देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) -मोहनलाल सर

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लेखक- श्री मोहनलाल सर

          लिपि भाषा की अनिवार्यता नहीं है। यह मात्र एक दृश्यात्मक साधन है और भाषा को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है। इसके अतिरिक्त यह भाषा के ऐतिहासिक लेखा का भी एक साधन है कुछ भाषाओं मे लेखन लिपि की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है और कुछ भाषाओं ने इस वर्तमान शताब्दी में ही अपनाया है। अभी संसार की अनेक आदिवासी भाषाओं की कोई लेखन विधि नहीं है, हालांकि ईसाई मिशनरियों ने इस क्षेत्र में काफ़ी कार्य किया है और अनेक आदिवासी भाषाओं को रोमन लिपि में लिखना शुरु किया। जिन भाषाओं में लेखन विधि की पुरानी परंपरा है, उनमें भी वे लोग जो पढ़ना लिखना नहीं जानते, अपनी भाषा बोलने मे पूरी तरह से दक्ष होते है। अनुभव क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए ऐसे भाषा समुदायों के निरक्षरों की भाषा साक्षरों की भाषा से हीन नहीं होती। उन की भाषा भी साक्षरों की भाषा जितनी स्थिर, व्यवस्थित और संपन्न होती है।

भाषा और लिपि

          भाषा और लिपि का कोई अन्योन्याश्रित संबंध भी नहीं होता। अगर लिपि बदली जाती है तो भाषा में कोई परिवर्तन नहीं आता। तुर्की ने 1926 में अरबी लिपि के बदले रोमन लिपि अपनाई। लोगों की भाषा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ब्लूमफील्ड इस बात को समझाते हुए कहते हैं, ‘भाषा नहीं बदलती चाहे उसे किसी भी लेखन विधि से लिपिबद्ध किया जाए, जैसे व्यक्ति नहीं बदलता, चाहे उसका चित्र कैसे भी खींचा जाए।’ (1933: 21) भाषाओं का इतिहास तो मानव के इतिहास से जुड़ा हुआ है। मानव जितना पुराना है भाषा भी उतनी पुरानी हो सकती है, लेकिन लिपियों का इतिहास पांच-छः हजार वर्ष पुराना ही है। भाषा व्यक्ति के स्वभाव से जुड़ी होती है जबकि लिपि एक औपचारिक आवश्यकता है। एक ही लिपि में अनेक भाषाओ को लिखने की परंपरा भी काफ़ी समय से चली आ रही है। रोमन लिपि इसका एक उदाहरण है। पश्चिमी देशों की अधिकांश भाषाएं रोमन लिपि में ही लिखी जाती हैं इसी प्रकार एक भाषा को अनेक लिपियो में लिखने की परंपरा भी वर्तमान है। संस्कृत हजारों वर्षों से विभिन्न भारतीय लिपियों में लिखी जाती रही है।

लिपि की आवश्यकता

          लिपि चिन्ह भाषा की ध्वनि का एक दृश्यात्मक प्रतीक होता है। यदि भाषा की ध्वनियों को इन दृश्यात्मक प्रतीकों में उतारने की व्यवस्था न हो तो भाषा प्रयोजन के क्षेत्र सीमित हो जाते हैं, भाषा की प्रयोजन परकता का विकास नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए, अगर भाषा की कोई लेखन व्यवस्था नहीं है तो उसको शिक्षा के माध्यम की भाषा बनाना असंभव है। विभिन्न कार्य क्षेत्रो में भाषा के प्रयोग से ही भाषा की विभिन्न प्रयुक्तियों का विकास होता है। प्रयुक्तियों का विकास भाषा विकास के लिए अनिवार्य है। इसलिए भाषा के संदर्भ में लिपि की आवश्यकता निर्विदाद हो जाती है।

