जयपुर

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जयपुर
हवामहल, जयपुर
विवरण जयपुर राजस्थान राज्य की राजधानी है। यहाँ के भवनों के निर्माण में गुलाबी रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है, इसलिए इसे 'गुलाबी नगर' भी कहते हैं।
राज्य राजस्थान
ज़िला जयपुर ज़िला
निर्माता राजा जयसिंह द्वितीय
स्थापना सन 1728 ई. में स्थापित
भौगोलिक स्थिति उत्तर- 26.9260°, पूर्व- 75.8235°
प्रसिद्धि कराँची का हलवा
कब जाएँ सितंबर से मार्च[1]
कैसे पहुँचें दिल्ली से अजमेर शताब्दी और दिल्ली-जयपुर एक्सप्रेस से जयपुर पहुँचा जा सकता है। कोलकाता से हावड़ा-जयपुर एक्सप्रेस और मुम्बई से अरावली व बॉम्बे सेन्ट्रल एक्सप्रेस से जयपुर पहुँचा जा सकता है। दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग 8 से जयपुर पहुँचा जा सकता है जो 256 किलोमीटर की दूरी पर है। राजस्थान परिवहन निगम की बसें अनेक शहरों से जयपुर जाती हैं।
हवाई अड्डा जयपुर के दक्षिण में स्थित संगनेर हवाई अड्डा नज़दीकी हवाई अड्डा है। जयपुर और संगनेर की दूरी 14 किलोमीटर है।
रेलवे स्टेशन जयपुर जंक्शन
बस अड्डा सिन्धी कैम्प, घाट गेट
यातायात स्थानीय बस, ऑटो रिक्शा, साईकिल रिक्शा
क्या देखें सिटी पैलेस , हवा महल, जन्‍तर मन्‍तर, जल महल, अल्‍बर्ट हॉल संग्रहालय, आमेर का क़िला, अम्बर क़िला, सांभर झील, गोविंद देवजी का मंदिर आदि
क्या ख़रीदें कला व हस्तशिल्प द्वारा तैयार आभूषण, हथकरघा बुनाई, आसवन व शीशा, क़ालीन, कम्बल आदि ख़रीदे जा सकते हैं।
एस.टी.डी. कोड 0141
Map-icon.gif गूगल मानचित्र, हवाई अड्डा
अन्य जानकारी जयपुर सूखी झील के मैदान में बसा है जिसके तीन ओर की पहाड़ियों की चोटी पर पुराने क़िले हैं। यह बड़ा सुनियोजित नगर है।

जयपुर (अंग्रेज़ी:Jaipur) वर्तमान राजस्थान राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा नगर है। 1947 ई. तक जयपुर नाम की एक देशी रियासत की राजधानी थी। कछवाहा राजा जयसिंह द्वितीय का बसाया हुआ राजस्थान का ऐतिहासिक प्रसिद्ध नगर है। इस नगर की स्थापना 1728 ई. में की थी और उन्हीं के नाम पर इसका यह नाम रखा गया गया। स्वतंत्रता के बाद इस रियासत का विलय भारतीय गणराज्य में हो गया। जयपुर सूखी झील के मैदान में बसा है जिसके तीन ओर की पहाड़ियों की चोटी पर पुराने क़िले हैं। यह बड़ा सुनियोजित नगर है। बाज़ार सब सीधी सड़कों के दोनों ओर हैं और इनके भवनों का निर्माण भी एक ही आकार-प्रकार का है। नगर के चारों ओर चौड़ी और ऊँची दीवार है, जिसमें सात द्वार हैं। यहाँ के भवनों के निर्माण में गुलाबी रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है, इसलिए इसे गुलाबी शहर भी कहते हैं। जयपुर में अनेक दर्शनीय स्थल हैं, जिनमें हवा महल, जंतर-मंतर, जल महल, आमेर का क़िला और कुछ पुराने क़िले अधिक प्रसिद्ध हैं।

स्थापना

आधुनिक राजस्थान की राजधानी जयपुर की नींव 18 नवम्बर, 1727 ई. को कछवाहा शासक सवाई जयसिंह (1700-1743 ई.) के द्वारा रखी गयी। एक पूरे के पूरे नगर की प्रायोजना और निर्माण किसी भी राज्य के लिए असाधारण कार्य होता है और उसका बीड़ा वह तभी उठा सकता है, जब वह स्वतंत्र हो और उसमें नूतन शक्तियों का उन्मेष हो रहा हो। आमेर के कछवाहा राज्य के साथ यह तथ्य सत्य प्रतीत होता है। जयपुर के निर्माण में जयसिंह को विद्याधर नामक बंगाली नगर नियोजन से विशेष मदद मिली थी। उसने जयपुर को एकसुनिश्चित योजना के आधार पर बनाया। 1729 ई. में नगर का एक बड़ा भाग, जिसमें बाज़ार, मन्दिर मकान आदि सभी थे, बनकर तैयार हो गया था। जयपुर फतेहपुर सीकरी की भाँति नहीं था, जो मुख्य रूप से शाही आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु बनवाया गया था। यहाँ नौ से में सात खण्ड जनसाधारण के मकानों एवं दुकानों के लिए निर्धारित किये गये थे। दक्षिण दिशा को छोड़कर उसके तीनों ओर पहाड़ियाँ हैं। पुराना नगर चहारदीवारी से घिरा हुआ है, जिसके चारों और सात दरवाज़े बनाये गये थे।

