कर्ण

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Disamb2.jpg कर्ण एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कर्ण (बहुविकल्पी)


संक्षिप्त परिचय
कर्ण
कर्ण का काल्पनिक चित्र
अन्य नाम राधेय, वसुषेण, वैकर्तन[1]
वंश-गोत्र चंद्रवंश
कुल यदुकुल
पिता सूर्य
माता कुन्ती
धर्म पिता पाण्डु
पालक पिता अधिरथ
पालक माता राधा
जन्म विवरण दुर्वासा ॠषि के वरदान से कुन्ती ने सूर्य का आह्वान करके कौमार्य में ही कर्ण को पुत्र स्वरूप प्राप्त किया और लोक लाज भय से नदी में बहा दिया। हस्तिनापुर के सारथी अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने पाला। इसलिए कर्ण को राधेय भी कहते हैं।
समय-काल महाभारत काल
परिजन कुन्ती के अन्य पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, राधा के अन्य पुत्र शोण
गुरु परशुराम
विवाह कर्ण के दो विवाह हुए जिनमें से एक का नाम वृषाली है और दूसरे नाम पर मतभेद है जो इस प्रकार है सुप्रिया, पद्मावती, पुन्नुरुवी
संतान वृषाली से पुत्र वृषसेन, सुषेण, वृषकेत और सुप्रिया से पुत्र चित्रसेन, सुशर्मा, प्रसेन, भानुसेन
विद्या पारंगत कुशल धनुर्धारी, महारथी, इन्द्र अमोघास्त्र
महाजनपद अंग
शासन-राज्य अंग
संदर्भ ग्रंथ महाभारत, मृत्युंजय (शिवाजी सावंत), रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)
प्रसिद्ध घटनाएँ कर्ण दानवीर के रूप में प्रसिद्ध थे। उन्होंने अपने कवच-कुण्डल दान में दिये और अन्तिम समय में सोने का दाँत भी दे दिया था।
मृत्यु महाभारत युद्ध में अर्जुन द्वारा वध
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कर्ण महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा, अर्जुन के प्रतिद्वंदी और युद्ध के अंतिम दिनों में कौरवों की सेना के सेनापति कर्ण कुंती के कुमारी अवस्था में उत्पन्न हुए थे। कुंती की सेवा से प्रसन्न दुर्वासा ऋषि ने उसे एक मंत्र दिया था जिससे वह किसी का भी आह्वान करके उसे अपने पास बुला सकती थी। उत्सुकता वश कुंती ने सूर्य का आह्वान किया और उसके सहवास से कर्ण गर्भ में आ गया। लोकलाज से शिशु को उसने एक पिटारी में रखकर नदी में बहा दिया। वह पिटारी सूत अधिरथ और उसकी पत्नी राधा को मिली और उन्होंने पुत्रवत बालक का लालन-पालन किया। इसी कारण कर्ण को 'सूत-पुत्र और 'राधेय' भी कहा गया है। इनके अतिरिक्त कर्ण को 'वसुषेण' तथा 'वैकर्तन' नाम से भी जाना जाता है।

जन्म कथा

यदुवंशी राजा शूरसेन की पोषित कन्या कुन्ती जब सयानी हुई तो पिता ने उसे घर आये हुये महात्माओं के सेवा में लगा दिया। पिता के अतिथिगृह में जितने भी साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि आते, कुन्ती उनकी सेवा मन लगा कर किया करती थी। एक बार वहाँ दुर्वासा ऋषि आ पहुँचे। कुन्ती ने उनकी भी मन लगा कर सेवा की। कुन्ती की सेवा से प्रसन्न हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, 'पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ अतः तुझे एक ऐसा मन्त्र देता हूँ जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट हो कर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा।' इस प्रकार दुर्वासा ऋषि कुन्ती को मन्त्र प्रदान कर के चले गये। ऐसा माना जाता है कि कर्णदा नदी का नाम कर्ण के नाम पर रखा गया था।

