हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति -डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव

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लेखक- डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव

संस्कृति ब्रह्म की भांति अवर्णनीय है। यह अत्यंत व्यापक और गंभीर अर्थ का बोधक है। नृविज्ञान में संस्कृति का अर्थ ‘समस्त सीखा हुआ व्यवहार’ होता है अर्थात वे सब बातें जो हम समाज के सदस्य होने के नाते सीखते हैं। इस अर्थ में संस्कृति शब्द परंपरा का पर्याय है। शरीर और आत्मा की भांति सभ्यता एवं संस्कृति जीवन की दो भिन्न प्रेरणाओं को व्यक्त करतीं हैं। सभ्यता जीवन का रूप है। संस्कृति उसका सौंदर्य है। सभ्यता का अर्थ है -समाया। समाज में रहने की योग्यता अर्थात सामाजिक समता, जो सामाजिक विधि निषेध पर जोर देती है। सभ्यता = सभा+कृ शब्द से बना है, जिसका मुख्यार्थ सभा में बैठने की योग्यता है। सभा में शिष्टाचार का पालन किया जाता है। सभ्यता का संबंध नागरिकता से भी है। संस्कृति शब्द अधिक व्यापक है। और विशुद्धि का द्योतक है। कृष्टि का उद्देश्य भी भूमि की प्राकृतिक अवस्था को शुद्ध करना ही है। संस्कृति बौद्धिक विकास की अवस्थाओं को सूचित करती है और सभ्यता का परिणाम शारीरिक और भौतिक विकास है। संस्कृति का अर्थ सम्यक कृति और संभूय कृति भी है। मनुष्य व्यष्टि के रूप में सम्यक कृति करता है। और संघशः संभूय कृति करता है। यों मनुष्य जीवन के दो पहलू होते हैं - एक वैयक्तिक और दूसरा सामाजिक जीवनश्। इन दोनों प्रकार के जीवनों में सम्यक कृति करनी है। जैसी प्रकृति होती है वैसी प्रवृत्ति होती है, जैसी प्रवृत्ति होती है वैसी सभ्यता बदलती रहती है। सभ्यता के अनुकूल संस्कृति परिणत होती है। संस्कृति का संबंध मुख्यतः मनुष्य की बुद्धि, स्वभाव, मन प्रवृत्तियों से होता है। पंडित नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में संस्कृति और सभ्यता का अंतर यों स्पष्ट किया है ;‘समृद्ध सभ्यता में संस्कृति का विकास होता है और उससे दर्शन, साहित्य, नाटक, कला, विज्ञान और गणित विकसित होते हैं। यों संस्कृति बौद्धिक उन्नति का पर्यायवाची है और सभ्यता भौतिक विकास का समानार्थी है। सभ्यता बाह्य क्रियात्मक रूप है, संस्कृति विचारधारा का परिणाम है।’
भारत की अपनी विशिष्ट संस्कृति है। यह जड़ एवं अपरिवर्तनशील है। ‘भा’ का अर्थ है प्रकाश। ‘भारत’ का अर्थ है प्रकाश में रत अर्थात दत्तचित्त होकर अनुष्ठान करने से संप्राप्त संस्कार-संपन्नता। यही भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति को समग्रता मे हिंदू संस्कृति से समीकृत किया जा सकता है। हमारा आग्रह यही है कि हिंदू संस्कृति इस देश की सबसे प्रधान और व्यापक संस्कृति है। मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं का जो व्यापक चित्र हिंदुओं के साहित्य में उपलब्ध होता है वैसा किसी दूसरी जाति या धर्म के साहित्य में नहीं। यह एक विशाल सांस्कृतिक धारा है, जिसे अनेक उपधाराओं मे पुष्ट एवं सम्पन्न किया है। इसलिए यह आभाणक लोक मे प्रसिद्ध है कि ‘संस्कृते संस्कृति रस्ति’ इति। यह ऋषिओं और मुनियों की संस्कृति है। इसके प्रवाह मे शक़, हूण, यवन, पठान, मुग़ल, अरब सबने अपनी अपनी उपधाराओं के जल मिलाए फिर भी पुण्य भागीरथी की तरह इसकी मूल धारा अविच्छिन्न है। सभी जल एक हो गया है। इसमें पश्चिम का विराट प्रवाह भी आ मिला है और इसमें समा पाया है। यों भारतीय संस्कृति सामाजिक संस्कृति का ज्वलंत उदाहरण है।

