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गंगा नदी, उत्तर भारत के मैदानों की विशाल नदी है। हिमालय से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली गंगा भारत के लगभग एक-चौथाई भूक्षेत्र को अपवाहित करती है तथा अपने बेसिन में बसे विराट जनसमुदाय के जीवन का आधार बनती है। जिस गंगा के मैदान से होकर यह प्रवाहित होती है, वह इस क्षेत्र का हृदय स्थल है, जिसे हिन्दुस्तान कहते हैं। यहाँ तीसरी सदी में अशोक महान के साम्राज्य से लेकर 16वीं सदी में स्थापित मुग़ल साम्राज्य तक सारी सभ्यताएँ विकसित हुईं। गंगा नदी अपना अधिकांश सफ़र भारतीय इलाक़े में ही तय करती है, लेकिन उसके विशाल डेल्टा क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा बांग्लादेश में है। गंगा के प्रवाह की सामान्यत: दिशा उत्तर-पश्चिमोत्तर से दक्षिण-पूर्व की तरफ है और डेल्टा क्षेत्र में प्रवाह आमतौर से दक्षिण मुखी है।

भारतीय भाषाओं में तथा अधिकृत रूप से गंगा नदी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके अंग्रेज़ीकृत नाम ‘द गैजिज़’ से ही जाना जाता है। गंगा सहस्राब्दियों से हिन्दुओं की पवित्र तथा पूजनीय नदी रही है। अपने अधिकांश मार्ग में गंगा एक चौड़ी व मंद धारा है और विश्व के सबसे ज़्यादा उपजाऊ और घनी आबादी वाले इलाक़ों से होकर बहती है। इतने महत्व के बावज़ूद इसकी लम्बाई 2,510 किलोमीटर है, जो एशिया या विश्व स्तर की तुलना में कोई बहुत ज़्यादा नहीं है।

पतितपावनी

भारत की पावन नदी, जिसकी जलधारा में स्नान से पापमुक्ति और जलपान से शुद्धि होती है। यह प्रसिद्ध नदी, हिमाचल प्रदेश में गंगोत्री से निकलकर मध्यदेश से होती हुई पश्चिम बंगाल के परे गंगासागर में मिलती है। गंगा की घाटी संसार की उर्वरतम घाटियों में से एक है और सरयू, यमुना, सोन आदि अनेक नदियाँ उससे आ मिलती हैं। उसकी घाटी भारतीय सभ्यता के विकास में अन्यतम रही हैं। गंगा को भारतीय संस्कृति में विशिष्ट योगदान के कारण ही उसे असाधारण महिमा मिली है, जिससे वह ‘पतितपावनी’ कहलाती है।

ऋग्वेद के नदीसूक्त में गंगा की स्तुति हुई है और पुराणों ने उसकी महिमा का अनन्त बखान किया है। गंगा की धारा, जो पहाड़ों में मंदाकिनी और अलकनन्दा की धाराओं के सम्मिलन से बनती है, हिमालय में अत्यन्त क्षीण है और हरिद्वार के ऊपर कनखल के समीप उत्तरी मैदान में प्रशस्त होकर बहती है और बरसात में उसके जल का वेग भयावह हो उठता है।

भौतिक विशेषताएँ

भू-आकृति

गंगा का उद्गम दक्षिणी हिमालय में तिब्बत सीमा के भारतीय हिस्से से होता है। इसकी पाँच आरम्भिक धाराओं भागीरथी, अलकनन्दा, मंदाकिनी, धौलीगंगा तथा पिंडर का उद्गम उत्तराखण्ड क्षेत्र, जो उत्तर प्रदेश का एक संभाग था (वर्तमान उत्तरांचल राज्य) में होता है। दो प्रमुख धाराओं में बड़ी अलकनन्दा का उद्गम हिमालय के नंदा देवी शिखर से 48 किलोमीटर दूर तथा दूसरी भागीरथी का उद्गम हिमालय की गंगोत्री नामक हिमनद के रूप में 3, 050 मीटर की ऊँचाई पर बर्फ़ की गुफ़ा में होता है। गंगोत्री हिन्दुओं का एक तीर्थ स्थान है। वैसे गंगोत्री से 21 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व स्थित गोमुख को गंगा का वास्तविक उद्गम स्थल माना जाता है।

देव प्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होने के बाद यह गंगा के रूप में दक्षिण हिमालय से ऋषिकेश के निकट बाहर आती है और हरिद्वार के बाद मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है। हरिद्वार भी हिन्दुओं का तीर्थ स्थान है। नदी के प्रवाह में मौसम के अनुसार आने वाले थोड़े बहुत परिवर्तन के बावज़ूद इसके जल की मात्रा में उल्लेखनीय वृद्धि तब होती है, जब इसमें अन्य सहायक नदियाँ मिलती हैं तथा यह अधिक वर्षा वाले इलाक़े में प्रवेश करती है। एक तरफ अप्रॅल से जून के बीच हिमालय में पिघलने वाली बर्फ़ से इसका पोषण होता है, वहीं दूसरी ओर जुलाई से सितम्बर के बीच का मानसून इसमें आने वाली बाढ़ों का कारण बनता है। उत्तर प्रदेश राज्य में इसके दाहिने तट की सहायक नदियाँ, यमुना राजधानी दिल्ली होते हुए इलाहाबाद में गंगा में शामिल होती है तथा टोन्स नदी है, जो मध्य प्रदेश के विंध्याचल से निकलकर उत्तर की तरफ़ प्रवाहित होती है और शीघ्र ही गंगा में शामिल हो जाती हैं। उत्तर प्रदेश में बाईं तरफ़ की सहायक नदियाँ रामगंगा, गोमती तथा घाघरा हैं।

