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कश्मीरी भाषा

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भारत के उत्तरी राज्य जम्मू-कश्मीर में कश्मीर प्रान्त के 10,000 वर्ग मील में फैली घाटी में बोली जाने वाली भाषा और बोलियाँ है। इस क्षेत्र में भारत की जनसंख्या का 0.8 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है। घाटी में कश्मीरी भाषा बोलने वालों की संख्या अनुमानतः 1981 जनगणना के अनुसार 3,174,684 है, जिसमें राज्य की सीमाओं के भीतर स्थित छोटे-छोटे प्रवासी समूह भी शामिल हैं। कश्मीरी भाषा का भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में सरकारी भाषा का दर्जा दिया गया है, लेकिन स्वयं कश्मीर में सरकारी कामकाज में इसका उपयोग नगण्य है। विछिन्न रूप से यह भाषा अन्य व्यापक संचार भाषाओं के प्रभाव के कारण लगातार संघर्षण की स्थिति से गुज़र रही है। कश्मीरी लोग अपनी भाषा को काशुर और कश्मीर प्रान्त को कशीर कहते हैं। अन्य भारतीय भाषाओं, जैसे हिन्दी, पंजाबी और तमिल में इस भाषा को कश्मीरी कहा जाता है।

व्युत्पत्ति

कश्मीरी भाषा की उत्पत्ति और भाषाशास्त्रीय निकटता लम्बे समय से विवाद का विषय रही है। संरचना और शब्द संग्रह के मामले में कश्मीरी भाषा ने अन्य भाषाओं के साथ व्यापक भाषा सम्पर्क और सम्मिलन की विशेषताओं को संरक्षित रखा है। उत्तर में यह शिना (एक दर्दीय भाषा), पूर्व में तिब्बती-बर्मी भाषाओं (उदाहरण के लिए बाल्टी और लद्दाखी) पश्चिम में पहाड़ी व पंजाबी बोलियों और दक्षिण में डोगरी व पहाड़ी बोलियों (जिनमें से सभी भारतीय आर्य हैं) से घिरी हुई हैं।

विशेषता

कश्मीरी भाषा की विशेषताओं में निम्नलिखित स्वर वेज्ञानिक गुण हैं–

  • त्वरित महाप्राण की अनुपस्थिति (हिन्दी घ, ध और भ);
  • अग्रध् मध्य और पश्च स्वरों में विभेद- उदाहरणतः ई और यू;
  • मात्रा स्वर का उच्चारण लघु स्वर के रूप में होता है, जो अन्त में या दो व्यंजनों के बीच में स्थित होता है;
  • अन्त में उच्छ्वासित विराम (जैसे प, ब, ट, ड);
  • प्राकृत गृहीत व्यंजनों की पुनरावृत्ति और स्वर परिवर्तन का अभाव;
  • स्वरों में त का लोप न होना;
  • बहुत कम व्यंजन+व्यंजन क्रम।

इसके व्याकरण की विशेषताओं में निम्नलिखित तत्त्व शामिल हैं–

  • अपूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में अ (अह) की उपस्थिति;
  • पिशाची (दर्दी) की विशेषता माने जाने वाले परसर्गों का बड़ी संख्या में उपयोग;
  • संख्या वाचक की पिशाची से समानता;
  • संकेत वाचक सर्वनामों की त्रि–स्तरीय प्रणाली (यी-यह, हू-वह {प्रत्यक्ष}, और
  • सुती-वह {परोक्ष}); और
  • भूतकाल के लिए त्रि–स्तरीय प्रणाली।

अधिकांश मायनों में कश्मीरी भाषा की वाक्य-संरचना भारतीय आर्य भाषाओं के समान है, जैसे कर्मवाच्य की रचना में, कर्ता-क्रिया सामंजस्य में और एरगैटिव कारक।[1] कश्मीरी शब्दक्रम भारतीय-आर्य भाषाओं से इस मायने में अलग है कि इसमें समापिका क्रिया दूसरे क्रम में, क्रिया के बाद होती है।

उदाहरणार्थ- हिन्दी-उर्दू में राम जा रहा है और कश्मीरी भाषा में राम चू गत्शां। यहाप् चू को अंग्रेज़ी के समान कर्ता के बाद में लगाया गया है। इस मामले में कश्मीरी भाषा डच, जर्मन, आइसलैंडी और यिद्दिश के समान है।

भाषा समुदाय

भाषा में भिन्नता के आधार पर कश्मीरी भाषा समुदाय को कई आधारों पर विभक्त किया जा सकता है। क्षेत्रीय भिन्नताएँ तीन प्रमुख समूहों को दर्शाती हैं–

  • मराज़ (दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र);
  • काम्राज़ (उत्तरी और पश्चिमोत्तर क्षेत्र);
  • श्रीनगर और इसके आसपास में बोली जाने वाली भाषा, जिसे पारम्परिक रूप से मानक माना जाता है।

