पोलियो

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पोलियो एक विषाणुजन्य रोग है, जो अधिकांशत: बच्चों को होता है। यद्यपि यह बीमारी किसी को भी हो सकती है, फिर भी बच्चे ही इसका शिकार ज़्यादा होते हैं, क्योंकि वयस्कों में इस बीमारी के प्रति कुछ रोग प्रतिरोधक क्षमता आ चुकी होती है, जबकि बच्चों में नहीं। पोलियो का वायरस संक्रमण से फैलता है। इसका संक्रमण मुख्य रूप से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फेको-मौखिक मार्ग के द्वारा होता है। यह पानी या मल पदार्थ, अस्वच्छ भोजन के साथ, जल के संक्रमण से हो सकता है। यह एक गंभीर वायरल संक्रमण है, जिससे शरीर के अंगों में विकलांगता आ सकती है। पोलियो लाईलाज है, क्‍योंकि इसका लकवापन ठीक नहीं हो सकता है। बचाव ही इस बीमारी का एक मात्र उपाय है।

परिचय

पोलियो से ग्रसित बच्चे

'पोलियोमाइलिटिस' को अक्सर 'पोलियो' या 'शिशु लकवा' कहा जाता है। पोलियोमाइलिटिस (पोलियो) एक संक्रमण है, जो पोलियो वायरस के कारण होता है। यह संक्रामक बीमारी पूरे शरीर को प्रभावित कर सकती है, किंतु ज़्यादातर स्नायुओं और माँस-पेशियों को अधिक प्रभावित करती है। इसमें पक्षाघात के विभिन्न प्रकार होते हैं। रीढ़ की पोलियो सबसे आम रूप है। असममित पक्षाघात में विशेषता यह है कि इसमें अधिक बार पैर शामिल होते हैं तथा कभी-कभी रोगी की गंभीर अवस्था में मृत्यु तक हो सकती है। पोलियो की बीमारी किसी भी व्यक्ति को हो सकती है, यद्यपि मुख्यत: यह बच्चों में ही पाई जाती है, क्योंकि वयस्कों में इसके लिए कुछ रोग प्रतिरोधक क्षमता आ जाती है। भारत में कुल पोलियो रोगियों में से आधे से अधिक एक साल से कम उम्र के बच्चे होते है तथा छ: माह से तीन वर्ष तक के बच्चे पोलियो के सर्वाधिक शिकार होते हैं। पोलियो रोग मुख्यत: एक से पाँच वर्ष तक की उम्र के बच्चों को अपना शिकार बनाता है। यह एक ऐसा वायरल रोग है, जो कि नवजात शिशु या पाँच वर्ष तक के बच्चों के शरीर में प्रवेश कर जाता है और उनके हाथ या पांवों को कार्य करने के योग्य नहीं छोड़ता और उन बच्चों में विकलांगता पैदा कर देता है। इस रोग से ग्रस्त बच्चे खड़े होकर नहीं चल सकते और वे अपने हाथ से भी कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं।

कारण

पोलियो एक विषाणुजन्य (वायरल) रोग है। यह एक संक्रमण है, जो जंगली पोलियो वायरस (पीवी) के कारण होता है। यह एक एन्टिरोनायरस होता है, जो पिकोर्नाविरुस परिवार के अंतर्गत आता है। पोलियो वायरस तीन प्रकार के होते हैं, जो किसी आदमी में संक्रमण का कारण बनते हैं और पोलियोग्रस्त बनाते है। वे तीनो प्रकार हैं- टाइप-1, टाइप-2 और टाइप-3। इस वायरस को विज्ञान की भाषा में 'फिल्टरेवल न्यूरोटापिक' नामक वायरस (स्पाइनल कीड़े) के नाम से जाना जाता है। यह वायरस सुषुम्ना के सफेद भाग पर संक्रमण करके वहाँ पर सूजन पैदा कर देता है। इस सूजन के कारण बच्चे के हाथ और पांव कार्य करना बंद कर देते हैं।