भारतीय संदर्भ

          भारतीय भाषाओं की विकास प्रक्रिया में लिपि चयन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। लिपि के निश्चित या स्थिर न होने की स्थिति में भाषा नियोजकों ने भाषा की इसी समस्या को प्राथमिकता दी और भाषा की ध्वनि व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए लेखन व्यवस्था का चयन किया। भारत में भाषाओं की तरह ही लिपियों की भी अनेकता है। हालांकि यह बात भी स्पष्ट है कि विभिन्न भारतीय लिपियों में चिन्ह व्यवस्था अलग अलग होते हुए भी, मूलतः इनमें समानताएं हैं। एक समानमता यह है कि, उर्दू और तमिल को छोड़कर शेष सभी लिपियों का वर्णक्रम एक जैसा है। पहले स्वर आते हैं और फिर व्यंजन। इन सभी लिपियों में व्यंजन उसी प्रकार वर्गों में विभक्त हैं; जैसे देवनागरी में। तमिल की वर्णमाला का क्रम भी देवनागरी की तरह स्वरों और व्यंजनों में विभक्त है, पर व्यंजनों का क्रम भिन्न है।
          उर्दू की वर्णमाला में स्वर और व्यंजन मिले हुए हैं। उर्दू वर्णमाला में वर्णों के नाम भी हैं। उदाहरण के लिए अगर ध्वनि ‘ज’ है तो लिपि चिन्ह का नाम ‘जीम’ और अगर ध्वनि ‘ज’ है तो लिपि चिन्ह का नाम ‘दाल’ है। अन्य भारतीय लिपियों में चिन्हों के नामों की ऐसी स्पष्ट व्यवस्था नहीं है।
          भारतीय लिपियों की एक और समानता रोमन लिपि से तुलना करने पर स्पष्ट होती है। रोमन लिपि में एक ही लिपि चिन्ह दो असंद्ध ध्वनियों का प्रतीक हो सकता है। उदाहरण के लिए ‘ब’ ‘क’ ध्वनिक का भी प्रतीक हो सकता है और ‘स’ ध्वनि का भी। ‘बनज’ शब्द में यह ‘क’ का और ‘City’ शब्द मे यह ‘स’ का प्रतीक है। ध्वनि शास्त्र की दृष्टि से ‘क’ और ‘स’ आपस में असंबद्ध ध्वनियां हैं।
          भारतीय लिपियों में यह समस्या नहीं है। एक ही लिपि चिन्ह कभी भी दो असंबद्ध ध्वनियों का प्रतीक नहीं होता। दूसरी बात यह है कि रोमन में लिपि भिन्न होने पर उच्चारण एक ही होने के अनेक उदाहरण हैं। ऐसे दो वाक्य भी हो सकते हैं जिनकी ध्वनि तो एक ही है पर लिपियां अलग-अलग। इस संदर्भ में हॉकेट (1973: 16) के दो प्रसिद्ध वाक्य प्रस्तुत हैं:
(1) the sons raise meat
(2) the suns rays meet
          यह समस्या अन्य लिपियों मे भी हो सकती है। किंतु इस सीमा तक व्यापक नहीं हो सकती जैसे कि रोमन में है। देवनागरी का एक ऐसा ही उदाहरण ‘कर्ता’ और ‘करता’ हो सकता है। जहां दोनों शब्दों का उच्चारण एक ही है पर लिपियां भिन्न हैं।
          भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जो 15 भाषाएं दी गई हैं, उनमे केवल सिंधी और कश्मीरी के लिए ही लिपि निर्धारण समस्या अधिक चर्चा का विषय रहा है। सरकारी तौर पर समस्या सुलझाई गई है और यह निर्णय लिया गया है कि सिंधी देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में लिखी जाएगी और कश्मीरी केवल उर्दू लिपि में। सिंधी का अपना कोई प्रदेश नहीं है, इसलिए उसके बारे मे केंद्रीय स्तर पर ही निर्णय लिए जाते हैं। कश्मीरी कश्मीर की भाषा है। कश्मीर में हिन्दी की अपेक्षा उर्दू का अधिक प्रभाव है, इसलिए कश्मीर के मानकीकरण के लिए उर्दू पर निर्भर रहना स्वाभाविक है। अधिकांश नए आगत शब्द भी उर्दू से ही लिए जाते रहे हैं। फलतः कश्मीर को उर्दू लिपि में सीखने का निर्णय प्रादेशिक सरकार के लिए स्वतः सिद्ध हो गया।