मन्त्र की सत्यता

कुन्ती को वरदान देते सूर्यदेव

एक दिन कुन्ती ने उस मन्त्र की सत्यता की जाँच करने के लिये एकान्त स्थान पर बैठ कर उस मन्त्र का जाप करते हुये सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव वहाँ प्रकट हो कर बोले, 'देवि! मुझे बताओ कि तुम मुझसे किस वस्तु की अभिलाषा करती हो। मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा।' इस पर कुन्ती ने कहा,'हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने मन्त्र की सत्यता परखने के लिये जाप किया है।' कुन्ती के इन वचनों को सुन कर सूर्यदेव बोले,'हे कुन्ती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक अत्यन्त पराक्रमी तथा दानशील पुत्र देता हूँ।' इतना कह कर सूर्यदेव अन्तर्धान हो गये। कुन्ती ने लज्जावश यह बात किसी से नहीं कह सकी। समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुण्डल धारण किये हुये पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्ती ने उसे मंजूषा में रख कर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि कवच-कुण्डलधारी शिशु पर पड़ी। अधिरथ निःसन्तान था, उसने बालक को अपने गले से लगा लिया और घर लाकर उसका अपने पुत्र के समान पालन किया। उस बालक के कान बहुत ही सुन्दर थे इसलिये उसका नाम कर्ण रखा गया। इस सूत दम्पति ने ही कर्ण का पालन-पोषण किया था इसी से कर्ण के लिए 'सूतपुत्र' तथा 'राधेय' नामों का भी प्रयोग मिलता है। कर्ण को शस्त्र विद्या की शिक्षा द्रोणाचार्य ने ही दी थी किन्तु कर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सन्दिग्ध होकर उन्होंने इन्हें ब्रह्मास्त्र का प्रयोग नहीं सिखाया। अत: कर्ण परशुराम के पास गये और अपने को ब्राह्मण बताकर शस्त्र विद्या सीखने लगे। एक दिन परशुराम को किसी प्रकार यह ज्ञात हो गया कि यह ब्राह्मण नहीं है। इसलिए उन्होंने कर्ण को शाप दिया कि जिस समय तुम्हें इस विद्या की आवश्यकता होगी उस समय तुम इसे भूल जाओंगे।

दुर्योधन से मित्रता

कर्ण और दुर्योधन प्रारम्भ से ही मित्र थे। कर्ण ने दुर्योधन के लिए सफलतापूर्वक अश्वमेध यज्ञ भी किया था। जिस समय द्रौपदी के स्वयंवर के लिए राजागण द्रुपद के यहाँ एकत्र हुए थे। दुर्योधन ने कर्ण को इसके उपयुक्त सिद्ध करने के लिए कलिंग देश का अधिपति बनाया था। द्रुपद के यहाँ अर्जुन के पूर्व कर्ण ने मत्स्यवेध किया था परन्तु द्रौपदी ने कर्ण के साथ विवाह करना अस्वीकार कर दिया। फलत: कर्ण ने अपने को विशेष रूप से अपमानित समझा।

कर्ण और उसका परिवार

कर्ण की पत्नी का पद्मावती तथा पुत्रों का वृषकेतु, वृषसेन आदि नामोल्लेख मिलता है। कर्ण और अर्जुन बाल्यकाल से ही परस्पर प्रतिद्वन्द्वी थे। सूतपुत्र होने के कारण अर्जुन कर्ण को हेय समझते थे। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि कर्ण उनके बड़े भाई हैं। भीष्म भी कर्ण को इसी कारण अधिरथ कहते थे। कर्ण ने पाँचों पाण्डवों का वध करने का संकल्प किया था पर माता कुन्ती के कहने पर उन्होंने अपने वध की प्रतिज्ञा अर्जुन तक ही सीमित कर दी थी।


