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इंद्रजाल

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इंद्रजाल जादू का खेल। कहा जाता है, इसमें दर्शकों को मंत्रमुग्ध करके उनमें भ्रांति उत्पन्न की जाती है। फिर जो ऐंद्रजालिक चाहता है वही दर्शकों को दिखाई देता है। अपनी मंत्रमाया से वह दर्शकों के वास्ते दूसरा ही संसार खड़ा कर देता है। मदारी भी बहुधा ऐसा ही काम दिखाता है, परंतु उसकी क्रियाएँ हाथ की सफाई पर निर्भर रहती हैं और उसका क्रियाक्षेत्र परिमित तथा संकुचित होता है। इंद्रजाल के दर्शक हजारों होते हैं और दृश्य का आकार प्रकार बहुत बड़ा होता है।

वर्षा का वैभव इंद्र का जाल मालूम होता है। ऐंद्रजालिक भी छोटे पैमाने पर कुछ क्षण के लिए ऐसे या इनसे मिलते जुलते दृश्य उत्पन्न कर देता है। शायद इसीलिए उसका खेल इंद्रजाल कहलाता है।[1]

प्राचीन समय में ऐसे खेल राजाओं के सामने किए जाते थे। 50-60 वर्ष पहले तक कुछ लोग ऐसे खेल करना जानते थे, परंतु अब यह विद्या नष्ट सी हो चुकी है। कुछ संस्कृत नाटकों और गाथाओं में इन खेलों का रोचक वर्णन मिलता है। जादूगर दर्शकों के मन और कल्पनाओं को अपने अभीष्ट दृश्य पर केंद्रीभूत कर देता है। अपनी चेष्टाओं और माया से उनको मुग्ध कर देता है। जब उनकी मनोदशा ओर कल्पना केंद्रित हो जाती है तब यह उपयुक्त ध्वनि करता है। दर्शक प्रतीक्षा करने लगता है कि अमुक दृश्य आनेवाला है या अमुक घटना घटनेवाली है। इसी क्षण वह ध्वनिसंकेत और चेष्टा के योग से सूचना देता है कि दृश्य आ गया या घटना घट रही है। कुछ क्षण लोगों को वैसा ही दीख पड़ता है। तदनंतर इंद्रजाल समाप्त हो जाता है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 500 |
  2. सं.ग्रं.-इंद्रजाल; रत्नावली।

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