मुकेश

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मुकेश
Mukesh.jpg
पूरा नाम मुकेश चन्द्र माथुर
जन्म 22 जुलाई, 1923
जन्म भूमि दिल्ली, भारत
मृत्यु 27 अगस्त, 1976
मृत्यु स्थान संयुक्त राज्य अमरीका
पति/पत्नी सरल
संतान नितिन (पुत्र), रीटा और नलिनी (पुत्री)
कर्म भूमि मुम्बई
कर्म-क्षेत्र पार्श्वगायक
मुख्य फ़िल्में 'यहूदी', 'बन्दिनी', 'संगम', 'अंदाज़', 'मेरा नाम जोकर', 'आनन्द', 'कभी कभी', 'सत्यम शिवम सुन्दरम' आदि।
पुरस्कार-उपाधि 'राष्ट्रीय पुरस्कार' एक बार, 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' चार बार
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्ध गीत 'छोड़ गए बालम', 'जिंदा हूं इस तरह', 'दोस्त-दोस्त ना रहा', 'जीना यहां मरना यहां', 'कहता है जोकर', 'जाने कहां गए वो दिन', 'आवारा हूं', 'मेरा ना राजू', 'मेरा जूता है जापानी', 'ये मेरा दीवानापन है', 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना', 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार', 'मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने', 'कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है', 'सावन का महीना' आदि।
अन्य जानकारी मुकेश के पोते 'नील नितिन मुकेश' बॉलीवुड के चर्चित अभिनेता हैं।
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट

मुकेश (अंग्रेज़ी:Mukesh, पूरा नाम: 'मुकेश चन्द्र माथुर', जन्म- 22 जुलाई, 1923, दिल्ली; मृत्यु- 27 अगस्त, 1976) भारत में संगीत इतिहास के सर्वश्रेष्‍ठ गायकों में से एक थे। पेशे से एक इन्जीनियर के घर में पैदा होने वाले मुकेश चन्द माथुर के अन्दर वह सलाहियत थी कि वह एक अच्छे गायक बनकर उभरें, और हुआ भी यही। कुदरत ने उनके अंदर जो काबलियत दी थी, वह लोगों के सामने आई और मुकेश की आवाज़ का जादू पूरी दुनिया के सिर चढ़ कर बोला।

जीवन परिचय

मुकेश का जन्म 22 जुलाई, 1923 को दिल्ली में हुआ था। इनका विवाह 'सरल' के साथ हुआ था। मुकेश और सरल की शादी 1946 में हुई थी। मुकेश के एक बेटा और दो बेटियाँ हैं, जिनके नाम है:- नितिन, रीटा और नलिनी। मुकेश के पोते 'नील नितिन मुकेश' बॉलीवुड के चर्चित अभिनेता हैं। इनके पिता जोरावर चंद्र माथुर अभियंता थे। दसवीं तक शिक्षा पाने के बाद पी.डब्लु.डी. दिल्ली में असिस्टेंट सर्वेयर की नौकरी करने वाले मुकेश अपने शालेय दिनों में अपने सहपाठियों के बीच के. एल. सहगल के गीत सुना कर उन्हें अपने स्वरों से सराबोर किया करते थे किंतु विधाता ने तो उन्हें लाखों करोड़ों के दिलों में बसने के लिये अवतरित किया था। सो विधाता ने वैसी ही परिस्थितियाँ निर्मित कर मुकेशजी को दिल्ली से मुम्बई पहुँचा दिया। 

विवाह

1946 में मुकेश की मुलाकात एक गुजराती लड़की से हुई। नाम था बची बेन (सरल मुकेश)। सरल से मिलते ही मुकेश उनके प्रेम में डूब गए। हालांकि मुकेश कायस्थ थे। इस वजह से एक कड़ा प्रतिबंध सरल के परिवार से था, लेकिन मुकेश दोनों परिवारों के तमाम बंधनों की परवाह न करते हुए अपने जन्मदिन 22 जुलाई, 1946 को सरल के साथ शादी के अटूट बंधन में बंध गए। यहां एक बार फिर मोतीलाल ने उनका साथ देते हुए अपने तीन अन्य साथियों के साथ एक मंदिर में शादी की सारी रस्में पूरी कराई।[1]

