तारामती

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तारामती (अंग्रेज़ी: Taramati) राजा हरिश्चन्द्र की राजमहिषी और शैव्य देश के राजा की पुत्री थीं। इन्हें शैव्या नाम से भी जाना जाता था। सत्यवादी हरिश्चन्द्र डोम के हाथ बिक गये थे और तारामती एक ब्राह्मण के यहाँ दासी का काम करने लगीं। वहाँ उनके पुत्र रोहिताश्व की सर्प-दंश से मृत्यु हो गयी। अत: वे उसे श्मशान लेकर पहुँचीं, जहाँ डोम द्वारा नियुक्त हरिश्चन्द्र ने 'कर' माँगा। शैव्या के पास कर चुकाने के लिए बालक का कफ़न भी नहीं था, किन्तु कर्त्तव्यारूढ़ हरिश्चन्द्र बिना कर लिये दाह संस्कार नहीं करने दे रहे थे। उनकी सत्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर इन्द्र प्रकट हुए और विश्वामित्र ने परीक्षा में सफल हरिश्चन्द्र के पुत्र को जीवित कर दिया।[1]

कथा

विश्वामित्र द्वारा हरिश्चन्द्र की परीक्षा

हरिश्चन्द्र इक्ष्वाकु वंश के प्रसिद्ध राजा थे। कहा जाता है कि सपने में भी वे जो बात कह देते थे, उसका पालन निश्चित रूप से करते थे। उनके राज्य में सर्वत्र सुख और शांति थी। उनकी पत्नी का नाम तारामती तथा पुत्र का नाम रोहिताश्व था। तारामती को कुछ लोग शैव्या भी कहते थे। महाराजा हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता और त्याग की सर्वत्र चर्चा थी। एक बार महर्षि विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र के सत्य की परीक्षा लेने का निश्चय किया।

हरिश्चंद्र द्वारा राज्य-दान

रात्रि में महाराजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न देखा कि कोई तेजस्वी ब्राह्मण राजभवन में आया है। उन्हें बड़े आदर से बैठाया गया तथा उनका यथेष्ट आदर-सत्कार किया गया। महाराजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में ही इस ब्राह्मण को अपना राज्य दान में दे दिया। महाराज हरीश्चंद्र जागने पर इस स्वप्न को भूल गये। दूसरे दिन महर्षि विश्वामित्र उनके दरबार में आये। उन्होंने महाराज को स्वप्न में दिए गये दान की याद दिलाई। ध्यान करने पर महाराज को स्वप्न की सारी बातें याद आ गयीं और उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया। ध्यान देने पर उन्होंने पहचाना की स्वप्न में जिस ब्राह्मण को उन्होंने राज्य दान किया था, वे महर्षि विश्वामित्र ही थे। राजा ने उन्हें अपने समस्त अधिकार सौंप दिये और सारा राज्य उन्हें दान में दे दिया।

विश्वामित्र की दक्षिणा

विश्वामित्र ने राजा से दक्षिणा माँगी, क्योंकि यह धार्मिक परम्परा है कि दान के बाद दक्षिणा दी जाती है। राजा ने मंत्री से दक्षिणा देने हेतु राजकोष से मुद्रा लाने को कहा। विश्वामित्र बिगड़ गये। उन्होंने कहा- "जब सारा राज्य तुमने दान में दे दिया है, तब राजकोष तुम्हारा कैसे रहा? यह तो हमारा हो गया। उसमें से दक्षिणा देने का अधिकार तुम्हें कहाँ रहा?" महाराजा हरिश्चन्द्र सोचने लगे। विश्वामित्र की बात में सच्चाई थी, किन्तु उन्हें दक्षिणा देना भी आवश्यक था। वे यह सोच ही रहे थे कि विश्वामित्र बोल पड़े- "तुम हमारा समय व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो। तुम्हें यदि दक्षिणा नहीं देनी है तो साफ-साफ कह दो, मैं दक्षिणा नहीं दे सकता। दान देकर दक्षिणा देने में आनाकानी करते हो। मैं तुम्हे शाप दे दूंगा।" हरिश्चन्द्र विश्वामित्र की बातें सुनकर दु:खी हो गये। वे अधर्म से डरते थे। वे बोले- "भगवन ! मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? आप जैसे महर्षि को दान न देकर दक्षिणा कैसे रोकी जा सकती है? राजमहल कोष सब आपका हो गया। आप मुझे थोड़ा समय दीजिये ताकि मैं आपकी दक्षिणा का प्रबंध कर सकूँ।"