पोलियो वायरस का संक्रमण

पोलियो के वायरस का संक्रमण मुख्य रूप से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को फेको-मौखिक मार्ग के द्वारा होता है। यह पानी या मल पदार्थ, अस्वच्छ भोजन के साथ, जल के संक्रमण से हो सकता है। यह एक गंभीर वायरल संक्रमण है। पोलियो का विषाणु रोगी के मल तथा मुँह एवं नाक के स्राव मे पाया जाता है तथा यह खाने या पीने की वस्तुओं के साथ किसी स्वस्थ्य व्यक्ति में प्रवेश कर जाता है। भारत जैसे देश में अधिक जनसंख्या तथा स्वच्छता की काफ़ी स्थानों पर कमी के कारण पोलियो विषाणु के फैलने के लिए वातावरण बहुत ही उपयुक्त है। ज़्यादातर लोग[1] जब मल बाहर निष्काषित करते हैं तो उनका मल वायरस से संक्रमित रहता है, लेकिन वे व्यक्ति खुद बीमार नहीं रहते हैं। पोलियो का वायरस अंतर्ग्रहण से संप्रेषित होता है, जो कि मानव-मल और गंदगी में पाया जाता है।

जिन स्थानों पर मानव मल, पीने के पानी या कुओं, तालाब, जलाशयों के पानी को प्रदूषित करता है, वहाँ पर अधिक आयु के बच्चों और वयस्क व्यक्तियों को इस तरह के पानी में तैरने, नहाने या अंदर जाने देने से यह वायरस प्रभावित कर सकता है। यह प्रायः मल निष्कासन से मुँह के मार्ग से संप्रेषित होता है। यह वायरस नाक या मुँह से होकर प्रवेश करता है और फिर आंतों की ओर बढ़ता है और वहाँ से यह आंतों की कोशिकाओं में प्रवेश करके हजारों की संख्या के गुणकों में नये वायरस अणुओं में जन्म लेता है। यही मानव मल के साथ हफ्तों तक बाहर आते रहते हैं। इस प्रकार बार-बार आते-जाते रहने के चक्र के माध्यम से समग्र समुदाय को संक्रमण का ख़तरा होता है। आरएनए वायरस का यह समूह मुख्यतः जठरांत्र संक्रमित करता है और अकेले मानव में वास रोग का कारण बनता है। इसके अलावा दूषित भोजन खाने से भी यह वायरस शरीर में सिर तक पहुँच जाता है, जिसके फलस्वरूप सिर की कोशिकायें नष्ट होने लगती हैं। गर्भवती महिला को यदि उचित प्रोटीन युक्त भोजन नहीं मिलता है, तो उस बच्चे को भी पोलियो हो सकता है। जब इसका संक्रमण होता है तो 5-10% लोगों में इसके लक्षण उभरते हैं। अधिकांश रोगी सड़न रोकनेवाला मैनिंजाइटिस, हल्के बुखार, गले में ख़राश, पेट दर्द और उल्टी से पीड़ित होते हैं। संक्रमित लोगों में पोलियो के कारण लकवा कम से कम 1% में होता हैं।

लक्षण

पोलियो वायरस से संक्रमित 95 प्रतिशत से अधिक लोगों में कोई लक्षण नहीं होता है। हालांकि ये लोग संक्रमित होते है, किन्तु पोलियो के लक्षण नहीं होते। अर्थात् ये स्पर्शोन्मुख या बीमार नहीं रहते। फिर भी पोलियो वायरस फैल सकता है और दूसरों में पोलियो का संक्रमण कर सकता है। अध्ययन के अनुसार स्पर्शोन्मुख बीमारी और लकवे की बीमारी के बीच का अनुपात 50-1000:1 होता है।[2] जिस किसी व्यक्ति में लक्षण विकसित होते हैं, उन लक्षण को तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

  1. लघु पोलियो के लक्षण[3]
  2. सड़न वाली मैनिंजाइटिस
  3. पक्षाघात की पोलियोमाइलिटिस
गैर विशिष्ट, गौण लक्षण, मामूली / हल्का संक्रमण