हिन्दी

सिंध नदी को सिंधु कहते थे। उसके आसपास की भूमि को ‘सिंधु’ कहते थे। हिंदी शब्द का संबंध संस्कृत शब्द ‘सिन्धु’ से माना जाता है।[1] यह सिंधु शब्द ईरानी में जाकर हिन्दू और फिर हिन्द हो गया ओर इसका अर्थ हुआ - सिंध प्रदेश। ‘हिन्द’ शब्द धीरे धीरे भारत का पर्यायवाची शब्द बन गया। इसी में ईरानी का ‘ईक’ प्रत्यय लगने से ‘हिन्दीक’ बना है जिसका अर्थ है ‘हिन्द का’। हिन्दी ‘हिन्दीक’ का तद्भव रूप है जिसका अर्थ है ‘हिन्द का’। यों यह विशेषण है जो संज्ञा के रूप में भाषा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा के रूप में हिन्दी के वास्तविक अस्तित्व में आने का समय 1000 ई. माना जाता है। यों सहस्त्र वर्षो की विपुल साहित्य राशि हिन्दी में विद्यमान है। जैसे संस्कृत प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति की वाहक रही, जन्म संस्कार से मृत्यु संस्कार तक के विधि निषेधपरक संस्कारों की माध्यम रही, वैसे ही भारत-भारती हिन्दी आधुनिक भारतीय जीवन की गतिविधियों की वाहक रही है, इसमें कोई संदेह नहीं। हिन्दी साहित्य में भारतीय जनजीवन के अनेक पहलुओं का विविध एवं वयापक चित्र उपलब्ध होता है। हिन्दी साहित्य में उपलब्ध विशेषताओं का उल्लेख रोमन लिपि में लिखित ‘हिन्दू’ शब्द के हिज्जे के अक्षरों के आधार पर किया जाता है। वे विशेषतायें निम्न प्रकार हैं:-

H History इतिहास
I Individual व्यक्ति
N Nature प्रकृति
D Divinity दिव्यता
U Unity समन्वय

भारतीय साहित्य में उक्त विशेषताओं का उल्लेख पाया जाता है, क्योंकि शताब्दियों से मध्य प्रदेश की संस्कृति परिलक्षित होती है, जो ‘लोके चव बेदे च’ रूप में वैदिक धारा के रूप में एवं लौकिक धारा प्राचीन काल से भारत में चलती आ रही है जो भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य में मुखरित है।

