कवितावली (पद्य)-उत्तर काण्ड

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कवितावली (उत्तर काण्ड)

उत्तर काण्ड

  
कवितावली (पद्य)-उत्तर काण्ड

राम की कृपालुता

 

बालि-सो बीरू बिदारि सुकंठु, थप्यो, हरषे सुर बाजने बाजे।
पल में दल्यो दासरथीं दसकंधरू, लंक बिभीषनु राज बिराजे।।

 राम सुभाउ सुनें ‘तुलसी’ हुलसै अलसी हम-से गलगाजे।
कायर क्रूर कपूतनकी हद, तेउ ग़रीबनेवाज नेवाजे।1।
 
(2)

बेद पढ़ैं बिधि, संभुसभीत पुजावन रावनसों नितु आवैं ।
दानव देव दयावने दीन दुखी दिन दूरिहि तेें सिरू नावैं।।

ऐसेउ भाग भगे दसभाल तेें जो प्रभुता कबि-कोबिद गावैं।
रामके बाम भएँ तेहि बामहि बाम सबै सुख संपति लावैं।2।

(3)

 बेद बिरूद्ध मही, मुनि साधु ससोक किए सुरलोकु उजारो।
और कहा कहौं , तीय हरी, तबहूँ करूनाकर कोपु न धारो।।

सेवक-छोह तें छाड़ी छमा , तुलसी लख्यो राम! सुभाउ तिहारो।
तौलौं न दापु दल्यौ दसकंधर, जौलौं बिभीषन लातु न मारो।3।

(4)

सोक समुद्र निमज्जत काढ़ि कपीसु कियो, जगु जानत जैसो।
नीच निसाचर बैरिको बंधु बिभीषनु कीन्ह पुरंदर कैसो।।

नाम लिय अपनाइ लियो तुलसी-सो , कहौं जग कौन अनैसो।
आरत आरति भंजन रामु, ग़रीबनेवाज न दूसरो ऐसो।4।

(5)

मीत पुनीत कियो कपि भालुको, पाल्यो ज्यों काहुँ न बाल तनूजो।
सज्जन सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो।।

कोसलपाल बिना ‘तुलसी’ सरनागतपाल कृपाल न दूजो।
क्रूर, कुजाति , कपूत,अघी, सबकी सुधरै , जो करै नरू पूजो।5।
(6)
तीय सिरोमनि सीय तजी, जेहिं पावककी कलुषाई दही है।
धर्मधुरंधर बंधु तज्यो, पुरलागनिकी बिधि बोलि कही है।।

कीस निसाचरकी करनी न सुनी , न बिलोकी, न चित्त रही है।
राम सदा सरनागतकी अनखौंही, अनैसी सुभायँ सही है।6।

(7)
अपराध अगाध भएँ जनतें , अपने उर आनत नाहिन जू।
गनिका, गज, गीध, अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू।।

लिएँ बारक नामु सुधामु दियो, जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी! भजु दीनदयालजि रे! रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू।7।

(8)

प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ।

सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
 तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु राम न राख्यो कहाँ।8।

(9)

नरनारि उधारि सभा महुँ होत दियो पटु , सोचु हर्यो मनको।
प्रहलाद बिषाद-निवारन , बारन-तारन, मीत अकारनको।।

जो कहावत दीनदयाल सही, जेहि भारू सदा अपने पनको।।
‘तुलसी’ तजि आन भरोस मजें , भगवानु भलो करिहैं जनको।9।

(10)

रिषिनारि उधारि, कियो सठ केवटु मीतु पुनीत, सुकीर्ति लही।
निजलाकु दियो सबरी-खगको, कपि थाप्यो , सो मालुम है सबही। ।

दससीस -बिरोध सभीत बिभीषनु भूपु कियो, जग लीक रही।।
 करूनानिधि को भजु , रे तुलसी! रघुनाथ अनाथ के नाथु सही।10।

(11)

कौसिक , बिप्रबधू मिथिलाधिपके सब सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन -बंधु -कथा सुनि, सत्रु सुुसाहेब-सीलु सराहैं।।

ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायककी अगनी गुनगाहैं।
आरत, दीन, अनाथनको रघुनाथ करैं निज हाथकी छाहैं।11।

(12)

तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि, और बेसाहिकै बेचनिहारे।
ब्योम, रसातल, भूमि भरे नृप क्रूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे।।

 ‘तुलसी’ तेहि सेवत कौन मरै! रजतें लघुकेा करै मेरूतें भारें?
स्वामि सुसील समर्थ सुजान, सो तो-सो तुहीं दसरत्थ दुलारे।12।

काशी में महामारी

 

गौरी नाथ, भोरानाथ, भवत भवानीनाथ!
 बिस्वनाथनुर फिरी आन कलिकालकी।

संकर-से -नर, गिरिजा-सी नारीं कासीबासी,
 बेद कही, सही ससिसेखर कृपालकी।।

छगुख-गनेस तें महसेके पियरे लोग
बिकल बिलोकियत , नगरी बिहालकी।।

पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि,

 निठुर निहारिये उघारि डीठि भालकी।।(170)

लोक-बेदहूँ बिदित बारानसीकी बड़ाई
बासी नर नारि ईस-अंबिका-सरूप है।

कालबध कोतवाल, दंडकारि दंडपानि,
 सभसद गनप-से अमित अनूप हैं।।

 तहाँऊ कुचालि कलिकालकी कुरीति ,
 कैंधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।

फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल-पल
 खाती दीपमालिका ,ठठाइयत सूप हैं।।

(171)
पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ-परमारथको
जनि आपु आपने सुपाय बास दियो है।

