आंत्रज्वर और परांत्रज्वर

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आंत्रज्वर और परांत्रज्वर दोनों 'सालमोनैला टाईफ़ोसिया' नामक जीवाणुओं के कारण उत्पन्न होते हैं। रोग की अवस्था में तथा रोगमुक्त होने के पश्चात्‌ भी कुछ व्यक्तियों के मल में ये जीवाणु पाए जाते हैं। ये व्यक्ति रोगवाहक कहलाते हैं। मनुष्यों में रोग का संक्रमण भोजन और जल द्वारा होता है, जिनमें जीवाणु मक्खियों या रोगवाहकों के हाथों में पहुँच जाते हैं। आधुनिक स्वास्थ्यप्रद परिस्थितियों द्वारा रोग का बहुत कुछ नियंत्रण किया जा चुका है। पिछले कई वर्षो में इस रोग की कोई महामारी नहीं फैली है, किंतु अब भी जहाँ-तहाँ, विशेषकर ऊष्ण प्रदेशों में, रोग होता है।

जीवाणु शरीर में प्रवेश करने के पश्चात्‌ क्षुद्रांत में 'पायर के क्षेत्रों' में बस जाते हैं और वहाँ अतिगलन उत्पन्न करते हैं, जिसके कारण वहाँ ब्रण बन जाता है। कुछ जीवाणु रक्त में भी पहुँच जाते हैं जहाँ से उनका संवर्धन किया जा सकता है, विशेषकर पहले सप्ताह मे। रुधिर में इस प्रकार जीवाणुओं के पहुँचने से अन्य क्षेत्रों में गौण संक्रमण उत्पन्न हो जाता है, उदाहरणत: लसिका ग्रंथियों, यकृत, प्लीहा और अस्थिमज्जा में। पित्तनलिका में संक्रमण अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहाँ से जीवाणु अधिकधिक संख्या में आंत्र में पहुँचते हैं तथा नए-नए ्व्राण उत्पन्न करते हैं और मल में अधिकधिक जीवाणु जाते हैं।

प्रथम संक्रमण से 10 से 14 दिन तक में रोग उभड़ता है।

लक्षण - इस रोग का लक्षण है मंद ज्वर जो धीरे धीरे बढ़ता है। आरंभ में बेचैनी या पेट में मंद पीड़ा, सिरदर्द, तबीयत भारी जान पड़ना, भूख न लगना,कफ और कोष्ठबद्धता। चार पाँच दिन बाद ज्वर अँतरिया सा हो जाता है और ताप 102 से 104 डिगरी फारनहाइट के बीच घटता बढ़ता है। लगभग सातवें दिन शरीर के विभिन्न भागों में आलपीन के सिर के बराबर गुलाबी दाने दिखाई पड़ते हैं। ये दाने विशेषकर वक्ष के सामने और पीछे की ओर दिखाई देते हैं। प्लीहा और यकृत भी कुछ बढ़ जाते हैं और रोगी कुछ बेहोश सा दिखाई देता है। नाड़ी इस अवस्था में प्राय: मंद रहती हैं। कुछ मानसकि लक्षण, जैसे बेचैनी, बिछौने की चादर को या नाक को नोचना ओर प्रलाप भी उत्पन्न हो जाते हैं। रोग की अवधि प्राय: छह से आठ सप्ताह तक हुआ करती है। रोग के लक्षण उसी प्रकार कम होते हैं जिस प्रकार प्रारंभ में वे धीरे धीरे बढ़ते हैं।

विशिष्ट प्रतिजीवाणुक चिकित्सा के प्रारंभ के पूर्व इस रोग के 30 प्रतिशत रोगियों की मृत्यु हो जाती थी, किंतु क्लोरैंफेनिकोल नामक औषधि के प्रयोग से अब हम, यदि उपयुक्त समय पर निदान हो जाए और उचित चिकित्सा प्रारंभ कर दी जाए, प्रत्येक रोगी को रोगमुक्त कर सकते हैं।