इतिहास

कछवाहा राजपूत अपने वंश का आदि पुरुष श्री रामचन्द्र जी के पुत्र कुश को मानते हैं। उनका कहना है कि प्रारम्भ में उनके वंश के लोग रोहतासगढ़ (बिहार) में जाकर बसे थे। तीसरी शती ई. में वे लोग ग्वालियर चले आए। एक ऐतिहासिक अनुश्रुति के आधार पर यह भी कहा जाता है कि 1068 ई. के लगभग, अयोध्या-नरेश लक्ष्मण ने ग्वालियर में अपना प्रभुत्व स्थापित किया और तत्पश्चात् इनके वंशज दौसा नामक स्थान पर आए और उन्होंने मीणाओं से आमेर का इलाक़ा छीनकर इस स्थान पर अपनी राजधानी बनाई।

जल महल, जयपुर

इतिहासकारों का यह भी मत है कि आमेर का गिरिदुर्ग 967 ई. में ढोलाराज ने बनवाया था और यहीं 1150 ई. के लगभग कछवाहों ने अपनी राजधानी बनाई। 1300 ई. में जब राज्य के प्रसिद्ध दुर्ग रणथंभौर पर अलाउद्दीन ख़िलजी ने आक्रमण किया तो आमेर नरेश राज्य के भीतरी भाग में चले गए किन्तु शीघ्र ही उन्होंने क़िले को पुन: हस्तगत कर लिया और अलाउद्दीन से संधि कर ली। 1548-74 ई. में बिहारीमल अथवा भारमल आमेर का राजा था। उसने हुमायूँ और अकबर से मैत्री की और अकबर के साथ अपनी पुत्री मरीयम-उज़्-ज़मानी या हरका बाई (वर्तमान में जोधाबाई के नाम से प्रचलित) का विवाह भी कर दिया। उसके पुत्र भगवान दास ने भी अकबर के पुत्र सलीम के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके पुराने मैत्री-सम्बन्ध बनाए रखे। भगवान दास को अकबर ने पंजाब[2] का सूबेदार नियुक्त किया था। उसने 16 वर्ष तक आमेर में राज्य किया। उसके पश्चात् उसका पुत्र मानसिंह 1590 ई. से 1614 ई. तक आमेर का राजा रहा। मानसिंह अकबर का विश्वस्त सेनापति था। कहते हैं उसी के कहने से अकबर ने चित्तौड़ नरेश महाराणा प्रताप (1577 ई.) पर आक्रमण किया था। मानसिंह के पश्चात् जयसिंह प्रथम ने आमेर की गद्दी सम्हाली। उसने भी शाहजहाँ और औरंगज़ेब से मित्रता की नीति जारी रखी। जयसिंह प्रथम शिवाजी को औरंगज़ेब के दरबार में लाने में समर्थ हुआ था।

स्थापत्य कला

नगर निर्माण शैली के विचार से यह नगर भारत तथा यूरोप में अपने ढँग का अनुपम है, जिसकी समसामयिक एवं परवर्तीकालीन विदेशी यात्रियों ने मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है। भारतीय निर्माण कला की दृष्टि से जयपुर पुरातन तथा नूतन को जोड़ने वाली महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इस नगर का गुलाबी रंग इसकी पहचान बन गया है। कहा जाता है जयसिंह को औरंगज़ेब ने 1667 ई. में ज़हर देकर मरवा डाला था। 1699 ई. से 1743 ई. तक आमेर पर जयसिंह द्वितीय का राज्य रहा। इसने 'सवाई' का उपाधि ग्रहण की। यह बड़ा ज्योतिषविद और वास्तुकलाविशारद था। इसी ने 1728 ई. में वर्तमान जयपुर नगर बसाया। आमेर का प्राचीन दुर्ग एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है जो 350 फुट ऊँची है। इस कारण इस नगर के विस्तार के लिए पर्याप्त स्थान नहीं था। सवाई जयसिंह ने नए नगर जयपुर को आमेर से तीन मील (4.8 किमी) की दूरी पर मैदान में बसाया। इसका क्षेत्रफल तीन वर्गमील (7.8 वर्ग किमी) रखा गया। नगर को परकोटे और सात प्रवेश द्वारों से सुरक्षित बनाया गया। चौपड़ के नक्शे के अनुसार ही सड़कें बनवाई गई। पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली मुख्य सड़क 111 फुट चौड़ी रखी गई। यह सड़क, एक दूसरी उतनी ही चौड़ी सड़क को ईश्वर लाट के निकट समकोण पर काटती थी। अन्य सड़कें 55 फुट चौड़ी रखी गई। ये मुख्य सड़क को कई स्थानों पर समकोणों पर काटती थी। कई गलियाँ जो चौड़ाई में इनकी आधी या 27 फुट थी, नगर के भीतरी भागों से आकर मुख्य सड़क में मिलती थीं। सड़कों के किनारों के सारे मकान लाल बलुवा पत्थर के बनवाए गए थे जिससे सारा नगर गुलाबी रंग का दिखाई देता था। राजमहल नगर के केंद्र में बनाया गया था। यह सात मंज़िला है। इसमें एक दिवानेख़ास है। इसके समीप ही तत्कालीन सचिवालय, बावन कचहरी स्थित है। 18 वीं शती में राजा माधोसिंह का बनवाया हुआ छ: मंज़िला हवामहल भी नगर की मुख्य सड़क पर ही दिखाई देता है। राजा जयसिंह द्वितीय ने जयपुर, दिल्ली, मथुरा, बनारस, और उज्जैन में वेधशालाएँ भी बनाई थी। जयपुर की वेधशाला इन सबसे बड़ी है। कहा जाता है कि जयसिंह को नगर का नक्शा बनाने में दो बंगाली पंड़ितों से विशेष सहायता प्राप्त हुई थी।