दिनचर्या

मुकेश के बेटे नितिन मुकेश के अनुसार, वे प्रतिदिन 5 बजे सोकर उठते थे, भले ही वे 15 मिनट पहले ही सोने के लिए गए हों। एक-दो घंटे रियाज़ करने के बाद बगल के बगीचे में टहलते थे। वहां वह हर एक फूल को बड़े प्यार से देखते थे, मानो अपने किसी साथी से बातें कर रहे हों। वे भगवान श्रीराम के परम भक्त थे और प्रतिदिन सुबह रामचरित मानस का पाठ किया करते थे, जिसे वे हमेशा अपने पास रखते थे। मुकेश यह कतई नहीं चाहते थे कि नितिन मुकेश एक गायक बने। वे हमेशा कहते थे कि गायन एक सुंदर रुचिकर, मगर बड़ा कष्टदायक व्यवसाय है। वे प्रत्येक स्टेज शो की समाप्ति पर नितिन की तारीफ़ उनकी माता सरल मुकेश से किया करते थे और कहते थे, आज तो आपके साहबजादे ने अपने पापा से भी ज्यादा तालियां पा लीं। मुकेश को अपने दो गीत बेहद पसंद थे- "जाने कहां गए वो दिन...." और "दोस्त-दोस्त ना रहा..।"[1]

फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश

मुकेश की आवाज़ की खूबी को उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने तब पहचाना, जब उन्होंने उन्हें अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिये रियाज़ का पूरा इन्तज़ाम किया। सुरों के बादशाह मुकेश ने अपना सफ़र 1941 में शुरू किया। 'निर्दोष' फ़िल्म में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ-साथ गाने भी खुद गाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'माशूका', 'आह', 'अनुराग' और 'दुल्हन' में भी बतौर अभिनेता काम किया। उन्होंने सब से पहला गाना "दिल ही बुझा हुआ हो तो" गाया था। इसमें कोई शक नहीं कि मुकेश एक सुरीली आवाज़ के मालिक थे और यही वजह है कि उनके चाहने वाले सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं, बल्कि अमरीका के संगीत प्रेमियों के दिलों को भी ख़ुश करते थे। के. एल. सहगल से मुतअस्सिर मुकेश ने अपने शरूआती दिनों में उन्हीं के अंदाज़ में गाने गाए। मुकेश का सफर तो 1941 से ही शुरू हो गया था, मगर एक गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला गाना 1945 में फ़िल्म 'पहली नजर' में गाया। उस वक्त के सुपर स्टार माने जाने वाले 'मोती लाल' पर फ़िल्माया जाने वाला गाना 'दिल जल्ता है तो जलने दे' हिट हुआ था।

प्रसिद्धि

शायद उस वक्त मोतीलाल को उनकी मेहनत भी कामयाब होती नज़र आई होगी। क्योंकि वह ही वह जौहरी थे, जिन्होंने मुकेश के अंदर छुपी सलाहियत को परखा था और फिर मुम्बई ले आए थे। के. एल. सहगल की आवाज़ में गाने वाले मुकेश ने पहली बार 1949 में फ़िल्म 'अंदाज़' से अपनी आवाज़ को अपना अंदाज़ दिया। उसके बाद तो मुकेश की आवाज़ हर गली हर नुक्कड़ और हर चौराहे पर गूंजने लगी। 'प्यार छुपा है इतना इस दिल में, जितने सागर में मोती' और 'ड़म ड़म ड़िगा ड़िगा' जैसे गाने संगीत प्रेमियों के ज़बान पर चलते रहते थे। इन्हें गीतों ने मुकेश को प्रसिद्धि की ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया।

अभिनय की इच्छा

मुकेश के दिल के अरमान अदाकार बनने के थे और यही वजह है कि गायकी में कामयाब होने के बावजूद भी वह अदाकारी करने के इच्छुक थे। उन्होंने यह किया भी, मगर एक के बाद एक तीन फ़्लॉप फ़िल्मों ने उनके सपने को चकनाचूर कर दिया और मुकेश यहूदी फ़िल्म के गाने में अपनी आवाज़ देकर फिर से फ़िल्मी दुनिया पर छा गए।

