राजपूत

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राजपूत, (संस्कृत शब्द राजपुत्र, अर्थात (राजा का पुत्र) पैतृक गौत्रों के लगभग 1.2 करोड़ संगठित भू-स्वामी, जो मुख्यत: मध्य और उत्तर भारत, विशेषकर भूतपूर्व राजपूताना (राजपूतों की भूमि) में बसे हैं। राजपूत स्वयं को क्षत्रिय वर्ग का वंशज या सदस्य मानते हैं, लेकिन भारत में वे विभिन्न रजवाड़ों, जैसे गहलौत, कछवाहा से लेकर साधारण किसानों तक अत्यन्त विविध सामाजिक वर्गीकरण से सम्बन्धित है। ज़्यादातर इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि धर्मनिरपेक्ष सत्ता की प्राप्ति के बाद विजित राजपूत दल को स्वयं को राजपूत मानने का हक़ मिल जाता था। सम्भवत: मध्य एशिया के आक्रमणकारी और स्थानीय क़बीलाई लोगों के पैतृक गोत्रों का राजपूतों में इसी तरह से अंतमिश्रण हुआ है। पश्चिमोत्तर में कई मुस्लिम राजपूत भी हैं। एक समय में राजपूतों ने सामान्यत: पर्दा प्रथा अपना ली थी। उनके स्वभाव में अपने पूर्वजों के प्रति असीम गर्व और निजी प्रतिष्ठा के प्रति गहरा सम्मान शामिल है। वे अनुलोम विवाह (कन्या का विवाह उसके सामाजिक दर्जे से ऊँचे दर्जे में) करना पसन्द करते हैं।

इतिहास

राजपूतों का उदभव काल उत्तर और पश्चिमोत्तर भारत में पाँचवीं शताब्दी के मध्य से 'श्वेत हूणों (हेफ़्थलाइटों)' और सम्बद्ध जनजातियों के प्रभाव के कारण भारतीय समाज के विघटन से जुड़ा प्रतीत होता है। गुप्त साम्राज्य के विघटन (छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में) के बाद आक्रमणकारी सम्भवत: तत्कालीन समाज में घुलमिल गए, जिसका परिणाम पश्चिमोत्तर भारतीय समाज का वर्तमान स्वरूप है। सातवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु से लेकर 12वीं शताब्दी के अन्त में मुसलमानों की भारत विजय तक के लगभग 500 वर्षों के काल में भारतवर्ष के इतिहास में राजपूतों ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यह शब्द राजपूत्र का अपभ्रंश है। जनजातीय प्रमुखों और अभिजातों को हिन्दुओं के दूसरे वर्ण में, क्षत्रिय के रूप में स्वीकार किया गया, जबकि उनके अनुयायी, जैसे जाट और अहीर जनजातियों के आधार पर कृषक वर्ग में शामिल हो गए। कुछ आक्रमणकारियों के पुजारी ब्राह्मण (सर्वोत्तम जाति) बन गए। कुछ देशी जनजातियों, जैसे राजस्थान के राठौर और मध्य भारत के चन्देल और बुन्देलों ने राजपूतों का दर्जा प्राप्त कर लिया।

राजपूत

राजपूतों की शाखाएँ

पश्चात्यकालीन ग्रन्थों में राजपूतों की 36 शाखाओं का उल्लेख मिलता है। राजपूत सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी तथा अजमेर के निकट अग्नि-कुण्ड से उत्पत्ति का दावा करने वालों की श्रेणी में शामिल हैं। राजपूतों की मांस (गौमांस छोड़कर) खाने की आदत और अन्य गुण उनके विदेशी और आदिवासी मूल की ओर संकेत करते हैं। राजपूतों में परिहार, चौहान (चाहमान), सोलंकी (चालुक्य), परमार, तोमर, कलचुरि, गहड़वाल (गाहड़वाल, गहरवार या राठौर), राष्ट्रकूट और गुहिलोत (सिसोदिया) सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। वीरता, उदारता, स्वातंत्रय प्रेम, देशभक्ति जैसे सदगुणों के साथ उनमें मिथ्या कुलाभिमान तथा एकताबद्ध होकर कार्य करने की क्षमता के अभाव के दुर्गुण भी थे। मुसलमानों के आक्रमण के समय राजपूत हिन्दू धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के रक्षक बनकर सामने आते रहे।

जनश्रुतियाँ

राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किंचित विवाद है और यह इस कारण और भी जटिल हो गया है कि प्रारम्भ में राजन्य वर्ग और युद्धोपजीवी लोगों को क्षत्रिय कहा जाता था और राजपूत (राजपूत्र) शब्द का प्रयोग सातवीं शताब्दी के उपरान्त ही प्रचलित हुआ। जनश्रुतियों के अनुसार राजपूत उन सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी (सोमवंशी) क्षत्रियों के वंशज हैं, जिनकी यशोगाथा रामायण और महाभारत में वर्णित है। किन्तु अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुहिलोत या सिसोदिया शाखा, जिसमें मेवाड़ के स्वनामधन्य राणा हुए और जो अपने को रामचन्द्र जी का वंशज मानती हैं, वस्तुत: एक ब्राह्मण द्वारा प्रवर्तित हुई थी। इसी प्रकार गुर्जर-प्रतीहार शाखा भी, जो अपने को रामचन्द्र जी के लघु भ्राता लक्ष्मण का वंशज मानती है, कुछ अभिलेखों के अनुसार गुर्जरों से आरम्भ हुई थी, जिन्हें विदेशी माना जाता है और हूणों के साथ अथवा उनके कुछ ही बाद भारत में आकर गुजरात में बस गये थे। आभिलेखिक प्रमाणों से शकों और भारतीय राज्यवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध सिद्ध होते हैं।