1 - इतिहास

इसका अर्थ है ‘ऐसा ही था’ या ऐसा ही हुआ। इतिहास में अतीत का उल्लेख होता है। और यथार्थ घटनाओं का समावेश किया जाता है। वैदिक विचारधारा ही वास्तविक भारतीय संस्कृति है। राजशेखर की दृष्टि में रामायण और महाभारत इतिहास के अन्तर्गत आते हैं। पुराणों में प्राचीन आख्यनों की विशेषता रही है। रामायण महाकाव्य है जो कर्मप्रधान है ‘महाभारत’ इतिहास है, जो ज्ञान प्रधान है। भागवत पुराण है जो भक्ति प्रधान है। ये तीनो भारतीय साहित्य के उपजीव काव्य हैं जिनमें भारतीय कवियों ने अपने विषय के लिए एवं काव्य शैली के लिए सतत स्फूर्ति ग्रहण की है और आज भी कर रहे हैं। तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’ समन्वय की विराट चेष्टा है। सबलसिंह चौहान नें दोहा चैपाइयों में महाभारत का अनुवाद किया था। ‘जय भारत’ महाभारत की कथा की हिन्दी रूपांतर है। ‘सूर सागर’ संस्कृत भागवत का अविकल अनुवाद नहीं है। यों भागवत भारतीय साहित्य के गीति काव्यों और प्रगति मुक्तकों का अक्षय स्रोत है। भारतवर्ष में रामायण, महाभारत एवं भागवत की कथा लंबी अवधि तक चलती रही है। इस विषय में सांस्कृति परंपराओं की अखंडता एवं सार्वदेशिकता आश्चर्यजनक है। हिन्दी के भक्त कवियों की सगुण साधना वैदिककाल से प्रवाहमान भक्ति का ही एक रूप था। अवतारवाद की कल्पना के साथ साथ भारत देश में सगुण भक्ति के व्यापक भक्ति-भाव को स्थान मिल गया है। और इसके विभिन्न रूप और प्रकार विकसित होने लगे थे। संत काव्यधारा के दार्शनिक, सांस्कृतिक आधार अनेक हैं, जिनमें से प्रमुखतया उल्लेखनीय हैं उपनिषद, शंकर का अद्वैत दर्शन, नाथ-पंथ, इस्लाम धर्म तथा सूफी दर्शन। संतों के चिंतन जीवन दर्शन एवं काव्यधारा पर उपनिषदों का व्यापक प्रभाव है। मुल्ला दाउद, जायसी, कुतुबन, मंझन, उसमान, शेख नबी आदि सूफी कवियों के काव्य तथा हिन्दू कवियों में नंददास, नारायणदास आदि की रचनायें, आध्यत्मिक प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में प्रमुख हैं। दक्खिनी हिन्दी मे भी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा विरचित आख्यान काव्य उपलब्ध होते हैं। निजामी मुल्ला बजही, गवासी, तबई आदि दक्खिनी हिन्दी के प्रमुख कवि हैं। रीतिकाल में विलासता पूर्ण उन्मुक्त प्रेम की अभिव्यक्ति अधिक हुई थी। रीतिकाल कवियों ने काव्य को शुद्ध कला के रूप में स्वीकार किया। भारतेंदु युग के कवियों में हिन्दी के प्रति राष्ट्र और समाज के प्रति अटूट निष्ठा थी। द्विवेदीयुगीन काव्य सांस्कृतिक पुनरत्थान, उदार राष्ट्रीयता, जागरण सुधार एवं उच्चादर्श का काव्य है। गुप्त जी की ख्याति का मुख्य कारण ‘भारत भारती’ है, जिसने हिन्दी भाषियों में जाति और देश के प्रति गर्व और गौरव की भावनाएं उद्दीप्त की है। ‘कामायनी’ में मानव सभ्यता के विकास का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। आध्यात्मिक सत्य पर पंत की आस्था बनी हुई है, किंतु वह भौतिक समृतिद्ध की अनिवार्यता को स्वीकार करती है। निराला में पुनर्जागरण के प्रभाव के फलस्वरूप प्राचीन भारतीय परंपरा के प्रति निष्ठा का भाव है। प्रसाद ने केवल भारतीय संस्कृति के गौरव गायन के लिए नाटकों की रचना की थी। प्रेमी जी ने भारतीय इतिहास के मुस्लिम को अपने नाटकों का मुख्य विषय बनाया और हिन्दू मुस्लिम एकता पर उनका ध्यान अधिक रहा। छायवादी कविता में राष्ट्रप्रेम और सांस्कृतिक गरिमा का चित्रण हुआ है। महादेवी की लौकिक संवेदनाएं रहस्यवाद से संबलित हैं। प्रगतिवादी कवि जन जीवन में सौंदर्य की खोज करते हैं। प्रयोगवादी कविता लघु मानव की हीनता एवं महत्ता का चित्रण करती है। नई कविता में क्षणों, अनुभूतियों का सच्चा प्रतिबिंब है। लोक जीवन की ओर नई कविता उन्मुख होती है। पंत कृत ‘लोकायतन’ में स्वाधीनता पूर्वोत्तर भारतीय जीवन की बांकी झाँकी है। आज की कविता में जीवन की विषम संवेदनाएं एवं बोध हैं। इसमें जीवन की विविध एवं गहरे रूप अंकित हैं। यों हिन्दी साहित्य के विकास में केवल युगीन चेतना का विकास ही नहीं वरन् पूर्ववर्ती परंपराओं का न्यूनाधिक योगदान रहा है।