इसके बाद गंगा बिहार राज्य में प्रवेश करती है, जहाँ इसकी मुख्य सहायक नदियाँ हिमालय क्षेत्र की तरफ़ से गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी तथा घुघरी हैं। दक्षिण की तरफ़ से इसकी मुख्य सहायक नदी सोन है। यहाँ से यह नदी राजमहल पहाड़ियों का चक्कर लगाती हुई दक्षिण-पूर्व में फरक्का तक पहुँचती है, जो इस डेल्टा का सर्वोच्च बिन्दु है। यहाँ से गंगा भारत में अन्तिम राज्य पश्चिम बंगाल में प्रवेश करती है, जहाँ उत्तर की तरफ़ से इसमें महानंदा मिलती है (समूचे पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में स्थानीय आबादी गंगा को पद्मा कहकर पुकारती है)। गंगा के डेल्टा की सुदूर पश्चिमी शाखा हुगली है, जिसके तट पर महानगर कोलकाता (भूतपूर्व कलकत्ता) बसा हुआ है। स्वयं हुगली में पश्चिम से आकर उसकी दो सहायक नदियाँ दामोदर व रूपनारायण शामिल होती हैं। बांग्लादेश में ग्वालंदो घाट के निकट गंगा में विशाल ब्रह्मपुत्र शामिल होती है (इन दोनों के संगम के 241 किलोमीटर पहले तक इसे फिर यमुना के नाम से बुलाया जाता है)। गंगा और ब्रह्मपुत्र की संयुक्त धारा ही पद्मा कहलाने लगती है और चाँदपुर के निकट वह मेघना में शामिल हो जाती है। इसके बाद यह विराट जलराशि अनेक प्रवाहों में विभाजित होकर बंगाल की खाड़ी में समा जाती है। बांग्लादेश की राजधानी ढाका धालेश्वदी नदी की सहायक नदी बूढ़ी गंगा के तट पर स्थित है। जिन नदी शाखाओं से गंगा का डेल्टा बनता है, उसकी हुगली और मेघना के अलावा अन्य शाखाएँ पश्चिम बंगाल में जलांगी और बांग्लादेश में मातागंगा, भैरब, काबाडक, गराई-मधुमती तथा अरियल खान हैं।

  • डेल्टा क्षेत्र में स्थित गंगा की सभी सहायक नदियाँ और शाखाएँ मौसम में परिवर्तनों के कारण अक्सर अपना रास्ता बदल लेती हैं। ये परिवर्तन इधर, विशेषकर 1750 ई. के बाद से ज़्यादा होने लगे हैं। ब्रह्मपुत्र 1785 ई. तक मैमनसिंह शहर के पास से बहती थी, अब यह वहाँ से 64 किलोमीटर पश्चिम में गंगा में मिलती है।
  • गंगा तथा ब्रह्मपुत्र की नदी घाटियों से बहकर आई हुई गाद से बने डेल्टा का क्षेत्रफल 60,000 वर्ग किलोमीटर है तथा उसका निर्माण मिट्टी, रेत तथा खड़िया की क्रमिक परतों से हुआ है। यहाँ पर सड़ी-गली वनस्पति (पीट) लिग्नाइट (भूरे कोयले) की परतें भी उन इलाक़ों में मिलती हैं, जहाँ पहले घने वन हुआ करते थे। डेल्टा में नहरों के आसपास बाद में प्राकृतिक रूप से बहुत-सा खादर भी जमा हुआ है।
  • गंगा डेल्टा की दक्षिणी सतह का निर्माण तेज़ गति से तथा तुलनात्मक रूप से हाल में बहकर आई गाद की भारी मात्रा से हुआ है। पूरब में समुद्र की तरफ़ इसी गाद के कारण बड़ी तेज़ी से नए-नए भूक्षेत्र (नदी द्वीप) बनते जा रहे हैं, जिन्हें ‘चार’ कहते हैं। वैसे डेल्टा का पश्चिमी समुद्री तट 18वीं सदी के बाद से लगभग अपरिवर्तित है।
  • पश्चिम बंगाल की नदियों का प्रवाह बहुत धीमा है और उनसे काफ़ी कम पानी समुद्र में प्रवाहित होता है। बांग्लादेशी डेल्टा क्षेत्र में नदियाँ चौड़ी तथा गतिमान हैं और उनमें पानी विपुल मात्रा में बहता है। ये नदियाँ अनेक संकरी पहाड़ियों से परस्पर जुड़ी हुई हैं।
  • वर्षा ऋतु (जून से अक्टूबर) में इस इलाक़े में कृत्रिम रूप से निर्मित उच्चभूमि पर बसाए गए गाँव कई फ़ीट पानी में डूब जाते हैं। इस मौसम में इन बस्तियों के बीच आवागमन का एकमात्र साधन नौकाएँ ही होती हैं।
  • समूचे डेल्टा क्षेत्र का समुद्रतटीय इलाक़ा दलदली है। यह पूरा क्षेत्र सुन्दरवन कहलाता है और भारतबांग्लादेश, दोनों ने इसे संरक्षित क्षेत्र घोषित कर रखा है।
  • इस डेल्टा के कुछ हिस्सों में जंगली वनस्पतियों तथा धान से निर्मित पीट की परतें हैं। अनेक प्राकृतिक खाइयों (बिलों) में उस पीट के बनने की क्रिया जारी है। जिसका उपयोग स्थानीय किसान खाद, सुखाकर घरेलू तथा औद्योगिक ईधन के रूप में करते हैं।