कश्मीर का लिपि इतिहास

          कश्मीर के लिपि इतिहास का सिंहावलोकन करने से पता चलता है कि अतीत में कश्मीरी को शारदा लिपि में लिखने की परंपरा थी। वर्तमान काल में प्रसिद्ध कश्मीरी कवि ग़ुलाम अहमद ‘महजूर’ ने इस लिपि के पुनर्जीवन की जोरदार सिफारिश की थी। आजकल इस लिपि का प्रयोग मात्र धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित रह गया है।
          शारदा के बाद कश्मीरी को उर्दू और देवनागरी दोनों लिपियों मे लिखने के प्रमाण हैं, हालांकि अधिकांश साहित्य उर्दू लिपि में ही लिखा जाता रहा है। उस समय कश्मीरी की विशिष्ट ध्वनियों को प्रकट करने के लिए उर्दू लिपि में कोई अतिरिक्त चिन्ह नहीं बनाए जाते थे। अनुमान मात्र से ही उन ध्वनियों का उच्चारण किया जाता था। देवनागरी में इन ध्वनियों के लिए कुछ चिन्ह निश्चित थे। 1881 में प्रकाशित ‘कश्मीरी शब्दामृतम’ मे इन चिन्हों का प्रयोग किया गया है।
          स्वतंत्रता के बाद उर्दू को औपचारिक रूप से कश्मीरी की लिपि स्वीकार करने पर इन विशिष्ट ध्वनियों के चिन्हों का भी निर्धारण कर लिया गया। अब लगभग 35 वर्षों से इन चिन्हों का प्रयोग हो रहा है, किंतु लिपि लोकप्रिय नहीं हो सकी है। रेडियो कश्मीरी, भाषा अकादमी और कश्मीर विश्वविद्यालय के कश्मीरी विभाग के अतिरिक्त इस लिपि का बहुत कम प्रयोग है। कश्मीर के सार्वजनिक स्थानों पर इस लिपि में सूचनाओं का सर्वथा अभाव रहता है। शायद लिपि की कठिनाई के कारण ही ये सूचनाएं कश्मीरी के बदले उर्दू में लिखने की प्रथा है। कश्मीर के सार्वजनिक परिवहन अड्डों पर प्रतिदिन हज़ारों कश्मीरी आते हैं। इन अड्डों पर कोई भी सूचना कश्मीरी में नहीं लिखी जाती। लिपि की दुरूहता के कारण ही कश्मीर के विभिन्न स्थानों के नामों को उर्दूकरण अथवा हिन्दीकरण किया जाता है और यही परिवर्तित नाम सार्वजनिक वाहनों आदि पर लिखे जाते हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
प्रचलित नाम       उर्दू-हिन्दीकृत नाम
हुदुवोर             हंदवाड़ा
बूंथ्यपोर             अवंतीपोर
बंर्डुपुर             बांडी पोरा
वर्रुमुल             बारामुल्ला

          कश्मीर में साक्षरता की भाषा भी कश्मीरी नहीं हो सकी है। जम्मू कश्मीर राज्य की राजभाषा उर्दू होने के कारण इस राज्य की साक्षरता की भाषा भी उर्दू ही है। मातृभाषा और साक्षरता की भाषा एक न होने से साक्षरता के आंदोलन की समस्या अधिक पेचीदा हो जाती है।
          साक्षरता की भाषा बनने के लिए भी लिपि के प्रचुर प्रचार की आवश्यकता होती है। जाहिर है कि कश्मीरी को इस संदर्भ में अभी काफ़ी सफर तय करना है और रास्ते को और अधिक पुष्ट बनाने की भी ज़रूरत है। अर्थात् लिपि चिन्हों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। लिपि चिन्ह तभी लोकप्रिय और सर्वमान्य हो जाते हैं जब वे भाषा की ध्वनि व्यवस्था का जायजा लेना संगत होगा।