कर्ण की दानवीरता के भी अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। उनकी दानशीलता की ख्याति सुनकर इन्द्र उनके पास कुण्डल और कवच माँगने गये थे। कर्ण ने अपने पिता सूर्य के द्वारा इन्द्र की प्रवंचना का रहस्य जानते हुए भी उनको कुण्डल और कवच दे दिये। इन्द्र ने उसके बदले में एक बार प्रयोग के लिए अपनी अमोघ शक्ति दे दी थी। उससे किसी का वध अवश्यम्भावी था। कर्ण उस शक्ति का प्रयोग अर्जुन पर करना चाहते थे किन्तु दुर्योधन के निर्देश पर उन्होंने उसका प्रयोग भीम के पुत्र घटोत्कच पर किया था। अपने अन्तिम समय में पितामह भीष्म ने कर्ण को उनके जन्म का रहस्य बताते हुए महाभारत के युद्ध में पाण्डवों का साथ देने को कहा था किन्तु कर्ण ने इसका प्रतिरोध करके अपनी सत्यनिष्ठा का परिचय दिया। भीष्म के अनन्तर कर्ण कौरव सेना के सेनापति नियुक्त हुए थे। अन्त में तीन दिन तक युद्ध संचालन के उपरान्त अर्जुन ने उनका वध कर दिया। कर्ण के चरित्र में आदर्शों का दर्शन उनकी दानवीरता एवं युद्धवीरता के युगपत प्रसंगों में किया जा सकता है।

महाभारत का युद्ध

महाभारत का युद्ध निश्‍चित हो जाने पर कुन्ती व्याकुल हो उठीं। वह नहीं चाहती थीं कि कर्ण का पाण्डवों के साथ युद्ध हो। वे कर्ण को समझाने के लिए कर्ण के पास गयीं। कुन्ती को देखकर कर्ण उनके सम्मान में उठ खड़े हुये और बोले,'आप पहली बार आई हैं अतः आप इस 'राधेय' का प्रणाम स्वीकार करें।' कर्ण की बातों को सुन कुन्ती का हृदय व्यथित हो गया और उन्होंने कहा,'पुत्र! तुम 'राधेय' नहीं 'कौन्तेय' हो। मैं ही तुम्हारी माँ हूँ किन्तु लोकाचार के भय से मैंने तुम्हें त्याग दिया था। तुम पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता हो। इसलिये इस युद्ध में तुम्हें कौरवों के साथ नहीं वरन् अपने भाइयों के साथ रहना चाहिये। मैं नहीं चाहती कि भाइयों में परस्पर युद्ध हो। मैं चाहती हूँ कि तुम पाण्डवों के पक्ष में रहो। ज्येष्ठ भ्राता होने के कारण पाण्डवों के राज्य के तुम अधिकारी हो। मेरी इच्छा है कि युद्ध जीतकर तुम राजा बनो।'
कर्ण ने जबाव दिया,'हे माता! आपने मुझे त्याग था, क्षत्रियों के उत्तम कुल में जन्म लेकर भी मैं सूतपुत्र कहलाता हूँ। क्षत्रिय होकर भी सूतपुत्र कहलाने के कारण द्रोणाचार्य ने मेरा गुरु बनना स्वीकार नहीं किया। युवराज दुर्योधन ही मेरे सच्चे मित्र हैं। मैं उनके उपकार को भूल कर कृतघ्न नहीं बन सकता। किन्तु आपका मेरे पास आना व्यर्थ नहीं जायेगा क्योंकि आज तक कर्ण के पास से ख़ाली हाथ कभी कोई नहीं गया है। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन के सिवाय आपके किसी पुत्र पर अस्त्र शस्त्र का प्रयोग नहीं करूँगा। मेरा और अर्जुन का युद्ध अवश्यम्भावी है और उस युद्ध में हम दोनों में से एक की मृत्यु निश्‍चित है। मेरी प्रतिज्ञा है कि आप पाँच पुत्रों की ही माता बनी रहेंगी।'कर्ण की बात सुनकर तथा उन्हें आशीर्वाद देकर कुन्ती व्यथित हृदय लेकर लौट आईं।