जलवायु

गंगा के बेसिन में इस उपमहाद्वीप की विशालतम नदी प्रणाली स्थित है। यहाँ जल की आपूर्ति मुख्यत: जुलाई से अक्टूबर के बीच दक्षिण-पश्चिमी मानसून तथा अप्रॅल से जून के बीच ग्रीष्म ऋतु के दौरान पिघलने वाली हिमालय की बर्फ़ से होती है। नदी के बेसिन में मानसून के उन कटिबंधीय तूफ़ानों से भी वर्षा होती है, जो जून से अक्टूबर के बीच बंगाल की खाड़ी में पैदा होते हैं। दिसम्बर और जनवरी में बहुत कम मात्रा में वर्षा होती है। औसत वार्षिक वर्षा बेसिन के पश्चिमी सिरे में 760 मिलीमीटर से लेकर पूर्वी सिरे पर 2,286 मिलीमीटर के बीच होती है (उत्तर प्रदेश में गंगा के ऊपरी कछार में जहाँ औसत वर्षा 762 से 1,016 मिलीमीटर होती है, वहीं बिहार के मध्यवर्ती मैदान में यह औसत 1,016 से 1,524 मिलीमीटर तथा डेल्टा क्षेत्र में 1,524 से 2,540 मिलीमीटर के बीच है)। डेल्टा क्षेत्र में मानसून के प्रारम्भ (मार्च से मई) तथा मानसून के अन्त (सितम्बर से अक्टूबर) में ज़ोरदार चक्रवाती समुद्री तूफ़ान आते हैं। इनसे काफ़ी बड़ी मात्रा में मानव जीवन, सम्पत्ति, फ़सलों तथा पशुओं का नुक़सान होता है। ऐसा ही एक भीषण विनाशकारी तूफ़ान नवम्बर, 1970 में आया था, जिसमें कम से कम दो लाख और अधिक से अधिक पाँच लाख लोगों की मौत हुई थी।

चूँकि गंगा के मैदान में उतार-चढ़ाव लगभग न के बराबर है, अत: नदी प्रवाह की गति धीमी है। दिल्ली में यमुना नदी से लेकर बंगाल की खाड़ी के 1,609 किलोमीटर के सम्पूर्ण फ़ासले में भूतल की ऊँचाई में मात्र 213 मीटर की कमी आती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदान का कुल विस्तार 7,77,000 वर्ग किलोमीटर है। इस मैदान में मिट्टी की सतह, जो कहीं-कहीं 1,829 मीटर से भी ज़्यादा है, सम्भवत: 10 हज़ार वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है।

वनस्पति

गंगा-यमुना के इलाक़े में कभी घने जंगल हुआ करते थे। ऐतिहासिक ग्रन्थों से पता चलता है कि 16वीं और 17वीं सदी तक यहाँ जंगली हाथी, गौर, बारहसिंगा, गैंडा, बाघ तथा शेर का शिकार होता था। गंगा के सम्पूर्ण बेसिन से वहाँ की मूल प्राकृतिक वनस्पतियाँ लुप्त हो गई हैं और वहाँ अब लगातार बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए व्यापक रूप में खेती की जाती है। हिरन, जंगली सूअर, जंगली बिल्लियाँ तथा कुछ भेड़िए, भालू, सियार और लोमड़ी को छोड़कर जंगली जानवर बहुत कम हैं। डेल्टा के सुन्दरवन इलाक़े में बंगाल टाइगर (शेर), मगरमच्छ तथा दलदली हिरन अब भी मिल जाते हैं। नदियों में, ख़ासतौर से डेल्टा क्षेत्र में मछलियाँ विपुल मात्रा में पाई जाती हैं और स्थानीय निवासियों के भोजन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ पर मैना, तोता, कौआ, चील, तीतर और मुर्ग़ाबी जैसे पक्षियों की भी कई क़िस्में पाई जाती हैं। जाड़े के मौसम में बत्तख़ और चाहा पक्षी ऊँचे हिमालय को पार करके दक्षिण में पानी से घिरे क्षेत्रों की तरफ़ प्रवास करते हैं। बंगाल के इलाक़े में आमतौर से पाई जाने वाली मछलियों में फ़ेदर बैक (नोटोप्टेरिडी), वॉकिंग कैटफ़िश, गोरामि (एनाबैंटिडी) तथा मिल्कफ़िश (चैनिडी), बार्ब (सिप्राइनिडी) आदि प्रमुख हैं।

जनजीवन

गंगा के बेसिन के निवासी नृजातीय रूप से मिश्रित मूल के हैं। पश्चिम और मध्य बेसिन में वे मूलत: आर्य पूर्वजों की सन्तान थे। बाद में तुर्क, मंगोल, अफ़ग़ानी, फ़ारसी तथा अरब लोग पश्चिम से आय और अंतमिश्रित हो गए। पूरब और दक्षिण, ख़ासतौर से बंगाल के इलाक़े में तिब्बती, बर्मी तथा विविध नस्ल के पहाड़ी लोग भी मिलते हैं। इनसे भी बाद में आने वाले यूरोपीय लोग यहाँ न तो बसे और न ही स्थानीय लोगों के साथ विवाह सम्बन्ध बनाये।

ऐतिहासिक रूप से गंगा के मैदान से ही हिन्दुस्तान का हृदय स्थल निर्मित है और वही बाद में आने वाली विभिन्न सभ्यताओं का पालना बना। अशोक के ई. पू. के साम्राज्य का केन्द्र पाटलिपुत्र (पटना), बिहार में गंगा के तट पर बसा हुआ था। महान मुग़ल साम्राज्य के केन्द्र दिल्ली और आगरा भी गंगा के बेसिन की पश्चिमी सीमाओं पर स्थित थे। सातवीं सदी के मध्य में कानपुर के उत्तर में गंगा तट पर स्थित कन्नौज, जिसमें अधिकांश उत्तरी भारत आता था, हर्ष के सामन्तकालीन साम्राज्य का केन्द्र था। मुस्लिम काल के दौरान, यानी 12वीं सदी से मुसलमानों का शासन न केवल मैदान, बल्कि बंगाल तक फैला हुआ था। डेल्टा क्षेत्र के ढाका और मुर्शिदाबाद मुस्लिम सत्ता के केन्द्र थे। अंग्रेज़ों ने 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुगली के तट पर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) की स्थापना करने के बाद धीरे-धीरे अपने पैर गंगा की घाटी में फैलाए और 19वीं सदी के मध्य में दिल्ली तक जा पहुँचे।

