देवीधुरा मेला

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देवीधुरा कस्बे का विहंगम दृष्य

देवीधुरा उत्तराखण्ड में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है। इस मेले को देवीधुरा मेला कहते हैं। इसकी ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं।

मेला कब और कहाँ

माँ बाराही की गुफ़ा का उत्तरी प्रवेश मार्ग

श्रावण मास की पूर्णिमा को हज़ारों श्रद्धालुओं को आकर्षित करने वाला पौराणिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थल देवीधुरा अपने अनूठे तरह के पाषाण युद्ध के लिये पूरे भारत प्रसिद्ध है। श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन जहाँ समूचे भारतवर्ष में रक्षाबंधन के रूप में पूरे हर्षोल्लास के साथ बहनों का अपने अपने भाई के प्रति स्नेह के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है वहीं हमारे देश में एक स्थान ऐसा भी है जहाँ इस दिन सभी बहनें अपने अपने भाइयों को युद्ध के लिये तैयार कर, युद्ध के अस्त्र के रूप में उपयोग होने वाले पत्थरों से सुसज्जित कर विदा करती हैं। यह स्थान है उत्तराखण्ड राज्य का सिद्धपीठ माँ वाराही का देवीधुरा स्थल।


उत्तराखण्ड राज्य में प्रवेश करने के लिये तराई क्षेत्र में स्थित अनेक प्रवेश द्धारों मे से एक टनकपुर से आगे बढने के साथ ही जहाँ आपको ठेठ पर्वतीय संस्कृति के दर्शन मिलने लगते हैं, वहीं प्राकृतिक दृश्यों की मनमोहनी छटा भी देखने को मिलती है। टनकपुर से प्रसिद्ध सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ जाने के लिये राष्ट्रीय मार्ग एन. एच. 09 पर लगभग 80 किलोमीटर दूर स्थित है क़स्बा लोहाघाट। लोहाघाट से साठ किलोमीटर दूर स्थित है शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर जिसे देवीधुरा के नाम से जाना जाता हैं। समुद्रतल से लगभग 1850 मीटर (लगभग पाँच हजार फीट) की उँचाई पर स्थित है।[1]

इतिहास

मंदिर परिसर में रखीं बग्वाल (पत्थर मार युद्ध) में बचाव के उपयोग में लायी जाने वाली ढालें

ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के पूर्व सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न थी तब प्रजापति ने वाराह बनकर उसका दाँतो से उद्धार किया उस स्थिति में अब दृष्यमान भूमाता दंताग्र भाग में समाविष्ट अंगुष्ट प्रादेश मात्र परिमित थी। ‘‘ओ पृथ्वी! तुम क्यों छिप रही हो?’’ ऐसा कहकर इसके पतिरूप मही वाराह ने उसे जल मे मघ्य से अपने दन्ताग्र भाग में उपर उठा लिया। यही सृष्टि माँ वाराही हैं। देवीधुरा में सिद्धपीठ माँ वाराही के मंदिर परिसर के आस पास भी पर्यटकीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्य स्थलों में खोलीगाँड, दुर्वाचौड, गुफ़ा के अंदर बाराही शक्ति पीठ का दर्शन, परिसर में ही स्थित संस्कृत महाविद्यालय परिसर, शंखचक्र घंटाधर गुफ़ा, भीमशिला और गवौरी प्रवेश द्वार आदि प्रमुख हैं।

बग्वाल

प्राचीन काल से चली आ रही यहाँ की एक स्थापित परंपरा के अनुसार माँ बाराही धाम में श्रावणी पूणिमा (रक्षाबंधन के दिन) को यहाँ के स्थानीय लोग चार दलों में विभाजित होकर (जिन्हे खाम कहा जाता है, क्रमशः चम्याल खाम, बालिक खाम, लमगडिया खाम, और गडहवाल,) दो समूहों में बंट जाते हैं और इसके बाद होता है एक युद्ध जो पत्थरों को अस्त्र के रूप में उपयोग करते हुये खेला जाता है।

विशेषता

इस पत्थरमार युद्ध को स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ कहा जाता है। यह बग्वाल कुमाऊँ की संस्कृति का अभिन्न अंग है। श्रावण मास में पूरे पखवाड़े तक यहाँ मेला लगता है। जहाँ सबके लिये यह दिन रक्षाबंधन का दिन होता है वहीं देवीधुरा के लिये यह दिन पत्थर-युद्ध अर्थात् 'बग्वाल का दिवस' होता है। धार्मिक आस्था के साथ ही इस स्थल से लगभग 300 कि.मी. लम्बी हिम श्रंखलाओं के भव्य दृश्य का आनंद लिया जा सकता है।

चित्र वीथिका


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शुक्ला, अशोक कुमार। सिद्धपीठ माँ वाराही में रक्षाबंधन का दिन.. (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 25 सितम्बर, 2012।

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