2 - व्यक्ति

व्यष्टि और समष्टि का घनिष्ठ संबंध है। इसका दूसरा रूप है मानव और मानवता का संबंध। व्यक्ति स्वार्थी है पर परार्थ चिंतन में भी लगा रहता है। मानव अपने जीवन का उत्सर्ग परिवार की भलाई के लिए करता है। परिवार समाज की भलाई के लिए, समाज जाति की भलाई के लिए, जाति देश की भलाई के लिए तथा देश विश्व की भलाई के लिए, विश्व मानवता की भलाई के लिए उत्सर्ग करता है। मानवता का आधार है करुणा और मैत्री। दूसरों के दुःख को देखकर दुखी बनना करुणा है, दूसरों के सुखों को देखकर सुखी बनना मैत्री है। हिन्दी साहित्य का इतिहास आदि काल से ही मानवता का उन्नायक रहा है। आदिकालीन साहित्य जन जीवन की अनुभूतियों से अनुप्राणित है। यह भीड़ का साहित्य नहीं है। इसमें एक ओर नारी और युद्ध पर आधारित लोककाव्य की प्रवृत्तियां हैं, तो दूसरी ओर एक स्वतंत्र जाति के अहंकार की भावराशि है। गोरख वाणी में इंद्रिय-निग्रह, प्राण साधना, वैराग्य, मनः साधना, शून्य समाधि आदि व्यक्गित साधना का वर्णन है। इन विषयों में नीति और साधना की व्यापकता है। निगुर्ण भक्ति में गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। कबीर की दृष्टि में पंडित वही है जिसने प्रेम की ढाई अक्षर पढ़ लिए हैं। संत काव्य का प्ररणा स्रोत था - सामान्य मानव का हित साधन। अतः संत कवियों ने समाज कल्याण का मार्ग अपनाया। वैष्णव भक्ति का वैशिष्ट्य अनेक रूपों में हिन्दी साहित्य में प्रतिबिंबित हुआ। ‘रामचरितमानस’ में व्यक्ति और समष्टि का संतुलन दिखाया गया है। सूरदास पुष्टिवाद के उन्नायक थे। तुलसी के राम शील, शक्ति और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थे। सूफी साधना में भी गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है। सांसारिक प्रपच से ऊपर उठकर अलौकिक सत्ता की प्राप्ति के लिए साधना की आवश्यकता होती है। काम, क्रोध आदि सब साधना में अड़चनें डालते हैं। मुस्लिम कवियों में कुछ कवि सूफी मतानुयायी थे। सूफी साधना का विकास इस्लाम के परिधान में माना जाता है। सूफियों के लिए त्याग का बड़ा महत्व है। त्याग ही आत्मसमर्पण की भावना को उत्पन्न करता है। फना में साधक के गुण, कार्य और चेतना ईश्वर के गुण, कार्य एवं चेतना का रूप धारण करते हैं। प्रस्तुत युग में एक नवीन मानवतावादी दृष्टिकोण गृहीत हुआ, सामान्य मानव के गौरव की प्रतिष्ठा पहली बार इसी युग में हुई। छायावादी काव्य व्यक्तिनिष्ठ और कल्पनाप्रधान है। यह अनुभूति के स्तर पर मानव मात्र की एकता की स्थापना करने मे समर्थ हुआ है। ‘कामायनी’ में मनुष्य की अनुभूतियों, कामनाओं और आकाक्षाओं की अनेक रूपता का वर्णन है। छायावादी काव्य व्यक्तिनिष्ठ होने के साथ सामाजिकता से प्रतिबद्ध भी रहा है। प्रेम और मस्ती के कवियों में यथार्थ की अधिक सशक्त अभिव्यक्ति मुखरित हुई है। महादेवी ने सर्ववादी दर्शन को अपनाया है, जिसमें लोक कल्याण की भावना निहित है। प्रगतिवाद वर्तमान जन जीवन में सौंदर्य खोजता है। प्रयोगवादी कविता में हासोन्मुख मध्यवर्गी समाज का चित्रण है। ये मध्य वर्ग के व्यक्ति के मन के सत्यों का उदृघाटन करते हैं। नई कविता का नाम स्वतंत्रता के बाद लिखी गई कविताओं के लिए रूढ़ हो गया। नई कविता जीवन के प्रत्येक क्षण को सत्य मानती है। अतः नई कविता में क्षणों की अनुभूतियों का मार्मिक चि़त्रण है। आज की कविता में कुछ और विद्रोही पीढ़ी की कवितायें हैं। आज की कविता में एक ओर व्यक्तिगत पीड़ा का अंकन है, तो दूसरी ओर विषमता का विद्रोह करने का आक्रोश भी है।