गंगा के मैदान में अनेक नगर बसे, जिनमें मुख्य रूप से रूड़की, सहारनपुर, मेरठ, आगरा (मशहूर मक़बरे ताजमहल का शहर), मथुरा (भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली के रूप में पूजनीय), अलीगढ़, कानपुर, बरेली, लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी (पवित्र शहर बनारस), पटना, भागलपुर, राजशाही, मुर्शिदाबाद, बर्दवान (वर्द्धमान), कलकत्ता, हावड़ा, ढाका, खुलना और बारीसाल उल्लेखनीय हैं। डेल्टा क्षेत्र में कलकत्ता और उसके उपनगर हुगली के दोनों किनारों पर लगभग 80 किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं व भारत के जनसंख्या, व्यापार तथा उद्योग को दृष्टि से सबसे घने बसे हुए इलाक़ों में गिने जाते हैं।

अर्थव्यवस्था

सिंचाई

सिंचाई के लिए गंगा के पानी का उपयोग, चाहे बाढ़ का पानी हो या फिर नहरों का, पुरातन काल से ही प्रचलित है। इस तरह की सिंचाई का उल्लेख धर्मग्रन्थों तथा 2,000 से भी ज़्यादा वर्ष पहले लिखे पुराणों में मिलता है। चौथी सदी में यूनान से भारत आए राजदूत मेगस्थनीज़ ने यहाँ सिंचाई के उपयोग का उल्लेख किया है। 12वीं सदी से मुस्लिम काल में सिंचाई प्रणाली बहुत विकसित थी और मुग़ल बादशाहों ने बाद में बहुत सी नहरों का निर्माण किया। बाद में ब्रिटिश शासकों ने सिंचाई प्रणाली का और भी विस्तार किया।

उत्तर प्रदेश और बिहार स्थित गंगा घाटी के कृषि क्षेत्रों को सिंचाई नहरों की प्रणाली से बहुत लाभ हुआ है। ख़ासतौर से इस विकसित सिंचाई प्रणाली के कारण गन्ना, कपास और तिलहन जैसी नक़दी फ़सलों की पैदावार में वृद्धि सम्भव हुई। पुरानी नहरें मुख्यत: गंगा-यमुना के दौआब इलाक़े में हैं। ऊपरी गंगा नहर हरिद्वार से शुरू होती है और अपनी सहायक नहरों सहित 9,524 किलोमीटर लम्बी है। निचली गंगा नहर की लम्बाई अपनी सहायक नहरों सहित 8,238 किलोमीटर है और यह नरोरा से प्रारम्भ होती है। शारदा नहर से उत्तर प्रदेश में अयोध्या की भूमि सींची जाती है। गंगा के उत्तर में भूमि की ऊँचाई अधिक होने से नहरों के द्वारा सिंचाई करना कठिन होने के कारण भूमिगत जल पम्प द्वारा खींचकर सतह पर लाया जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के काफ़ी बड़े इलाक़े में हाथ से खोदे हुए कुओं से निकली नहरों के द्वारा सिंचाई की जाती है। बांग्लादेश में गंगा-कबाडाक योजना मुख्यत: सिंचाई के लिए ही है और उसमें खुलना, जेशोर और कुश्तिया ज़िलों के वे हिस्से आते हैं, जो डेल्टा के कमज़ोर हिस्से हैं, जहाँ नदियों का मार्ग गाद और घनी झाड़ियों के कारण अवरुद्ध हो चुका है। इस इलाक़े में कुल वार्षिक वर्षा सामान्यत: 1,524 मिलीमीटर से कम होती है तथा शीत ऋतु तुलनात्मक रूप से शुष्क रहती है। यहाँ की सिंचाई प्रणाली भी नहरों तथा भूमिगत जल खींचने वाले विद्युतचालित उपकरणों पर आधारित है।

नौकायन

प्राचीन काल में गंगा और इसकी कुछ सहायक नदियाँ, ख़ासतौर से पूरब में, नौकायन के उपयुक्त थीं। मेगस्थनीज़ के अनुसार, चौथी शताब्दी ई. पू. में गंगा और इसकी प्रमुख सहायक नदियों में नौकायन होता था। गंगा के बेसिन में अंतर्देशीय नदी नौकायन 14वीं शताब्दी तक भी फल-फूल रहा था। 19वीं सदी के आते-आते सिंचाई तथा नौकायन के लिए उपयुक्त नहरों की जल परिवहन प्रणाली के प्रमुख मार्ग बन चुके थे। पैंडल स्टीमरों के आगमन से अंतर्देशीय परिवहन में भी जो क्रान्ति आई, उससे बंगाल और बिहार के नील उद्योग को बहुत बढ़ावा मिला। गंगा में कलकत्ता से इलाहाबाद और उससे आगे यमुना में आगरा तक तथा उधर ब्रह्मपुत्र तक नियमित स्टीमर सेवाएँ चलने लगीं।

19वीं सदी के मध्य में रेलमार्गों के बनने से बड़े पैमाने पर जल परिवहन में गिरावट शुरू हो गई। सिंचाई हेतु पानी बहुत अधिक मात्रा में खींच लिए जाने से भी नौकायन विपरीत रूप से प्रभावित हुआ। अब तो नौकायन केवल इलाहाबाद के आसपास के मध्य गंगा बेसिन तक ही सीमित होकर रह गया है, जिसमें से अधिकांश देसी नौकाओं पर आधारित हैं।

पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश अब भी जूट, घास, चाय, अनाज तथा अन्य कृषि और ग्रामीण उत्पादों के परिवहन के लिए जलमार्गों पर निर्भर हैं। बांग्लादेश में चालना, खुलना, बारीसाल, चाँदपुर, नारायणगंज, ग्वालंदो घाट, सिरसागंज, भैरव बाज़ार तथा फेंचूगंज और भारत में कोलकाता, गोलपाड़ा, धुबुरी और डिब्रूगढ़ प्रमुख नदी बंदरगाह हैं। 1947 में भारत के विभाजन से बड़े दूरगामी परिवर्तन हुए। कलकत्ता से असम तक अंतर्देशीय जलमार्गों के द्वारा पहले बड़े पैमाने पर होने वाला व्यापार लगभग बन्द ही हो गया।

