सहस्त्रबाहु और परशुराम

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सहस्त्रबाहु

सहस्त्रबाहु का मूल नाम कार्तवीर्य अर्जुन था। वह बड़ा प्रतापी तथा शूरवीर था। उसने अपने गुरु दत्तात्रेय को प्रसन्न करके वरदान के रूप में उनसे हज़ार भुजाएँ प्राप्त की थीं। हज़ार भुजाएँ होने के कारण ही कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना गया था। उसने सभी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। सहस्त्रबाहु ने परशुराम के पिता जमदग्नि से उनकी कामधेनु गाय माँगी थी। जमदग्नि के इन्कार करने पर उसके सैनिक बलपूर्वक कामधेनु को अपने साथ ले गये। बाद में परशुराम को सारी घटना विदित हुई, तो उन्होंने अकेले ही सहस्त्रबाहु की समस्त सेना का नाश कर दिया और साथ ही सहस्त्रबाहु का भी वध कर दिया।

रावण से सामना

सहस्रबाहु को अपने बल और वैभव का बड़ा गर्व था। एक बार वह गले में वैजयंतीमाला पहने हुए नर्मदा नदी में स्नान कर रहा था। उसने कौतुक ही कौतुक में अपनी भुजाओं में फैलाकर नदी के प्रवाह को रोक लिया। लंकाधिपति रावण को, जो उसी समय नर्मदा में स्नान कर रहा था, सहस्त्रबाहु का यह कार्य बड़ा ही अनुचित और अन्यायपूर्ण लगा। उसे भी अपने बल का बड़ा गर्व था। वह सहस्त्रबाहु के पास जाकर उसे खरी-खोटी सुनाने लगा। सहस्त्रबाहु उसकी खरी-खोटी सुनकर क्रुद्ध हो उठा। उसने उसे देखते-ही-देखते बंदी बना लिया। सहस्त्रबाहु ने बंदी रावण को अपने कारागार में बंद कर दिया। किंतु पुलस्त्य ॠषि ने दयालु होकर उसे मुक्त करा दिया। फिर भी रावण के मन का अभिमान दूर नहीं हुआ। वह अभिमान के मद में चूर होकर ही ऋषियों और मुनियों पर अत्याचार किया करता था।

कामधेनु का हरण

सहस्त्रबाहु के अभिमान का तो कहना ही क्या था। वह तो सदा अभिमान के यान पर बैठकर गगन में उड़ा करता था। एक बार सहस्त्रबाहु उस वन में आखेट के लिए गया, जिस वन में परशुराम के पिता जमदग्नि का आश्रम था। सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ उनके आश्रम में उपस्थित हुआ। जमदग्नि ने अपनी गाय कामधेनु की सहायता से सहस्त्रबाहु और उसके सैनिकों का राजसी स्वागत किया और उनके ख़ान-पान का प्रबंध किया। कामधेनु का चमत्कार देखकर सहस्त्रबाहु उस पर मुग्ध हो गया। उसने जमदग्नि से कहा कि वे अपनी गाय उसे दे दें। किंतु जमदग्नि कामधेनु को क्यों देने लगे? उन्होंने इन्कार कर दिया। उनके इन्कार करने पर सहस्त्रबाहु ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले चलें।

सहस्त्रबाहु का वध

सहस्त्रबाहु कामधेनु को अपने साथ ले गया। उस समय आश्रम में परशुराम नहीं थे। परशुराम जब आश्रम में आए, तो उनके पिता जमदग्नि ने उन्हें बताया कि किस प्रकार सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ आश्रम में आया था और किस प्रकार वह कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले गया। घटना सुनकर परशुराम क्रुद्ध हो उठे। वे कंधे पर अपना परशु रखकर माहिष्मती की ओर चल पड़े, क्योंकि सहस्त्रबाहु माहिष्मती में ही निवास करता था। सहस्त्रबाहु अभी माहिष्मती के मार्ग में ही था, कि परशुराम उसके पास जा पहुंचे। सहस्त्रबाहु ने जब यह देखा के परशुराम प्रचंड गति से चले आ रहे हैं, तो उसने उनका सामना करने के लिए अपनी सेनाएँ खड़ी कर दीं। एक ओर हज़ारों सैनिक थे, दूसरी ओर अकेले परशुराम थे, घनघोर युद्ध होने लगा। परशुराम ने अकेले ही सहस्त्रबाहु के समस्त सैनिकों को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया। जब सहस्त्रबाहु की संपूर्ण सेना नष्ट हो गई, तो वह स्वंय रण के मैदान में उतरा। वह अपने हज़ार हाथों से हज़ार बाण एक ही साथ परशुराम पर छोड़ने लगा। परशुराम उसके समस्त बाणों को दो हाथों से ही नष्ट करने लगे। जब बाणों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा, तो सहस्त्रबाहु एक बड़ा वृक्ष उखाड़कर उसे हाथ में लेकर परशुराम की ओर झपटा। परशुराम ने अपने बाणों से वृक्ष को तो खंड-खंड कर ही दिया, सहस्त्रबाहु के मस्तक को भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। वह रणभूमि में सदा के लिए सो गया।