दानवीर कर्ण

महाभारत युद्ध में कर्ण की वीरगति
Martyrdom Of Karna In Mahabharat

महाभारत का युद्ध चल रहा था। सूर्यास्त के बाद सभी अपने-अपने शिविरों में थे। उस दिन अर्जुन कर्ण को पराजित कर अहंकार में चूर थे। वह अपनी वीरता की डींगें हाँकते हुए कर्ण का तिरस्कार करने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले-'पार्थ! कर्ण सूर्यपुत्र है। उसके कवच और कुण्डल दान में प्राप्त करने के बाद ही तुम विजय पा सके हो अन्यथा उसे पराजित करना किसी के वश में नहीं था। वीर होने के साथ ही वह दानवीर भी हैं। ' कर्ण की दानवीरता की बात सुनकर अर्जुन तर्क देकर उसकी उपेक्षा करने लगा। श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा समझ गए। वे शांत स्वर में बोले-'पार्थ! कर्ण रणक्षेत्र में घायल पड़ा है। तुम चाहो तो उसकी दानवीरता की परीक्षा ले सकते हो।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मान ली। दोनों ब्राह्मण के रूप में उसके पास पहुँचे। घायल होने के बाद भी कर्ण ने ब्राह्मणों को प्रणाम किया और वहाँ आने का उद्देश्य पूछा। श्रीकृष्ण बोले-'राजन! आपकी जय हो। हम यहाँ भिक्षा लेने आए हैं। कृपया हमारी इच्छा पूर्ण करें।' कर्ण थोड़ा लज्जित होकर बोला-'ब्राह्मण देव! मैं रणक्षेत्र में घायल पड़ा हूँ। मेरे सभी सैनिक मारे जा चुके हैं। मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रही है। इस अवस्था में भला मैं आपको क्या दे सकता हूँ?'

'राजन! इसका अर्थ यह हुआ कि हम ख़ाली हाथ ही लौट जाएँ? किंतु इससे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। संसार आपको धर्मविहीन राजा के रूप में याद रखेगा।' यह कहते हुए वे लौटने लगे। तभी कर्ण बोला-'ठहरिए ब्राह्मणदेव! मुझे यश-कीर्ति की इच्छा नहीं है, लेकिन मैं अपने धर्म से विमुख होकर मरना नहीं चाहता। इसलिए मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा।' कर्ण के दो दाँत सोने के थे। उन्होंने निकट पड़े पत्थर से उन्हें तोड़ा और बोले-'ब्राह्मण देव! मैंने सर्वदा स्वर्ण(सोने) का ही दान किया है। इसलिए आप इन स्वर्णयुक्त दाँतों को स्वीकार करें।' श्रीकृष्ण दान अस्वीकार करते हुए बोले-'राजन! इन दाँतों पर रक्त लगा है और आपने इन्हें मुख से निकाला है। इसलिए यह स्वर्ण जूठा है। हम जूठा स्वर्ण स्वीकार नहीं करेंगे।' तब कर्ण घिसटते हुए अपने धनुष तक गए और उस पर बाण चढ़ाकर गंगा का स्मरण किया। तत्पश्चात् बाण भूमि पर मारा। भूमि पर बाण लगते ही वहाँ से गंगा की तेज़ जल धारा बह निकली। कर्ण ने उसमें दाँतों को धोया और उन्हें देते हुए कहा-'ब्राह्मणों! अब यह स्वर्ण शुद्ध है। कृपया इसे ग्रहण करें।' तभी कर्ण पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। विस्मित कर्ण भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए बोला-'भगवन! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। मेरे सभी पाप नष्ट हो गए प्रभु! आप भक्तों का कल्याण करने वाले हैं। मुझ पर भी कृपा करें।' तब श्रीकृष्ण उसे आशीर्वाद देते हुए बोले-'कर्ण! जब तक यह सूर्य, चन्द्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता का गुणगान तीनों लोकों में किया जाएगा। संसार में तुम्हारे समान महान् दानवीर न तो हुआ है और न कभी होगा। तुम्हारी यह बाण गंगा युगों-युगों तक तुम्हारे गुणगान करती रहेगी। अब तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। कर्ण की दानवीरता और धर्मपरायणता देखकर अर्जुन भी उसके समक्ष नतमस्तक हो गया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदि पर्व, अध्याय 110, श्लोक 31

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