बांग्लादेश में अंतर्देशीय जल परिवहन की ज़िम्मेदारी अंतर्देशीय जल परिवहन प्राधिकरण की है। भारत में अंतर्देशीय जलमार्गों का नीति निर्धारण केन्द्रीय अंतर्देशीय जल परिवहन मण्डल (सेंट्रल वॉटर ट्रांसपोर्ट बोर्ड) करता है। लेकिन राष्ट्रीय जलमार्गों की व्यापक प्रणाली का विकास एवं रख-रखाव अंतर्देशीय जलमार्ग (इनलैंड वॉटरवेज़ अथॉरिटी) प्राधिकरण करता है। गंगा के बेसिन में इलाहाबाद से लेकर हल्दिया तक लगभग 1,607 किलोमीटर लम्बा जलमार्ग इस प्रणाली में शामिल है।

डेल्टा के मुख पर भारत की सीमा के ठीक भीतर फ़रक्का बाँध का निर्माण बांग्लादेश और भारत के बीच विवाद का कारण बन गया है। भारत का कहना है कि गाद के जमने तथा खारा पानी घुस आने की वजह से कोलकाता बंदरगाह का पतन हो गया है। कोलकाता की स्थिति में सुधार के लिए खारे पानी को निकालकर और जलस्तर को बढ़ाकर भारत ने फ़रक्का बैराज से गंगा को मोड़कर ताज़ा पानी हासिल करने की कोशिश की है। अब एक बड़ी नहर द्वारा पानी भागीरथी नदी में लाया जाता है, जो कोलकाता से परे हुगली नदी में समाहित होता है।

बांग्लादेश का कहना है कि नदियों के तटवर्ती देशों की परस्पर समृद्धि के लिए यह ज़रूरी है कि अंतर्देशीय नदियों के पानी पर उनका संयुक्त नियंत्रण होना चाहिए। सिंचाई, नौकायन तथा खारे पानी की रोकथाम के लिए गंगा का पानी बांग्लादेश में भी उतना ही आवश्यक है, जितना भारत के लिए। बांग्लादेश के अनुसार, फ़रक्का बाँध ने उसे पानी के एक ऐसे बहुमूल्य स्रोत से वंचित कर दिया है, जो कि उसकी समृद्धि के लिए आवश्यक है। दूसरी तरफ़ भारत गंगाजल की समस्या के बारे में द्विपक्षीय रवैया अपनाये जाने के पक्ष में है। दोनों देशों के बीच कई अंतरिम समझौते हुए हैं, लेकिन अभी तक इस विवाद का कोई स्थायी हल नहीं निकल पाया है। भारत के असम में ब्रह्मपुत्र के पानी को बांग्लादेश से होकर एक नहर द्वारा गंगा में मोड़ने के प्रस्ताव के जवाब में बांग्लादेश ने सुझाया है कि पूर्वी नेपाल, पश्चिम बंगाल होते हुए एक नहर बांग्लादेश तक बनाई जाए। किसी भी प्रस्ताव को सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली है। 1987 तथा 1988 में बांग्लादेश में आई प्रलयंकारी बाढ़ों, जिसमें 1988 की बाढ़ उस देश के इतिहास की सर्वाधिक विनाशकारी बाढ़ थी, इसको देखते हुए विश्व बैंक ने इस क्षेत्र के लिए अब बाढ़ नियंत्रण की एक दूरगामी योजना बनाई है।

पनबिजली योजना

गंगा की लगभग 130 लाख किलोवाट की अनुमानित जलविद्युत क्षमता का 2/5 हिस्सा भारत में तथा शेष नेपाल में है। इस क्षमता में से कुछ का दोहन भारत ने चंबल और रिहंद नदियों द्वारा किया है। गंगा का मैदान दुनिया की सबसे घनी आबादी वाला तथा उपजाऊ इलाक़ों में से एक है। चूँकि इस मैदानी क्षेत्र में अवरोध न के बराबर है, इसीलिए गंगा की धारा अधिकांश इलाक़े में चौड़ी व धीमी गति से प्रवाहित है। उसके कुल अपवाह बेसिन का 9,75,900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल, यानी भारत के कुल क्षेत्र का लगभग चौथाई हिस्सा है और उस पर लगभग 50 करोड़ की आबादी निर्भर करती है। इस बेसिन की भूमि पर गहन खेती होती है। गंगा प्रणाली की जलापूर्ति आंशिक रूप से जुलाई से अक्टूबर के बीच होने वाली मानसून की वर्षा और अप्रॅल से जून के बीच हिमालय पर गर्मी से पिघलने वाली बर्फ़ पर निर्भर करती हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप का यह विस्तृत उत्तर-मध्य खण्ड, जिसे उत्तर भारतीय मैदान भी कहा जाता है, पश्चिम में ब्रह्मपुत्र नदी घाटी और गंगा के डेल्टा से लेकर सिंधु नदी घाटी तक फैला हुआ है। इस इलाक़े में इस उपमहाद्वीप के सबसे समृद्ध और सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र हैं। इस मैदान का अधिकांश हिस्सा गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के द्वारा पूर्व में सिंध नदी द्वारा पश्चिम में बहकर लाई गई कछारी मिट्टी से बना हुआ है। मैदान के पूर्वी हिस्सों में कम बारिश या सर्दियाँ शुष्क होती हैं। किन्तु मानसून की वर्षा इतनी अधिक होती है कि बड़े-बड़े इलाक़ों में दलदल या उथली झीलें बन जाती हैं। ज्यों-ज्यों पश्चिम की ओर बढ़ते हैं, यह मैदान शुष्क होता चला जाता है और अन्त में थार के रेगिस्तान में बदल जाता है।