3 -प्रकृति

भारत भूमि सुजला एवं सुफला है, अतः सुखदा एवं वरदा है। प्रकृति संस्कृति का मूलाधार है। प्रकृति तीन गुणों से बनती है। वे हैं - सत्व, रज एवं तम। भारत सात्विक गुण भावना प्रधान देश है, अतः यहां की संस्कृति उच्चतम एवं सुखमय होती है। इसी सात्विक गुण के कारण भारत में अनंत काल से आध्यात्मिकता का प्रचार एवं प्रसार हो रहा है। उपनिषद की अवतारणा इस देश में हुई है। यह ऋषि मुनियों की धर्मभूमि है। भारतीयों ने पृथ्वी को माता का पद प्रदान कर आदर भाव व्यक्त किया है। यों उसे हमने गरिमा प्रदान की है। इसलिए भारत के सामने नतमस्तक होकर अवनत होते हैं। हिन्दी साहित्य में प्रकृत के विभिन्न स्वरूप उभर आये हैं। वीरगाथाकालीन काव्यों में एक ओर भुजाओं को फड़काने वाले वीररस की व्यंजना है, तो दूसरी ओर श्रंगार की सहज सरसता दिखाई देती है। कहीं कहीं धार्मिक प्रवृत्तियों का सात्विक चित्रण भी मिलता है। रासोकारों ने प्रकृति के रमणीय चित्र प्रस्तुत करके भाव चित्रण को सौंदर्य प्रदान किया है। वसंत विकास में स्त्री पुरुष प्रकृत तीनों में प्रस्फुटित मदोन्मत्तता का चित्रण मिलता है। प्रेमाख्यान काव्यों में प्रकृति के विभिन्न दृश्यों एवं ऋतुओं का वर्णन है। मीरा, रहीम, रसखान आदि कवियों की रचनाओं में प्रकृति प्रेम उदात्त भूमि पर मिलता है। सेनापति का प्रकृति वर्णन शुद्ध आलम्बन का वर्णन है, जिसमें प्राकृतिक उपादान सजीव हो उठे हैं। प्रत्येक ऋतु में उठने वाले लोक मानस के सहज भाव छंदों में तरंगित हो उठते हैं। इनके ग्रीष्म एवं वर्षा के वर्णन सुंदर ही नहीं वरन् अत्यंत प्रभावशाली भी हैं। वृंद ने बसंत और हेमंत ऋतुओं का विषद वर्णन किया है। द्विजदेव का प्रकृति प्रेम स्वछंद है। प्रकृति सौंदर्य का स्वछंदतापूर्ण वर्णन भारतेंदुयुगीन कविता की अंगभूत विशेषता है। किंतु अधिकतर कवियों ने परंपरा निर्वहण ही किया है। द्विवेदी युग में प्रकृति स्वतंत्र रूप से काव्य का विषय बनीं। इस प्रकृति चित्रण में प्रकृति स्थूलता है एवं कल्पना वैभव का अभाव है। फिर भी उसमें ताजगी है, नवीनता है। छायावादी कवियों ने चेतन सृष्टि के विविध रूपों के सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है। इन्होंने प्राकृतिक चित्रण में सूक्ष्म, संश्लिष्ट एवं नवीन उद्भावनाएं की हैं। इनकी प्रकृतिगत दृष्टि में ताजगी और नवीनता है। यहां आकर जड़ और चेतन का द्वैत मिट गया है। महादेवी के अनुसार सृष्टि एक असीम सत्य की सौंदर्यमयी अभिव्यक्ति है, इसलिए सृष्टि के प्रति प्रेम और मूल सत्य के प्रति प्रेम में समानता है। ‘लोकायतन’ में जहां प्रकृति के चित्र आये हैं, वहां कविता बिंबात्मक एवं रससिक्त हो उठी है। नई कविता में प्रकृति की रंगमयता है। यों हिन्दी के कवि प्रकृति के अनेक विधि रूपों के साथ मनुष्य जीवन के विभिन्न स्वरूपों को चित्रित करनें में सक्षम रहे हैं। उनके पास प्रकृति के सौंदर्य को ग्रहण करने की ही नहीं, उससे अपनी अभिव्यंजना को समर्थ बनाने की प्रतिभा भी विद्यमान है।