लगभग 4-8 प्रतिशत पोलियो वायरस से संक्रमित लोगों में कम लक्षण विकसित होते हैं। इसके लक्षण अन्य वायरल बीमारियों से अप्रभेद्य हो सकते हैं। पोलियो के माइनर लक्षण में शामिल हैं- ज्वर, गले की खराश, मतली, वमन, पेट में दर्द, कब्ज या दस्त, सिर दर्द, फ्लू के लक्षणों की तरह हो सकती है। जिनमें पोलियो के कम लक्षण होते हैं। मामूली लकवा या अन्य गंभीर लक्षण विकसित नहीं होते। ये लक्षण दो तीन दिन में पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। निम्न प्रकार के रोगी आमतौर पर एक सप्ताह में ठीक हो जाते हैं और ऐसे लोगों का केंद्रीय तंत्रिका तंत्र प्रभावित या संक्रमित होने से बच जाता है।

सड़न वाली मेनिनजाइटिस (एसेप्टिक मेनिन्गितिस) / मस्तिष्क और मेरुदंड का मध्यम संक्रमण

इससे संक्रमित लोगों में एक से दो प्रतिशत पोलियो वायरस से सड़न वाली मैनिंजाइटिस का विकास होता है, जो लकवाग्रस्त नहीं होते हैं। इन लोगों के लिए प्रारंभिक लक्षण मामूली पोलियो के लक्षण के समान ही हो सकते हैं। सड़न वाली मैनिंजाइटिस के लक्षण हैं- मांस-पेशियाँ नरम होना तथा विभिन्न अंगों में दर्द होना, जैसे कि पिंडली में (टांग के पीछे), त्वचा में दोदरे पड़ना, अधिक कमज़ोरी या थकान होना, गर्दन, पीठ या पैर की कठोरता, जकड़न और बढ़ा या असामान्य उत्तेजना सहित लक्षण विकसित हो सकते हैं। आमतौर पर इन लक्षणों में तेज़ीसे सुधार हो जाते हैं। ये सब लक्षण दो से दस दिनों तक रह सकते हैं, उसके बाद मरीज़ को पूरी तरह आराम मिल जाता है।

पक्षाघात की पोलियोमाइलिटिस (झूलता हुआ पक्षाघात) / मस्तिष्क और मेरुदंड का गंभीर संक्रमण

पोलियो संक्रमण के रोगियों में से सिर्फ एक प्रतिशत ही फ्लेसीड पक्षाघात के शिकार होते हैं। शुरुआत में मरीज़ को गैर विशिष्ट प्रोड्रोमल लक्षण हो सकते हैं, जिनके बाद पक्षाघात के लक्षण उभरने लगते हैं। कुछ गंभीर मामलों में निम्न लक्षणों के साथ शुरुआत होती है-

  • मांस पेशियों में दर्द और पक्षाघात शीघ्र होने का ख़तरा[4], जो स्नायु पर निर्भर करता है।[5]
  • मांस पेशियों में दर्द, नरमपन और जकड़न[6]
  • गर्दन न झुका पाना
  • गर्दन सीधे रखना या हाथ या पांव न उठा पाना
  • चिड़चिड़ापन, पेट का फूलना, हिचकी आना
  • चेहरा या भाव भंगिमा न बना पाना
  • पेशाब करने में तकलीफ होना या शौच में कठिनाई (कब्ज)
  • भोजन आदि निगलने में तकलीफ
  • सांस लेने में तकलीफ, लार गिरना, कई प्रकार की जटिलताएँ
  • हृदय की मांस पेशियों में सूजन, कोमा

उपरोक्त प्रारंभिक लक्षण कई दिनों के बाद ठीक हो जाते हैं। बहरहाल पाँच से दस दिनों के बाद पुनः बुखार आ सकता है और पक्षाघात हो सकता है। पक्षाघात दो तीन दिन के लिए प्रगति करता है। एक बार शरीर का तापमान सामान्य लौटने पर आमतौर पर आगे कोई पक्षाघात नहीं होता है। पक्षाघात के साथ पोलियो के अन्य लक्षण पोलियोमाइलिटिस के साथ मांसपेशियों की दर्दनाक ऐंठन शामिल हो सकती हैं।