धार्मिक महत्व

गंगा नदी का धार्मिक महत्व सम्भवत: विश्व की किसी भी अन्य नदी से ज़्यादा है। आदिकाल से ही यह पूजी जाती रही है और आज भी हिन्दुओं के लिए यह सबसे पवित्र नदी है। इसे देवी स्वरूप माना जाता है। एक किंवदन्ती के अनुसार, महान तपस्वी भगीरथ की प्रार्थना पर देवी गंगा को स्वयं भगवान विष्णु ने इस धरती पर भेजा। लेकिन गंगा जिस वेग से धरती पर अवतरित हुईं, उससे उनके मार्ग में आने वाली हर वस्तु के जलप्लावित होने का ख़तरा था। इसीलिए भगवान शिव ने पहले ही उन्हें अपनी जटाओं में लपेटकर उनके वेग को नियंत्रित और शान्त किया। मुक्ति चाहने वाले उसके बाद ही उसमें स्नान कर पाए। हिन्दुओं के तीर्थस्थल वैसे तो समूचे उपमहाद्वीप में फैल हुए हैं, तथापि गंगा तट पर बसे तीर्थ हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए विशेष महत्व रखते हैं। इनमें प्रमुख हैं, इलाहाबाद में गंगा और यमुना का संगम, जहाँ एक निश्चित अन्तराल पर जनवरी-फ़रवरी में कुम्भ मेला आयोजित होता है। इस अनुष्ठान के समय लाखों तीर्थयात्री गंगा में स्नान करते हैं। पवित्र स्नान की दृष्टि से अन्य तीर्थ हैं, वाराणसी, काशी और हरिद्वार। कलकत्ता में हुगली नदी भी पवित्र मानी जाती है। तीर्थयात्रा की दृष्टि से गंगा तट पर गंगोत्री और अलकनन्दा और भागीरथी का संगम भी महत्त्वपूर्ण है। हिन्दू अपने मृतकों की भस्म एवं अस्थियाँ यह मानते हुए यहाँ विसर्जित करते हैं कि ऐसा करने से मृतक सीधे स्वर्ग में जाता है। इसीलिए गंगा के तट पर कई स्थानों पर शवदाह हेतु विशेष घाट बने हुए हैं।

गंगा पुनीततम नदी है और इसके तटों पर हरिद्वार, कनखल, प्रयाग एवं काशी जैसे परम प्रसिद्ध तीर्थ अवस्थित हैं। प्रसिद्ध नदीसूक्त[1] में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋग्वेद[2] में ‘गंगय’ शब्द आया है जिसका सम्भवत: अर्थ है ‘गंगा पर वृद्धि करता हुआ।’[3] शतपथ ब्राह्मण[4] एवं ऐतरेय ब्राह्मण [5]में गंगा एवं यमुना के किनारे पर भरत दौष्यंति की विजयों एवं यज्ञों का उल्लेख हुआ है। शतपथ ब्राह्मण[6] में एक प्राचीन गाथा का उल्लेख है- ‘नाडपित् पर अप्सरा शकुन्तला ने भरत को गर्भ में धारण किया, जिसने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने के उपरान्त इन्द्र के पास यज्ञ के लिए एक सहस्र से अधिक अश्व भेजे।’ महाभारत[7] एवं पुराणों[8] में गंगा की महत्ता एवं पवित्रीकरण के विषय में सैकड़ों प्रशस्तिजनक श्लोक हैं। स्कन्द पुराण[9] में गंगा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है। यहाँ पर उपर्युक्त ग्रन्थों में दिये गये वर्णनों का थोड़ा अंश भी देना सम्भव नहीं है। अधिकांश भारतीयों के मन में गंगा जैसी नदियों एवं हिमालय जैसे पर्वतों के दो स्वरूप घर कर बैठे हैं-

  1. भौतिक
  2. आध्यात्मिक

विशाल नदियों के साथ दैवी जीवन की प्रगाढ़ता संलग्न हो ही जाती है। टेलर ने अपने ग्रन्थ ‘प्रिमिटिव कल्चर’[10] में लिखा है-

‘जिन्हें हम निर्जीव पदार्थ कहते हैं, यथा नदियाँ, पत्थर, वृक्ष, अस्त्र-शस्त्र आदि। वे जीवित, बुद्धिशाली हो उठते हैं, उनसे बातें की जाती हैं, उन्हें प्रसन्न किया जाता है और यदि वे हानि पहुँचाते हैं तो उन्हें दण्डित भी किया जाता है।’

गंगा के महात्म्य एवं उसकी तीर्थयात्रा के विषय में पृथक-पृथक ग्रन्थ प्रणीत हुए हैं। यथा गणेश्वर (1350 ई.) का गंगापत्तलक, मिथिला के राजा पद्मसिंह की रानी विश्वासदेवी की गंगावाक्यावली, गणपति की गंगाभक्ति-तरंगिणी एवं वर्धमान की गंगाकृत्यविवेक। इन ग्रन्थों की तिथियाँ इस महाग्रन्थ के अन्त में दी हुई हैं।

वनपर्व

वनपर्व[11] ने गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक (88-97) दिये हैं, जिनमें से कुछ का अनुवाद यों है- "जहाँ भी कहीं स्नान किया जाए, गंगा कुरुक्षेत्र के बराबर है। किन्तु कनखल की अपनी विशेषता है और प्रयाग में इसकी परम महत्ता है। यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगा जल का अवसिंचन करता है तो गंगा जल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार से अग्नि ईधन को जला देती है। कृत युग में सभी स्थल पवित्र थे, त्रेता में पुश्कर सबसे अधिक पवित्र था, द्वापर में कुरुक्षेत्र एवं कलियुग में गंगा। नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है। इसे देखने से सौभाग्य प्राप्त होता है। जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा जल को स्पर्श करती रहती है, तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है और केशन के समान कोई देव। वह देश जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ पर गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।"

अनुशासनपर्व

अनुशासनपर्व (36|26, 30-31) में आया है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत एवं आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, पुण्य का फल देने में महान हैं। वे लोग, जो जीवन के प्रथम भाग में पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है। वे पवित्रात्मा हो जाते हैं और ऐसा पुण्यफल पाते हैं जो सैकड़ों वैदिक यज्ञों के सम्पादन से भी नहीं प्राप्त होता।

भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूँ। [12] मनु[13] ने साक्षी को सत्योच्चारण के लिए जो कहा है उससे प्रकट होता है कि मनुस्मृति के काल में गंगा एवं कुरुक्षेत्र सर्वोच्च पुनीत स्थल थे।[14]

पौराणिक महत्त्व

कुछ पुराणों ने गंगा को मन्दाकिनी के रूप में स्वर्ग में, गंगा के रूप में पृथ्वी पर और भोगवती के रूप में पाताल में प्रवाहित होते हुए वर्णित किया है।[15] विष्णु आदि पुराणों ने गंगा को विष्णु के बायें पैर के अँगूठे के नख से प्रवाहित माना है।[16] कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि शिव ने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस एवं सिन्धु) पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी हुई (मत्स्य. 121|38-41; ब्रह्माण्ड. 2|18|39-41 एवं 1|3|65-66)। कूर्म. (1|46|30-31) एवं वराह. (अध्याय 82, गद्य में) का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदा, सुचक्ष एवं भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है। अलकनंदा दक्षिण की ओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्तमुखों में होकर समुद्र में गिरती है।[17] ब्रह्मा. (73|68-69) में गंगा को विष्णु के पाँव से एवं शिव के जटाजूट में अवस्थित माना गया है।

पुराणों के अनुसार विवद्गंगा, आकाशगंगा अथवा स्वर्गगंगा विष्णु के अँगूठे से निकली है, जिसका पृथ्वी पर अवतरण भगीरथ के स्तवन से कपिल द्वारा भस्मीकृत राजा सगर के 60,000 पुत्रों की अस्थियों को पवित्र करने के लिए हुआ। भगीरथ के साथ इसी सयोग के कारण गंगा का दूसरा नाम भागीरथी पड़ा। पौराणिक परम्परा है कि स्वर्ग से उतरने के कारण गंगा अत्यन्त कुपित हो उठी थीं और उसके कोप के कारण पृथ्वी पर उसकी धारा पड़ते ही उसके बहकर नष्ट हो जाने के भय से शिव ने अपनी जटा में उसे समेट लिया, जिससे उनकी जटाओं में उलझ जाने के कारण धारा पृथ्वी पर सीधी नहीं पड़ी और गंगा की गति मन्द हो गई। इसी सम्बन्ध में शिव का एक नाम गंगाधर भी पड़ा। गंगा का अवतरण तपस्वी जह्नु के यज्ञ के लिए घातक हुआ, जिससे क्रुद्ध होकर उस तापस ने गंगा को पी डाला और प्रार्थना के बाद उसने कान से गंगा की धारा निकाल दी, जिससे वह जाह्नवी कहलाई हैं। एक दूसरे पौराणिक आख्यान के अनुसार गंगा हिमालय और मैना की पुत्री तथा उमा की भगिनी थीं। महाभारत की एक कथा उसे कुरुराज शान्तनु की पत्नी और भीष्म की माता बताती है। जिसमें भीष्म का दूसरा नाम गांगेय भी है। गंगा का सम्बन्ध कार्तिकेय के मातृत्व से भी है। हिन्दुओं के जितने तीर्थ इस नदी के तीर पर हैं, उतने कहीं पर नहीं और उसकी पवित्रता का प्रभाव तो भारतीयों पर इतना गहरा पड़ा कि उन्होंने अनेक दूसरी नदियों के नाम भी गंगा रख दिये। जहाँ-जहाँ भारतीय संस्कृति का विस्तार हुआ, वहाँ-वहाँ गंगा की पवित्रता का विविध रूप से उल्लेख हुआ। गंगा की मकर पर आरूढ़ चँवर अथवा कलश धारिणी मूर्तियाँ भी गुप्तकाल में बनने लगी थीं।[18]

विष्णुपुराण

विष्णुपुराण[19] ने गंगा की प्रशस्ति यों की है- जब इसका नाम श्रवण किया जाता है, जब कोई इसके दर्शन की अभिलाषा करता है, जब यह देखी जाती है या स्पर्श की जाती है या जब इसका जल ग्रहण किया जाता है या जब कोई उसमें डुबकी लगाता है या जब इसका नाम लिया जाता है (या इसकी स्तुति की जाती है) तो गंगा दिन-प्रतिदिन प्राणियों को पवित्र करती है। जब सहस्रों योजन दूर रहने वाले लोग गंगा नाम का उच्चारण करते हैं, तो तीन जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।[20]

भविष्यपुराण

भविष्यपुराण में भी ऐसा ही आया है।[21] मत्स्य, कूर्म, गरुड़ एवं पद्म पुराणों का कहना है कि गंगा में पहुँचना सब स्थानों में सरल है, केवल गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं वहाँ जहाँ यह समुद्र में मिलती है, पहुँचना कठिन है। जो लोग यहाँ पर स्नान करते हैं, उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है और जो लोग यहाँ पर मर जाते हैं, वे पुन: जन्म नहीं पाते हैं।[22]

नारद पुराण

नारद पुराण का कथन है कि गंगा सभी स्थानों में दुर्लभ है, किन्तु तीन स्थानों पर अत्यधिक दुर्लभ है। वह व्यक्ति जो चाहे या अनचाहे गंगा के पास पहुँच जाता है और मर जाता है, स्वर्ग जाता है और नरक नहीं देखता।[23]

कूर्म पुराण

कूर्म पुराण का कथन है कि गंगा वायुपुराण द्वारा घोषित स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी में स्थित 35 करोड़े पवित्र स्थलों के बराबर है और वह उनका प्रतिनिधित्व करती है।[24]