ग्रामीण बोलियाँ और श्रीनगर में बोली जाने वाली भाषा के बीच भी विभेद किया गया है। घाटी के बाहर बोली जाने वाली एकमात्र बोली कश्तवारी (या किश्तवारी) है, जो किश्तवार में बोली जाती है, यह दक्षिणी-पूर्वी कश्मीर में ऊपरी चिनाब नदी के तट पर स्थित ऊधमपुर ज़िले का एक शहर (और घाटी) है। कश्तवारी पर पहाड़ी और लहंदा बोलियों का गहरा प्रभाव है और इसे तक्री अक्षरों से लिखा जाता है। अन्य क्षेत्रीय बोलियों पर कश्मीरी भाषा का सिर्फ़ आंशिक प्रभाव ही पड़ा है। ये पारम्परिक क्षेत्रों में बोली जाती है और इनमें पाकिस्तान की पोगल घाटी में बोली जाने वाली पोगुली, चिनाब नदी के तट पर स्थित डोडा शहर में बोली जाने वाली शिराजी बोली और जम्मू व श्रीनगर के बीच छोटे क्षेत्र में बोली जाने वाली रामबानी, जहाँ इसका कार्य एक संक्रमण क्षेत्र में सीमित है और इसमें डोगरी, कश्मीरी व शिराजी के लक्षण विद्यमान हैं।

साहित्यिक कृतियाँ

संस्कृत और फ़ारसी से प्रभावित कश्मीरी के प्रभावों को भी इनके बोली, स्वरूप और साहित्यिक कृतियों में मान्यता प्राप्त है। ये प्रभाव शब्द-संग्रह में स्वर वैज्ञानिक और रूप-विधान विशेषताओं और प्रबन्ध नीतियों के प्रकारों में परिलक्षित होते हैं। एक प्रकार से दूसरे प्रकार में परिवर्तन का उपयोग शैलीगत प्रभाव और पहचान क़ायम करने के लिए किया जाता है। एक लेखक अपनी एक कृति में इन भाषाशास्त्रीय संसाधनों का उपयोग कर सकता है, जैसा कि परमानन्द (1791-1879), जिंदां कौल (1884-1965) और ग़ुलाम अहमद महजूर (1885-1952) की कविताओं में परिलक्षित होता है।

लिपि

ऐतिहासिक रूप से कश्मीरी भाषा को चार लिपियों में लिखा जाता है, शारदा, देवनागरी, फ़ारसी-अरबी और रोमन। ब्राह्मी लिपि (तीसरी शताब्दी ई. पू.) से सम्बद्ध शारदा लिपि का उपयोग कश्मीर के पंडितों के द्वारा व्यापक स्तर पर किया गया, यह नागरी लिपि से मिलती-जुलती लिपि थी और अब यह लगभग लुप्त हो चुकी है। फ़ारसी-अरबी लिपि, जिसमें कई परिवर्तन किए गए हैं, को राज्य सरकार ने इस भाषा की सरकारी लिपि के तौर पर अपना लिया है। देवनागरी और रोमन लिपियों के कई परिवर्तित प्रकारों का उपयोग अब भी कश्मीरी भाषा में प्रकाशित अत्यल्प सामग्री के लिए होता है। बंगाल में सेरामपोर (श्रीरामपुर) के बैप्टिस्ट मिशनरियों द्वारा न्यू टेस्टामेंट के कश्मीरी रूपान्तर (1821) और ओल्ड टेस्टामेंट के कुछ हिस्सों (1827, 1832) के प्रकाशन में शारदा लिपि का उपयोग किया गया। ब्रिटिश और फ़ॉरेन बाइबिल सोसाइटी ने 1884 में फ़ारसी लिपि में न्यू टेस्टामेंट का प्रकाशन किया।

ध्वनिमाला

कश्मीरी ध्वनिमाला में कुल 46 ध्वनिम (फ़ोनीम) हैं।

स्वर : अ, आ; इ, ई; उ, ऊ; ए; ओ; अ, आ; उ; ऊ; ए; ओ;

मात्रा स्वर : इ, -उ, -ऊ

अनुस्वार : अं

अंत:स्थ स्वर : य, व

व्यंजन : क, ख, ग, ङ; च, छ, ज; च, छ़, ज़, ञ;

ट, ठ, ड; त, थ, द, न; प, फ, ब, म;

य, र, ल, व; श, स, ह

इ, ई, उ, ऊ और ए के रूप पदारंभ में यि, यी, -वु, वू और ये हो जाते हैं। च, छ, और ज़ दंततालव्य हैं और छ़ ज़ का महाप्राण हैं। पदांत अ बोला नहीं जाता।

साहित्यिक इतिहास

कश्मीरी भाषा का एक सतत साहित्यिक इतिहास है, जो 13वीं शताब्दी से जारी है। इस भाषा की साहित्यिक संस्कृति के विकास के लिए कोई गम्भीर राजनीतिक या साहित्यिक संरक्षण न मिलने के बावजूद यह अब भी बरक़रार है। इस भाषा का प्रधान स्रोत 1932 में ग्रियर्सन द्वारा मुकुंदराम शास्त्री के सहयोग से संकलित 1,252 पृष्ठों का शब्दकोश (पुनर्मुद्रण 1985) है, जो समकालीन न होते हुए भी उपयोगी शब्द संग्रह है, जिसमें रोमन, देवनागरी और कभी-कभी फ़ारसी-अरबी लिपियों में शब्द लिए गए हैं। इनके साथ अंग्रेज़ी की व्याख्या भी है। हाल के वर्षों में राज्य की कला, संस्कृति और भाषा अकादमी ने अन्य शब्दकोश भी प्रकाशित किए हैं, जो एकभाषी व द्विभाषी, दोनों हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसमें कुछ कालों में सकर्मक क्रिया का कर्ता विशेष मात्रा ग्रहण करता है और जहाँ क्रिया कर्ता के अनुसार नहीं, बल्कि कर्म के अनुरूप होती है, जो कर्ता कारक में होता है

बाहरी कड़ियाँ

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