अमावास्या

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
(अमावस्या से पुनर्निर्देशित)
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
अमावास्या
अमावस्या तिथि पर चन्द्रमा
विवरण पंचांग के अनुसार 'अमावस्या' माह की 30वीं तथा कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है। जिस तिथि में चन्द्रमा और सूर्य साथ रहते हैं, वही 'अमावास्या' तिथि है।
अन्य नाम अमावसी, 'सिनीवाली', 'दर्श'
दिशा ईशान
विशेष हिन्दू धर्म में प्रत्येक माह की अमावस्या तिथि पर कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता है।
संबंधित लेख चन्द्रमा, सूर्य, माह
अन्य जानकारी 'अमावास्या' पर सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर शून्य हो जाता है। इस तिथि को क्रय-विक्रय तथा समस्त शुभ कर्मों का निषेध है। अमावस्या तिथि पर चन्द्रमा का औषधियों में वास रहता है।

अमावस्या की तिथि का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व बताया गया है। जिस तिथि में चन्द्रमा और सूर्य साथ रहते हैं, वही 'अमावास्या' तिथि है। इसे 'अमावसी' भी कहा जाता है। इसके साथ ही 'सिनीवाली' या 'दर्श' नाम भी प्राप्त होते हैं। अमावास्या माह की तीसवीं तिथि होती है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को कृष्ण पक्ष प्रारम्भ होता है तथा अमावास्या का समाप्त होता है। अमावास्या पर सूर्य और चन्द्रमा का अन्तर शून्य हो जाता है।

नामकरण

अमावस्या के नामकरण हेतु 'मत्स्य पुराण' के 14वें अध्याय में एक रूपक कथा आती है, जिसके अनुसार- प्राचीन काल में पितरों ने 'आच्छोद' नामक एक सरोवर का निर्माण किया था। इन देव पितरों की एक मानसी कन्या थी, जिसका नाम था 'अच्छोदा'। अच्छोदा ने एक बार एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक कठिन तप किया। अतः उसे वर देने के लिये पितरगण पधारे। उनमें से एक अतिशय सुन्दर 'अमावसु' नामक पितर को देखकर 'अच्छोदा' उन पर अनुरक्त हो गई और अमावसु से प्रणय याचना करने लगी। किन्तु अमावसु इसके लिये तैयार नहीं हुये। अमावसु के धैर्य के कारण उस दिन की तिथि पितरों को अतिशय प्रिय हुई। उस दिन कृष्ण पक्ष की पंचदशी तिथि थी, जो कि तभी से 'अमावसु' के नाम पर 'अमावस्या' कहलाने लगी।

तिथामवसुर्यस्यामिच्छां चक्रे न तां प्रति।
धैर्येण तस्य सा लोकैः अमावस्येति विश्रुता।
पितृणां वल्लभा मस्मात्तस्यामक्षयकारकम्।।

महत्त्व

अमावास्या के स्वामी 'पितर' होते हैं। इस तिथि में चन्द्रमा की सोलहवीं कला जल में प्रविष्ट हो जाती है। चन्द्रमा का वास अमावास्या के दिन औषधियों में रहता है, अतः जल और औषधियों में प्रविष्ट उस अमृत का ग्रहण गाय, बैल, भैंस आदि पशु चारे एवं पानी के द्वारा करते हैं, जिससे वहीं अमृत हमें दूध, घी आदि के रूप में प्राप्त होता है और उसी घृत की आहुति ऋषिगण यज्ञ के माध्यम से पुनः चन्द्रादि देवताओं तक पहुँचाते हैं। वही अमृत फिर बढ़कर पूर्णिमा को चरम सीमा पर पहुँचता है; जैसा कि कथन है-

कला षोडशिका या तु अपः प्रविशते सदा।
अमायां तु सदा सोमः औषधिः प्रतिपद्यते।।
तमोषधिगतं गावः पिबन्त्यम्बुगतं च यत्।
तत्क्षीरममृतं भुत्वा मन्त्रपूतं द्विजातिभिः।
हुतमग्निषु यज्ञेशु पुनराप्यायते शशी।।
दिने दिने कला वृद्धिः पौर्णमास्यां तु पूर्यते।।