भौगोलिक संरचना

जयपुर राज्य राजपूताना के उत्तर पश्चिम व पूर्व में स्थित है। इसका नाम ई. सन् 1728 में जयपुर नगर बसने पर अपनी राजधानी के नाम पर पड़ा। इसके पहले यह आमेर राज्य कहलाता था। इस नाम से यह नगर ई. सन् 1200 के लगभग काकिल देव ने बसाया। इससे भी पहले यह राज्य 'ढूंढ़ाड़' कहलाता था। कर्नल टॉड ने ढूंढ़ाड़ नाम जोबनेर के पास ढ़ूंढ़ नाम पहाड़ी के कारण बतलाया है। पृथ्वीसिंह मेहता ने यह नाम जयपुर के पास आमेर की पहाड़ियों से निकलने वाली धुन्ध नदी के नाम पर बतलाया है। धुन्ध नदी का नाम इस क्षेत्र में धुन्ध नामक किसी अत्याचारी पुरुष के नाम के कारण पड़ा, जो उस क्षेत्र में रहता था। जोबनेर के पास ढ़ूंढ़ नामक कोई पहाड़ी नहीं है अत: बहुत संभव है कि इस नदी से ही यह क्षेत्र ढूंढ़ाड़ कहलाया है। महाभारत के समय यह मत्स्य प्रदेश का एक भाग था। उस वक्त इसकी राजधानी बैराठ (जयपुर नगर से 48 मील) थी जो अब एक छोटा क़स्बा है। यहाँ सम्राट अशोक के समय का एक शिलालेख मिला है। ई. सन् 634 में यहाँ चीनी यात्री ह्वेन त्सांग आया था। उस समय यहाँ बौद्धों के 8 मठ थे। इस नगर को महमूद गज़नवी ने काफ़ी नष्ट कर दिया था। मत्स्य प्रदेष के मत्स्यों ने राजा सुदाश से युद्ध किया था। मनु ने इस प्रदेश को ब्रह्माॠषि देश के अन्तर्गत माना था।[3]

कृषि

रेतीले भूमि की मुख्य फसल बाजरा, मूंग एवं मोठ है। मैदानी क्षेत्र की पैदावार कपास, ज्वार, मक्का, बाजरा, गेहूं, चना, धनिया, अफीम आदि है। सवाई माधोपुर की ओर ईख, चावल और मूंगफली भी होती है। नदियों के किनारे व आस पास के क्षेत्रों में खरबूज, तरबूज, ककड़ी आदि होती है। ज़्यादातर किसान वर्षा पर निर्भर रहते हैं। यहाँ की औसत वर्षा 24 इंच है। यह जून में आरम्भ होकर सितम्बर के अन्त तक रहती है। सबसे ज़्यादा वर्षा सवाई माधोपुर में और सबसे कम शेखावटी क्षेत्र में होती है।

खनिज पदार्थ

यहां कई प्रकार के खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। राज्य की ओर से अभी तक उद्योगपतियों को बहुत कम सुविधा दी गयी है तथा राज्य ने इस ओर बहुत कम ध्यान दिया है अन्यथा यह राज्य की आमदनी का एक बड़ा साधन हो सकता है। यातायात की सुविधा न होने, आधुनिक मशीनों की कमी तथा धन की कमी के कारण खनिज पदार्थ यहां ज़्यादा नहीं निकाले जाते हैं। जो भी निकाले जाते हैं उनमें से अधिकांश कच्चे रुप में ही बाहर भेज दिये जाते हैं। खनिज उद्योग को प्रोत्साहन देने की ओर राज्य की ओर से अब ध्यान दिया जाता है। यहाँ पाये जाने वाले खनिजों में प्रमुख निम्लिखित हैं[3]-

