निरुक्तम

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निरुक्तम के प्रणेता महर्षि यास्क हैं। आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार इनका समय ई. पू. 8वीं शताब्दी है। ‘निरुक्त’ के टीकाकार दुर्गाचार्य ने अपनी वृत्ति में 14 निरुक्तों का संकेत किया है।[1] यास्क कृत निरुक्त में भी 14 निरुक्तकारों के नाम आते हैं। ये नाम हैं- आग्रायण, औपमन्यव, औदुंबरायण, शाकपूणि, व स्थौलाष्ठीवि। इनमें से शाकपूणि का मत ‘बृहद्देवता’ में भी उद्धृत है। यास्क कृत निरुक्त (जो निघण्टु की टीका है) में 12 अध्याय हैं और अंतिम 2 अध्याय परिशिष्टरूप में हैं।

अध्याय विभाजन

महाभारत के शांतिपर्व में यास्क का नाम निरुक्तकार के रूप में आया है।[2] इस दृष्टि से इनका समय और भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है। निरुक्त के 14 अध्याय हैं, किन्तु तेरहवां व चौदहवां अध्याय स्वरचित न होकर अन्य किसी के द्वारा रचित है। अत: इन दो अध्यायों को परिशिष्ट कहा जाता है। निरुक्त तीन कांडों में विभक्त है। पहले कांड को नैघण्टुक, दूसरे को नैगम और तीसरे को दैवत कहते हैं। इस तरह से निरुक्त के तीन प्रकार होते हैं। निरुक्त में प्रतिपादित विषय हैं- नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात के लक्षण, भावविकार-लक्षण, पदभिवाग-परिज्ञान, देवता परिज्ञान, अर्थ प्रशंसा, वेदवेदांगगव्यूहलोप, उपधाविकार, वर्णलोप, वर्णविपर्यय का विवेचन, संप्रसार्य व असंप्रसार्य धातु, निर्वचनोपदेश, शिष्य-लक्षण, मंत्र-लक्षण आशीर्वाद, शपथ, अभिशाप, अभिख्या, परिवेदना, निंदा, प्रशंसा आदि द्वारा मंत्राभिव्यक्ति हेतु उपदेश, देवताओं का वर्गीकरण आदि। निरुक्तकार ने शब्दों की व्युत्पत्ति प्रदर्शित करते हए धातु के साथ विभिन्न प्रत्ययों का भी निर्देश किया है।

वैदिक शब्द एवं व्याकरण

यास्क समस्त नामों को ‘धातुज’ मानते हैं। इनमें आधुनिक भाषाशास्त्र के अनेक सिद्धान्तों का पूर्वरूप प्राप्त होता है। निरुक्त में वैदिक शब्दों की व्याख्या के अतिरिक्त, व्याकरण, भाषा-विज्ञान, साहित्य, समाजशास्त्र, इतिहास आदि विषयों का भी प्रसंगवश विवेचन मिलता है। यास्क ने वैदिक देवताओं के 3 विभाग किए हैं-'पृथ्वीस्थानीय' (अग्नि) 'अंतरिक्षस्थानीय' (वायुइन्द्र) और 'स्वर्गस्थानीय' (सूर्य)। यास्काचार्य के प्रभाव के कारण सभी परवर्ती निरुक्तकार उनसे पिछड़ गए। आगे के वेद भाष्याकारों को केवल यास्क ने ही प्रभावित किया।

टीकाकार

सायणाचार्य ने यास्काचार्य के अनुकरण पर ही अपने वेद भाष्यों की रचना की है। निरुक्त की गुर्जरमहाराष्ट्र प्रतियां सांप्रत उपलब्ध हैं। निरुक्त का समय-समय पर विस्तार किया गया है और वह भी अनेक व्यक्तियों के द्वारा। अत: मूल निरक्त की व्याप्ति निर्धारित करना कठिन हो गया है। निरुक्त के विस्तार की दृष्टि से दुर्गाचार्य की प्रति, गुर्जर प्रति और महाराष्ट्र प्रति ऐसा अनुक्रम लगाना पड़ता है। निरुक्त के सभी टीकाकारों में श्री दुर्गाचार्य का नाम सर्वप्रथम आता है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में पूर्ववर्ती टीकाकारों का उल्लेख तथा उनके मतों की समीक्षा भी की है।

सबसे प्राचीन टीकाकार हैं स्कंदस्वामी। उन्होंने सरल शब्दों में निरुक्त के 12 अध्यायों की टीका लिखी थी। डॉक्टर लक्ष्मण स्वरूप के अनुसार उनका समय 500 ई. है। देवराज यज्वा ने ‘निघण्टु’ की भी टीका लिखी है। उनका समय 1300 ई. है। महेश्वर की टीका खंडश: प्राप्त होती है, जिसे डॉक्टर लक्ष्मणस्वरूप ने 3 खंडों में प्रकाशित किया है। महेश्वर का समय 1500 ई. है। आधुनिक युग में ‘निरुक्त’ के अंग्रेज़ीहिन्दी में कई अनुवाद प्राप्त होते हैं।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 450 |

  1. (दुर्गावृत्ति, 1-13)
  2. (अध्याय 342-72-73)
  3. सं.वा.को. (द्वि.खं.), पृष्ठ 164

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