विश्वामित्र ने समय तो दे दिया, किन्तु चेतावनी भी दी कि यदि समय पर दक्षिणा न मिली तो वे शाप देकर भस्म कर देंगे। राजा को भस्म होने का भय तो नहीं था, किन्तु समय से दक्षिणा न चुका पाने पर अपने अपयश का भय अवश्य था। उनके पास अब एक मात्र उपाय था कि वे स्वयं को बेचकर दक्षिणा चुका दें। उन दिनों मनुष्यों को पशुओं की भांति बेचा-ख़रीदा जाता था। राजा ने स्वयं को काशी में बेचने का निश्चय किया। वे अपना राज्य विश्वामित्र को सौंप कर अपनी पत्नी व पुत्र को लेकर काशी चले आये। काशी में राजा हरिश्चन्द्र ने कई स्थलों पर स्वयं को बेचने का प्रयत्न किया, पर सफलता न मिली। सायंकाल तक राजा को श्मशान घाट के मालिक डोम ने ख़रीदा। राजा अपनी रानी व पुत्र से अलग हो गये। रानी तारामती को एक साहूकार के यहाँ घरेलु कामकाज करने को मिला और राजा को मरघट की रखवाली का काम। इस प्रकार राजा ने प्राप्त धन से विश्वामित्र की दक्षिणा चुका दी।

रोहिताश्व की मृत्यु

तारामती जो पहले महारानी थीं, जिनके पास सैकड़ों दास-दासियाँ थी, अब बर्तन माजने और चौका लगाने का कम करने लगीं। स्वर्ण सिंहासन पर बैठने वाले राजा हरिश्चन्द्र श्मशान पर पहरा देने लगे। जो लोग शव जलाने मरघट पर आते थे, उनसे कर वसूलने का कार्य राजा को दिया गया। अपने मालिक की डांट-फटकार सहते हुए भी नियम व ईमानदारी से अपना कार्य करते रहे। उन्होंने अपने कार्य में कभी भी कोई त्रुटी नहीं होने दी। इधर रानी के साथ एक हृदय विदारक घटना घटी। उनके साथ पुत्र रोहिताश्व भी रहता था। एक दिन खेलते-खेलते उसे सांप ने डंस लिया। उसकी मृत्यु हो गयी। वह यह भी नहीं जानती थीं कि उसके पति कहाँ रहते हैं। पहले से ही विपत्ति झेलती हुई तारामती पर यह दुःख वज्र की भांति आ गिरा। उनके पास कफ़न तक के लिए पैसे नहीं थे। वह रोटी, बिलखती किसी प्रकार अपने पुत्र के शव को गोद में उठा कर अंतिम संस्कार के लिए श्मशान ले गयीं।

रात का समय था। सारा श्मशान सन्नाटे में डूबा था। एक दो शव जल रहे थे। इसी समय पुत्र का शव लिए रानी भी श्मशान पर पहुंचीं। हरिश्चन्द्र ने तारामती से श्मशान का कर माँगा। उनके अनुनय-विनय करने पर तथा उनकी बातों से वे रानी तथा अपने पुत्र को पहचान गये, किन्तु उन्होंने नियमों में ढील नहीं दी। उन्होंने अपने मालिक की आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया। उन्होंने तारामती से कहा- "श्मशान का कर तो तुम्हें देना ही होगा। उससे कोई मुक्त नहीं हो सकता। अगर मैं किसी को छोड़ दूँ तो यह अपने मालिक के प्रति विश्वासघात होगा।" उन्होंने तारामती से कहा- "अगर तुम्हारे पास और कुछ नहीं है तो अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़ कर दे दो, मैं उसे ही कर में ले लूँगा।"

तारामती विवश थीं। उन्होंने जैसे ही साड़ी को फाड़ना आरम्भ किया, आकाश में गंभीर गर्जना हुई। विश्वामित्र प्रकट हो गये। उन्होंने रोहिताश्व को भी जीवित कर दिया। विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को आशीर्वाद देते हुए कहा- "तुम्हारी परीक्षा हो रही थी कि तुम किस सीमा तक सत्य एवं धर्म का पालन कर सकते हो।" यह कहते हुए विश्वामित्र ने उन्हें उनका राज्य ज्यो का त्यों लौटा दिया। महाराज हरिश्चन्द्र ने स्वयं को बेचकर भी सत्यव्रत का पालन किया। यह सत्य एवं धर्म के पालन की एक बेमिसाल उदाहरण है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देखिए 'सत्यहरिश्चन्द्र' :भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मोहन अवस्थी

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