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ययाति

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ययाति महाराज नहुष के द्वितीय पुत्र थे। पत्नी देवयानी के दो पुत्र यदु और तुर्वसु और शर्मिष्ठा के तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु और पुरु हुये। शुक्राचार्य जी के श्राप से वृद्धावस्था आ जाने पर भी विषयों को भोगने की इच्छा बनी हुई थी इसलिये शुक्राचार्य जी ने कहा अगर पुत्र अपनी जवानी दे दें तो विषय सुख भोग सकते हैं। यदु आदि ने जब जबाब दे दिया तो पिता ने श्राप दिया कि लोग पैतृक राज्याधिकार से वंचित रहोगे। सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की आज्ञा का पालन किया जिससे उसे राज्याधिकार दिया गया। सहस्त्र वर्ष बीत जाने पर राजा को वैराग्य हो गया क्योंकि 'बुझे न काम अगिनि तुलसी कहुँ विषय भोग बहु घी ते।' वे पुरु को जवानी लौटाकर वन में चले गये। स्वर्ग में जाने पर अपने मुख से पुण्यों का बखान करने पर इन्द्र ने स्वर्ग से गिरा दिया। क्योंकि पुण्यों का बखान करने पुण्य क्षीण हो जाते हैं। तत्पश्चात् कन्या माधवी के पुत्र अष्टक जो वेदवेत्ता ॠषि थे। अष्टक के पुण्यफल से राजा ययाति पुनः स्वर्ग में पहुंच गये।


एक बार दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। उनके साथ में गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी भी थी। शर्मिष्ठा अति मानिनी तथा अति सुन्दर राजपूत्री थी किन्तु रूप लावण्य में देवयानी भी किसी प्रकार कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान शंकर को आते देख वे सभी कन्याएँ लज्जावश से दौड़ कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिये। इस पर देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, "रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।" देवयानी ने शर्मिष्ठा को इस प्रकार से और भी अनेक अपशब्द कहे। देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएँ में धकेल दिया । देवयानी को कुएँ में धकेल कर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् दैववश राजा ययाति शिकार खेलते हुये वहाँ पर आ पहुँचे। अपनी प्यास बुझाने के लिये वे कुएँ के निकट गये और उस कुएँ में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। उन्होंने देवयानी के देह को ढँकने के लिये अपना दुपट्टा उस पर डाल दिया और उसका हाथ पकड़कर उसे कुएँ से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, "हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूँ। हे वीरश्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूँ किन्तु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिये आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिये।" ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।


देवयानी वहाँ से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किये हुये कर्म पर शुक्राचार्य को अत्यन्त क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गये। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से अनुनय-विनय करने लगे। इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने से शुक्राचार्य का क्रोध कुछ शान्त हुआ और वे बोले, "हे राजन्! मुझे तुमसे किसी प्रकार की अप्रसन्नता नहीं है किन्तु मेरी पुत्री देवयानी अत्यन्त रुष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं पुनः तुम्हारा साथ देने लगूँगा।" वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिये उससे कहा, "हे पुत्री! तुम जो कुछ भी माँगोगी मैं तुम्हें वह प्रदान करूँगा।" देवयानी बोली, "हे दैत्यराज! मुझे आपकी पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में चाहिये।" अपने परिवार पर आये संकट को टालने के लिये शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया। शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। कुछ काल उपरान्त देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्रोत्पत्ति की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्य, अनु तथा पुरु हुये। जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के सम्बंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई।


शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, "रे ययाति! तू स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि तथा क्रूर है। इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।" उनके शाप से भयभीत हो राजा ययाति अनुनय करते हुये बोले, "हे ब्रह्मदेव! आपकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुये अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है।" तब कुछ विचार कर के शुक्रचार्य जी ने कहा, "अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।"


इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, "वत्स यदु! तुम अपने नाना के द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो।" इस पर यदु बोला, "हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। इसलिये मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।" ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की माँग की किन्तु सबसे छोटे पुत्र पुरु को छोड़ कर अन्य पुत्रों ने उनकी माँग को ठुकरा दिया। पुरु अपने पिता को अपनी युवावस्था सहर्ष प्रदान कर दिया। पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, "तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूँ। मैं तुझे शाप भी देता हूँ कि तेरा वंश सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।" (राजा ययाति के इसी पुत्र यदु के वंश में श्री कृष्ण का अवतार हुआ तथा शिशुपाल ने धर्मराज युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में ययाति के इसी शाप का उल्लेख किया था।)


राजा ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया।


वृहस्पति के पुत्र कच गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रह कर सञ्जीवनी विद्या सीखने आये थे। देवयानी ने उन पर मोहित होकर उनके सामने अपना प्रणय निवेदन किया था किन्तु गुरुपुत्री होने के कारण कच ने उसके प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर दिया। इस पर देवयानी ने रुष्ट होकर कच को अपनी पढ़ी हुई विद्या को भूल जाने का शाप दिया। कच ने भी देवयानी को शाप दे दिया कि उसे कोई भी ब्राह्मण पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा।

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