खनिज प्राप्ति स्थान
लोहा लोहे के भण्डार टाटेरि, सिंघाना, काली पहाड़ी एवं बागोली सराय में है।
तांबा यह खेतड़ी, सिंघाना, खो दरीबा, उदपुरवाटी मातसूला में मिलता है। मुग़लकाल में यहां काफ़ी मात्रा में ताम्बा निकाला जाता था।
बेरिलियम इसका उपयोग अणुशक्ति प्राप्त करने में तथा हवाई जहाज़ आदि बनाने में किया जाता है। यह बचूरा तथा मालपुरा में मिलता है।
घीया भाटा (सोप स्टोन) इसका उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों के बनाने में, काग़ज़, कपड़ा, रबड़, चमड़ा आदि के निर्माण में उपयोग में लाया जाता है। यह ज़्यादातर विदेशों को भेजा जाता है। यहाँ से सालाना लगभग 10,000 टन निकलता है। यह डगोता झरना (दौसै से 20 मील उत्तर) निवाई, हिण्डौन, नीम का थाना में मिलता है।
अभ्रक इसकी खानें मालपुरा, टोडा रायसिंह एवं दूनी में है। यह लगभग सालाना 4000 मन निकलता है। यह बिजली की मशीनों, रेडियों हवाई जहाज़ आदि में काम में आता है।
गाया भाटा (केला साईट) यह मावड़ा, खेतड़ी, पान व नीम का थाना में मिलता है।
कांच बनाने का बालू (सिलिका सेण्ड) यह बांसको, धूला मानोता आदि में मिलता है। यह चूड़ियां व कांच बनाने के काम में आता है।
चूने का पत्थर यह मांवडा, पाटन, भेसलाना, नायला, परसरामपुरा में मिलता है। इसका सिमेन्ट बनाने में काफ़ी प्रयोग होता है। यों मकान बनाने में भी इसका काफ़ी उपयोग होता है।
काला संगमरमर यह भैसलाना में मिलता है।
इमारती पत्थर यह कोटरी, जसरापुर, आमेर, रघुनाथगढ़ व टोडा रायसिंह के आस पास के खानों में मिलता है।

उद्योग और व्यापार

यह वाणिज्यिक व्यापार केन्द्र है। यहाँ के उद्योगों में इंजीनियरिंग और धातुकर्म, हथकरघा बुनाई, आसवन व शीशा, होज़री, क़ालीन, कम्बल, जूतों और दवाइयों का निर्माण प्रमुख है। जयपुर के विख्यात कला व हस्तशिल्प में आभूषणों की मीनाकारी, धातुकर्म व छापे वाले वस्त्र के साथ-साथ पत्थर, संगमरमर व हाथीदांत पर नक़्क़ाशी शामिल है। जयपुर राज्य की ओर विशेषकर यहाँ के शेखावटी क्षेत्र के निवासी भारत के प्रमुख उद्योगपतियों में गिने जाते हैं। इनके औद्योगिक संस्थान कोलकाता, मुम्बई, अहमदाबाद, कानपुर आदि में हैं। इसमें से कुछ उद्योगपतियों ने जयपुर में कुछ उद्योग धन्धे चालू किये हैं। बड़े पैमाने पर उद्योग धन्धों में यहाँ जयपुर मेटल एण्ड इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, नेशनल बाल बीयकिंरग फैक्ट्री, जयपुर स्पीनिंग एन्ड विविंग मिल्स, मान इन्डस्ट्रियल कारपोरेशन आदि हैं। जयपुर मेटल एण्ड इलेक्ट्रिकल्स अलोय धातु का सामान बनाने का एक बहुत बड़ा कारखाना है। यहाँ बिजली के मीटरों का भी उत्पादन होता है। नेशनल बाल बीयकिंरग फैक्ट्री भारत ही नहीं बल्कि एशिया का सबसे बड़ा कारखाना है। यहाँ बाल बीयकिंरग प्रचूर मात्रा में तैयार होते हैं। मान इन्डस्ट्रियल कारपोरेशन इस्पात के दरवाज़े, खिड़कियों के फ्रेम आदि बनाता है। भारत में अपने ढंग का यह पहला कारखाना है। इसके अलावा जोरास्टर एण्ड कम्पनी औद्योगिक आधार पर फैल्ट हैट तैयार करती है।

मीनाकारी और मूर्तिकारी

यहाँ के छोटे पैमाने के उद्योगों में मुख्य हैं - जवाहारात, मीनाकारी तथा जवाहारातों की जड़ाई, खादी व ग्राम उद्योग, हाथ का बना काग़ज़, खिलौने, हाथी दांत, सांगानेरी छपाई, बंधेज व रंगाई का काम, लाख का काम, जूते बनाई, गोटा किनारी का काम। यहां के पीतल के नक़्क़ाशी करने वालों तथा मूर्ति कारों की कला सम्पूर्ण भारत में विख्यात है। जयपुर के सिलावट कई वर्षों से हिन्दू देवी - देवताओं की मूर्तियों को बनाने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। यहाँ की बनी मूर्तियाँ देश के प्रत्येक भाग के मंदिरों में मिल जाएगी। दिल्ली, आगरा, फ़तेहपुर सीकरी के भवनों के निर्माण में भी यहाँ के संगतराशों का मुख्य हाथ रहा है। ये संगतराश ज़्यादातर माण्डू, नारनौल व डीग से यहां मिर्जा राजा मानसिंह के समय में आये हुये हैं। इन्होंने पहले आमेर में अपना निवास स्थान बनाया लेकिन सवाई जयसिंह के समय जयपुर नगर में आ बसे। ये अपने काम में पूरे उस्ताद हैं। ये ज़्यादातर मकराने का संगमरमर का पत्थर, अलवर का रायला का पत्थर व खेतड़ी के मैसलाना का काला पत्थर काम में लाते हैं। सारनाथ के नये बुद्ध मंदिर में स्थापित बुद्ध प्रतिमा यहाँ से बनाकर रखी गयी है।