4- दिव्यता

मनुष्य की विकसित अवस्था है। जगत गतिशील है। विकास गति सापेक्ष है। गति तीन प्रकार की होती है- अधः, ऊध्र्व और तिर्यक। अधोगति के लिये परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। अन्य दो गतियां सायास होती हैं। इन दो गतियो का विवेचन हिन्दी साहित्य में हुआ है। देव तीन प्रकार के होते हैं - दिव्य, अप्य तथा पार्थिव। मानव में इन देवों के अंश विद्यमान हैं। हाथ-पैर आदि इंद्रियां पार्थिव देवों में, मन मति आदि अप्य देवों में तथा मेधा प्रज्ञा आदि दिव्य देवों में परिगणित होते हैं। पवित्र मन दैवी कहलाता है। दैवी मन ही हमें दिव्य बुद्धि की ओर ले जाता है। मेधा महती शक्ति है। इससें दिव्यता आत्मसात् होती है। वह प्रज्ञा में स्थिर हो जाती है। देव प्रकाश के प्रेमी हैं। वे अंधकार से ज्योतिर्मय मार्ग की ओर चलते हैं। देव अमृत रूप हैं। देव की विशेषता दिव्यता है। ऐश्वर्य ईश्वर का भाव है। ऐश्वर्य के ऊपर दिव्यता है।। हिन्दी साहित्य में ऐश्वर्य एवं दिव्यता का उल्लेख अनुस्यूत है। मध्य युग के संत कवि ईश्वर की सत्ता और सर्वशक्तिमत्ता में अटूट विश्वास रखते थे। संत संप्रदाय विश्वधर्म है। इस विश्वधर्म का मूलाधार है हृदय की पवित्रता। प्रेमाख्यान धारा के कवि आध्यात्मिक प्रेम अर्थात् ईश्वरीय प्रेम का वर्णन करनें में कवि कर्म की सार्थकता मानते थे। सूफी संप्रदाय में आत्मा सदैव परमात्मा की प्राप्ति के लिए व्याकुल रहती है। इस व्याकुलता में ईश्वर का प्रेम ही उसका एक मात्र संबल है। मीरा, रहीम, रसखान, सेनापति आदि कवियों की रचनाओं में भक्ति, ईश्वर प्रेम जिस उदात्त भूमि पर मिलता है, वह अत्यन्त दुर्लभ है। मध्य युग में राम, कृष्ण एवं शिव भक्ति का प्रचार बड़े उत्साह और भावना के साथ हुआ। महादेवी ने मध्यकालीन रहस्य-साधना की परंपरा को स्वीकार किया और युगबोध के अनुरूप लोक मंगल की भावना को स्वीकार किया। और युगबोध के अनुरूप लोक मंगल की भावना को जोड़कर नए आयाम का उद्घाटन किया। डॉ. रामकुमार वर्मा की रचनाओं में सर्ववादी चेतना को व्यक्त करने का प्रयास दिखाई देता है।