पक्षाघात पोलियो के साथ रोगियों में

भारतीय डाकटिकट में पोलियो

पोलियो से पक्षाघात का ख़तरा उम्र के साथ बढ़ता है। पांच साल की उम्र, तक पैर की पक्षाघात बच्चों में आम होती है। वयस्कों में, हाथों और पैरों दोनों में पक्षाघात आम होता है। मांसपेशियों का नियंत्रण मूत्रोत्सर्ग और साँस लेना भी प्रभावित हो सकता है।

पोलियोमाइलिटिस के कई रोगी की मांसपेशियाँ पूरी तरह ठीक होकर कुछ हद तक काम करने लगती है। छह महीने के बाद हालांकि, पक्षाघात आमतौर पर स्थायी हो जाता है। पारालाईटिक पोलियो के लगभग 50% रोगी पूरी तरह से ठीक हो सकते हैं और फिर उनमें किसी भी तरह का अवशिष्ट लकवा का अंश नहीं रह जाता। लगभग 25% रोगियों में हल्के रूप का स्थायी पक्षाघात और विकलांगता हो सकता है। और लगभग 25% रोगियों को गंभीर रूप से स्थायी विकलांगता और पक्षाघात हो सकता है।

झोले के मारे पोलियो से ग्रस्त बच्चों की मृत्यु की दर 2% से 5% के बीच में रहती है। वयस्कों में मृत्यु दर बहुत अधिक रहती है जो 15% से 30% तक जा सकती है।

पोलियो का पता

आमतौर पर निदान 5 वर्ष की उम्र से कम के बच्चों में पक्षाघात की घटना होती है, जिसकी इस वायरस की मल परीक्षा द्वारा पुष्टि आधारित की जाती है। मल परीक्षा में पुष्टि बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत में एक सार्वजनिक रोग है, और जहां से रोगी लाया गया उस क्षेत्र को दर्ज कराना पडता है, बच्चों की अच्छी तरह से जांच की जाएगी, सभी बच्चों को फिर से प्रतिरक्षित करवाना होगा और इस बीमारी के प्रसार को रोकने के कई स्वच्छता उपाय किया जाएगा।

पोलियो में चिकित्सा

पोलियो ड्राप पीता बच्चा

फिलहाल पोलियो वायरस के इलाज के लिए कोई भी एंटीवाइरल दवा उपलब्ध नहीं हैं। इसके अलावा, अवशिष्ट पक्षाघात और अंगों की विकृति के बाद पोलियो स्थायी होता है, और ठीक नहीं होती है। यही कारण है कि पोलियो सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, यह बच्चों में स्थायी विकलांगता निवारक का सबसे महत्त्वपूर्ण रोग है।

अभी तक पोलियो का कोई इलाज नहीं है, इसकी प्रतिरक्षण द्वारा केवल रोकथाम की जा सकती है। पोलियो वैक्‍सीन कई बार दिए जाने पर यह सदैव बच्‍चे को जीवन भर के लिए रक्षा प्रदान करता है। पूर्ण प्रतिरक्षण सुस्‍पष्‍ट रूप से किसी व्‍यक्ति में पक्षाघातिक पोलियो विकसित होने के जोखिम को कम करता है। यद्यपि यह अधिकांश व्‍यक्तियों की रक्षा करता है, परन्‍तु ऐसे कुछ व्‍यक्ति जो वैक्‍सीन के प्रति प्रतिक्रिया नहीं दिखा पाते अब भी रोग ग्रस्‍त हो सकते हैं।