जवाहारातों का केन्द्र

जयपुर जवाहारातों का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ रत्नों की कटाई, व बनाई बड़ी कुशलता से की जाती है। विशेषकर पन्ने की खरड़ के नगीने, मणिया, नीलम, मणाक आदि बनाने में यह स्थान विशेष प्रसिद्ध है। यहाँ के हाथी दांत के खिलौने कला की दृष्टि से बहुत सुन्दर बनते हैं। हाथी दांत की यहां चूड़ियाँ भी बनाई जाती है। हाथी दाँत से बनी विभिन्न वस्तुऐं - मूर्तियाँ, खिलौने, श्रृंगारदान, फूल पत्तियाँ आदि विदेशों को भी काफ़ी जाती है। यहाँ के चाँदी, पीतल, चन्दन, लकड़ी व कुट्टी के खिलौने भी बहुत प्रसिद्ध है। इनमें रंग भराई भी बड़ी कुशलता से की जाती है।

रंगाई, छपाई और बन्धेज

जयपुर के निकट ही सांगानेर में कपड़ों की रंगाई, छपाई तथा बन्धेज प्राचीन काल से प्रसिद्ध चली आ रही है। यहां की छींटे गुजरात, व मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में काफ़ी लोकप्रिय है। सांगानेरी साफे और कीमाल राजपूताना में प्रत्येक व्यक्ति लेना चाहता है। यहां के छीपे लकड़ी के ठप्पों से कपड़े पर छपाई करते हैं। रंगाई व बन्धेज का काम ज़्यादातर मुसलमान करते हैं। रंगाई पुरुष तो बन्धेज स्रियाँ ही करती हैं। बन्धेज के दो प्रकार है - चूंदड़ी और लहरिया। दोनों का ही काम जयपुर में बहुत अच्छा होता है।[3]

भाषा

मुख्य भाषा राजस्थानी है। हिन्दी, अंग्रेज़ीपंजाबी भाषा भी काफ़ी बोली जाती है। राजस्थानी भाषा की दो शाखाओं का यहाँ ज़्यादा प्रचलन है - शेखावटी क्षेत्र में मारवाड़ी का व शेष क्षेत्र में ढ़ूंढ़ाडी का। दोनों क्षेत्रों के निवासियों को एक दूसरे की भाषा समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। यही बात हिन्दी भाषा वालों के लिए भी है। यहाँ की राजभाषा सन् 1943 ई. से हिन्दी तथा उर्दू दोनों घोषित की गई है। इसके पहले यहाँ उर्दू का ही बोलबाला था। जयपुर के नरेशों ने हिन्दी व संस्कृत साहित्य की वृद्धि में अपना अपूर्व योगदान दिया। उन्होंने साहित्य व विद्या प्रेमी दोनों को ही उचित रुप से सम्मानित किया। इनके आश्रय में न केवल संस्कृत बल्कि हिन्दी, राजस्थानी तथा अन्य कई भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान् रहे हैं। जयपुर राज्य के नरेशों के कार्यकाल में कई महात्माओं - अग्रदास, नाभादास, दादूदयाल, रज्जव, ग़रीबदास आदि ने भक्ति प्रधान साहित्य की रचना की।[3]