केएल सहगल का प्रभाव

मुकेश ने उस जमाने के बहुचर्चित गायक के. एल. सहगल की गायन शैली की छत्रछाया में रहकर अपने गायन की शुरूआत की थी। मिसाल के तौर पर उनका पहला हिट गीत- दिल जलता है तो जलने दे... था। इस गीत ने उनको मशहूर पार्श्वगायक बनाया। संगीतकार थे अनिल विश्वास। आगे चलकर अनिल विश्वास ने ही मुकेश की गायन शैली को एक नई पहचान दी। दरअसल मुकेश की गायन शैली केएल सहगल से इतनी मिलती-जुलती थी कि कई बार तो संगीत प्रेमियों में वाद-विवाद छिड़ जाता था कि इस गाने का असली गायक कौन है। मुकेश की आवाज़ में छिपा दर्द, उस समय के दर्द भरे फिल्मी गीतों के लिए पूर्ण रूप से सटीक होता था, जिससे भारतीय श्रोता बड़े चाव से सुनते थे। सन् 1948 में संगीतकार नौशाद मुकेश से मिले और उनसे कई गीत गवाए। इन गीतों में, भूलने वाले याद ना आना..., तू कहे अगर..., झूम-झूम के नाचो आज..., टूटे ना दिल टूटे ना..., हम आज कहीं दिल खो बैठे....आदि उल्लेखनीय हैं। इन गीतों से मुकेश की आवाज़ दिलीप कुमार के लिए बहुत चर्चित हो गई।[1]  

राजकपूर-मुकेश की जोड़ी

मुकेश को पहला मौका मिला राजकपूर को अपनी आवाज़ देने का केदार शर्मा निर्मित, निर्देशित और लिखिल फिल्म 'नीलकमल' (1947) में। इसी दौरान नौशाद ने मुकेश को अपनी गायन की एक अलग शैली विकसित करने की सलाह दी, जिससे मुकेश की अपनी एक अलग पहचान हो। फिल्म आग के बाद मुकेश राज कपूर की आवाज़ बन गए। यह दो जिस्म और एक जान का अनूठा संगम था। मुकेश तो पहले से ही राज के लिए फिल्म नीलकमल में- आंख जो देखे... गा चुके थे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का आखिरी गीत- चंचल, शीलत, निर्मल कोमल... भी राजकपूर की सत्यम, शिवम, सुदंरम फिल्म के लिए रिकॉर्ड करवाया। यह गीत उन्होंने अमेरिका के लिए रवाना होने से कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड करवाया था। राजकपूर-मुकेश की जोड़ी ने एक-दूसरे की ज़रूरत बनकर सेल्युलाइड के इतिहास में मिसाल कायम की। 1949 से इस जोड़ी ने न जाने कितने अनगिनत यादगार गीत दिए। जैसे छोड़ गए बालम...., जिंदा हूं इस तरह..., रात अंधेरी दूर सवेरा..., दोस्त-दोस्त ना रहा..., जीना यहां मरना यहां..., कहता है जोकर...., जाने कहां गए वो दिन... आदि गीत हिंदी सिनेमा के सदाबहार नगमों में शामिल हैं। इसके अलावा आवारा हूं..., मेरा ना राजू..., मेरा जूता है जापानी..., मेरे मन की गंगा..., ओ मेहबूबा..., सरीखे गीत उनकी एक अलग प्रतिभा का उदाहरण हैं। लेकिन उनको सामान्यतया दर्द भरे गीतों का जादूगर माना जाता रहा। राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों की आवाज़ थे मुकेश। कभी तो ऎसा लगता है मानो जैसे ईश्वर ने मुकेश को राजकपूर के लिए ही बनाया है या फिर राजकपूर मुकेश के लिए बने हैं। मुकेश के निधन की खबर सुनकर राज सन्न रह गए और उनके मुंह से निकल पड़ा- मैंने अपनी आवाज़ खो दी।[1]