किसी व्यक्ति के पोलियो के उपचार में यह सहायक है। इसमें जो शामिल है वे इस प्रकार हैं: आराम, बुखार की दवाएं, श्वसन का समर्थन अगर पोलियो ने किसी की श्वसन प्रणाली को प्रभावित किया है (श्वसन मांसपेशी का पक्षाघात से प्रभावित होना) गंभीर बीमारी से उबरने के बाद रोगी पक्षाघात से पीड़ित व्यक्ति के पुनर्वास के लिए व्यावसायिक चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा और कभी कभी सर्जरी की भी जरुरत पड़ती है।

पोलियो से बचाव / रोकथाम

पोलियो ड्राप

इस भयावह पोलियो रोग से बचने का एकमात्र प्रभावी रास्ता पोलियो के विरूध्द टीका करण है। पोलियो टीकाकरण मुंह द्वारा पोलियो की दवा पिलाकर एवं इन्जैक्शन के द्वारा किया जाता है। मुंह द्वारा पिलाई जाने वाली पोलियो की दवा एक आसान एवं प्रभावी उपाय है तथा भारत सरकार द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से प्रतिवर्ष पांच वर्ष तक के बच्चों को पोलियो की खुराक दी जाती है। सभी माता पिता को अपने पांच वर्ष से कम के बच्चो को पालियो की खुराक अवश्य पिलवानी चाहिए जिससे इस भयावह बीमारी से उनके बच्चे ग्रसित न हों तथा समाज और राष्ट्र के विकास में अपना पूर्ण योगदान देते हुए स्वयं का भी एक सम्मान जनक स्थान बना सकें। पोलियो वैक्सीन दो प्रकार के मिलते हैं --- मौखिक पोलियो वैक्सीन तथा पोलियो के इंजेक्शन।

व्यक्तिगत स्वच्छता बनाये रखें अर्थात् शौचालय का उपयोग करने के बाद हाथ अच्छी तरह से धो लें विशेष रूप से खाना खाने से पहले। पौष्टिक भोजन खाएं।

अगर आप स्वीमिंग पूल में तैरते हैं तो इस बात का ध्यान रखें कि पूल का पानी गन्दा न हो तथा क्लोरिनयुक्त पानी हो एवं पानी का मल के साथ संदूषित होने की संभावना नहीं हो।

अच्छी तरह से पकाया हुआ खाना खाएं और आपका खाना गर्म एवं ताजा होना चाहिए। अगर आप पकाए हुए खाने को कुछ देर बाद खाना चाहते हैं तो उसे अच्छी तरह से फ्रीज वगैरह में रखें ताकि आपका खाना ख़राब न हो।

जोखिम कारक

बच्चों को इस बीमारी का अधिक ख़तरा रहता है, विशेषकर जिन बच्चों को शौच जाने की आदत नहीं पड़ी है। वयस्क, जिनका टीकाकरण न किया गया हो। ऐसे स्थल जहां, संक्रामक मलों की मक्खियों को, खाने को संदूषित करने दिया जाता हो। संक्रामक पानी के स्रोत (गंदगी डाले जाने वाले स्थानों के पास)। एड्स और कैंसर जैसी न्यून सुरक्षात्मक शरीर।

अध्ययन / अनुसंधान के निष्कर्ष

भारत में वैक्सीन प्रभावकारिता में सुधार लाने के लिए नए तकनीकी दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करके रिसर्च किया जा रहा है। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में, जहां पोलियो के अधिकांश मामले पाए जाते हैं वहां टीके के टाइप 1 और टाइप 3 पोलियो वायरस त्रिसंयोजक वैक्सीन से बेहतर साबित होते हैं (त्रिसंयोजक वैक्सीन वह टीका है जिसमें पोलियो वायरस के तीनो प्रकार शामिल होते हैं) इस विषाणु के परिवर्तन का पता लगाने के लिए पर्यावरण निगरानी भी की जा रही है।

