कांसा

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कांसा एक मिश्र धातु है, जो ताँबे और जस्ते अथवा ताँबे और टिन के योग से बनाई जाती है। कांसा, ताँबे की अपेक्षा अधिक कड़ा होता है और कम ताप पर पिघलता है। इसलिए कांसा सुविधापूर्वक ढाला जा सकता है। आमतौर पर साधारण बोलचाल में कभी-कभी पीतल को भी कांसा कह दिया जाता है, जो ताँबे तथा जस्ते की मिश्र धातु है और पीले रंग का होता है। ताँबे और राँगे की मिश्र धातु को 'फूल' भी कहते हैं। वर्तमान में आभूषण आदि बनाने के हेतु एक प्रकार के कांसे का व्यवहार किया जाता है, जिसका रंग सुनहरा होता है। इस धातु को ऐल्युमिनियम तथा ताँबा विविध भाग में मिलाकर निर्मित किया जाता है। खुदाई आदि का कार्य इस पर बड़ा सुंदर बनता है।

नाम तथा अर्थ

पुराकालीन वस्तुओं में कांसा से निर्मित वस्तुएँ काफ़ी महत्त्वपूर्ण थीं। इसीलिए उस युग को "कांस्य युग" का नाम दिया गया था। कांसे को अंग्रेज़ी में 'ब्रोंज़' कहते हैं। यह फ़ारसी भाषा का मूल शब्द है, जिसका अर्थ होता है- 'पीतल'। कांसा, जिसे संस्कृत में 'कांस्य' कहा जाता है, संस्कृत कोशों के अनुसार श्वेत ताँबे अथवा घंटा बनाने की धातु को कहते हैं। विशुद्ध ताँबा लाल रंग का होता है; उसमें राँगा मिलाने से सफ़ेद सा रंग आ जाता है। इसलिए ताँबे और राँगे की मिश्र धातु को 'कांसा' या 'कांस्य' कहा जाता है।

इतिहास

मानव ने कांसे का निर्माण किस प्रकार सीखा, कह पाना कठिन है। सम्भवत: ताँबा गलाने के समय उसके साथ मिली हुई अशुद्धि के गल जाने के कारण यह अचानक बन गया, क्योंकि कांसे की वस्तुएँ तो चीन, मिस्र, ईरान, सुमेर, भारत के प्रागैतिहासिक काल के सभी स्थानों से प्राप्त हुई हैं, परंतु इन सभी स्थानों के उस प्राचीन युग के कांसे की मूल विविध धातुओं के परिमाण में अंतर है। भारत के एक प्रकार के कांसे में ताँबा 93.05 भाग, जस्ता 20.14, निकल 4 तथा आर्सेनिक 80 भाग मिला है। दूसरे प्रकार के कांसे में टिन सुमेर, ईरान इत्यादि स्थानों की भाँति प्राप्त हुआ है। इस मिली हुई धातु से कारीगर को वस्तुओं को ढालने में बड़ी सरलता हुई तथा इस मिश्रित धातु की बनी कुल्हाड़ी सिर्फ़ ताँबे की बनी कुल्हाड़ी से कहीं अधिक धारदार तथा मजबूत बनी। अनुमान किया जाता है कि इस धातु के कारीगरों का अपना एक जत्था प्रागैतिहासिक काल में बन गया, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपने धंधे का प्रचार करता था। पाषाण की बनी हुई कुल्हाड़ियाँ इन कांसे की कुल्हड़ियों के समक्ष फीकी पड़ गयीं। इन्होंने इसी धातु से प्रागैतिहासिक पशु आकृतियाँ भी बनाईं। इन कारीगारों ने कुल्हाड़ी का निर्माण करते-करते चमकते हुए आभूषण भी बनाने प्रारंभ किए, जिनके सबसे उत्कृष्ट युग के नमूने जूड़े के काँटो के रूप में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, हिसार, सूसा, छागर, लुरिस्तान इत्यादि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार कांसे के बने कड़े हड़प्पा, मोहनजोदड़ों, हिसार, सूसा, सियाल्क, चीन तथा मिस्र आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

विभिन्न वस्तुओं का निर्माण

धातु से निर्मित सुन्दर अँगूठियाँ भी मिली हैं। प्रागैतिहासिक काल में कांसे के कारीगरों ने छोटी गाड़ियाँ भी बनाईं, जो खिलौनों की भाँति प्रयोग में आती थीं। इस प्रकार की एक बड़ी सुंदर गाड़ी, जिस पर उसका चलाने वाला भी बैठा है, हड़प्पा से प्राप्त हुई है। कांसे के बरतन भी इस काल में बने। ऐसे बरतन ईरान, सुमेर, मिस्र तथा भारत के मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोथल से प्राप्त हुए हैं। ये भी प्राय: ढाल कर या पत्थर को पीट कर बनाये जाते थे। आने वाले समय में चल कर इन पर उभाड़दार काम भी दिखाई देने लगा, जो कदाचित मिट्टी पर काम बना कर उस पर पत्थर रखकर और पीट कर बनाया जाता था। कालांतर में मिश्र धातु से विभिन्न प्रकार की अनेक वस्तुएँ बनाई गईं। भारत में भी तक्षशिला से कटोरी के आकार के मसीह पात्र प्राप्त हुए हैं, जिन पर ढक्कन लगा हुआ है तथा जिसमें कलम से स्याही लेने के हेतु छेद बना है। इस प्रकार की धातु की बनी घंटियाँ भी यहाँ से प्राप्त हुई हैं। बहुत-सी छोटी-छोटी वस्तुओं में धर्म चक्र के आकार की बनी पुरोहित के डंडे की मूठ, मुर्गे की मूर्ति तथा मनुष्य की मूर्तियाँ इत्यादि मिली हैं। यहाँ पर स्त्री की ठोस मूर्ति, जो कमल पर खड़ी है, बड़ी ही सुंदर है।

कांसे के पात्र से लाभ

कांसे के पात्र बुद्धिवर्धक, स्वाद अर्थात् रुचि उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतः कांसे के पात्र में भोजन करना चाहिए। इससे बुद्धि का विकास होता है। उष्ण प्रकृति वाले व्यक्ति तथा अम्ल पित्त, रक्त पित्त, त्वचा विकार, यकृतहृदय आदि विकार से पीड़ित व्यक्तियों के लिए कांसे के पात्र स्वास्थ्यप्रद हैं। इससे पित्त का शमन व रक्त की शुद्धि होती है। परंतु 'स्कन्द पुराण' के अनुसार चतुर्मास के दिनों में ताँबे व कांसे के पात्रों का उपयोग न करके अन्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करना चाहिए। चतुर्मास में पलाश वृक्ष के पत्तों में या इनसे बनी पत्तलों में किया गया भोजन 'चान्द्रायण व्रत' एवं 'एकादशी व्रत' के समान पुण्य प्रदान करने वाला माना गया है। इतना ही नहीं, पलाश के पत्तों में किया गया एक-एक बार का भोजन त्रिरात्र व्रत के समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला बताया गया है। चतुर्मास में बड़ के पत्तों या पत्तल पर किया गया भोजन भी बहुत पुण्यदायी माना गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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