कश्मीरी की ध्वनि व्यवस्था

          कश्मीरी स्वर व्यवस्था को देखने से पता चलता है कि यह व्यवस्था उर्दू हिन्दी से भिन्न है। पहली बात कश्मीरी में पश्च स्वर ऐसे भी है जो वर्तुलाकार नहीं है। हिन्दी उर्दू के सभी पश्च स्वर वर्तुलाकार हैं। जैसे ‘उ’, ‘ऊ’, ‘ओ’, ‘औ’ इन स्वरों को बोलते समय होठों का आकार गोल हो जाता है। कश्मीरी मे ‘औ’ को छोड़कर ये स्वर तो हैं ही, इनके अतिरिक्त ऐसे पश्च स्वर भी हैं जिनके उच्चारण में ओठों का आकार गोल नहीं होता। देवनागरी में इन स्वरों को इस प्रकार अंकित किया जाता है - उ, ऊ, आ। दूसरी बात है कि कश्मीरी में सभी स्वरों के हृस्व और दीर्घ दोनो रूप हैं। उर्दू हिन्दी में ‘ए’ और ‘ओ’ के भी हृस्व रूप नहीं हैं। कश्मीरी में इन दोनों के हृस्व रूप हैं जिन को देवनागरी में ‘ए’ और ‘आ’ द्वारा अंकित किया जाता है।
          व्यंजनात्क ध्वनियों में हिन्दी की वर्ग चतुर्थ ध्वनियां अर्थात् ‘ध’, ‘झ’, ‘ढ’ और ‘भ’ कश्मीरी में नहीं हैं। कश्मीरी में ‘च’ वर्ग की अन्य ध्वनियों के अतिरिक्त ऐसी स्पर्श संधर्षी ध्वनियां भी हैं जिन का उच्चारण स्थान दंत मूल के आस पास है। देवनागरी में इन ध्वनियों को ‘च’ और ‘छ’ लिपि चिन्हों द्वारा लिखा जाता है।
          कश्मीरी में संयुक्त व्यंजनों की व्यवस्था नहीं के बराबर है। एक ही व्यंजन साथ साथ कभी नहीं आता। हिन्दी उर्दू के ऐसे व्यंजनों वाले शब्द यदि कश्मीरी में प्रयुक्त होते हैं तो इनका रूप कश्मीरी ध्वनि व्यवस्था के अनुकूल हो जाता है जैसे:
उर्दू हिन्दी    कश्मीरी
अड्डा       अर्डु
खद्दर       र्खर्दुर
          दूसरे प्रकार के संयुक्त व्यंजन भी कश्मीरी में बहुत कम होते हैं। ‘र’ के साथ पहले व्यंजन के रूप में संयुक्त होने वाले संयुक्त व्यंजन भी केवल शब्द के आदि में आ सकते हैं। अन्य स्थानों पर नहीं। अन्य भाषाओं से आए हुए ऐसे संयुक्त व्यजनों वाले शब्द कश्मीरी में संयुक्त व्यंजनों के रूप में नहीं रहते। उदाहरण के लिए कुछ शब्द प्रस्तुत हैं:
शुक्र    र्शाकुर
आर्द्र    आदुर
भस्म    बर्सुम
खत्म    खर्तुम
हुक्म    र्हाकुम

तालव्यकरण

          कश्मीरी में तालव्यकरण एक विश्ष्टि और व्याप्त स्वनिमिक प्रक्रिया है। शब्द साघना मे प्रक्रिया का महत्वपूर्ण स्थान है। तालव्य ध्वनियां ‘च’, ‘छ’, ‘ज’, ‘श’ और ‘य’ को छोड़कर शेष सभी व्यंजनात्मक ध्वनियों का तालव्य करण संभव है। व्युत्पन्न रूप यदि पुल्लिंग बहुवचन है तो अंतिम व्यंजन का तालव्यकरण एक सामान्य नियम है-
एकवचन    बहुवचन
गुर ‘घोड़ा’       गुइय ‘घोड़े’
सीन ‘गहरा’       सैन्य ‘गहरे’
तुल ‘उठाया’       तुल्य ‘उठाये’
          ध्वनि व्यवस्था की इन बातों को ध्यान में रखने से चिन्हों के अनावश्यक विस्तार से बचा जा सकता है और लिपि को स्वीकारना सहज हो जाता है। अगर कश्मीरी के लिए देवनागरी लिपि को भी औपचारिक स्वीकृति दी जाए तो समस्या काफ़ी सरल हो जाएगी। देवनागरी में चिन्हों की इतनी जटिलता नहीं है जितनी की उर्दू में अनुभव हो रही है।
          जम्मू कश्मीर सरकार ने भाषा नियोजन की दृष्टि से समय समय पर प्रभावशाली कदम उठाए हैं। स्वर्गीय मुख्यमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने राज्य के सभी अध्यापकों के लिए उर्दू और हिन्दी का ज्ञान अनिवार्य कर दिया था, अर्थात् उर्दू लिपि और देवनागरी लिपि जानना राज्य के हर अध्यापक के लिए आवश्यक है। यही नीति कश्मीरी भाषा की लिपि को सहज स्वीकार्य बनाने के लिए अपनाई जानी चाहिए। कश्मीरी के लिए देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियां स्वीकार की जानी चाहिए। इससे कश्मीरी साहित्य रचना में निश्चित अभिवृ़द्धि होगी।
          डोगरी जम्मू की भाषा है। यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची की भाषा नहीं है। कश्मीरी की अपेक्षा डोगरी का काव्यकर्म अधिक व्यापक है। कारण यह है कि डोगरी भाषा की लिपि देवनागरी है जिसमें लिखने और छपने की दुरुहता नहीं है। कश्मीरी क्योंकि केवल उर्दू की संशोधित लिपि में ही लिखी जाती है, इसलिए लिखने और छपने दोनों में काफ़ी कठिनाइयां हैं।
          अगर कश्मीरी की प्रयोजनपरकता का विकास किया जाना है और इसको विभिन्न भाषिक कार्यक्षेत्रों में व्यापक भूमिका निभानी है। तो इस संदर्भ में प्रभावशाली कदम उठाए जाने आवश्यक है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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