धर्म

जयपुर में स्थित सैकड़ों मंदिरों को देखकर कोई तत्काल ही सोच सकता है कि वह बनारस, वृन्दावन जैसे धार्मिक स्थान पर आ गया है। वास्तव में जयपुर हिन्दुओं का एक धार्मिक केन्द्र है। जयपुर राजाओं की सहिष्णुता के कारण यहाँ के मुसलमानोंईसाईयों के भी कई पूजन स्थल - मस्जिदें व गिरजाघर दिखाई देते हैं। हिन्दुओं में ज़्यादातर वैष्णव हैं। उनके बाद क्रमश: शैव, शाक्त, जैन, दादूपंथी, आर्य समाजी आदि आते हैं। वैष्णव विष्णु तथा लक्ष्मी की पूजा करते हैं। विष्णु के अवतार रामकृष्ण की तथा उनकी धर्मपत्नियों - सीताराधा की भी पूजा की जाती है। जयपुर के महाराजा व कछवाहा राजपूत अपने को राम का वंशज मानते हैं तथा राम, सीता व राम के भाई लक्ष्मण एवं उनके सेवक हनुमान की पूजा ज़्यादा की जाती है। वैष्णवियों के चार मुख्य सम्प्रदाय हैं - रामानुज, निम्बार्क, माधव, गोकुलिया। रामानुज राम के उपासक हैं लेकिन शेष तीनों कृष्ण के उपासक हैं। शैव, शिव के उपासक हैं। ये लोग 'लिंग' के रुप में पूजा करते हैं। 'लिंग' स्थायी रुप से एक ही स्थान पर रहता है। इसे एक स्थान पर स्थापित करने के बाद हटाया नहीं जाता है। लिंग के चारों ओर पार्वती, गणेश कार्तिकेय, नन्दी, सिंह की मूर्तियां रहती हैं। शाक्त लोग शक्ति जो पार्वती का ही एक नाम है, की पूजा करता हैं। इसको काली या महाकाली भी कहते हैं। आमेर के क़िले में इसकी पूजा शीलामाता के नाम से की जाती है। यह सिंह पर सवार होती है तथा इसके 8 भुजायें होती हैं। प्रत्येक हिन्दू परिवार की एक कुल देवी होती है जिसकी वे पूजा करते हैं - साल में कम से कम दो बार। कछवाहों की कुलदेवी जमवाय माता है जिसका पूजा स्थल जमवा रामगढ़ में है। शैवों व शाक्तों की एक प्रशाखा बाममार्ग कहलाती है जो मुक्ति के लिए तंत्र, मंत्र, सुरा, मांस, मछली व स्री का होना आवश्यक समझते हैं।
गणपति की पूजा लगभग सभी हिन्दू करते हैं। कारण -इन्हें सफलता व समृद्धि का देवता माना जाता है। इनकी मूर्ति प्रत्येक घर में दरवाज़े पर रहती है। गणेश अपनी हाथी की सूंड व चार हाथों के कारण आसानी से पहचाने जाते हैं। जयपुर में मोती डेगरी पर गणेश का बड़ा मंदिर है। जयपुर में दादू पंथी भी काफ़ी हैं। दादू दयाल एक प्रसिद्ध सुधारक थे जो मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने 500 पदों की "वाणी' रचना की जो हिन्दी का एक सिद्ध काव्य है। इसे दादू पंथी अपना धार्मिक ग्रन्थ मानते हैं। दादू पंथियों की जयपुर राज्य में सेना है। दादू दयाल के 52 शिष्य थे जिन्होंने अलग - अलग थम्भे स्थापित किये। नागा लोग दादू के वरिष्ठ शिष्य सुन्दरदास के अनुचर हैम, जिनका गुरुद्वारा घाटडा (अलवर राज्य) में है। दादू दयाल के सबसे छोटे शिष्य सुन्दरदास हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि हो गये। इन्होंने 'सुन्दर वाणी' की रचना की थी। इनके ग्रन्थ 'सुन्दर विलास', 'ज्ञान समुद्र', "सुन्दर काव्य" आदि प्रसिद्ध है। इनका जन्म धूसर जाति में दौसा में हुआ था तथा मृत्यु सांगानेर में हुई थी। जयपुर में ज़्यादातर ओसवाल व सरावगी जैन धर्मावलम्बी हैं। जैनों में दो शाखायें 'दिगम्बरी' तथा 'श्वेताम्बरी' हैं। ये 24 तीर्थंकरों में विश्वास करते हैं। ये अहिंसा में ज़्यादा विश्वास करते हैं। इनके रीति रिवाज ज़्यादातर हिन्दुओं जैसे ही हैं।[3]

यातायात और परिवहन

जयपुर में प्रमुख सड़क, रेल और वायुसम्पर्क उपलब्ध है।

कला

जयपुर के राजा कला प्रेमी थे। युद्धों में लगे रहने के बावजूद बीच बीच में जब भी इन्हें मौका मिलता, कला व साहित्य की ओर ये ध्यान देते थे। अत: यहाँ शौर्य और कला का अपूर्व मिश्रण हुआ है। यहाँ के राजाओं ने कलाकारों को अपने दरबार में आश्रय दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यहाँ के नरेशों का मुग़लों से अत्यधिक सम्पर्क रहने से यहाँ की कला पर भी काफ़ी प्रभाव रहा लेकिन उसमें भी काफ़ी लौकिकता है।

चित्रकला

जयपुर की चित्रकला राजस्थान की चित्रकला में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जयपुर शैली का युग 1600 से 1900 तक माना जाता है। जयपुर शैली के अनेक चित्र शेखावाटी में 18 वीं शताब्दी के मध्य व उत्तरार्ध में भित्ति चित्रों के रूप में बने हैं। इसके अतिरिक्त सीकर, नवलगढ़, रामगढ़, मुकुन्दगढ़, झुंझुनू इत्यादि स्थानों पर भी इस शैली के भित्ति चित्र प्राप्त होते हैं।