नीच नर-नारि न सँभारि सके आदर,
 लहत फल कादर बिचारि जो न कियो है।।

 बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र,
मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।

रोसमें भरोसो एक आसुतोस कहि जात,
बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है।।

(172)

रचत बिरंचि , हरि पालत, हरत हर,
 तेरे हीं प्रसाद अग-जग-पालिके।

तोहिमें बिकास बिस्व , तोहि में बिलास सब,
तोहिमें समात, मातु भूमिधरबालिके।।

दीजै अवलंब जगदंब! न बिलंब कीजै,
करूनातरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके।

रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी
देखिये दुखारी, मुनि -मानस-मरालिके।।

(173)

ठाकुर महेस, ठकुराइनि उमा-सी जहाँ,
 लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहर की।

भट रूद्रगन, पूत गनपति-सेनापति,
कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी।।

 बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं,
 बूझिये न ऐसी गति संकर-सहरकी।

कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि ,
बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी।।

(174)

 निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे, नर-
 नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं।

दारिद -दुखारी देबि भूसुर भिखारी -भीरू,
लोभ मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं ।

लोकरीति राखी राम, साखी बामदेव जानि,
 जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं।

महामारि महेसानि! म्हिमाकी खानि , मोद-
मंगलकी रासि , दास कासीबासी तेरे हैं।।


(175)

लोगनि के पाप कैंधौं ,सिद्ध-सुर-साप कैंधौं,
कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई हैं।


ऊँचे, नीचे , बीचके, धनिक,रंक, राजा, राय,
 हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है।

देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है।

करूनानिधान हनुमान बीर बलवान!
जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है।।

(176)
संकर -सहर सर, नरनारि बारिचर,
बिकल ,सकल, महामारी माजा भई है।

 उछरत उतरात हहरात मरि जात,
 भभरि भगात जल-थल मीचुमई है।

 देव न दयाल, महिपाल न कृपालचित,
बारानसीं बाढ़ति अनीति नित नई है।

 पाइ रधुराज! पहि कपिराज रामदूत!
राामहूकी बिगरी तुहीं सुधारि लई है।।

(177)

एक तौ कराल कलिकाल सुल-मूल , तामें ,
 कोढ़मेंकी खाजु-सी सनीचरी है मीनकी।

बेद-धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भये,
साधु सीद्यमान जानि रीति पाप पीनकी।

दूबरेको दूसरो न द्वार , राम दयाधाम!
 रावरीऐ गति बल-बिभव बिहीन की।

 लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरूदहि,
महाराज! आजु जौं न देत दादि दीनकी।।

विविध

 

रामनाम मातु पितु स्वामि समरथ, हितु,
आस रामनामकी, भरोसो रामनामको।

प्रेम रामनामहीसों, नेम रामनामहीको,
 जानौं नाम मरम पद दाहिनो न बामको।

स्वारथ सकल परमारथको रामनाम,
रामनाम हीन तुलसी न काहू कामको।

राम की सपथ , सरबस मेंरे रामनाम,
 कामधेनु-कामतरू मोसे छीन छामको।।

(179)
मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिककै धन लीयो।
संकरकोपसों पापको दाम परिच्छित जाहिगो जारि कै हीयो।।

कासीमें कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपनो कीयो।
आजु कि कालि परों कि नरों जड जाहिंगे चटि दिवारीको दीयो।।

(180)

कुंकुम -रंग सुअंग जितो, मुखचंदसों चंदसों होड़ परी है।
बोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोकत सोच -बिषाद हरी है।।

गौरी कि गंग बिहंगिनिबेष, कि मंजुल मूरति मोदभरी है।
 पेखि सप्रेम पयान समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है।।

(181)

मंगल की रासि, परमारथ की खानि जानि
 बिरचि बनाई बिधि, केसव बसाई है।

प्रलयहूँ काल राखी सूलपानि सूलपर,
मीचुबस नीच सोऊ चाहत खसाई है।ं

 छाडि छितिपाल जो परीछित भए कृपाल,
 भलो कियो खलको , निकाई सो नसाई है।।

 पाहि हनुमान! करूनानिधान राम पाहि!
कासी-कामधेनु कलि कुहत कसाई है।।

(182)

बिरची बिरंचिकी , बसति बिस्वनाथकी जो,
 प्रानहू तें प्यारी पुरी केसव कृपालकी।

जोतिरूप लिंगमई अगनित लिंगमयी,
 मोच्छ, बितरनि, बिदरनि जगजालकी।।

 देबी-देव-देवसरि-सिद्ध-मुनिबर-बास,
 लोपति-बिलोकत कुलिपि भोंड़ें भालकी,।।

हा हा करै तुलसी, दयानिधान राम! ऐसी,
कासीकी कदर्थना कराल कलिकालकी।।

(183)

आश्रम -बरन कलि बिबस बिकल भए,
निज-निज मरजाद मोटरी-सी डार दी।।

संकर सरोष महामारिहीतें जानियत,
साहिब सरोष दूनी-दिन-दिन दारदी।।

 नारि-नर आरत पुकारत , सुनै न कोऊ ,
काहूँ देवतनि मिलि मोटी मूठि मारि दी।।

तुलसी सभी तपाल सुमिरें कृपालराम ,
समय सुकरूना सराहि सनकार दी।।

 
(उत्तरकाण्ड समाप्त)

झूलना

  
(कुछ प्रतियों में 177 छंद ही मिलते हैं । काशी -नागरी -प्रचारिणी -सभा की प्रति में 183 छंद हैं । अतः 183 छंद रखे गये हैं।)
इति
(कवितावली समाप्त)

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