आधे अधूरे -मोहन राकेश

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आधे अधूरे -मोहन राकेश
'आधे अधूरे' नाटक का आवरण पृष्ठ
लेखक मोहन राकेश
मूल शीर्षक 'आधे अधूरे'
प्रकाशक राधाकृष्ण प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 16 अप्रैल, 2004
ISBN 81-7119-905-4
देश भारत
पृष्ठ: 120
भाषा हिन्दी
प्रकार नाटक

आधे अधूरे प्रसिद्ध साहित्यकार, उपन्यासकार और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित नाटक है। इसका प्रकाशन 16 अप्रैल, 2004 को 'राधाकृष्ण प्रकाशन' द्वारा किया गया था।

विशेषता

'आधे अधूरे' आज के जीवन के एक गहन अनुभव खण्ड को मूर्त करता है। इसके लिए हिन्दी के जीवन्त मुहावरे को पकड़ने की सार्थक प्रभावशाली कोशिश की गयी है। इस नाटक की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है, जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन उनका क्रम उनका संयोजन सब कुछ ऐसा है, जो बहुत सम्पूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यह शक्ति और उच्चारित ध्वनिसमूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य रचना बन्द और खुले दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाये रख सकी। यह नाट्यालेख एक स्तर पर स्त्री-पुरुष के लगाव और तनाव का दस्तावेज़ है। दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य रचना मानवीय सन्तोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिन्दगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् भूमिका निभाये जाने की दिलचस्प रंग-युक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में, 'आधे अधूरे' समकालीन ज़िन्दगी का पहला सार्थक हिन्दी नाटक है। इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।

कथानक

'आधे अधूरे' सिर्फ़ एक नाटक ही नहीं है। यह हमारे समाज, परिवार, व्यक्ति और उनके पारस्परिक सम्बन्धों में आए और लगातार आ रहे बदलाव का गम्भीर समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी है। इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ में परिवार और विवाह जैसी समय-सिद्ध संस्थाओं के विघटन, मानवीय मूल्यों के पतन तथा सर्वग्रासी महत्वाकांक्षा की अन्धी दौड़ से उपजी जिन अर्थ एवं कामज विकृतियों को आज सर्वत्र सार्वजनिक तांडव करते देखा जाता है। ये भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद और पश्चिमी संस्कृति एवं मीडिया के अदम्य आक्रमण के कारण तेज़ी से उफ़नी ज़रूर हैं, लेकिन अचानक पैदा नहीं हो गई हैं। इनके बीज तो स्वतन्त्रता और विभाजन के बाद हुए मोहभंग के साथ ही हमारी धरती में पड़ गए थे। साठ के दशक से इनका अंकुरना शुरू हुआ। सत्तर के दशक में ये हमारे जीवन और समाज में कुनमुनाने–कसमसाने लगे थे। पहले इन परिवर्तनों की दबी-घुटी स्पष्ट अभिव्यक्ति महानगर के उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में हुई। भीतर ही भीतर इनका क्रमिक विकास और विस्तार होता रहा। बस, परिवेश और परिस्थितियों की अनुकूलता पाकर आज इनका व्यापक विस्फोट हो गया है।

प्रथम मंचन

'आधे अधूरे' नाटक का पहला मंचन दिल्ली में 'दिशान्तर' द्वारा ओम शिवपुरी के निर्देशन में फ़रवरी, 1969 में हुआ। नाटक के प्रस्तुतिकरण में निम्नलिखित कलाकारों ने निम्न पात्रों की भूमिका निभाई-

  • काले सूट वाला आदमी - ओम शिवपुरी
  • स्त्री - सुधा शिवपुरी
  • पुरुष-एक - ओम शिवपुरी
  • बड़ी-लड़की - अनुराधा कपूर
  • छोटी लड़की - ऋचा व्यास
  • लड़का - दिनेश ठाकुर
  • पुरुष-दो - ओम शिवपुरी
  • पुरुष-तीन - ओम शिवपुरी
  • पुरुष-चार - ओम शिवपुरी

प्रकाशन

मोहन राकेश का नाटक 'आधे अधूरे' पहले 19 जनवरी एवं 26 जनवरी तथा 2 फ़रवरी, 1969 के तीन अंकों में ‘धर्मयुग’ में क्रमशः छपा और 2 मार्च, 1969 को दिल्ली की नाट्य-संस्था ‘दिशान्तर’ ने इसे ओम शिवपुरी के निर्देशन में अभिमंचित भी कर दिया। नाटक ने तीखी और व्यापक प्रतिक्रिया पैदा की। हिन्दी के नाट्य समीक्षकों और पत्रकारों को यह ऐसा सतही एवं खोखला नाटक लगा, जो अपनी व्यावसायिकता को क्रान्तिकारी लिबास में छिपाने की कोशिश करता है। कथानक की घटनाहीनता, प्रस्तावना की निरर्थकता, अनुभव-क्षेत्र की संकीर्णता, एक है अभिनेता द्वारा पाँच भूमिकाएँ निभाने को चौंकाने वाली फिज़ूल रंग-युक्ति, चरित्रों के इकहरेपन, संघर्ष के आभाव, भविष्यहीन नियतिवाद और आयातित जीवन-दृष्टि पर आधारित एक अतिनाटकीय सृष्टि जैसे अनेक आरोप लगाकर इस नाटक को साधारण और महत्त्वहीन सिद्ध करने के भरपूर प्रयत्न किए गए। इसे अनीता राकेश की किसी पूर्व प्रकाशित कहानी का नाट्य-रूपान्तर तक कहकर इसकी मौलिकता एवं रचनात्मकता को भी नकारने की कोशिश हुई। परन्तु पैंतीस वर्ष बाद पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि समय से अधिक ईमानदार, सच्चा और निर्मम मूल्यांकनकर्ता एवं निर्णायक कोई नहीं होता। यह राकेश जी और उनके मित्रों की सम्पर्क-शक्ति का परिणाम क़तई नहीं है कि तब से अब तक लगातार 'आधे अधूरे' आधुनिक हिन्दी/भारतीय रंग-परिदृश्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, लोकप्रिय और समय-सिद्ध सार्थक नाटक माना जाता है। यह हिन्दी का पहला प्रमुख नाटक है, जो विवाह-संस्था को एक स्थिर-स्थायी व्यवस्था और घर को एक सुखी परिवार के रूप में स्थापित करने वाले सदियों पुराने मिथक को तोड़ने का प्रयास करता है।


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