मोती डुंगरी क़िला, जयपुर

Blockquote-open.gif सवाई जयसिंह ने नए नगर जयपुर को आमेर से तीन मील (4.8 किमी) की दूरी पर मैदान में बसाया। इसका क्षेत्रफल तीन वर्गमील (7.8 वर्ग किमी) रखा गया। नगर को परकोटे और सात प्रवेश द्वारों से सुरक्षित बनाया गया। इस नगर की स्थापना 1728 ई. में की थी और राजा जयसिंह द्वितीय के नाम पर इसका यह नाम रखा गया गया। स्वतंत्रता के बाद इस रियासत का विलय भारतीय गणराज्य में हो गया। जयपुर सूखी झील के मैदान में बसा है जिसके तीन ओर की पहाड़ियों की चोटी पर पुराने क़िले हैं। Blockquote-close.gif

  • जयपुर शैली के चित्रों में भक्ति तथा श्रृंगार का सुन्दर समंवय मिलता है। कृष्ण लीला, राग-रागिनी, रासलीला के अतिरिक्त शिकार तथा हाथियों की लड़ाई के अद्भुत चित्र बनाये गये हैं। विस्तृत मैदान, वृक्ष, मन्दिर के शिखर, अश्वारोही आदि प्रथानुरूप ही मीनारों व विस्तृत शैलमालाओं का खुलकर चित्रण हुआ है। जयपुर के कलाकार उद्यान चित्रण में भी अत्यंत दक्ष थे। उद्योगों में भांति-भांति के वृक्षों, पक्षियों तथा बन्दरों का सुन्दर चित्रण किया गया है।
  • मानवाकृतियों में स्त्रियों के चेहरे गोल बनाये गये हैं। आकृतियाँ मध्यम हैं। मीन नयन, भारी, होंठ, मांसल चिबुक, भरा गठा हुआ शरीर चित्रित किया गया है। नारी पात्रों को चोली, कुर्ती, दुपट्टा, गहरे रंग का घेरादार लहंगा तथा कहीं-कहीं जूती पहने चित्रित किया गया है। पतली कमर, नितम्ब तक झूलती वेणी, पांवों में पायजेब, माथे पर टीका, कानों में बालियाँ, मोती के झुमके, हार, हंसली, बाजुओं में बाजूबन्द, हाथों में चूड़ी आदि आभूषण मुग़ल प्रभाव से युक्त हैं।
  • स्त्रियों की भांति पुरुषों को भी वस्त्राभूषणों से सुजज्जित किया गया है। पुरुषों को कलंगी लगी पगड़ी, कुर्ता, जामा, अंगरखा, ढोली मोरी का पायजामा, कमरबन्द, पटका तथा नोकदार जूता पहने चित्रित किया गया है।
  • जयपुर शैली के चित्रों में हरा रंग प्रमुख है। हासिये लाल रंग से भरे गये हैं जिनको बेलबूटों से सजाया गया है। लाल, पीला, नीला तथा सुनहरे रंगों का बाहुल्य है।

संगीत कला

राजा जयसिंह के दरबार में कई कवि, कलाकार व संगीतज्ञ थे। बिहारीलाल ने अपनी सतसई की यहाँ रचना की थी। संगीत ग्रन्थ 'हस्ताकर रत्नावली' 'की रचना भी इसी समय में यहां हुई थी। इससे यहां संगीत विद्या के शास्रीय अध्ययन को बड़ी सहायता मिली। माधोसिंह प्रथम के दरबार में ब्रजलाल नामक एक सिद्धहस्त वीणावादक रहता था। इसे जागीर भी इनाम में दे दी गयी। सवाई प्रतापसिंह स्वयं एक कवि था और संगीताचार्य भी। उसके दरबार के संगीतज्ञ उस्ताद चांदखां ने 'स्वर सागर ग्रंथ' की रचना की थी। प्रतापसिंह ने उसे 'बुद्ध प्रकाश' की उपाधि दी थी। एक और संगीतज्ञ भ द्वारकानाथ को प्रतापसिंह ने' बानी', पृथ्वीसिंह ने 'भारती' और माधोसिंह प्रथम ने 'सुरसति' की उपाधियां दी थी। इसने "राग चन्द्रिका" तैयार किया था। द्वारकानाथ के पुत्र देवर्षिभ ने 'राधागोविन्द संगीत सार 'ग्रन्थ की रचना की थी। इसे प्रतापसिंह ने बदखास की जागीर दी थी जो उसके वंशज अभी तक भोगते हैं। एक और संगीतज्ञ राधकृष्ण ने 'रागरत्नाकर 'की रचना का थी। प्रतापसिंह के दरबार में 22 कवियों, 22 ज्योतिषियों और 22 संगीतज्ञ भी थे। इनमें से अलीभगवान और श्रद्धारंग प्रसिद्ध स्वरकार थे।
सवाई मानसिंह के संरक्षण में हीरचन्द व्यास ने 'संगीत रत्नाकर' तथा 'संगीत कल्पद्रुम' नामक दो प्रामाणिक संगीत ग्रन्थों की रचनी की। एक दूसरे संगीतज्ञ मधुसूदन सरस्वती ने विभिन्न राग रागनियों का सचित्र ग्रन्थ राग - रागिनी संग्रह तैयार किया था। महाराज रामसिंह ने जयपुर में रामप्रकाश नाट्यशाला भी बनवायी थी। महाराजा ने अपने समय के प्रसिद्ध संगीतज्ञ बंशीधर हरिवल्लभाचार्य को जागीरें प्रदान की थी। संगीतज्ञों में उस्ताद करामतखां ध्रुपद का अद्वितीय गायक है। उणियारा ठिकाने में राधाकृष्ण द्वारा लिखित 'रागरत्नाकर' है।[3]