दर्द का बादशाह

मुकेश ने गाने तो हर किस्म के गाये, मगर दर्द भरे गीतों की चर्चा मुकेश के गीतों के बिना अधूरी है। उनकी आवाज़ ने दर्द भरे गीतों में जो रंग भरा, उसे दुनिया कभी भुला नहीं सकेगी। "दर्द का बादशाह" कहे जाने वाले मुकेश ने 'अगर ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से', 'ये मेरा दीवानापन है' (फ़िल्म यहुदी से), 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना' (फ़िल्म बन्दिनी से), 'दोस्त दोस्त ना रहा' (फ़िल्म सन्गम से), जैसे गानों को अपनी आवाज़ के जरिए दर्द में ड़ुबो दिया तो वही 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार' (फ़िल्म अन्दाज़ से), 'जाने कहाँ गये वो दिन' (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से), 'मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने' (फ़िल्म आनन्द से), 'कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है' (फ़िल्म कभी कभी से), 'चन्चल शीतल निर्मल कोमल' (फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुन्दरम्' से) जैसे गाने गाकर प्यार के एहसास को और गहरा करने में कोई कसर ना छोड़ी। यही नहीं मकेश ने अपनी आवाज़ में 'मेरा जूता है जापानी' (फ़िल्म आवारा) जैसा गाना गाकर लोगों को सारा गम भूल कर मस्त हो जाने का भी मौका दिया। मुकेश द्वारा गाई गई 'तुलसी रामायण' आज भी लोगों को भक्ति भाव से झूमने को मजबूर कर देती है। क़रीब 200 से अधिक फ़िल्‍मो में आवाज़ देने वाले मुकेश ने संगीत की दुनिया में अपने आपको 'दर्द का बादशाह' तो साबित किया ही, इसके साथ साथ वैश्विक गायक के रूप में अपनी पहचान भी बनाई। 'फ़िल्‍म फ़ेयर पुरस्‍कार' पाने वाले वह पहले पुरुष गायक थे।

आवाज़ बनी दवा

दर्द भरे नगमों के बेताज बादशाह मुकेश के गाए गीतों में जहां संवेदनशीलता दिखाई देती है वहीं निजी ज़िंदगी में भी वह बेहद संवेदनशील इंसान थे और दूसरों के दुख-दर्द को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास करते थे। एक बार एक लड़की बीमार हो गई। उसने अपनी माँ से कहा कि अगर मुकेश उन्हें कोई गाना गाकर सुनाएं तो वह ठीक हो सकती है। माँ ने जवाब दिया कि मुकेश बहुत बड़े गायक हैं, भला उनके पास तुम्हारे लिए कहां समय है। अगर वह आते भी हैं तो इसके लिए काफ़ी पैसे लेंगे। तब उसके डॉक्टर ने मुकेश को उस लड़की की बीमारी के बारे में बताया। मुकेश तुरंत लड़की से मिलने अस्पताल गए और उसे गाना गाकर सुनाया। और इसके लिए उन्होंने कोई पैसा भी नहीं लिया। लड़की को खुश देखकर मुकेश ने कहा “यह लड़की जितनी खुश है उससे ज्यादा खुशी मुझे मिली है।”[2]

पुरस्कार

  • 1959 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सब कुछ सीखा हमनें (अनाड़ी)
  • 1970 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सबसे बड़ा नादान वही है (पहचान)
  • 1972 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- जय बोलो बेइमान की जय बोलो (बेइमान)
  • 1974 - नेशनल पुरस्कार- कई बार यूँ भी देखा है (रजनी गंधा)
  • 1976 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है (कभी कभी)

निधन

मुकेश का निधन 27 अगस्त, 1976 को दिल का दौरा पड़ने के कारण संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ। मुकेश के गीतों की चाहत उनके चाहने वालों के दिलों में सदा जीवित रहेगी। उनके गीत हम सबके लिए प्रेम, हौसला और आशा का वरदान हैं। मुकेश जैसे महान् गायक न केवल दर्द भरे गीतों के लिए, बल्कि वो तो हम सबके दिलों में सदा के लिए बसने के लिए बने थे। उनकी आवाज़ का अनोखापन, भीगे स्वर संग हल्की-सी नासिका लिए हुए न जाने कितने संगीत प्रेमियों के दिलों को छू जाती है। वो एक महान् गायक तो थे ही, साथ ही एक बहुत अच्छे इंसान भी थे। वो सदा मुस्कुराते रहते थे और खुशी-खुशी लोगों से मिलते थे। इनके निधन पर राज कपूर ने कहा था- मेरी आवाज़ और आत्मा दोनों चली गई।

बड़े शौक़ से सुन रहा था जमाना हमीं सो गये दास्ताँ कहते- कहते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 जाने कहां गए वो दिन... (हिंदी) डेली न्यूज। अभिगमन तिथि: 22 जुलाई, 2013।
  2. जब मुकेश के गाने से ठीक हो गई बीमार लड़की! (हिंदी) इन डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 22 जुलाई, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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