मणिनागेश्वर शिवलिंग

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मणिनागेश्वर शिवलिंग जबलपुर, मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के उत्तर व दक्षिण तट पर स्थित है। इस शिवलिंग की स्थापना मणिधारक नाग ने भगवान शिव की उपासना के दौरान की थी। प्राचीन शिवलिंगों के रहस्य में मणिनागेश्वर शिवलिंग की भी बहुत महिमा है। यह माना जाता रहा है कि मणिधारक नाग नर्मदा के त्रिपुर तीर्थ उत्तर व दक्षिण तट पर ही रहते हैं। इसका उल्लेख भी स्कंदपुराण के 'रेवाखंड' में किया गया है।

कथा

नागराज की कथा के अनुसार महर्षि कश्यप एक सिद्ध महात्मा थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं- विनता और कद्रू। विनता के गर्भ से पक्षीराज गरुड़ और कद्रू के गर्भ से मणिनाग व अन्य सर्पों ने जन्म लिया था। एक दिन विनता और कद्रू ने भगवान सूर्य नारायण के रथ के घोड़ों को देखा। इस पर दोनों में शर्त लगी। विनता ने कहा कि घोड़ा सफ़ेद रंग का है, जबकि कद्रू बोली कि घोड़ा काला है। जब कद्रू ने अपने पुत्र सर्पों से कहा कि कुछ उपाय करो, जिससे घोड़े कुछ समय के लिए काले दिखाई दें। इस पर सभी सर्पों ने कहा कि हम गरुड़ की माता से झूठ नहीं बोलेंगे। इस बात पर कद्रू ने सर्पों को शाप दे दिया कि जो मेरी आज्ञा का पालन नहीं करेगा, वह मेरे क्रोध की अग्नि से जलकर भस्म हो जाएगा। माँ की आज्ञा की अह्वेलना के डर से कुछ सर्प तो घोड़े से लिपट गए और कुछ इधर-उधर भाग गए। मणिनाग ने माँ के क्रोध से बचने के लिए उत्तर तट पर भगवान शिव की उपासना की और जगत् के कल्याण के लिए शिव की आज्ञा से शिवलिंग की स्थापना की। उसी समय से इस शिवलिंग का नाम "मणिनागेश्वर" प्रसिद्ध हुआ।

पूजा से लाभ

मणिनागेश्वर में पंचमुखी नाग की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा कलचुरी कालीन है। यह माना जाता है कि इस शिवलिंग की पूजा से 'कालसर्प योग' से मुक्ति मिलती है। मणिनागेश्वर में शुक्ल पक्ष की पंचमी, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि में जो व्यक्ति यहाँ पर शिव की उपासना करता है, उसे कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है और उसे नागों का भय नहीं रहता। इसका उल्लेख 'नंदीगीता' व 'स्कंदपुराण' के नर्मदाखंड में है।


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