मृत्यु प्राय: ऐसे उपद्रवों के कारण होती है जैसे आंत्र में छिद्रण (छेद हो जाना), रक्तप्रवाह, असाध्य अतिसार तथा तीव्र कर्णपटहार्ति। मानसकि लक्षणों से कोई बुरे परिणाम नहीं होते, यद्यपि रोगी के संबंधी लोग उससे बहुत डर जाते हैं। मृत्यु का विशिष्ट कारण चर्म की रक्तवाहिनी कोशिकाओं का प्रसार होता है, जो जीवाणु द्वारा उत्पन्न विषों का परिणाम होता है। इसके कारण भीतरी अंगों को, विशेषकर हृदय को, पर्याप्त रक्त नहीं मिल पाता। आजकल इस उपद्रव की भी संतोषजनक चिकित्सा की जा सकती है।

निदान - रोग की विशिष्ट प्रारंभविधि से, जिसका ऊपर वर्णन किया जा चुका हे, रोग का संदेह करना सरल हैं, किंतु वैज्ञानिक निदान के लिए जीवाणुओं का संवर्धन करना या प्रतिपिंडों की प्रचुर संख्या में देखा जाना आवश्यक है। प्रथम सप्ताह में रक्त से जीवाणु संबर्धित किए जा सकते हैं। वैज्ञानिक निदान का यही अचूक आधार है। रोग के 10 दिन के पश्चात्‌ मल और मूत्र से भी जीवाणुओं का संवर्धन किया जा सकता है। इस अवस्था में समूहक प्रतिक्रिया (अग्लूटिनेशन टेस्ट), जिसको विडल परीक्षण भी कहते हैं, प्राय: सकारात्मक मिलती है। जाँच के नकारात्मक होने का कोई मूल्य नहीं, क्योंकि 10 से 15 प्रतिशत रोगियों में जाँच रोग के पूर्ण काल भर नकारात्मक रहती है।

रोगरोधन - इस रोग की वैक्सीन (टी.ए.बी.) के प्रयोग से रोग में विशेष कमी हुई है, विशेषकर सैनिक विभाग में, जहाँ इसका प्रयोग अनिवार्य है और प्रत्येक सैनिक को इसके इंजेक्शन दिए जाते हैं। अब सभी देशों में इसका प्रयोग किया जाता है और इसमें संदेह नहीं कि इससे रोगधमता उत्पन्न होती है, जो छह मास से एक वर्ष तक रहती है। 0.2 से 1 घन सेंटीमीटर वैक्सीन के, एक सप्ताह के अंतर से, तीन बार इंजेक्शन दिए जाते हैं।

चिकित्सा - आंत्रिक ज्वर की चिकित्सा के लिए क्लोरैंफेनिकाले औषधि अत्यंत विशिष्ट प्रमाणित हुई है। रोग का निदान होते ही, शरीरभार के प्रति किलाग्राम के लिए 25 से 30 मिलीग्राम के हिसाब से, रोगी को यह औषधि खिलाना प्रारंभ कर देना चाहिए। और ज्वर उतर जाने के बाद रोग का पुनराक्रमण कोई असाधारण बात नहीं है। इसलिए कुछ विद्वान्‌ ज्वर उतरने के 10 दिन पश्चात्‌ तक औषधि देने का परामर्श देते हैं। कुछ विद्वान्‌ इस काल में वैक्सीन देने के पक्षपाती हैं। यदि उपद्रव के रूप में प्रांतिक (पेरिफेरल) रक्तावसाद हो जाए तो उसकी चिकित्सा ग्लूकोज़ तथा सैलाइन को रक्त में पहुँचाकर सफलतापूर्वक की जा सकती है। हत्कोची (सिस्टोलिक) रक्त दाब के 80 मिलीमीटर से कम हो जाने पर नौर-ऐड्रिनेलीन मिला देना चाहिए। रक्तस्राव होने पर रक्ताधान (ब्लड टैसफ़्यूज़न) करना चाहिए। आँत्रछिद्रण होने पर शल्यकर्म आवश्यक है। अत्यंत उग्रदशाओं में स्टिराइडों का प्रयोग अपेक्षित है।

पैराटाइफ़ाइड ज्वर - यह इतना अधिक नहीं होता, जितना आँत्रज्वर। पैराटाइफ़ाइड-बी की अपेक्षा पैराटाइफ़ाइड-ए अधिक होता है। यह रोग इतना तीव्र नहीं होता। क्लोरैंफेनिकोल से लाभ होता है, किंतु टाइफ़ाइड के समान नहीं। बहुत से रोगी सामान्य चिकित्सा और उचित उपचर्या से ही आरोग्यलाभ कर लेते हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 328-29 |

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