पोलियो और भारत

विश्व में पोलियो

ज़्यादा दिन पहले की बात नहीं है, 1998 को हीं ले लीजिये; उस समय तक दुनिया भर में 125 से भी ज़्यादा देश पोलियो के लिए स्थानिकमारी वाले देश थे यानि वहां पोलियो के मरीज़ पाए जाते थे। इस अवधि में 1000 से भी अधिक बच्चे रोजाना पक्षाघात के शिकार होते रहते थे। लेकिन उसके बाद व्यापक रूप से पोलियो उन्मूलन का कार्य चलता रहा जिसकी वजह से लगभग 100 से भी अधिक देशों में पोलियो के संचरण को बाधित कर दिया गया यानि कि इसके फैलने पर नियंत्रण पा लिया गया। 2004 के मध्य से केवल छह देशों में हीं जंगली पोलियो रह गया। वे छह देश हैं:- नाइजीरिया, पाकिस्तान, भारत, नाइजर, अफ़ग़ानिस्तान और मिस्र। नाइजीरिया में अपर्याप्त टीकाकरण के कारण अफ्रीका के कई देशों में पोलियो की पुनरावृत्ति हुई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में 660 की पुष्टि पोलियो के मामलों 2006 में पाये गये। भारत सरकार ने 1978 में पोलियो के ख़िलाफ़ टीकाकरण अभियान शुरू किया। काफ़ी सफलता के अभियान में शिशुओं के लिए ओरल पोलियो वैक्सीन (ओपीवी) की तीन मात्रायें दी जाती हैं। वर्तमान में, देश के अधिकांश भाग पोलियो से मुक्त हो गए हैं। व्यापक संप्रेषण बिहार और उत्तर प्रदेश के राज्यों तक ही सीमित है। राष्ट्रीय और राज्य एजेंसियों के राष्ट्रीय पोलियो निगरानी राष्ट्रीय स्तर पर परियोजना (एनपीओसपी) नियोजन में और पोलियो प्रतिरक्षण भारत से पोलियो को नष्ट करने के उद्देश्य से गतिविधियों को लागू करने मदद करता है। केंद्र पोलियो प्रतिरक्षण के लिए सामान्य नीति रूपरेखा तय करते हुए राज्यों को अपने मॉडल का अनुसरण करने रोग से लड़ने के रूप में स्वास्थ्य भारतीय संविधान में राज्य का विषय है। सरकार इसके अलावा, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की संख्या दुनिया भर में पोलियो उन्मूलन की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। यूनिसेफ, संयुक्त राष्ट्र फाउंडेशन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और वैश्विक पोलियो उन्मूलन इस पहल के बीच प्रमुख हैं।

दक्षिण पूर्व एशिया में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ पोलियो के रोगी रिपोर्ट किये जा रहे हैं। हालांकि भारत से पोलियो उन्मूलन के कई उपाय किये गए हैं फिर भी यह कई जगह विराजमान है। भारत में पोलियो के ज़्यादातर मामले उत्तर प्रदेश और बिहार में पाए जाते हैं। मध्यप्रदेश के पड़ौसी राज्यों मे पोलियो ज़्यादा होने के कारण मध्यप्रदेश में पोलियो रोग के फैलने की संभावना लगातार बनी रहती है। अक्टूबर 2009 तक उत्तर प्रदेश और बिहार से पोलिओ के 464 मामले प्रकाश में आये थे। उत्तर प्रदेश के 80% मामले पश्चिमी भाग के 10 ज़िलों पाए गए थे और बिहार के कोसी नदी के पास वाले क्षेत्रों में से (6 ज़िलों में से) 85% मामले पाए गए थे। वर्तमान में भारत में पोलियो के सबसे ज़्यादा कारण टाइप 1 और टाइप 3 वायरस के कारण होते हैं। 2009 में, पोलियो के ज़्यादातर मामले (66 प्रतिशत पोलिओ के मामले) दो साल से कम उम्र के बच्चों में पाए गए।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लगभग 90% लोग
  2. सामान्य 200:1 होता है।
  3. जो निष्फल पोलियोमाइलिटिस के रूप में जाना जाता है।
  4. कार्य न करने योग्य बनना।
  5. अर्थात् हाथ, पांव
  6. गर्दन, पीठ, हाथ या पांव

बाहरी कड़ियाँ

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