आँख की किरकिरी उपन्यास भाग-5

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34

राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज़ की तरह विनोदिनी भण्डार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठाकर उसकी ओर नहीं देखा।

यह देखकर भी उसने कहा- "बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? कल रात भाई साहब ने जो करतूत की! पागल-से आ धामके। मुझे तो फिर नींद ही न आई।"

राजलक्ष्मी मुँह लटकाए रही। हाँ-ना कुछ न कहा।

विनोदिनी बोली- "किसी बात पर चख-चख हो गई होगी आशा से। कुछ भी कहो! बुआ, नाराज मत होना, तुम्हारे बेटे में चाहे हज़ारों सिफ्त हों, धीरज ज़रा भी नहीं। इसीलिए मुझसे हरदम झड़प ही होती रहती है।"

राजलक्ष्मी ने कहा- "बहू, झूठ बकती जा रही हो तुम, मुझे आज कोई भी बात नहीं सुहाती।"

विनोदिनी बोली- "मुझे भी कुछ नहीं सुहा रहा है, बुआ। तुम्हारे दिल को ठेस लगेगी, इसी डर से झूठ से मैं तुम्हारे बेटे का गुनाह ढकना चाहती थी। लेकिन इस हद को पहुँच गया है कि अब ढका नहीं रहना चाहता।"

राजलक्ष्मी- "अपने बेटे का गुण-दोष मुझे मालूम है, मगर तुम कैसी मायाविनी हो, यह पता न था।"

विनादिनी न जाने क्या कहने जा रही थी कि अपने को ज़ब्त कर गई।

बोली- "यह बजा है बुआ, कोई किसी को नहीं जानता; अपने मन को ही क्या सब कोई जानते हैं? कभी क्या तुम्हीं ने अपनी बहू से डाह करके इस मायाविनी के ज़रिये अपने बेटे का मन मोहने की कोशिश नहीं कराई थी? ज़रा सोचकर देखो!"

राजलक्ष्मी आग-सी दहक उठीं। बोलीं- "अभागिन, लड़के के लिए तू माँ पर ऐसा आरोप लगा सकती है? जीभ गलकर नहीं गिरेगी तेरी?"

विनोदिनी उसी अडिग भाव से बोली- "बुआ, हम हैं मायाविनी की जात- मुझमें कौन-सी माया थी मैं ठीक-ठाक नहीं जानती थी, तुम्हें पता था, तुममें भी क्या माया थी- इसका तुम्हें ठीक पता न था, मैं जानती थी। मगर माया ज़रूर थी, नहीं तो यह घटना न घटती। मैंने भी कुछ जानते और कुछ अजानते फन्दा डाला था। और फन्दा तुमने भी कुछ तो जानकर बिना जाने डाला था। हमारी जात का धर्म ही ऐसा है- हम मायाविनी हैं।"

क्रोध के मारे राजलक्ष्मी का कंठ जकड़ गया। वह तेज़ीसे कमरे के बाहर निकल गईं।

विनोदिनी सूने कमरे में जरा देर स्थिर खड़ी रही। उसकी ऑंखों में आग जल उठी।

सुबह का काम-काज चुक गया तो राजलक्ष्मी ने महेन्द्र को बुलवा दिया। महेन्द्र समझ गया, कल रात की घटना के बारे में कहेंगी। इस बीच विनोदिनी से चिट्ठी का उत्तर पाकर मन बेकल हो गया। उसी आघात के प्रति-घात स्वरूप उसका लहराया हृदय विनोदिनी की ओर ज़ोरों से दौड़ रहा था। इस स्थिति में माँ से सवाल-जवाब करना उसके लिए कठिन था। वह खूब समझ रहा था जहाँ से माँ ने विनादिनी के बारे में उसे फटकार बताई कि वह विद्रोही की तरह सच बता देगा और सच कहते ही भीषण गृह-युद्ध शुरू हो जायेगा। लिहाज़ा इस समय कहीं बाहर जाकर सारी बातों पर ठीक से गौर कर लेना ठीक है। महेन्द्र ने नौकर से कहा- "माँ से जाकर कह दे, आज कॉलेज में मुझे विशेष काम से, जल्दी जाना है; लौटकर मिलूँगा।"

और तुरन्त कपड़े पहनकर बिना खाए-पिए वह भाग खड़ा हुआ। विनोदिनी की जिस सख्त चिट्ठी को वह आज सुबह से ही बारम्बार पढ़ता और जेब में लिये-लिये फिरता रहा- जल्दी में वह चिट्ठी कुरते में ही छोड़कर चला गया।

एक झमक बारिश हो गई, फिर घुमड़न-सी हो रही। विनोदिनी का मन आज खीझा हुआ था। उसका मन भी जब ऐसा होता है तो वह काम ज़्यादा करती है। इसीलिए आज घर भर में जितने भी कपड़े मिले सबको बटोरकर निशान लगा रही थी। आशा से कपड़े माँगने गई तो उसके चेहरे का भाव देखकर उसका मन और भी बिगड़ गया। संसार में अगर कसूरवार ही ठहरना है तो उसकी सारी ज़हमतें ही क्यों झेले, कसूर के सुखों से ही क्यों वंचित हां?

झमाझम बारिश शुरू हो गई। विनादिनी कमरे के फर्श पर आ बैठी। सामने कपड़ों का पहाड़ लगा था। नौकरानी एक-एक कपड़ा उसकी ओर बढ़ा रही थी और वह स्याही से उस पर हरफ उगा रही थी। महेन्द्र ने कोई आवाज़ न दी। दरवाज़ा खोलकर सीधा कमरे में दाखिल हो गया। नौकरानी घूँघट निकालकर वहाँ से भाग गई।

विनोदिनी ने अपनी गोद पर का कपड़ा उतार फेंका और बिजली-सी लपक खड़ी हुई। बोली- "जाओ, मेरे कमरे से चले जाओ!"

महेन्द्र बोला- "क्यों, मैंने क्या किया है?"

विनोदिनी- "क्या किया है! डरपोक, कायर! कुछ करने की जुर्रत ही कहाँ है तुममें! न प्यार करना आता है, न कर्तव्य का पता है। बीच में मुझे क्यों लोगों की नज़रों में गिरा रहे हो?" महेन्द्र- "तुम्हें प्यार नहीं किया, यह क्या कहती हो?"

विनोदिनी- "मैं यही कह रही हूँ- चोरी चुप-चुप, झोप-तोप, एक बार इधर तो एक बार उधर- तुम्हारी यह चोर- जैसी हरकत देखकर मुझे नफरत हो गई है। अब अच्छा नहीं लगता। तुम जाओ यहाँ से ।" महेन्द्र मुरझा गया। बोला- "तुम मुझसे नफरत करती हो, विनोद?"

विनोदिनी- "हाँ, करती हूँ।"

महेन्द्र- "अब भी प्रायश्चित्त करने का समय है। मैं अगर दुविधा न करूँ, सब-कुछ छोड़-छाड़कर चल दूँ तो तुम मेरे साथ चलने को तैयार हो?"

यह कहकर महेन्द्र ने ज़ोर से उसके दोनों हाथ पकड़कर उसे अपनी ओर खींच लिया। विनोदिनी बोली-"छोड़ो, डर लगता है।"

महेन्द्र- "लगने दो। पहले बताओ कि तुम मेरे साथ चलोगी?"

विनोदिनी- "नहीं! नहीं! हर्गिज नहीं।"

महेन्द्र- "क्यों नहीं चलोगी? तुमने ही मुझे खींचकर सर्वनाश के जबड़े में पहुँचाया। अब आज तुम मुझे छोड़ नहीं सकतीं। चलना ही पड़ेगा तुम्हें।"

महेन्द्र ने बलपूर्वक विनोदिनी को अपनी छाती से लगाया और कसकर पकड़ते हुए कहा- "मैं तुम्हें ले जाकर ही रहूँगा और चाहे जैसे भी हो, प्यार तुम्हें करना ही पड़ेगा।"

विनोदिनी ने ज़बरदस्ती अपने को उसके शिंकजे से छुड़ा लिया। महेन्द्र ने कहा- "चारों तरफ आग लगा दी है, अब बुझा भी नहीं सकती, भाग भी नहीं सकती।"

कहते-कहते महेन्द्र की आवाज़ ऊँची हो आई। ज़ोर से बोला- "आखिर ऐसा खेल तुमने खेला क्यों, विनोद! अब इसे खेल कहकर टालने से छुटकारा नहीं। तुम्हारी और मेरी अब एक ही मौत है।" राजलक्ष्मी अन्दर आईं। बोलीं- "क्या कर रहा है, महेन्द्र?"

महेन्द्र की उन्मत्त निगाह पल-भर को माँ की ओर फिर गई। उसके बाद उसने फिर विनोदिनी की तरफ देखकर कहा- "मैं सब-कुछ छोड़-छाड़कर जा रहा हूँ, बताओ, तुम मेरे साथ चलती हो?" विनोदिनी ने नाराज राजलक्ष्मी के चेहरे की ओर एक बार देखा और अडिग भाव से महेन्द्र का हाथ थामकर बोली- "चलूँगी।"

महेन्द्र ने कहा- "तो आज-भर इन्तजार करो! मैं चलता हूँ। कल से तुम्हारे सिवा मेरा और कोई न होगा।"

कहकर महेन्द्र चला गया।

इतने में धोबी आ गया। विनोदिनी से उसने कहा-"माँ जी, अब तो जाने ही दीजिए। आज फुरसत नहीं है, तो मैं कल आकर कपड़े ले जाऊँगा।" नौकरानी आई- "बहू जी, साईस ने बताया है, घोड़े का दाना खत्म हो गया है।"

विनोदिनी इकट्ठा सात दिन का दाना अस्तबल में भिजवा दिया करती थी और खुद खिड़की पर खड़ी होकर घोड़ों के खाने पर नज़र रखती थी। नौकर गोपाल ने आकर खबर दी- बीबीजी, झाडूदार से दादाजी (साधुचरण) की झड़प हो गई है। वह कह रहा है, उसके तेल का हिसाब समझ लें तो वह दीवान जी से अपना लेना-देना चुकाकर नौकरी छोड़ देगा।" गृहस्थी के सारे काम-काज पहले की तरह चलते रहे।

35

बिहारी अब मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था। ऐन इम्तहान के वक्त छोड़ दिया। कोई अचरज से पूछ बैठता, तो कहता- "पराई सेहत की बात फिर देखी जाएगी, पहले तन्दुरुस्ती का ख्याल ज़रूरी है।" असल में बिहारी के अध्यमवसाय की हद न थी, कुछ-न-कुछ किए बिना रहना उसके लिए मुश्किल था- हालाँकि यश की प्यास, दौलत का लोभ और गुजर-बसर के लिए कमाने-धमाने की उसे बिल्कुल ज़रूरत न थी। कॉलेज की डिग्री हासिल करने के बाद पहले वह इंजीनियरिंग सीखने के लिए शिवपुर में दाखिल हुआ था। उसे जितना सीखने का कौतूहल था और हाथ के जितने-भर हुनर की वह ज़रूरत महसूस करता था- उतना-भर हासिल कर लेने के बाद ही वह मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो गया। महेन्द्र साल-भर पहले डिग्री लेकर मेडिकल कॉलेज गया था। कॉलेज के लड़कों में इन दोनों की मैत्री मशहूर थी। मज़ाक से सब इन्हें जुड़वाँ कहा करते थे। पिछले साल महेन्द्र परीक्षा में लुढ़क गया और दोनों दोस्त साथ हो गए। अचानक यह जोड़ी टूट कैसे गई, संगी-साथियों की समझ में न आया। रोज़ जहाँ महेन्द्र से से भेंट अवश्यंभावी होती मगर पहले जैसी न हो पाती-वहाँ बिहारी हर्गिज न जा सका। सबको विश्वास था, बिहारी खूब अच्छी तरह पास होगा और सम्मान तथा पुरस्कार ज़रूर पाएगा लेकिन उसने इम्तहान ही न दिया। बिहारी के घर के पास ही एक झोंपड़े में राजेन्द्र चक्रवर्ती नाम का एक ग़रीब ब्राह्मण रहता था। छापेखाने में बारह रुपये की नौकरी करके अपनी रोटी चलाता था। बिहारी ने उससे कहा, "अपने लड़के को तुम मेरे ज़िम्मे कर दो, मैं उसे लिखाऊँगा-पढ़ाऊँगा।"

बेचारा ब्राह्मण तो मानो जी गया। उसने खुशी-खुशी अपने आठ साल के लड़के बसन्त को बिहारी के हाथों सौंप दिया।

बिहारी उसे अपने तरीके से शिक्षा देने लगा। बोला-"दस साल की उम्र तक मैं इसे किताब न छूने दूँगा-ज़बानी पढ़ाऊँगा। उसके साथ खेलने में, उसे लेकर मैदान, म्यूज़ियम, चिड़ियाघर, शिवपुर का बगीचा घूमने में बिहारी के दिन कटने लगे। ज़बानी अंग्रेजी सिखाता, कहानियों में इतिहास बताना, बालकों के मनोभाव का अध्य यन और विकास- बिहारी के पूरे दिन का यही काम था- अपने को वह पल-भर का भी अवकाश न देता।

उस दिन शाम को घर से निकलने की गुंजाइश न थी। दोपहर को बारिश थम गई थी, शाम को फिर शुरू हो गई। अपने दुमंजिले के बड़े कमरे में बत्ती जलाकर बिहारी बसन्त के साथ अपने नए ढंग का खेल खेल रहा था।

"अच्छा, कमरे में लोहे के कितने शहतीर हैं, जल्दी बताओ।"

"उँहूँ, गिनना नहीं होगा।"

बसन्त- "बीस।"

बिहारी- "हार गए। अट्ठारह हैं।"

बिहारी ने झट खिड़की की झिलमिली खोलकर पूछा-"कितने पल्ले हैं इसमें?"-और, झिलमिली उसने बन्द कर दी। बसन्त ने कहा- "छ:।"

"जीत गए।"

'यह बेंच कितनी लम्बी है, इस किताब का वज़न क्या होगा'- ऐसे सवालों से वह बसंत के दिमाग के विकास की चेष्टा कर रहा था कि बैरे ने आकर कहा-"बाबूजी, एक औरत...." उसका कहना खत्म भी न हो पाया था कि विनोदिनी कमरे में आ गई।

बिहारी ने अचरज से कहा- "यह क्या, भाभी?"

विनोदिनी ने पूछा- "तुम्हारे यहाँ अपनी सगी कोई स्त्री नहीं?"

बिहारी- "अपनी-सगी भी कोई नहीं- पराई भी नहीं। बुआ है, गाँव में रहती है।"

विनोदिनी- "तुम मुझे अपने गाँव वाले घर ले चलो।"

बिहारी- "किस नाते?"

विनोदिनी- "नौकरानी के नाते।"

बिहारी- "बुआ को कैसा लगेगा! उन्होंने नौकरानी की ज़रूरत तो बताई नहीं है। खैर। पहले यह तो बताओ, अचानक ऐसा इरादा कैसे? बसंत, तुम जाकर सो रहो।" बसंत चला गया।

विनोदिनी बोली- "बाहरी घटना से तुम अन्दर की बात ज़रा भी नहीं समझ सकोगे।"

बिहारी- "न समझूँ तो भी क्या, ग़लत ही समझ लूँ तो क्या हर्ज है।"

विनोदिनी- "अच्छी बात है, न हो ग़लत ही समझना। महेन्द्र मुझे प्यार करता है।"

बिहारी- "यह खबर कुछ नई तो है नहीं। और न कोई ऐसी ही खबर है कि दोबारा सुनने को जी चाहे।"

विनोदिनी- "बार-बार सुनाने की इच्छा भी नहीं अपनी। इसलिए तुम्हारे पास आई हूँ, मुझे पनाह दो।"

बिहारी- "इच्छा नहीं है? यह आफत आखिर ढाई किसने! महेन्द्र जिस रास्ते जा रहा था। उससे उसे डिगाया किसने?"

विनोदिनी- "मैंने डिगाया है। तुमसे कुछ नहीं छिपाऊँगी, यह सारी करतूत मेरी है। मैं बुरी हूँ या जो कुछ भी हूँ ज़रा मुझ- जैसे होकर मेरे मन की बात समझने की कोशिश करो। मैंने अपने जी की ज्वाला से महेन्द्र की दुनिया में आग लगाई है। एक बार ऐसा लगा कि मैं महेन्द्र को प्यार करती हँ, लेकिन ग़लत है।"

बिहारी- "अगर प्यार ही हो तो भला कोई ऐसी आग लगा सकती है?"

विनोदिनी- "भाई साहब, यह सब आपके शास्त्र की बात है। ये बातें सुनने- जैसी मति अभी अपनी नहीं हुई। अपनी पोथी पटककर एक बार अंतर्यामी की तरह मेरे दिल की दुनिया में बैठो। आज मैं अपना भला-बुरा, सब तुमसे कहना चाहती हूँ।"

बिहारी- "पोथी क्या यों ही खोले बैठा हूँ, भाभी? हृदय को हृदय के क़ानून से समझने की ज़िम्मेदारी अंतर्यामी पर ही रहे, हम पोथी के अनुसार न चलें तो अंत में पार नहीं पड़ने का।" विनोदिनी- "बेहया होकर कहती हूँ सुनो, तुम मुझे लौटा सकते हो। महेन्द्र मुझे चाहता है, मगर वह अंधा है, मुझे नहीं समझता। कभी यह लगा था कि तुमने मुझे समझा है- कभी तुमने मुझ पर श्रद्धा की थी- सच-सच बताओ, आज इस बात को छिपाने की कोशिश मत करो!"

बिहारी- "सच है, मैंने श्रद्धा की थी।"

विनोदिनी- "तुमने ग़लती नहीं की थी भाई साहब! लेकिन जब समझ ही लिया, जब श्रद्धा की ही थी, तो फिर वहीं क्यों रुक गए? मुझे प्यार करने में तुम्हें क्या बाधा थी? आज मैं बेहया बनकर तुम्हारे पास आई हूँ और बेहया होकर ही तुमसे कहती हँ, तुमने भी मुझे प्यार क्यों नहीं किया? मेरी फूटी तकदीर! या तुम भी आशा की मुहब्बत में गर्क हो गए! न, नाराज़ नहीं हो सकते तुम! बैठो, आज मैं छिपाकर कुछ नहीं कहना चाहती। आशा को तुम प्यार करते हो, इस बात का जब खुद तुम्हें भी पता न था, मैं जानती थी। लेकिन मैं समझ नहीं पाती कि आशा में तुम लोगों ने देखा क्या है! बुरा या भला- उसके पास है क्या? विधाता ने क्या मर्दों को ज़रा भी अन्तर्दृष्टि नहीं दी है? तुम लोग आखिर क्या देखकर, कितना देखकर दीवाने हो जाते हो।"

बिहारी उठ खड़ा हुआ बोला- "आज तुम जो कुछ भी कहोगी, आदि से अंत तक मैं सब सुनूँगा, मगर इतनी ही विनती है, जो बात कहने की नहीं है, वह मत कहो।"

विनोदिनी- "तुम्हे कहाँ दुखता है, जानती हूँ भाई साहब। लेकिन मैंने जिसकी श्रद्धा पाई थी और जिसका प्रेम पाने से मेरी ज़िन्दगी बन सकती थी, लाज-डर, सबको बाला-ए-ताक धर कर उसके पास दौड़ी आई हूँ-कितनी बड़ी वेदना लेकर आई हूँ, कैसे बताऊँ? मैं बिलकुल सच कहती हूँ, तुम आशा को प्यार करते होते तो उसकी आज यह गत न हुई होती।"

बिहारी फक रह गया। बोला- "आशा को क्या हुआ? कौन-सी गत की तुमने।"

विनोदिनी- "अपना घर-बार छोड़कर महेन्द्र मुझे लेकर कल चल देने को तैयार है।"

बिहारी एकाएक चीख पड़ा- "यह हर्गिज नहीं हो सकता, हर्गिज नहीं।"

विनोदिनी- "हर्गिज नहीं? महेन्द्र को रोक कौन सकता है?"

बिहारी- "तुम रोक सकती हो।"

विनोदिनी ज़रा देर चुप रही, उसके बाद बिहारी पर अपनी ऑंखें रोककर कहा- "आखिर किसके लिए रोकूँ? तुम्हारी आशा के लिए? मेरा अपना सुख-दु:ख है ही नहीं? तुम्हारी आशा का भला हो, तुम्हारे महेन्द्र की दुनिया बनी रहे- यह सोचकर मैं अपने आज का अपना सारा दावा त्याग दूँ। इतनी भली मैं नहीं हूँ- इतना शास्त्र मैंने नहीं पढ़ा। मैं छोड़ दूँगी तो उसके बदले मुझे क्या मिलेगा?"

धीरे-धीरे बिहारी के चेहरे का भाव सख्त हो आया। बोला- "तुमने बहुत साफ-साफ कहने की कोशिश की है, अब मैं भी एक बात स्पष्ट बताऊँ। आज जो भी हरकत तुमने की है, और जो बेहूदा बातें कह रही हो, इसकी अधिकांश ही उस साहित्य से चोरी की हुई हैं, जो तुमने

पढ़ा है। इसका पचहत्तर फीसदी नाटक और उपन्यास है।"

विनोदिनी- "नाटक! उपन्यास!"

बिहारी- "हाँ, नाटक, उपन्यास। वह भी वैसे महत्व का नहीं। तुम सोचती हो, यह सारा कुछ तुम्हारा निजी है- बिलकुल ग़लत। यह सब छापेखाने की प्रतिध्व नि है। तुम अगर निहायत अबोध, सीधी-सादी बालिका होतीं, तो भी संसार में प्रेम से वंचित न होतीं- लेकिन नाटक की नायिका रंगमंच पर ही फबती है, उससे घर का काम नहीं चलता।"

कहाँ है विनोदिनी का वह तीखा तेज, दारुण दर्प! मंत्रबिद्ध नागिन-सी वह स्तब्ध होकर झुक गई। बड़ी देर के बाद बिहारी की ओर देखे बिना ही शांत और नम्र स्वर में बोली- "तो मैं क्या करूँ?" बिहारी बोला- "अनोखा कुछ न करो। एक सामान्य स्त्री के अच्छे विचार से जो आए, वही करो। अपने घर चली जाओ।"

विनोदिनी ने कहा- "कैसे जाऊँ?"

बिहारी- "गाड़ी में तुम्हें औरतों वाले डिब्बे में बिठाकर तुम्हारे घर के स्टेशन तक छोड़ आऊँगा मैं।" विनोदिनी- "आज की रात यहीं रहूँ?"

बिहारी- "नहीं, अपने ऊपर मुझे इतना विश्वास नहीं।"

सुनते ही विनोदिनी कुर्सी से उतरकर ज़मीन पर लोट गई। बिहारी के दोनों पैरों को जी-जान से अपनी छाती से चिपकाकर बोली- "इतनी कमज़ोरी तो रखो भाई साहब! बिलकुल पत्थर के देवता- जैसे पवित्रा मत बनो। बुरे को प्यार करके ज़रा-सा बुरा तो बनो।"

कहकर विनोदिनी ने बिहारी के पाँवों को बार-बार चूमा। विनोदिनी के ऐसे आकस्मिक और अकल्पनीय व्यवहार से ज़रा देर के लिए तो बिहारी मानो अपने को ज़ब्त न कर सका। उसकी तन-मन की सारी गाँठें ढीली पड़ गईं। बिहारी की इस विह्नल दशा का अनुभव करके विनोदिनी ने उसके पैर छोड़ दिए, अपने घुटनों के बल ऊँची होकर उसने कुर्सी पर बैठे बिहारी की गर्दन को बाँहों से लपेट लिया। बोली- "मेरे सर्वस्व, जानती हूँ, तुम मेरे सदा के लिए नहीं, लेकिन आज एक पल के लिए तुम मुझे प्यार करो! फिर मैं अपने उसी जंगल मे चली जाऊँगी- किसी से कुछ भी न चाहूँगी। मरने तक याद रखने लायक़ एक कोई चीज़ दो।"

ऑंखें मूँदकर विनोदिनी ने अपने होठ बिहारी की ओर बढ़ा दिए। ज़रा देर के लिए दोनों सन्न रह गए, सारा घर सन्नाटा। इसके बाद धीरे-धीरे विनोदिनी की बाँहें हटाकर बिहारी दूसरी कुर्सी पर जा बैठा और रुँधी-सी आवाज़ साफ़ करके कहा- "रात को एक बजे एक पैसेंजर गाड़ी है।"

विनोदिनी ज़रा देर खामोश रही, फिर बोली- "उसी गाड़ी से चली चलूँगी।" इतने में नंगे पाँव, ख़ाली बदन अपना गोरा स्वस्थ शरीर लिये बसन्त बिहारी के पास आ खड़ा हुआ और गंभीर होकर विनोदिनी को देखने लगा।

बिहारी ने पूछा- "सोने नहीं गया, बसन्त?"

बसन्त ने कोई उत्तर न दिया। उसी तरह गंभीर खड़ा रहा। विनोदिनी ने अपने दोनों हाथ फैला दिए। बसन्त ने पहले तो ज़रा आगा-पीछा किया, फिर विनोदिनी के पास चला गया। विनोदिनी उसे छाती से लगाकर ज़ोर से रो पड़ी।

36

असंभव भी संभव हो जाता है, असह्य भी सह्य हो जाता है। ऐसा न होता तो उस दिन की रात महेन्द्र के घर में कटती नहीं। विनोदिनी को तैयार रहने का कहकर महेन्द्र ने रात ही एक पत्र लिखा था। वह पत्र डाक से सवेरे महेन्द्र के यहाँ पहुँचा। आशा उस समय बिस्तर पर ही थी। बैरे ने आवाज़ दी- "माँ जी, चिट्ठी।"

आशा के कलेजे पर लहू ने धक् से चोट की। पलक मारने भर की देर में हज़ारों आशा-आशंकाएँ एक साथ ही उसकी छाती में बज उठीं। झटपट सिर उठाकर उसने पत्र देखा, महेन्द्र के अक्षरों में विनोदिनी का नाम। तुरंत उसका माथा तकिए पर लुढ़क पड़ा। बोली कुछ नहीं। चिट्ठी बैरे को वापस कर दी। बैरे ने पूछा- "किसे दूँ?"

आशा ने कहा- "मैं नहीं जानती।"

रात के आठ बज रहे होंगे। महेन्द्र ऑंधी की तरह लपककर विनोदिनी के कमरे के सामने हाज़िर हुआ। देखा, कमरे में रोशनी नहीं है। घुप्प अंधेरा। जेब से दियासलाई निकालकर एक तीली जलाई। कमरा ख़ाली पड़ा था। विनोदिनी नहीं थी, उसका सरो-समान भी नदारद। दक्खिन वाले बरामदे में गया। वह भी सूना पड़ा था। आवाज़ दी- "विनोदिनी!" कोई जवाब नहीं।

'नासमझ! नासमझ हूँ मैं। उसी समय साथ ले जाना चाहिए था। माँ ने ज़रूर उसे इस बुरी तरह डाँटा-फटकारा है कि वह टिक न सकी।'

ध्याान में यही आया और अटल विश्वास बन गया। अधीर होकर वह उसी दम माँ कमरे में गया। रोशनी वहाँ भी न थी, लेकिन राजलक्ष्मी बिस्तर पर लेटी थीं- यह अंधेरे में भी दिखा। महेन्द्र ने रंजिश में कहा- "माँ, तुम लोगों ने विनोदिनी से क्या कहा।"

राजलक्ष्मी बोलीं- "कुछ नहीं।"

महेन्द्र- "तो वह कहाँ गई?"

राजलक्ष्मी- "मैं क्या जानूँ?"

महेन्द्र ने अविश्वास के स्वर में कहा- "तुम नहीं जानतीं? खैर उसे तो मैं जहाँ भी होगी, ढूँढ़ ही निकालूँगा।"

महेन्द्र चल पड़ा। राजलक्ष्मी झटपट उठ खड़ी हुई और उसके पीछे-पीछे चलती हुई कहने लगीं- "मत जा, मेरी एक बात सुन ले, ठहर।"

महेन्द्र दौड़कर एक ही साँस में घर से बाहर निकल गया। उलटे पाँवों लौटकर उसने दरबान से पूछा- "बहूजी कहाँ गईं?"

दरबान ने कहा- "हमें बताकर नहीं गईं। पता नहीं।"

महेन्द्र ने चीखकर कहा- "पता नहीं।"

दरबान ने हाथ बाँधकर कहा- "जी नहीं, नहीं मालूम।"

महेन्द्र ने सोचा, "माँ ने इन्हें पट्टी पढ़ा दी है।" बोला- "खैर।"

महानगरी के राजपथ पर गैस की रोशनी के मारे अंधेरे में बर्फ़ वाला बर्फ़ और मछली वाला मछली की रट लगा था। भीड़ की हलचल में घुसकर महेन्द्र ओझल हो गया।

37

रात के अंधेरे में बिहारी कभी अकेले ध्यामन नहीं लगाता। अपने लिए अपने को उसने कभी भी आलोच्य नहीं बनाया। वह पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, हित-मित्रों में ही मशगूल रहता। अपने बजाय अपने चारों तरफ की दुनिया को प्रमुखता देकर वह मजे में था। लेकिन अचानक ज़ोर के धक्के से एक दिन उसका सब कुछ विच्छिन्न हो गया-प्रलय के अंधेरे में वेदना की आकाश-छूती चोटी पर उसे अकेले खुद को लेकर खड़ा होना पड़ा। उसी समय अपने निर्जन संग से उसे भूलकर भी अवकाश नहीं देना चाहता।

लेकिन आज अपने उस भीतर वाले को बिहारी किसी भी तरह से दूर न रख सका। कल वह विनोदिनी को उसके घर छोड़ आया, उसके बाद जो भी काम, जिस भी आदमी के साथ जुटा रहा है, उसका गुफा के अन्दर का वेदनामय हृदय उसे अपने गहरे एकांत की ओर लगातार खींच रहा था।

थकावट और अवसाद ने आज बिहारी को परास्त कर दिया। रात के ठीक नौ बजे होंगे। घर के सामने दक्खिन वाली छत पर गर्मी के दिन-ढले की हवा उतावली-सी हो उठी थी। वह अंधेरी छत पर एक आराम-कुर्सी पर बैठ गया।

आज शाम को उसने बसन्त को पढ़ाया नहीं- जल्दी ही वापस कर दिया। आज सांत्वना के लिए, संग के लिए, प्रेम-सुधा- सने अपने पिछले जीवन के लिए उसका हृदय मानो माँ द्वारा त्यागे गए शिशु की तरह संसार के अंधेरे में दोनों बाँहें फैलाकर न जाने किसे खोज रहा था! जिनके बारे में न सोचने की उसने कसम खाई थी- उसका अंतर्मन उन्हीं की ओर दौड़ रहा था- रोकने की शक्ति ही नहीं रह गई थी। छुटपन से छूट जाने तक महेन्द्र से उसकी मैत्री की जो कहानी रंगों में चित्रित, जल-स्थल, नदी-पर्वत में बँटी मानचित्र- जैसी उसके मन में सिमटी पड़ी थी, बिहारी ने उसे फैला दिया। लेकिन फिर भी यह बिछोह और वेदना अनोखी नेह-किरणों रंगी माधुरी से भरी-पूरी रही। उसके बाद जिस शनि का उदय हुआ, जिसने मित्र के स्नेह, दंपती के प्रेम घर की शांति और पवित्राता को एकबारगी मटियामेट कर दिया, उस विनोदिनी को बिहारी ने बेहद घृणा से अपने मन से निकाल फेंकने की कोशिश की। लेकिन गज़ब! चोट गोया निहायत हल्की हो आई, उसे छू न सकी। वह अनोखी ख़ूबसूरत पहेली अपनी अगम रहस्यभरी घनी काली ऑंखों की स्थिर निगाह लिये कृष्ण पक्ष के अंधेरे में बिहारी के सामने डटकर खड़ी हो गई। गर्मी की रात की उमगी हुई दक्खिनी बयार उसी के गहरे नि:श्वास-सी बिहारी को छूने लगी। धीरे-धीरे उन अपलक ऑंखों की जलती हुई निगाह मलिन हो आने लगी, प्यास से सूखी वह तेज नजर ऑंसुओं में भीगकर स्निग्ध हो गई और देखते-ही-देखते गहरे भावरस में डूब गई। अचानक उस मूर्ति ने बिहारी के कदमों के पास लौटकर उसकी दोनों जाँघों को जी-जान से अपनी छाती से पकड़ लिया। उसके बाद एक अनूठी मायालता की तरह उसने पल में बिहारी को लपेट लिया और फैलकर तुरन्त खिले सुगंधित फूल- जैसे चुम्बनोन्मुख मुखड़े को बिहारी के होठों के पास बढ़ा दिया। ऑंखें मूँदकर अपनी सुधियों की दुनिया से बिहारी उस कल्पमूर्ति को निर्वासित कर देने की चेष्टा करने लगा; लेकिन उस पर आघात करने को उसका हाथ हर्गिज न उठा! एक अधूरा अकुलाया चुंबन उसके मुँह के पास उत्सुक हो रहा- पुलक से उसने उसे आच्छन्न कर दिया।

छत पर के सूने अंधेरे में बिहारी और न रह सका। किसी और तरफ ध्या न बँटाने के ख्याल से वह जल्दी-जल्दी चिराग की रोशनी से जगमग कमरे में चला आया।

कोने में तिपाई पर रेशमी कपड़े में टँकी एक मढ़ी हुई तस्वीर थी। बिहारी ने कपड़ा हटाया, तस्वीर को लेकर रोशनी के पास बैठा और उसे अपनी गोद में रखकर देखने लगा।

तस्वीर महेन्द्र और आशा की थी- ब्याह के तुरंत बाद की। उसमें महेन्द्र ने अपने लेख में 'महेन्द्र भैया' और आशा ने 'आशा' लिख दिया था।

तस्वीर को अपनी गोद में रखकर धिक्कारते हुए बिहारी ने विनोदिनी को मन से दूर हटाना चाहा। लेकिन विनोदिनी की प्रेम-कातर, यौवन कोमल बाँहें बिहारी की जाँघों को जकड़े रहीं। बिहारी मन-ही-मन बोला- 'प्रेम की इतनी अच्छी दुनिया को तबाह कर दिया! लेकिन विनोदिनी का उमगा आकुल चुंबन- निवेदन उससे चुपचाप कहने लगा- 'मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। सारी दुनिया में मैंने तुम्हीं को अपनाया है।' 'लेकिन यही क्या इसका उत्तर हुआ! एक उजड़ी हुई दुनिया की करुणाभरी चीख को यह बात ढक सकती है! पिशाचिन!'

पिशाचिन! यह बिहारी की निखालिस झिड़की थी या इसमें ज़रा स्नेह का सुर भी आ मिला था? जीवन में प्रेम के सारे अधिकारों से वंचित होकर जब वह निरा भिखारी-सा राह पर जा खड़ा हुआ, तब अनमाँगे अजस्र प्रेम के ऐसे उपहार को वह तहेदिल से ठुकरा सकता है! और इससे बेहतर उसे मिला भी क्या! अब तक तो वह अपने जीवन की बलि देकर प्रेम की अन्नपूर्णा ने महज़ उसी के लिए सोने की थाली में पकवान परोसकर भेजा है, तो किस संकोच से वह अभागा अपने को उससे वंचित करे ?

तस्वीर को गोद में रखे वह इसी तरह की बातों में डूबा हुआ था कि पास ही आहट हुई। चौंककर देखा, महेन्द्र आया है। वह हड़बड़ी में खड़ा हो गया। तस्वीर गोद से फर्श के कालीन पर लुढ़क पड़ी। बिहारी ने इसका ख्याल न किया।

महेन्द्र एकबारगी पूछ बैठा- "विनोदिनी कहाँ है?"

बिहारी ने ज़रा आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया। बोला- "महेन्द्र भैया, बैठ जाओ, अभी बातें करते हैं।"

महेन्द्र ने कहा- "मेरे पास बैठने और बात करने का वक्त नहीं है। तुम यह बताओ कि विनोदिनी कहाँ है?"

बिहारी ने कहा- "तुम जो पूछ रहे हो, एक वाक्य में जवाब नहीं दिया जा सकता। उसके लिए ज़रा बैठना पड़ेगा।" महेन्द्र ने कहा- "उपदेश दोगे? वे सारे उपदेश मैं बचपन में ही पढ़ चुका हूँ।"

बिहारी- "नहीं। उपदेश देने का न तो मुझे अधिकार है, न क्षमता।"

महेन्द्र- "तो धिक्कारोगे? मुझे पता है, मैं पापी हूँ, और तुम जो कहोगे, वह सब हूँ मैं। लेकिन सिर्फ इतना पूछना चाहता हूँ, विनोदिनी कहाँ है?" बिहारी- "मालूम है।"

महेन्द्र- "मुझे तो बताओगे या नहीं?"

बिहारी- "नहीं बताऊँगा।"

महेन्द्र- "तुम्हें बताना ही पड़ेगा। तुम उसे चुरा लाए हो और छिपाकर रखे हुए हो। वह मेरी है। मुझे लौटा दो।"

बिहारी कुछ क्षण ठगा-सा रहा। फिर दृढ़ता से बोला-"वह तुम्हारी नहीं है। मैं उसे चुराकर भी नहीं लाया- वह खुद-ब-खुद मेरे पास आई है।" महेन्द्र चीख उठा- "सरासर झूठ!"

और महेन्द्र ने बगल के कमरे के दरवाज़े पर धक्का देते हुए आवाज़ दी- "विनोद! विनोद!"

अन्दर से रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी। बोला- "कोई डर नहीं विनोद, मैं महेन्द्र हूँ- मैं तुम्हें कोई कैद करके नहीं रख सकता।"

महेन्द्र ने ज़ोर से धक्का दिया कि किवाड़ खुल गया। दौड़कर अंदर गया। कमरे में अंधेरा था। धुंधली छाया-सी उसे लगी। न जाने वह किस डर के मारे काठ होकर तकिए से लिपट गया। जल्दी से बिहारी कमरे में आया। बिस्तर से बसंत को गोद में उठाकर दिलासा देता हुआ बोला- "डर मत बसंत, मत डर।"

महेन्द्र लपकर वहाँ से निकला। घर के एक-एक कमरे की खाक छान डाली। उधर से लौटकर देखा, अब भी बसन्त डर से रह-रहकर रो उठता था। बिहारी ने उसके कमरे की रोशनी जलाई। उसे बिछौने पर सुलाकर बदन सहलाते हुए उसे सुलाने की चेष्टा करने लगा।

महेन्द्र ने आकर पूछा- "विनोदिनी को तुमने कहाँ रखा है?"

बिहारी ने कहा- "महेन्द्र भैया, शोर न मचाओ। नाहक ही तुमने इस बच्चे को इतना डरा दिया की यह बीमार हो जाएगा। मैं कहता हूँ, विनोदिनी के बारे में जानने की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं।"

महेन्द्र बोला- "महात्माजी, धर्म का आदर्श न बनो। मेरी स्त्री की तस्वीर अपनी गोद में रखकर इस रात को किस देवता के ध्याकन में किस पुण्य मन्त्र का जाप कर रहे थे? पाखंडी!"

कहकर महेन्द्र ने तस्वीर को जूते से रौंदकर चूर-चूर कर डाला और फोटो के टुकड़े-टुकड़े करके बिहारी पर फेंक दिया। उसका पागलपन देखकर बसन्त फिर रो पड़ा। गला रुँध आया बिहारी का। अंगुली से दरवाज़े का इशारा करते हुए वह बोला- "जाओ!"

महेन्द्र ऑंधी की तरह वहाँ से निकल गया।

38

रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की ज़िंदगी ताज़ी हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के बीच अपने-आप बनाए कल्पना के बसेरे में अपनी किताबों से उलझकर कुछ दिनों के इस नगर-प्रवास के दु:ख-दाह और जख्म से उसे शान्ति मिलेगी।

प्यासी छाती में चैन की वह उम्मीद ढोती हुई विनोदिनी अपने घर पहुँची। मगर हाय, चैन कहाँ! वहाँ तो केवल शून्यता थी, थी ग़रीबी। बहुत दिनों से बन्द पड़े सीले घर के भाप से उसकी साँस अटकने लगी। घर में जो थोड़ी-बहुत चीज़ थीं, उन्हें कीड़े चाट गए थे, चूहे कुतर गए थे, गर्द से बुरा हाल था। वह शाम को घर पहुँची- और घर में पसरा था बाँह- भर अंधेरा। सरसों के तेल से किसी तरह रोशनी जलाई- उसके धुएँ और धीमी जोत से घर की दीनता और भी साफ़ झलक उठी। पहले जिससे उसे पीड़ा नहीं होती थी, वह अब असह्य हो उठी-उसका बागी हृदय अकड़कर बोल उठा- "यहाँ तो एक पल भी नहीं कटने का। ताक पर दो- एक पुरानी पत्रिकाएँ और किताबें पड़ी थीं, किन्तु उन्हें छूने को जी न चाहा। बाहर सन्न पड़े-से आम के बगीचे में झींगुर और मच्छरों की तानें अंधेरे में गूँजती रहीं।"

विनोदिनी की जो बूढ़ी अभिभाविका वहाँ रहती थी, वह घर में ताला डालकर अपनी बेटी से मिलने उसकी ससुराल चली गई थी। विनोदिनी अपनी पड़ोसिन के यहाँ गई। वे तो उसे देखकर दंग रह गईं। उफ, रंग तो ख़ासा निखर आया है, बनी-ठनी, मानो मेम साहब हो। इशारे से आपस में जाने क्या कहकर विनोदिनी पर गौर करती हुईं एक-दूसरे का मुँह ताकने लगीं।

विनोदिनी पग-पग पर यह महसूस करने लगी कि अपने गाँव से वह सब तरह से बहुत दूर हो गई है। अपने ही घर में निर्वासित-सी। कहीं पल-भर आराम की जगह नहीं।

डाकखाने का बूढ़ा डाकिया विनोदिनी का बचपन से परिचित था। दूसरे दिन वह पोखर में डुबकी लगाने जा रही थी कि डाक का थैला लिये उसे जाते देख विनोदिनी अपने-आपको न रोक सकी। अगोछा फेंक जल्दी से बाहर निकलकर पूछा- "पंचू भैया, मेरी चिट्ठी है?"

बुङ्ढे ने कहा- "नहीं।"

विनोदिनी उतावली होकर बोली- "हो भी सकती है। देखूँ तो ज़रा।"

यह कहकर उसने चिट्ठियों को उलट-पलटकर देखा। पाँच-छ: ही तो चिट्ठियाँ थीं। मुहल्ले की कोई न थी। उदास-सी जब घाट पर लौटी तो उसकी किसी सखी ने ताना दिया- "क्यों री बिन्दी, चिट्ठी के लिए इतनी परेशान क्यों?"

दूसरे एक बातूनी ने कहा- "अच्छी बात है, अच्छी! डाक के ज़रिये चिट्ठी आए, ऐसा भाग कितनों का होता है? हमारे तो पति, देवर, भाई परदेस में काम करते हैं, मगर डाकिए की मेहरबानी तो कभी नहीं होती।" बातों-ही-बातों में मज़ाक साफ़ चि‍‍कोटी गहरी होने लगी। विनोदिनी बिहारी से निहोरा कर आई थी- निहायत ही रोज़-रोज़ लिखते न बने, तो कम-से-कम हफ्ते में दो बार तो दो पंक्तियाँ ज़रूर लिखे। आज ही बिहारी की चिट्ठी आए, यह उम्मीद नहीं के बराबर ही थी, लेकिन आकांक्षा ऐसी बलवती हो कि वह दूर सम्भावना की आशा भी विनोदिनी न छोड़ सकी। उसे लगने लगा, जाने कब से कलकत्ता छूट गया है! गाँव में महेन्द्र को लेकर किस क़दर उसकी निन्दा हुई थी, दोस्त-दुश्मन की दया से यह उसकी अजानी न रही। शांति कहाँ!

गाँव के लोगों से उसने अपने को अछूता रखने की कोशिश की। लोग-बाग इससे और भी बिगड़ उठे। पापिनी को पास पाकर घृणा और पीड़न के विलास सुख से अपने को वे वंचित नहीं रखना चाहते। छोटा-सा गाँव- अपने को सबसे छिपाए रखने की कोशिश बेकार है। यहाँ जख्मी हृदय को किसी कोने में दुबकाकर अंधेरे में सेवा-जतन की गुंजाइश नहीं- जहाँ-तहाँ से कौतूहल-भरी निगाह जख्म पर आकर पड़ने लगी। उसका अन्तर टोकरी में बन्द पड़ी ज़िन्दा मछली-सा तड़पने लगा। यहाँ आज़ादी के साथ पूरी तरह दु:ख भोग सकने की भी जगह नहीं।

दूसरे दिन जब चिट्ठी का समय निकल गया तो कमरा बन्द करके विनोदिनी पत्र लिखने बैठी- "भाई साहब, डरो मत, मैं तुम्हें प्रेम-पत्र लिखने नहीं बैठी हूँ। तुम मेरे विचारक हो, तुम्हें प्रणाम करती हूँ। मैंने जो पाप किया, तुमने उसकी बड़ी सख्त सज़ा दी। तुम्हारा हुक्म होते ही मैंने उस सज़ा को माथे पर रख लिया है। अफशोस इसी बात का है कि तुम देख नहीं सके कि यह सज़ा कितनी कड़ी है। देख पाते, कहीं जान पाते, तो तुम्हारे मन में जो दया होती, मैं उससे भी वंचित रही। तुम्हें याद करके, मन-ही-मन तुम्हारे पाँवों के पास माथा टेके मैं उसे भी बर्दाश्त करूँगी। लेकिन प्रभु, कैदी को क्या खाना भी नसीब नहीं होता? व्यंजन न सही, जितना-भर न मिलने से काम नहीं चल सकता, उतना भोजन तो उसका बँधा होता है? मेरे इस निर्वासन का आहार है तुम्हारी दो पंक्तियाँ- वह भी न बदा हो तो वह निर्वासन-दण्ड नहीं, प्राण-दण्ड है। सज़ा देने वाले मेरी इतनी बड़ी परीक्षा न लो। मेरे पापी मन में दम्भ की हद न थी- स्वप्न में भी मुझे यह पता न था कि किसी के आगे मुझे इस क़दर सिर झुकाना पड़ेगा। जीत तुम्हारी हुई प्रभो, मैं बगावत न करूँगी। मगर मुझ पर रहम करो, मुझे जीने दो। इस सूने जंगल में रहने का थोड़ा-बहुत सहारा मुझे दिया करना। फिर तो तुम्हारे शासन से मुझे कोई भी किसी भी हालत में डिगा न सकेगा। यही दुखड़ा रोना था। और जो बातें जी में हैं, कहने को कलेजा मुँह को आता है।- पर वे बातें तुम्हें न बताऊँगी, मैंने शपथ ली है। उस शपथ को मैंने पूरा किया। -तुम्हारी विनोदिनी।"

विनोदिनी ने पत्र डाक में डाल दिया। मुहल्ले के लोग छि:-छि: करने लगे। कमरा बन्द किए रहती है, चिट्ठी लिखा करती है, चिट्ठी के लिए डाकिए को जाकर तंग करती है- दो दिन कलकत्ता रहने से क्या लाज-धरम को इस तरह घोलकर पी जाना चाहिए!

उसके बाद के दिन भी चिट्ठी न मिली। विनोदिनी दिन-भर गुमसुम रही।

बिहारी का उसके पास कुछ भी न था- एक पंक्ति की चिट्ठी तक नहीं। कुछ भी नहीं। वह शून्य में मानो कोई चीज़ खोजती फिरने लगी। बिहारी की किसी निशानी को अपने कलेजे से लगाकर सूखी ऑंखों में वह ऑंसू लाना चाहती थी। ऑंसुओं में मन की सारी कठिनता को गलाकर, विद्रोह की भभकती आग को बुझाकर, वह बिहारी के कठोर आदेश को अन्तर के कोमलतम प्रेम-सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। लेकिन सूखे के दिनों की दोपहरी के आसमान- जैसा उसका कलेज़ा सिर्फ जलने लगा।

विनोदिनी ने सुन रखा था, हृदय से जिसे पुकारो, उसे आना ही पड़ता है। इसीलिए हाथ बाँधे ऑंखें मूँदकर वह बिहारी को पुकारने लगी- 'मेरा जीवन सूना पड़ा है, हृदय सूना है, चारों ओर सुनसान है- इस सूनेपन के बीच तुम एक बार आओ। घड़ी-भर को ही सही- तुम्हें आना पड़ेगा। मैं तुम्हें हर्गिज़ नहीं छोड़ सकती।' हृदय से इस तरह पुकारने से विनोदिनी को मानो सच्चा बल मिला। उसे लगा, प्रेम की पुकार का यह बल बेकार नहीं जाने का।

साँझ का दीप-विहीन अंधेरा कमरा जब बिहारी के ध्यादन से घने तौर पर परिपूर्ण हो उठा, जब दीन-दुनिया, गाँव-समाज, समूचा त्रिभुवन प्रलय में खो गया तो अचानक दरवाज़े पर थपकी सुनकर विनोदिनी झटपट ज़मीन पर से उठ खड़ी हुई और दृढ़ विश्वास के साथ दौड़कर दरवाज़ा खोलती हुई बोली- "प्रभु, आ गए?" उसे पक्का विश्वास था कि इस घड़ी दूसरा कोई उसके दरवाज़े पर नहीं आ सकता। महेन्द्र ने कहा- "हाँ, आ गया विनोद!"

विनोदिनी बेहद खीझ से बोल उठी- "चले जाओ, चले जाओ, चले जाओ यहाँ से। अभी चल दो तुरन्त।" महेन्द्र को मानो काठ मार गया।

"हाँ री बिन्दी, तेरी ददिया सास अगर कल..." कहते-कहते कोई प्रौढ़ा पड़ोसिन विनोदिनी के दरवाज़े पर आकर सहसा 'हाय राम!' कहती हुई लम्बा घूँघट काढ़कर भाग गई।

39

टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे होकर बड़े-बूढ़ों ने कहा- "अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था- मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेन्द्र को चिट्ठी, लिख-लिखकर उसे बुलाकर यहाँ ऐसा खुलकर खेलना, यह बेहयाई! ऐसी पापिन को गाँव में नहीं रहने दिया जा सकता।"

विनोदिनी को विश्वास था कि बिहारी का जवाब आज ज़रूर आएगा। लेकिन न आया। अपने मन में वह कहने लगी- 'बिहारी का मुझ पर अधिकार कैसा! मैं उसका हुक्म मानने क्यों गई? मैंने उसे यह क्यों समझने दिया कि वह जैसा कहेगा, सिर झुकाकर मैं वही मान लूँगी। उससे तो मेरा महज़ उतने ही भर का नाता है, जितना-भर उसकी प्यारी आशा को बचाने की ज़रूरत है। मेरा अपना कोई पावना नहीं, दावा नहीं, मामूली दो पंक्तियां की चिट्ठी भी नहीं- मैं इतनी तुच्छ हूँ?' डाह के ज़हर से विनोदिनी का कलेज़ा भर गया।

काठ की मूरत- जैसी सख्त बनी विनोदिनी जब कमरे में बैठी थी, उसकी ददिया सास दामाद के यहाँ से लौटीं और आते ही उससे बोलीं- "अरी मुँहजली, यह सब क्या सुन रही हूँ?" विनोदिनी ने कहा- "जो सुन रही हो, सब सच है।"

ददिया सास बोलीं- "तो फिर इस कलंक का बोझा लिये यहाँ आने की क्या पड़ी थी- आई क्यों यहाँ?" रुँधे क्रोध से विनोदिनी चुप बैठी रही।

वह बोलीं- "मैं कहे देती हूँ, यहाँ तुम नहीं रह सकती। अपनी खोटी तकदीर, सब तो मर ही गए- वह दु:ख सहकर भी मैं ज़िन्दा हूँ- तुमने हमारा सिर झुका दिया। तुम तुरन्त यहाँ से चली जाओ।" इतने में बिना नहाया- खाया महेन्द्र रूखे- बिखरे बालों से वहाँ आ पहुँचा। तमाम रात जागता रहा था-ऑंखें लाल-लाल, चेहरा सूखा पड़ा। उसने संकल्प किया था कि मुँहअंधेरे ही आकर वह विनोदिनी को साथ ले जाने की फिर से कोशिश करेगा। लेकिन पहले दिन विनोदिनी में अभूतपूर्व घृणा देख उसके मन में तरह-तरह की दुविधा होने लगी। धीरे-धीरे जब वेला चढ़ आई, गाड़ी का समय हो आया, तो स्टेशन के मुसाफिरखाने से निकलकर, मन से सारे तर्क-वितर्क दूर करके वह गाड़ी से सीधा विनोदिनी के यहाँ पहुँचा। हया-शर्म छोड़कर दुस्साहस का काम करने पर आमादा होने से जो एक स्पर्धापूर्ण बल पैदा हो आता है, उसी बल के आवेश में महेन्द्र ने एक उदभ्रांत आनन्द का अनुभव किया- उसका सारा अवसाद और दुविधा जाती रही। गाँव के कौतुहल वाले लोग उस उन्मत्त दृष्टि में उसे काग़ज़ के निर्जीव पुतले-से लगे। महेन्द्र ने किसी तरफ नहीं देखा, सीधा विनोदिनी के पास जाकर बोला- "विनोद, इस लोकनिंदा के खुले मुँह में तुम्हें अकेला छोड़ जाऊँ, ऐसा कायर मैं नहीं हूँ। जैसे भी हो, तुम्हें यहाँ से ले ही जाना पड़ेगा। बाद में तुम मुझे छोड़ देना चाहो, छोड़ देना! मैं कुछ भी न कहूँगा। तुम्हारा बदन छूकर मैं कसम खाता हूँ, तुम जैसा चाहोगी, वही होगा। दया कर सको, तो जीऊँगा और न कर सको, तो तुम्हारी राह से दूर हट जाऊँगा। दुनिया में अविश्वास के काम मैंने बहुतेरे किए हैं। पर आज तुम मुझ पर अविश्वास न करो। अभी हम कयामत के मुँह पर खड़े हैं, यह धोखे का समय नहीं।" विनोदिनी ने बड़े ही सहज भाव से दृढ़ होकर कहा-"मुझे अपने साथ ले चलो। गाड़ी है?"

महेन्द्र ने कहा- "है।"

विनोदिनी की सास ने बाहर आकर कहा- "महेन्द्र, तुम मुझे नहीं पहचानते, मगर तुम हम लोगों के बिराने नहीं हो। तुम्हारी माँ राजलक्ष्मी हमारे ही गाँव की लड़की है, गाँव के रिश्ते से मैं उसकी मामी होती हूँ। मैं तुमसे पूछती हूँ, यह तुम्हारा क्या रवैया है! घर में तुम्हारी स्त्री है, माँ है और तुम ऐसे बेहया पागल बने फिरते हो? भले समाज में तुम मुँह कैसे दिखाओगे?"

महेन्द्र निरुत्तर हो गया तो बुढ़िया बोली- "जाना ही हो तो अभी चल दो, तुरन्त। मेरे घर के बरामदे पर खड़े न रहो- पल-भर की भी देर न करो। अब।"

कहकर बुढ़िया भीतर गई और अन्दर से दरवाज़ा बन्द कर लिया। बे-नहाई, भूखी, गन्दे कपड़े पहने विनोदिनी ख़ाली हाथों गाड़ी पर जा सवार हुई। जब महेन्द्र भी चढ़ने लगा तो वह बोली- "नहीं, स्टेशन बहुत क़रीब है, तुम पैदल चलो।"

महेन्द्र ने कहा- "फिर तो गाँव के सब लोग मुझे देखेंगे।"

विनोदिनी ने कहा- "अब भी लाज रह गई है क्या?"

और गाड़ी का दरवाज़ा बन्द करके विनोदिनी ने गाड़ीवान से कहा- "स्टेशन चलो!" गाड़ीवान ने पूछा- "बाबू नहीं चलेंगे?"

महेन्द्र ज़रा आगा-पीछा करने के बाद जाने की हिम्मत न कर सका। गाड़ी चल दी। गाँव की गैल छोड़कर महेन्द्र सिर झुकाए खेतों के रास्ते चला।

गाँव की बहुओं को नहाना-खाना हो चुका था। जिन प्रौढ़ाओं को देर से फुरसत मिली, केवल वही अगोछा और तेल का कटोरा लिये बौराए आम के महमह बगीचे की राह घाट को जा रही थीं।

40

महेन्द्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा- ऐसे में विनोदिनी को लेकर महेन्द्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रखकर वह अपने घर गया।

माँ के कमरे में जाकर देखा, कमरा लगभग अंधेरा है। लालटेन की ओट दी गई है। राजलक्ष्मी मरीज़- जैसी बिस्तर पर पड़ी है और पायताने बैठी आशा उनके पाँव सहला रही है। इतने दिनों के बाद घर की बहू को सास के पैरों का अधिकार मिला है।

महेन्द्र के आते ही आशा चौंकी और कमरे से बाहर चली गई। महेन्द्र ने ज़ोर देकर सारी दुविधा हटाकर कहा- "माँ, मुझे यहाँ पढ़ने में सुविधा नहीं होती, इसलिए मैंने कॉलेज के पास एक डेरा ले लिया है। वहीं रहूँगा।"

बिस्तर के एक ओर का इशारा करके राजलक्ष्मी ने कहा- "ज़रा बैठ जा।"

महेन्द्र सकुचाता हुआ बिस्तर पर बैठ गया। बोली-"जहाँ तेरा जी चाहे, तू रह। मगर मेरी बहू को तकलीफ मत देना!" महेन्द्र चुप रहा।

राजलक्ष्मी बोलीं- "अपना भाग ही खोटा है, तभी मैंने अपनी अच्छी बहू को नहीं पहचाना।"- कहते-कहते राजलक्ष्मी का गला भर आया- "लेकिन इतने दिनों तक समझता, प्यार करके तूने उसे इस तकलीफ में कैसे डाला?"

राजलक्ष्मी से और न रहा गया। रो पड़ीं।

वहाँ से उठ भागे तो जी जाय महेन्द्र। लेकिन तुरन्त भागते न बना। माँ के बिस्तर के एक किनारे चुपचाप बैठा रहा। बड़ी देर के बाद राजलक्ष्मी ने पूछा- "आज रात तो यहीं रहेगा न?"

महेन्द्र ने कहा- "नहीं।"

राजलक्ष्मी ने पूछा- "कब जाओगे?"

महेन्द्र बोला- "बस अभी।"

तकलीफ से राजलक्ष्मी उठीं। कहा- "अभी? बहू से एक बार मिलेगा भी नहीं? अरे बेहया, तेरी बेरहमी से मेरा तो कलेजा फट गया।" कहकर राजलक्ष्मी टूटी डाल-सी बिस्तर पर लेट गईं।

महेन्द्र उठकर बाहर निकला। दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़कर वह अपने ऊपर के कमरे की ओर चला। वह चाहता नहीं था कि आशा से भेंट हो।

ऊपर पहुँचते ही उसकी नज़र पड़ी, कमरे के सामने सायबान वाले बरामदे में आशा ज़मीन पर ही पड़ी थी। उसने महेन्द्र के पैरों की आहट नहीं सुनी थी, अचानक उसे सामने देख कपड़े सम्हालकर उठ बैठी। इस समय कहीं एक बार भी महेन्द्र ने चुन्नी कहकर पुकारा होता, तो वह महेन्द्र के सारे अपराधों को अपने सिर लेकर माफ की गई अपराधिनी की तरह उसके दोनों पैर पकड़कर जीवन-भर का रोना रो लेती। लेकिन महेन्द्र वह नाम लेकर न पुकार सका है।

आशा संकोची बैठी रही। महेन्द्र ने भी कुछ न कहा। चुपचाप छत पर टहलने लगा। चाँद अभी तक उगा न था। छत के एक कोने में छोटे-से गमले के अन्दर रजनीगंधा के दो डंठलों में दो फूल खिले थे। छत पर के आसमान के वे नखत, वह सतभैया, वह कालपुरुष, उनके जाने कितनी संध्यार के एकांत प्रेमाभिनय के मौन गवाह थे- आज वे सब टुकुर-टुकुर ताकते रहे।

महेन्द्र सोचने लगा- इधर के इन कई दिनों की इस विप्लव-कथा को इस आसमान के अंधेरे से पोंछकर ठीक पहले की तरह अगर खुली छत पर चटाई डाले आशा की बगल में उसी सदा की जगह में सहज ही बैठ पाता! कोई सवाल नहीं, कोई जवाबदेही नहीं; वही विश्वास, वही प्रेम, वही सहज आनन्द! लेकिन हाय, यहाँ उतनी-सी जगह को फिर लौटने की गुंजाइश नहीं। छत की चटाई पर आशा के पास की जगह का वह हिस्सा महेन्द्र ने खो दिया है। अब तक विनोदिनी का महेन्द्र से एक स्वाधीन संबंध था, प्यार करने का पागल सुख था, लेकिन अटूट बन्धन नहीं था। अब वह विनोदिनी को खुद समाज से छीनकर ले आया है, अब उसे कहीं भी रख आने की, कहीं भी लौटा आने की जगह नहीं रही- महेन्द्र ही अब उसका एक-मात्र अवलंब है। अब इच्छा हो या न हो, विनोदिनी का सारा भार उसे उठाना ही पड़ेगा।

लम्बी उसाँस लेकर महेन्द्र ने एक बार आशा की ओर देखा। मौन रुलाई से अपनी छाती भरे आशा तब भी उसी तरह बैठी थी- रात के अंधेरे ने माँ के दामन की तरह उसकी लाज और वेदना लपेट रखी थी। न जाने क्या कहने के लिए महेन्द्र अचानक आशा के पास आकर खड़ा हुआ। सर्वांग की नसों का लहू आशा के कान में सिमटकर चीखने लगा- उसने ऑंखें मूंद लीं। महेन्द्र सोच नहीं पाया कि वह आखिर क्या कहने आया था- कहने को उस पर है भी क्या? लेकिन, बिना कुछ कहे अब लौट भी न सका। पूछा- "कुंजियों का झब्बा कहाँ है?"

कुंजियों का झब्बा बिस्तर के नीचे था। आशा उठकर कमरे में चली गई। महेन्द्र उसके पीछे-पीछे गया। बिस्तर के नीचे से कुंजियाँ निकालकर आशा ने बिस्तर पर रख दीं। झब्बे को लेकर महेन्द्र अपने कपड़ों की अलमारी में एक-एक कुंजी लगाकर देखने लगा। आशा रह न सकी। बोल पड़ी- "उस अलमारी की कुंजी मेरे पास न थी।"

कुंजी किसके पास थी, यह बात उसकी ज़बान से न निकल सकी, लेकिन महेन्द्र ने समझा। आशा जल्दी-जल्दी कमरे के बाहर निगल गई; उसे डर लगा, कहीं महेन्द्र के पास ही उसकी रुलाई न छूट पड़े। अंधेरी छत की दीवार के एक कोने की तरफ मुँह फेरकर खड़ी-खड़ी उफनती हुई वह रुलाई दबाकर रोने लगी।

लेकिन रोने का ज़्यादा समय न था। एकाएक उसे याद आ गया, महेन्द्र के खाने का समय हो गया। तेज़ी से वह नीचे उतर गई। राजलक्ष्मी ने आशा से पूछा- "महेन्द्र कहाँ है, बहू?"

आशा ने कहा- "ऊपर।"

राजलक्ष्मी- "और तुम उतर आई?"

आशा ने सिर झुकाकर कहा- "उनका खाना..."

राजलक्ष्मी- "खाने का इंतज़ाम मैं कर रही हूँ- तुम ज़रा हाथ-मुँह धो लो और अपनी वह ढाका वाली साड़ी पहनकर मेरे पास आओ- मैं तुम्हारे बाल सँवार दूँ।"

सास के लाड़ को टालना भी मुश्किल था, लेकिन साज-श्रृंगार के इस प्रस्ताव से वह शर्मा गई। मौत की इच्छा करके भीष्म जैसे चुपचाप तीरों की वर्षा झेल गए थे, उसी प्रकार आशा ने भी बड़े धीरज से सास का सारा साज सिंगार स्वीकार कर लिया।

बन-सँवरकर धीमे-धीमे वह ऊपर गई। झाँककर देखा, महेन्द्र छत पर नहीं था। कमरे के दरवाज़े से देखा, वह कमरे में भी न था- खाना यों ही पड़ा था।

कुंजी नहीं मिली, सो अलमारी तोड़कर महेन्द्र ने कुछ ज़रूरी कपड़े और काम की किताबें निकाल लीं और चला गया।

अगले दिन एकादशी थी। नासाज़ और भारी-भारी-सी राजलक्ष्मी बिस्तर पर लेटी थीं। बाहर घटाएँ घिरी थीं। ऑंधी-पानी के आसार। आशा धीरे-धीरे कमरे में गई। धीरे-से उनके पैरों के पास बैठकर बोली- "तुम्हारे लिए दूध और फल ले आई हूँ माँ, चलो, खा लो!"

करुणा-मूर्ति बहू की सेवा की चेष्टा, जिसकी वह आदी न थी, देखकर राजलक्ष्मी की सूखी ऑंखें उमड़ आईं। वह बैठीं। आशा ने अपनी गोद में खींचकर उसके गीले गाल चूमने लगीं। पूछा- "महेन्द्र कर क्या रहा है, बहू!"

आशा लजा गई। धीमे-से कहा- "वे चले गए।"

राजलक्ष्मी- "चला गया? मुझे तो पता भी न चला।"

आशा बोली- "वे कल रात ही चले गए।"

सुनते ही राजलक्ष्मी की कोमलता मानो काफ़ूर हो गई; बहू के प्रति उनके स्नेह-स्पर्श में रस का नाम न रह गया। आशा ने एक मौन लांछन का अनुभव किया और सिर झुकाए चली गई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ


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