5-समन्वय

भारतीय संस्कृति में समन्वय की विराट चेष्टा परिलक्षित होती है। भारतीय साहित्य इसका अपवाद नहीं है। संत काव्यों में समन्वय दृष्टि का स्वस्थ रूप से विकास हुआ था। अद्वैतवाद, वैष्णवधर्म, सिद्धों-नाथों की सरल सहज साधना आदि का समन्वय इन्होंने किया था। यह समन्वय भवना सर्वसुलभ होने के कारण सामाजिक स्तर पर भी सुलभ ग्राह्य बन गई थी। सूफी कवियों ने अपने काव्य के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय का प्रयास किया है। काव्य के माध्यम से भावात्मक एकता का यह प्रयास हिन्दी भक्ति साहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है। ‘रामचरितमानस’ समन्वय काव्य है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ‘उसमें केवल लोकशास्त्र का ही समन्वय नहीं है गार्हस्थ और वैराग्य का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण एवं काव्य का, भावावेश एवं चिंतन का समन्वय है। ‘रामरचरितमानस’ में आदि से अंत तक दो छोरों पर जाने वाली परा-कोटियों को मिलाने का प्रयत्न है।’ छायावादी कवियों ने भौतिक एवं आध्यात्मिक संस्कृतियों के समन्वय का यत्न किया है, यही नहीं व्यक्ति व्यक्ति और समाज में समन्वय का प्रयास किया है। रामनरेश त्रिपाठी ने इस सत्य का उद्घाटन किया है कि आध्यात्मिकता और सामाजिकता का समन्वय जीवन के चतुर्दिक विकास के लिए अनिवार्य है। राष्ट्रीय कवियों में भगवद्शक्ति और लोक कल्याण की भावनाओं में समन्वय का प्रयास दिखाई देता है। निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ में एक ऐतिहासिक प्रसंग के द्वारा धर्म और अधर्म के शास्वत संघर्ष का चित्रण किया है। पंत ने ‘स्वर्णकिरण’, ‘स्वर्णधूलि’, ‘लोकायतन’ आदि परवर्ती कृतियों में भौतिक वाद और आध्यात्मवाद का समन्वय ढूँढा है। महादेवी ने अनुभूति को विचार से समन्वित करने का प्रयास किया है। ‘आँसू’ में व्यक्तिगत निराशा एवं विश्व वेदना का सुदर संतुलन है। ‘कामायनी’ में नारी पुरुष का, धर्म एवं विज्ञान का, शास्त्र एवं लोक का, हृदय एवं बुद्धि का संतुलन अंकित है। दिनकर की कविता में संवेदना और विचार का बड़ा ही सुदर समन्वय दिखाई पड़ता है। सियारामशरण की कविता में करुणा और यातना का समन्वित रूप उभरा है। ‘उन्मुक्त’ आधुनिक संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है इसमें युद्ध और त्याग का, यातना एवं करुणा का समन्वय है। प्रेम और मस्ती के काव्य में व्यक्ति-चेतना एवं अहं केंद्रित भावना का समन्वय है। प्रेम जी ने अपने नाटकों में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया है और दोनों हृदयों को एक दूसरे के निकट लाने का प्रयास किया है।

निष्कर्ष

यों हिन्दी साहित्य साहित्यकारों की व्यक्तिगत प्रतिभा के बल पर, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परंपराओं की भित्ति पर युगीन परिस्थितियों, प्रवृत्तियों एवं चेतना से परिपुष्ट होकर, द्वंद्व से प्रेरित होकर गतिशील होता आया है, जिसका परम लक्ष्य संतुलन के स्थापर में निहित है। यह सच है कि हिन्दी मध्य प्रदेश की भाषा है। परंतु मध्य प्रदेश की भाषा ही भारत की सार्वभौमिक भाषा रही है। यह कोटि-कोटि जनों की अमुतवाणी है। फिर भी आज हिन्दी के तीन रूपों की चर्चा बड़े जोरों पर है - राष्ट्रभाषा, राजभाषा एवं संपर्क भाषा। पर आश्चर्य की बात है कि हिन्दी के किसी भी रूप का आज तक स्थिरीकरण नहीं हुआ है क्योंकि राजनीति का भूत इसका पीछा पर रहा है। आजकल भी इस मात्र क्षेत्रीय भाषा सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है। गाँधी जी का सपना था-

एक राष्ट्रभाषा हिन्दी हो,
एक हृदय हो भारत जननी।

यों हिन्दी भारतीय हृयय की वाणी है। यह भारत भारती है, जिसमें भारतीय आत्मा मुखरित हो रही है। आंध्र भारती, केरल भारती, तमिल भारती, कन्नड़ भारती आदि भारतीय भाषाओं की वाणी इसमें मुखरित हो यही हमारा दृढ़ संकल्प होना चाहिए। हिन्दीतर भाषाओं की पुस्तकों का अनुवाद लिप्यंतरण सहित हिन्दी में हो तो हिन्दी परिपुष्ट होगी। यह राष्ट्रीय प्रश्न है, भावतमक एकता का प्रश्न है। संकल्प शुद्धि का सात्विक परिणाम ही क्रिया सिद्धि है। हमें इस सिद्धि की प्राप्ति के लिए, तन, मन, धन से प्रयत्न करना चाहिए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डॉ. भोलानाथ तिवारी सिंधु शब्द की व्युत्पति द्रविड़ भाषा ‘चिंदु’ ( उछलना) से मानते हैं।

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32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
36. मारिशस का हिन्दी साहित्य डॉ. लता
37. हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा
38. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
39. नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य श्री सूर्यनाथ गोप
विविधा
40. तुलनात्मक भारतीय साहित्य एवं पद्धति विज्ञान का प्रश्न डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी
41. भारत की भाषा समस्या और हिन्दी डॉ. कुमार विमल
42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे