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औद्योगीकरण नगरीकरण संबंध

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औद्योगीकरण नगरीकरण संबंध
मथुरा रिफ़ाइनरी, मथुरा
विवरण 'औद्योगीकरण' और 'नगरीकरण' विकास प्रक्रिया का ही एक अंग है। वस्तुत: यह आधुनीकीकरण का एक अंग है, जिसमें उद्योग-धन्धों का बोलबाला होता है।
औद्योगीकरण से हानि निवास स्थान में कमी, गन्दी बस्तियों में वृद्धि, नैतिक मूल्यों में परिवर्तन, संयुक्त परिवार का विघटन; भ्रष्टाचार, संघर्ष तथा प्रतिस्पर्धा में वृद्धि।
विशेष 'विश्व बैंक' अनुसार 2020 तक भारत विश्व में ऐसा देश होगा, जिसके हवा, पानी, जमीन और वनों पर औद्योगीकरण का सबसे ज्यादा दबाव होगा, वहाँ पर्यावरण बुरी तरह बिगड़ जाएगा और प्राकृतिक संसाधनों की सांसें टूटने लगेंगी।
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अन्य जानकारी औद्योगीकरण का एक अन्य नुकसान कार्बन गैसों के उत्सर्जन के रूप में सामने आया है। आज चीन दुनिया में सबसे अधिक कार्बन गैसों का उत्सर्जन करता है। वहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर 21 टन है।

'औद्योगीकरण' एक सामाजिक तथा आर्थिक प्रक्रिया का नाम है। इसमें मानव-समूह की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदल जाती है, जिसमें उद्योग-धन्धों का बोलबाला होता है। वस्तुत: यह आधुनीकीकरण का एक अंग है। बड़े-पैमाने की ऊर्जा-खपत, बड़े पैमाने पर उत्पादन, धातुकर्म की अधिकता आदि औद्योगीकरण के लक्षण हैं। एक प्रकार से यह निर्माण कार्यों को बढ़ावा देने के हिसाब से अर्थ प्रणाली का बड़े पैमाने पर संगठन है।

नगरीय जनसंख्या वृद्धि का कारक

यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमरीका में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नगरों की संख्या में वृद्धि हुई है। मशीनों के अविष्कार के परिणामस्वरूप श्रमिक, शिल्पी और कारीगर बेकार हो गए। इन बेरोज़गार श्रमिकों को नगर क्षेत्रों में रख लिया गया। इस प्रकार बड़े पैमाने पर उत्पादन, मशीनों के प्रयोग और औद्योगिक सभ्यता के विकास के परिणामस्वरूप नगरीकरण का सूत्रपात हुआ। भारत में यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका की तरह नगरीकरण की क्रिया नहीं हुई। भारत में नगरीकरण के निम्नलिखित कारण रहे-

रेलों का विकास

रेलों के विकास ने भारत के व्यापार क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। भारत में रेलों का विकास दो आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर किया गया था -

  1. पहला प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए।
  2. दूसरा व्यापारिक केन्द्रों पर वस्तुऐं और कच्चा माल एकत्रित करने के लिए।

अकाल

19वीं शताब्दी में भारत में पड़ने वाले अकाल भी नगरीय जनसंख्या वृद्धि के उत्तरदायी रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार न मिल सकने के कारण ग्रामीण जनसंख्या रोज़गार की तालाश में नगरों की ओर चल पड़ी। इस प्रकार 1872-1881 और 1891-1991 की अवधि में भीषण अकाल पड़ने के कारण नगरों की तरफ जनसंख्या का पलायन हो गया।

नगरीय जीवन का आकर्षण

नगर जीवन में कुछ ऐसे आकर्षण हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में दिखाई नहीं पड़ते। अतः धनी ज़मींदारों ने भी 19वीं और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में नगरों में बसने की प्रवृत्ति उभरी।

उद्योगों का विस्तार

नये उद्योगों की स्थापना और पुराने उद्योगों का विस्तार होने के कारण श्रमशक्ति नगरों में खपने लगी।

नगरों में स्थायी रोज़गार

भूमिहीन श्रमिक वर्ग जिनका मूल संबंध कृषि से था, ग्राम तथा नगरों के बीच आने-जाने वाली श्रम शक्ति का ही एक अंग था। इस वर्ग के जिन लोगों को नगर क्षेत्रों में स्थाई रोज़गार अथवा अपेक्षाकृत ऊंची मज़दूरी मिल गई, वे वहीं बस गए। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि नगरीकरण के विकास में उद्योगों का विकास अन्य सभी देशों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रहा किन्तु भारत में इसका प्रभाव इतना सशक्त नहीं था। भारत में ऐसे नगरों की संख्या बहुत कम है जिनका विकास नये उद्योगों के कारण हुआ हो।

नगरीकरण और आर्थिक विकास में संबंध

किसी भी अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास के निम्नलिखित तीन लक्षण मुख्य होते हैं-

  1. प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि ताकि लोगों का जीवन स्तर उन्नत हो सके।
  2. निर्धनता रेखा के नीचे रहने वाली जनसंख्या में कमी।
  3. बेरोज़गार की दर एवं आकार में कमी।