परशुराम

पितृभक्त परशुराम

परशुराम सहस्त्रबाहु को मारने के पश्चात् कामधेनु को लेकर अपने पिता की सेवा में उपस्थित हुए। महर्षि जमदग्नि कामधेनु को पाकर अतीव हर्षित हुए। उन्होंने परशुराम को हृदय से लगाकर उन्हें बहुत-बहुत आशीर्वाद दिए। परशुराम अपने पिता के अनन्य भक्त थे। वे उन्हें परमात्मा मानकर उनका सम्मान किया करते थे। जमदग्नि बहुत बड़े योगी थे। उन्होंने योग द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। सवेरे का समय था, जमदग्नि की पूजा का समय हो गया था। परशुराम की माँ रेणुका जमदग्नि के स्नान के लिए जल लाने के लिए सरोवर पर गईं। संयोग की बात, उस समय एक यक्ष सरोवर में कुछ यक्षिणियों के साथ जल-विहार कर रहा था। रेणुका सरोवर के तट पर खड़ी होकर यक्ष के जल-विहार को देखने लगीं। वे उसके जल-विहार को देखने में इस प्रकार तन्मय हो गईं कि यह बात भूल-सी गईं, कि उसके पति के नहाने का समय हो गया है और उन्हें शीघ्र जल लेकर जाना चाहिए।

कुछ देर के पश्चात् रेणुका को अपने कर्तव्य का बोध हुआ। वे घड़े में जल लेकर आश्रम में गईं। घड़े को रखकर जमदग्नि से क्षमा मांगने लगीं। जमदग्नि ने अपनी योग दृष्टि से यह बात जान ली, कि रेणुका को जल लेकर आने में देर क्यों हुईं। जमदग्नि क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी, कि रेणुका का सिर काटकर धरती पर फेंक दें। किंतु परशुराम को छोड़कर किसी ने भी उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। परशुराम ने पिता की आज्ञानुसार अपनी माँ का मस्तक तो काट ही दिया, अपने भाइयों का भी मस्तक काट दिया। जमदग्नि परशुराम के आज्ञापालन से उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनसे वर मांगने को कहा। परशुराम ने निवेदन किया, 'पितृश्रेष्ठ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मेरी माँ और मेरे भाइयों को जीवित कर दें।' परशुराम की माँ और उनके भाई पुनः जीवित हो उठे।

तीर्थ-भ्रमण

कामधेनु को पाने पर जमदग्नि को अतीव प्रसन्नता तो हुई थी, किंतु उन्हें यह जानकर बड़ा दु:ख भी हुआ कि परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया है। उन्होंने परशुराम की ओर देखते हुए कहा, 'बेटा, तुमने सहस्त्रबाहु का वध करके अच्छा नहीं किया। हम ब्राह्मणों की शोभा क्रोध से नहीं, क्षमा से बढ़ती है। क्षमा से ही ब्रह्मा ब्रह्म पद को प्राप्त हुए हैं। राजा ब्राह्मण के सदृश होता है। तुमने सहस्रबाहु का वध करके ब्राह्मण की हत्या की है। तुम्हें हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक वर्ष तक तीर्थों में भ्रमण करना चाहिए।' पिता की आज्ञा मानकर परशुराम तीर्थों की यात्रा पर चले गए। वे पूरे वर्ष भर तीर्थों में ही भ्रमण करते रहे। उनके पिता ने इसके लिए हर्ष तो प्रकट किया ही था, उन्हें आशीर्वाद भी दिया था।

सहस्त्रबाहु के पुत्रों का वध

उधर, सहस्त्रबाहु के पुत्र अपने पिता का बदला लेने के लिए अवसर ढूंढ़ रहे थे। एक दिन जब परशुराम और उनके भाई आश्रम में नहीं थे, तो सहस्त्रबाहु के पुत्र आश्रम में आ धमके। जमदग्नि यज्ञ-मंडप में ध्यानस्थ बैठे थे। सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने उनका मस्तक काट डाला। वे अपने साथ उनका मस्तक भी ले गए। रेणुका विलाप करने लगीं, आर्त्तनाद करने लगीं। संयोग की बात, परशुराम शीघ्र ही आ गए। वे शोकमग्ना अपनी माँ के मुख से पिता के शिरोच्छेद किए जाने की बात सुनकर क्रुद्ध हो उठे। वे अपने परशु को लेकर माहिष्मती की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने माहिष्मती को तो उजाड़ ही दिया। सहस्त्रबाहु के पुत्रों को भी मार डाला। उन्होंने अपने पिता का मस्तक लाकर अपनी माँ को दिया। रेणुका अपने पति के साथ सती हो गईं। इस घटना के पश्चात् परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था। श्री राम ने जब उनके क्रोध को शांत किया, तब वे पर्वत पर जाकर तप करने लगे। उनकी शूरता और वीरता ने उन्हें अमर बना दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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