अमावस्या पर व्रत

धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि अमावस्या को व्रत करना चाहिये, अर्थात् निराहार रहकर उपवास करना चाहिये। उप-समीप, वास-निवास अर्थात् परमात्मा के समीप रहना चाहिये। अमावस्या के दिन ऐसे ही कार्य करने चाहियें, जो परमात्मा के पास में ही बिठाने वाले हो। सांसारिक खेती-बाड़ी, व्यापार आदि कर्म तो परमात्मा से दूर हटाने वाले हैं। संध्या हवन, सत्संग, परमात्मा का स्मरण ध्यान कर्म परमात्मा के पास बैठाते हैं। इसलिए माह में एक दीन उपवास अवश्य ही करना चाहिये और वह दिन अमावस्या का ही श्रेष्ठ मान्य हैं, क्योंकि सूर्य और चन्द्रमा ये दोनों शक्तिशाली ग्रह अमावस्या के दिन एक ही राशि में आ जाते हैं। चन्द्रमा सुर्य के सामने निस्तेज हो जाता हैं। अर्थात् चन्द्र की किरणें नष्ट प्रायः हो जाती हैं। संसार में भयंकर अन्धकार छा जाता है। चन्द्रमा ही सभी औषधियों को रस देने वाला हैं। जब चन्द्रमा ही पूर्ण प्रकाशक नहीं होगा तो औषधी भी निस्तेज हो जायेगी। ऐसा निस्तेज अन्न, बल, वीर्य, बुद्धिवर्धक नहीं हो सकता; किन्तु बल, वीर्य, बुद्धि आदि को मलीन करने वाला ही होगा। इसलिये अमावस्या का व्रत करना चाहिये। उस दिन अन्न खाना वर्जित किया गया है और व्रत का विधान किया गया है।[1]

पितृ पूजा (श्राद्ध) संस्कार करते लोग

श्राद्ध

पितरों के निमित्त अमावस्या तिथि में श्राद्ध व दान का विशेष महत्त्व बताया गया है। सूर्य की सहस्र किरणों में से एक 'अमा' नामक किरण प्रमुख है, जिसके तेज से सूर्य समस्त लोकों को प्रकाशित करता है। उसी अमावस्या में तिथि विशेष को चन्द्रमा निवास करते हैं। इसी कारण से धर्म कार्यों में अमावस्या को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता है। पितृगण अमावस्या के दिन वायु रूप में सूर्यास्त तक घर के द्वार पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं। पितृ पूजा करने से मनुष्य आयु, पुत्र, यश कीर्ति, पुष्टि, बल, सुख व धन धान्य प्राप्त करते हैं।[2]

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • अमावास्या तिथि में वनस्पतियों में सोम का वास होने से उस दिन बैलों को हल में जोतने का पूर्णतः निषेध 'स्मृतियों' में किया गया है। उस दिन बैलों को पूरे दिन चरने के लिये छोड़ देना चाहिये, जिससे चारे के द्वारा अमृत कला का पान कर वे अपने शरीर को पुष्ट कर कृषि के कार्य में अधिक सहयोग कर सकें।
  • इस तिथि को क्रय-विक्रय तथा समस्त शुभ कर्मों का निषेध है।
  • अमावास्या की दिशा ईशान है।
  • इस तिथि पर भगवान शिव और गौरी के सान्निधय में होने से उस दिन शिवपूजन किया जा सकता है।
  • अमावास्या तिथि केतु की जन्म तिथि है।
  • इस तिथि में पितरों के उद्देश्य से किया गया दानादि अक्षय फलदायक होता है।
  • अमावास्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं तिथि तथा कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है।
  • इस दिन चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता।
  • प्रत्येक माह की अमावास्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता हैं।
  • 'वर्षक्रियाकौमुदी' (9-10) में महाभारत एवं पुराणों से उद्धरण हैं।[3]
  • सोमवार, मंगलवार या बृहस्पतिवार के दिन तथा अनुराधा, विशाखा एवं स्वाति नक्षत्रों में पड़ने वाली अमावास्या विशेष रूप से पवित्र मानी जाती है।[4]


अमावस्या,-वास्या, अमावसी,-वासी, (अमामसी,-मासी) (स्त्रीलिंग) [अमा+वस्+यत्, ण्यत् वा, अमा+वस्+अप्, घञ् वा]

  • नूतन चन्द्रमा का दिन, वह समय जब कि सूर्य और चन्द्रमा दोनों संयुक्त रहते हैं, प्रत्येक चान्द्र मास के कृष्ण पक्ष का पन्द्रहवाँ दिन-सूर्याचन्द्रमसोः यः परः सन्निकर्षः साऽमावस्या-गोभिल.।[5]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अमावस्या का व्रत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 19 सितम्बर, 2013।
  2. जाने पितृपक्ष का महत्त्व (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 19 सितम्बर, 2013।
  3. हेमाद्रि (काल पर चतुर्वर्ग-चिन्तामणि, पृ0 311-315; 643-44), कालविवेक (343-44), तिथितत्त्व (163), गोभिल-गृह्य (1|5|5) का भाष्य, पुरुषार्थ-चिन्तामणि (314-345)
  4. हेमाद्रि व्रतखण्ड (2, 246-257), माधवकृत कालनिर्णय (309) एवं व्रतार्क (334-356
  5. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 91 |

अन्य संबंधित लिंक