विभिन्न नस्ल

शकों के उपरान्त जितनी भी विदेशी जातियाँ पाँचवीं और छठी शताब्दियों में भारत आईं, उनकों हिन्दुओं ने नष्ट न करके शकों और कुषाणों की भाँति अपने में आत्मसात् कर लिया। तत्कालीन हिन्दू समाज में उनकी स्थिति उनके पेशे के अनुसार निर्धारित हुई और उनमें से शस्त्रोपजीवी तथा शासक वर्ग क्षत्रिय माना जाकर राजपूत कहलाने लगा। इसी प्रकार भारत की मूल निवासी जातियों में 'गोंड, भर, कोल' आदि के कुछ परिवारों ने अपने बाहुबल से छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए। इनकी शक्ति और सत्ता में वृद्धि होने से तथा क्षत्रियोचित्त शासनकर्मी होने के फलस्वरूप इनकी भी गणना क्षत्रियों में होने लगी और वे भी राजपूत कहलाये। चंदेलों के गोंड राज परिवारों से, गहड़वालों के भरों से और राठौरों के गहड़वालों से घनिष्ठ वैवाहिक सम्बन्ध थे। सत्य यह है कि हिन्दू समाज में शताब्दियों तक जाति का निर्धारण जन्म और पेशे दोनों से होता रहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार क्षत्रियों अथवा राजपूतों का वर्ग वस्तुत: देश का शस्त्रोपजीवी तथा शासक वर्ग था, जो हिन्दू धर्म और कर्मकाण्ड में आस्था रखता था। इसी कारण राजपूतों के अंतर्गत विभिन्न नस्लों के लोग मिलते हैं।

मुग़लों की अधीनता

Blockquote-open.gif जनश्रुतियों के अनुसार राजपूत उन सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी (सोमवंशी) क्षत्रियों के वंशज हैं, जिनकी यशोगाथा रामायण और महाभारत में वर्णित है। किन्तु अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुहिलोत या सिसोदिया शाखा, जिसमें मेवाड़ के स्वनामधन्य राणा हुए और जो अपने को रामचन्द्र जी का वंशज मानती हैं, वस्तुत: एक ब्राह्मण द्वारा प्रवर्तित हुई थी। Blockquote-close.gif

नौवीं और दसवीं शताब्दी में राजपूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। 800 ई. से राजपूत वंशों का उत्तर भारत में प्रभुत्व था और बहुत से छोटे-छोटे राजपूत राज्य हिन्दू भारत पर मुस्लिम आधिपत्य के रास्तें में प्रमुख बाधा थे। पूर्वी पंजाब और गंगा घाटी में मुस्लिम विजय के बाद भी राजपूतों ने राजस्थान के दुर्गों और मध्य भारत के वन्य प्रदेशों में अपनी स्वतंत्रता क़ायम रखी। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी (शासनकाल,1296-1316) ने पूर्वी राजस्थान में चित्तौड़गढ़ और रणथम्भौर के दो महान् राजपूत दुर्गों को जीत लिया, लेकिन वह अपने नियंत्रण में नहीं रख सके। मेवाड़ के राजपूत राज्य ने राणा साँगा के नेतृत्व में अपनी प्रभुत्ता बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें मुग़ल बादशाह बाबर ने खानवा (1527) में पराजित कर दिया। बाबर के पोते अकबर ने चित्तौड़गढ़ और रणथम्भौर के क़िले जीत लिए (1568-69) और मेवाड़ को छोड़कर सभी राजस्थानी राजकुमारों के साथ एक समझौता किया। मुग़ल साम्राज्य की प्रभुता स्वीकार कर, ये राजकुमार दरबार तथा बादशाह की विशेष परिषद में नियुक्त कर लिए गए और उन्हें प्रान्तीय शासकों के पद व सेना की कमानें सौंपी गईं। हालाँकि बादशाह औरंगज़ेब (शासनकाल, 1658-1707) की असहिष्णुता से इस व्यवस्था को नुक़सान पहुँचा, लेकिन इसके बावजूद 18वीं सदी में मुग़ल साम्राज्य का पतन होने तक यह क़ायम रही।

शक्ति का नष्ट होना

राजपूतों ने मुसलमान आक्रमाणियों से शताब्दियों तक वीरतापूर्वक युद्ध किया। यद्यपि उनमें परस्पर एकता के अभाव के कारण भारत पर अन्तत: मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया, तथापि उनके तीव्र विरोध के फलस्वरूप इस कार्य में मुसलमानों को बहुत समय लगा। दीर्घकाल तक मुसलमानों का विरोध और उनसे युद्ध करते रहने के कारण राजपूत शिथिल हो गए और उनकी देशभक्ति, वीरता तथा आत्म-बलिदान की भावनाएँ कुंठित हो गईं। यही कारण है कि भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के विरुद्ध किसी भी महत्त्वपूर्ण राजपूत राज्य अथवा शासक ने कोई युद्ध नहीं किया। इसके विपरीत 1817 और 1820 ई. के बीच सभी राजपूत राजाओं ने स्वेच्छा से अंग्रेज़ों की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार करके अपनी तथा अपने राज्य की सुरक्षा का भार उन पर छोड़ दिया। स्वतंत्रता (1947) के बाद राजस्थान के राजपूत राज्यों का भारतीय संघ के राजस्थान राज्य में विलय कर दिया गया


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