती जा रही हैं, वो नथ के बंधन से तो आज़ाद हो ही जायेंगी।”
          गुजरात के बारे में जानने की रुचि मेरे लिए कई चौंकाने वाली बातें सामने ला रही है। आधुनिक विकास, आर्थिक विकास, मुख्यमंत्री जी की आभासी छवियों से प्रचार जैसे जुमले गुजरात के बारे में इतने आम रहे कि मैं मानने लगा था कि वहां आधिकारिक ई-गवर्नेंस आदि पर खूब काम हुआ होगा। अब पता चला कि आपको बच्चों के स्वास्थ्य, महिलाओं के स्वास्थ्य, राज्य के स्वास्थ्य बजट के बारे में और कई शोधों के बारे में वर्ष 2010 या 2011 की आधिकारिक जानकारियाँ ही उपलब्ध हैं। गुजरात सरकार की आधिकारिक वेबसाईट पर गुजरात सरकार की ताज़ा जानकारियाँ दर्ज नहीं हैं। जो सूचनाएं वो सरकार दे रही है, उसकी एक बानगी यह है। गुजरात स्वास्थ्य विभाग की वेबसाईट पर एक अध्ययन रिपोर्ट है। यह रिपोर्ट बताती है कि स्वास्थ्य योजनाओं के बारे में सरकारी रिकार्ड में दर्ज हितग्राहियों की सूची को जब जांचा गया तो उनमे से ज्यादातर लोगों को लाभ तो मिले ही नहीं थे। इस अध्ययन में 1445 ऐसे लोगों से बात की गयी, जिन्होंने परिवार नियोजन के स्थायी साधन अपना लिए थे; अध्ययन में पता चला कि इनमें से 501 ने ये साधन नहीं अपनाए हैं। केवल 15 प्रतिशत महिलाओं की प्रसव पूर्व देखभाल के तहत तीन जांचें हुई थीं। इतना ही नहीं, जिन लोगों को सरकारी अस्पताल में लाभ दिया जाना बताया गया है, उनमें से ज़्यादातर तो निजी अस्पताल में पैसा खर्च करके इलाज करवा रहे हैं। सन्दर्भ के लिए बता दूं कि उस रिपोर्ट या वेबसाईट पर यह कहीं दर्ज नहीं है कि यह अध्ययन कब किया गया था।!

{लेखक मध्यप्रदेश में रह कर सामाजिक मुद्दों पर अध्ययन और लेखन का काम करते हैं। उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है। इस आलेख के साथ दिए गए चित्र भी लेखक के द्वारा खींचे गए हैं।}

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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