कर्षापण

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कर्षापण
मगध राज्य का कर्षापण
विवरण 'कर्षापण' प्राचीन भारत के विभिन्न राज्यों में प्रचलित सिक्का था। जातक, पाणिनि के व्याकरण, तथा चाणक्य के अर्थशास्त्र में रजत और ताम्र के सिक्कों को कर्षापण कहा गया है।
समय प्राचीन भारत
निर्माण धातु सोना, चाँदी, रजत, ताँबा
संबंधित लेख मौर्य काल, मौर्य साम्राज्य, जातक कथा, बिम्बिसार, अशोक, अजातशत्रु
अन्य जानकारी जातकों के अध्ययन से सिद्ध होता है कि बुद्ध के समय सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। इन सिक्कों को 'निक्ख' (निष्क), 'कहापण' (कर्षापण), 'सुवण्ण' (सुवर्ण), 'कंस', 'पाद', 'मास-मासक' और 'काकणिक' कहा जाता था

कर्षापण प्राचीन समय में प्रयुक्त होने वाला स्वर्ण का सिक्का था। जातकों से यह सिद्ध होता है कि बुद्ध के समय में सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। इन सिक्कों को निष्क, कर्षापण तथा सुवर्ण, कंस, पाद, मास-मासक और काकणिक कहा जाता था। सम्राट नहपान के समय में स्वर्ण कर्षापण का विनिमय दर 1:35 था।

जातक ग्रंथों में उल्लेख

जातक ग्रन्थों के अनुसार बुद्ध के समय का सर्वाधिक प्रचलित सिक्का 'कर्षापण' अथवा 'कहापण' कहलता था। कर्षापण चाँदी या ताॅंबे का सिक्का था, यह निश्चित बताना कठिन है। जातक अटठ्कथा के अनुसार एक कहापण (कर्षापण) 20 मासे का होता था। बुुद्धघोष का कहना है कि कर्षापण चाँदी का सिक्का होता था।

‘रजत वुच्चति कहापणो’

जातकों से यह प्रतीत होता है कि कर्षापण चाँदी या ताँबे का सिक्का रहा होगा तथा कर्षापणों से प्रायः अनेक वस्तुओं की कीमत तय होती थी। उदाहरणार्थ ‘गामणीचण्ड’ जातक से पता चलता है कि एक जोड़ी बैल की कीमत 24 कर्षापण थी तथा एक गघे का मूल्य प्रायः 8 कर्षापण होता था। 'कुण्डक कुच्छि' जातक में वर्णन मिलता है कि अच्छी जाति के घोड़े की कीमत प्रायः एक हज़ार के 6 हज़ार कर्षापण तक होती थी। 'महावेस्सन्तर' जातक में काशी के बहुमूल्य वस्त्रों की कीमत एक लाख कर्षापण बतायी गई है। अच्छी नस्ल के कुत्ते का मूल्य एक कर्षापण था। 'कण्ह' जातक में काशी के व्यापारी ने 500 गाड़ियों का मरूस्थल पार करने के लिए प्रति बैल दो कर्षापण दिये तथा अर्घमासक या मासक एक दैनिक मजदूर की मजदूरी होती थी।

बुद्धकाल में प्रचलन

महात्मा बुद्ध के समय में अत्यन्त प्राचीन काल से चली वस्तु विनिमय प्रणाली थोड़ी बहुत मात्रा में प्रचलित थी, ऐसा जातक ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है। चूॅंकि बौद्ध भिक्षु अर्थ संग्रह और उसका स्पर्श नहीं करते थे। विनिमय करते थे। इस साधन को ही वे ज्यादातर अपनाते थे। जातकों के काल तक चावल का एक परिणाम वस्तुओं के विनिमय के रूप मेें प्रचलित था। किन्तु बुद्धकाल में सिक्कों के प्रचलन का पक्का प्रमाण मिलता है और कई अवसरों पर ऐसा प्रतीत होता है कि सिक्कों के रूप में अनेक वस्तुओं के मूल्य निश्चित हुआ करते थे। जातकों के अध्ययन से भी यह सिद्ध होता है कि उस समय सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। इन सिक्कों को 'निक्ख' (निष्क), 'कहापण' (कर्षापण), 'सुवण्ण' (सुवर्ण), 'कंस', 'पाद', 'मास-मासक' और 'काकणिक' कहा जाता था। इसमेें निष्क सोने का सिक्का था, जो प्रारम्भ मेें एक आभूषण के रूप में भी प्रयुक्त होता था। सुवर्ण जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि यह सोने का सिक्का था। सम्भवतः इसे ही 'हिरण्य' भी कहते थे। यद्यपि प्रसेनजित, बिम्बिसार और अजातशत्रु के समय ढप्पेदार सिक्के प्राप्त होते हैं; परन्तु अभी तक 'सुत्तपिटक' में चर्चित इन राजाओं के सोने के सिक्के का ज्ञान नहीं है। परन्तु पाणिनी ने (550 ई. पू.) कर्षापण और शतमान जैसे सोने के सिक्के का उल्लेख किया है। इन सिक्कों का पारस्परिक मूल्यमान क्या था, यह निश्चित करना कठिन है। 'विनयपिटक' में वर्णन मिलता है कि अजातशत्रु और विम्बसार के समय राजगृह मेें 5 पाँच मासे का एक पद होता था और 5 सुवर्ण के बराबर एक निष्क होता था।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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