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मणिकर्णिका घाट वाराणसी

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मणिकर्णिका घाट, वाराणसी

मणिकर्णिका घाट वाराणसी में स्थित गंगा नदी का एक घाट है।

  • इस घाट का निर्माण महाराजा, इंदौर ने करवाया है।
  • पौराणिक मान्यताओं से जुड़े मणिकर्णिका घाट का धर्मप्राण जनता में मरणोपरांत अंतिम संस्कार के लिहाज़ से अत्यधिक महत्त्व है।
  • इस घाट की गणना काशी के पंचतीर्थो में की जाती है।
  • मणिकर्णिका घाट पर स्थित भवनों का निर्माण पेशवा बाजीराव तथा अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था।
  • वाराणसी (काशी) में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, ये सभी घाट किसी न किसी पौराणिक या धार्मिक कथा से संबंधित हैं।
  • वाराणसी में लगभग 84 घाट हैं। ये घाट लगभग 4 मील लम्‍बे तट पर बने हुए हैं।
  • वाराणसी के 84 घाटों में पाँच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्‍हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थ' कहा जाता है। ये हैं असी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट।

कथा

मणिकर्णिका घाट, वाराणसी

शिव महापुराण के अनुसार इस पृथ्वी पर जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्गुण, निर्विकार तथा सनातन ब्रह्मस्वरूप ही है। अपने कैवल्य (अकेला) भाव में रमण करने वाले अद्वितीय परमात्मा में जब एक से दो बनने की इच्छा हुई, तो वही सगुणरूप में ‘शिव’ कहलाने लगा। शिव ही पुरुष और स्त्री, इन दो हिस्सों में प्रकट हुए और उस पुरुष भाग को शिव तथा स्त्रीभाग को ‘शक्ति’ कहा गया। उन्हीं सच्चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने अदृश्य रहते हुए स्वभाववश प्रकृति और पुरुषरूपी चेतन की सृष्टि की। प्रकृति और पुरुष सृष्टिकर्त्ता अपने माता-पिता को न देखते हुए संशय में पड़ गये। उस समय उन्हें निर्गुण ब्रह्म की आकाशवाणी सुनाई पड़ी– ‘तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए, जिससे कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।’ उसके बाद भगवान शिव ने तप:स्थली के रूप में तेजोमय पाँच कोस के शुभ और सुन्दर एक नगर का निर्माण किया, जो उनका ही साक्षात रूप था। उसके बाद उन्होंने उस नगर को प्रकृति और पुरुष के पास भेजा, जो उनके समीप पहुँच कर आकाश में ही स्थित हो गया। तब उस पुरुष (श्री हरि) ने उस नगर में भगवान शिव का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से वर्षों तपस्या की। तपस्या में श्रम होने के कारण श्री हरि (पुरुष) के शरीर से श्वेतजल की अनेक धाराएँ फूट पड़ीं, जिनसे सम्पूर्ण आकाश भर गया। वहाँ उसके अतिरकित कुछ भी दिखाई नहीं देता था। उसके बाद भगवान विष्णु (श्री हरि) मन ही मन विचार करने लगे कि यह कैसी विचित्र वस्तु दिखाई देती है। उस आश्चर्यमय दृश्य को देखते हुए जब उन्होंने अपना सिर हिलाया, तो उनके एक कान से मणि खिसककर गिर पड़ी। मणि के गिरने से वह स्थान ‘मणिकर्णिका-तीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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