आंकड़ों के आधार पर जब कुल जनसंख्या में नगर जनसंख्या के अनुपात और प्रति व्यक्ति आय में यह संबंध गुणांक निकाला जाता है तो वह 0.5 आता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नगरीकरण और प्रति व्यक्ति आय में सकरात्मक संबंध है। किंतु यही सह सहसंबंध गुणांक जब जनसंख्या और दैनिक स्थिति बेरोज़गारी के बीच निकाला जाता है तो वह 0.18 आता है जो यह संकेत करता है कि नगरीकरण के परिणामस्वरूप बेरोज़गारी में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं हुई।

पर्यावरण पर प्रभाव

पर्यावरण की दृष्टि से भारत की भयावह तस्वीर का खुलासा विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में किया गया है। उसके अनुसार 2020 तक भारत विश्व में ऐसा देश होगा, जिसके हवा, पानी, जमीन और वनों पर औद्योगीकरण का सबसे ज्यादा दबाव होगा, वहां पर्यावरण बुरी तरह बिगड़ जाएगा, प्राकृतिक संसाधनों की सांसें टूटने लगेंगी और उसके लिए इस विकास की कीमत चुकाना टेढ़ी खीर होगी। 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' की मानें तो जलवायु में भीषण परिवर्तन मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। जानी-मानी शोध पत्रिका 'प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी' में ब्रिटिश व स्विस वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि बिजलीघरों, फैक्ट्रियों और वाहनों में जीवाष्म ईंधनों के जलने से पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसें ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं।

'विश्व स्वास्थ्य संगठन' के अनुसार जलवायु परिवर्तन का न केवल स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, बल्कि प्रमुख खाद्यों के उत्पादन में भी कमी आएगी। अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान कंसलटेटिव ग्रुप के अनुसार 2050 तक भारत में सूखे के कारण गेहूँ के उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की कमी आएगी। गेहूँ की इस कमी से भारत के 20 करोड़ लोग भुखमरी की कगार पर होंगे। दिनों-दिन बढ़ती आबादी और औद्योगीकरण के कारण आने वाले सालों में भारत में खाद्य संकट का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। दरअसल, वातावरण में औद्योगिक काल में पहले की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड का संकेद्रण 30 प्रतिशत ज्यादा हुआ है। इससे असह्य गर्मी व लू बढ़ेगी और खड़ी चट्टानों के गिरने की घटनाएं बढ़ेंगी। बहुत ज्यादा ठंड, बहुत ज्यादा गर्मी के कारण तनाव या हाईपोथर्मिया जैसी बीमारियां होंगी और दिल तथा श्वास संबंधी बीमारियों से होने वाली मौतों की संख्या में भी इजाफा होगा।[1]

जीवों के लिए संकटकारक

दुनिया भर में औद्योगीकरण से पर्यावरण को जो नुकसान हुआ, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में 30 प्रतिशत उभयचर प्राणियों, 23 प्रतिशत स्तनपायी और 12 प्रतिशत चिड़ियों का अस्तित्व खतरे में है। यह अंधाधुंध बढ़ते औद्योगीकरण का ही नतीजा है कि हर साल 45 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल समाप्त हो रहे हैं। दुनिया की 60 प्रतिशत प्रमुख नदियों पर बांध बना दिए गए हैं, जिससे मछलियां 50 प्रतिशत तक कम हो गई हैं। बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से दुनियाभर में पक्षियों की 122 प्रजाति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है, जिसमें से 28 भारत में हैं।

कार्बन गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि

औद्योगीकरण का एक अन्य नुकसान कार्बन गैसों के उत्सर्जन के रूप में सामने आया। विकास की दौड़ में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों, गाड़ियों, एसी जैसी चीजों को तो हमने खूब प्राथमिकता दी, लेकिन इनसे निकलने वाले कार्बन गैसों के उत्सर्जन से पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर हमारा ध्यान नहीं गया। आज चीन दुनिया में सबसे अधिक कार्बन गैसों का उत्सर्जन करता है। वहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर 21 टन है, जो दुनिया भर में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का दस प्रतिशत है। उसके बाद अमरीका, यूरोपियन यूनियन के देशों और रूस का स्थान आता है। भारत का स्थान इस मामले में पांचवां है और यहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दर 1.2 टन है, जो दुनिया भर में होने वाले कार्बन उत्सर्जन का केवल तीन प्रतिशत है। यही वजह है कि भारत अपने विकास कार्यक्रमों पर पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं चाहता।

वहीं, विकसित देशों के समूह दुनिया भर में होने वाले कार्बन गैसों के उत्सर्जन का 80 प्रतिशत उत्सर्जित करते हैं, जिसमें 45 प्रतिशत सिर्फ औद्योगीकरण से है। पर्यावरण सुरक्षा को दरकिनार कर विकसित देशों और फिर विकासशील देशों ने विकास का जो मॉडल तैयार किया है, यह उसी का नतीजा है कि जगह-जगह बर्फ की चोटियां पिघल रही हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। इससे खासकर, नदियों के किनारे रहने वाले शहर अधिक प्रभावित होंगे। अकेले भारत में 7500 किलोमीटर समुद्री तटीय क्षेत्र हैं, जहां तीन हजार 85 खरब डॉलर की संपत्ति है। यह खतरे में पड़ सकती है। वहां के लोगों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था भी करनी होगी।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बढ़ता तापमान, बदलता मौसम, बदहाल दुनिया (हिन्दी) समय लाइव। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2015।
  2. विनाश की कीमत पर कैसा विकास (हिन्दी) बातों-बातों में। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2015।

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