नृत्य कला

संगीत की भांति नृत्य कला भी जयपुर में खूब फली फूली। नृत्य की कत्थक शैली के लिए जयपुर प्रसिद्ध है। यह शैली मुख्यत: भावात्मक है तथा इसकी भाव भंगिमा और मुद्रायें देखने योग्य होती है।

शिक्षण संस्थान

जयपुर में 1947 में स्थापित राजस्थान विश्वविद्यालय स्थित है।

मेले और त्यौहार

जयपुर अपने मेले व त्यौहारों के लिए प्रसिद्ध है। घुड़ला, शीतलाष्टमी, गणगौर, नृसिंह चतुर्दशी, श्रावणी तीज आदि के मेले मुख्य हैं। चाकसू में शीतलाष्टमी मेले पर हज़ारों व्यक्ति एकत्रित होते हैं। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हिन्डौन के पास महावीरजी में मेला भरता है। इसमें भी लगभग 1 लाख व्यक्ति एकत्रित होते हैं। यह मेला तीन दिन तक चलता है। आमेर में आश्विन शुक्ल छठी को मेला भरता है। गणगौर व श्रावणी तीज जयपुर में बहुत धूमधाम से मनायी जाती है। मुसलमानों में संत अमानीशाह का मेला अजमेरी दरवाज़ा के बाहर भरता है। जयपुर में हिन्दुओं के मुख्य त्यौहार बसन्त पंचमी, भानु सप्तमी, महाशिवरात्रि, होली, शीतलाष्टमी, गणगौर, रामनवमी, अक्षय तृतीया, गंगा सप्तमी, बट सावित्री, अषाढ़ी दशहरा, गुरु पुर्णिमा, नाग पंचमी, रक्षा बंधन, बड़ी तीज, जन्माष्टमी, गोगानवमी, जल झूलनी अमावस्या, दशहरा, दीवालीमकर संक्रांति है। मुसलमानों में शब्बेरात, ईद, मुहर्रमबारावफ़ात जैसे मुख्य त्यौहार होते हैं।[3]

पर्यटन

राजस्थान पर्यटन की दृष्टि से पूरे विश्व में एक अलग स्थान रखता है लेकिन शानदार महलों, ऊँची प्राचीर व दुर्गों वाला शहर जयपुर राजस्थान में पर्यटन का सर्वोच्च केंद्र है। यह शहर चारों ओर से परकोटों (दीवारों) से घिरा है, जिस में प्रवेश के लीये 7 दरवाज़े बने हुए हैं 1876 मैं प्रिंस आफ वेल्स के स्वागत में महाराजा सवाई मानसिंह ने इस शहर को गुलाबी रंग से रंगवा दिया था तभी से इस शहर का नाम गुलाबी नगरी (पिंक सिटी) पड़ गया। यहाँ के प्रमुख भवनों में सिटी पैलेस, 18वीं शताब्दी में बना जंतर-मंतर, हवामहल, रामबाग़ पैलेस और नाहरगढ़ क़िला शामिल हैं। अन्य सार्वजनिक भवनों में एक संग्रहालय और एक पुस्तकालय शामिल है।

शासन प्रबन्ध

राज्य चिन्ह- जयपुर का झण्डा पंचरंगा - नीला, पीला, लाल, हरा और काला है। यह संख्या यह झण्डा मिर्जा राजा मानसिंह ने काबुल में सन् 1573 में पठानों के पांच सरदारों को हराकर उनके झण्डों के रंगों के अनुसार अपना रंग बनाया। इससे पहले यहाँ का झण्डा सफेद था तथा उसके बीच कचनार का वृक्ष था। इस झण्डे के बीच सूर्य की आकृति है। यहाँ के राज्य चिन्ह में सबसे ऊपर राधागोविन्द का चित्र है। बीच में बैल, सूर्य कारथ, हाथी व दुर्ग के चित्र हैं। इनके नीचे एक जंजीर है। चित्रों के एक ओर सिंह व एक ओर घोड़ा है। नीचे के एक ओर राज्य का मूलमंत्र 'यतोधम्र्य स्ततो जय:' लिखा है, जिसका अर्थ है धर्मऔर सत्य की सदा जय होती है।[3]

जनसंख्या

जयपुर की जनसंख्या (2001) 23,24,319 है और जयपुर ज़िले की कुल जनसंख्या 52,52,388 है।

वीथिका

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गरम क्षेत्र होने के कारण अप्रैल से अगस्त तक गर्मी अधिक पड़ती है।
  2. भारत विभाजन से पूर्व
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 3.4 3.5 3.6 3.7 तनेगारिया, राहुल। जयपुर राज्यभौगोलिक एवं आर्थिक विवरण (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) IGNCA। अभिगमन तिथि: 5 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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