पद्मपुराण

पद्मपुराण ने प्रश्न किया है-‘बहुत धन के व्यय वाले यज्ञों एवं कठिन तपों से क्या लाभ, जब कि सुलभ रूप से प्राप्त होने वाली एवं स्वर्ग मोक्ष देने वाली गंगा उपस्थित है!’ नारदीय पुराणों में भी आया है-‘आठ अंगों वाले योग, तपों एवं यज्ञों से क्या लाभ? गंगा का निवास इन सभी से उत्तम है।’[25]

मत्स्य पुराण

मत्स्य पुराण[26] के दो श्लोक यहाँ वर्णन के योग्य हैं- "पाप करने वाला व्यक्ति भी सहस्रों योजन दूर रहता हुआ गंगा स्मरण से परम पद प्राप्त कर लेता है। गंगा के नाम-स्मरण एवं उसके दर्शन से व्यक्ति क्रम से पापमुक्त हो जाता है एवं सुख पाता है। उसमें स्नान करने एवं जल के पान से वह सात पीढ़ियों तक अपने कुल को पवित्र कर देता है।" काशीखण्ड (27|69) में ऐसा आया है कि गंगा के तट पर सभी काल शुभ हैं, सभी देश शुभ हैं और सभी लोग दान ग्रहण करने के योग्य हैं।

वराहपुराण

वराहपुराण[27] में गंगा की व्युत्पत्ति ‘गां गता’ (जो पृथ्वी की ओर गई हो) है। पद्मपुराण[28] ने गंगा के विषय में निम्न मूलमंत्र दिया है-

‘ओं नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम:।’

पद्मपुराण

पद्मपुराण [29] में आया है कि विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और गंगा विष्णु का। इसमें गंगा की प्रशस्ति इस प्रकार की गई है-‘पिताओं, पतियों, मित्रों एवं सम्बन्धियों के व्यभिचारी, पतित, दुष्ट, चाण्डाल एवं गुरुघाती हो जाने पर या सभी प्रकार के पापों एवं द्रोहों से संयुक्त होने पर क्रम से पुत्र, पत्नियाँ, मित्र एवं सम्बन्धि उनका त्याग कर देते हैं, किन्तु गंगा उन्हें परित्यक्त नहीं करती (पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड, 60|25-26)।’

पुराणों में गंगा के पुनीत स्थल का विस्तार

कुछ पुराणों में गंगा के पुनीत स्थल के विस्तार के विषय में व्यवस्था दी हुई है। नारद पुराण[30] में आया है- गंगा के तीर से एक गव्यूति तक क्षेत्र कहलाता है, इसी क्षेत्र सीमा के भीतर रहना चाहिए, किन्तु तीर पर नहीं, गंगातीर का वास ठीक नहीं है। क्षेत्र सीमा दोनों तीरों से एक योजन की होती है अर्थात् प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र का विस्तार होता है।[31] यम ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि वनों, पर्वतों, पवित्र नदियों एवं तीर्थों के स्वामी नहीं होते, इन पर किसी का भी प्रभुत्व (स्वामी रूप से) नहीं हो सकता।

ब्रह्मपुराण का कथन है कि नदियों से चार हाथ की दूरी तक नारायण का स्वामित्व होता है और मरते समय भी (कण्ठगत प्राण होने पर भी) किसी को भी उस क्षेत्र में दान नहीं लेना चाहिए। गंगाक्षेत्र के गर्भ (अन्तर्वत्त), तीर एवं क्षेत्र में अन्तर प्रकट किया गया है। गर्भ वहाँ तक विस्तृत हो जाता है, जहाँ तक भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक धारा पहुँच जाती है और उसके आगे तीर होता है, जो गर्भ से 150 हाथ तक फैला हुआ रहता है तथा प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र विस्तृत रहता है।

गंगा स्नान विधि

गंगा स्नान के लिए संकल्प करने के विषय में निबन्धों ने कई विकल्प दिये हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व[32] में विस्तृत संकल्प दिया हुआ है। गंगावाक्यावली[33] मत्स्यपुराण[34] में जो स्नान विधि दी हुई है वह सभी वर्णों एवं वेद के विभिन्न शाखानुयायियों के लिए समान है। मत्स्यपुराण[35] के वर्णन का निष्कर्ष यों है- बिना स्नान और शरीर की शुद्धि एवं शुद्ध विचारों का अस्तित्व नहीं होता। इसी से मन को शुद्ध करने के लिए सर्वप्रथम स्नान की व्याख्या होती है। कोई किसी कूप या धारा से पात्र में जल लेकर स्नान कर सकता है या बिना इस विधि से भी स्नान कर सकता है। ‘नमो नारायणाय’ मंत्र के साथ बुद्धिमान लोगों को तीर्थस्थल का ध्यान करना चाहिए। हाथ में दर्भ (कुश) लेकर, पवित्र एवं शुद्ध होकर आचमन करना चाहिए। चार वर्गहस्त स्थल को चुनना चाहिए और निम्न मंत्र के साथ गंगा का आवाहन करना चाहिए;

"तुम विष्णु के चरण से उत्पन्न हुई हो, तुम विष्णु से भक्ति रखती हो, तुम विष्णु की पूजा करती हो, अत: जन्म से मरण तक किये गए पापों से मेरी रक्षा करो। स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी में 35 करोड़ तीर्थ हैं; हे जाह्नवी गंगा, ये सभी देव तुम्हारे हैं। देवों में तुम्हारा नाम नन्दिनी (आनन्द देने वाली) और नलिनी भी है तथा तुम्हारे अन्य नाम भी हैं, यथा- दक्षा, पृथ्वी, विहगा, विश्वकाया, अमृता, शिवा, विद्याधरी, सुप्रशान्ता, शान्तिप्रदायिनी।"

[36] स्नान करते समय इन नामों का उच्चारण करना चाहिए। तब तीन लोकों में बहने वाली गंगा पास में चली आयेगी (भले ही व्यक्ति घर पर ही स्नान कर रहा हो)।

व्यक्ति को उस जल को, जिस पर सात बार मंत्र पढ़ा गया हो, तीन या चार या पाँच या सात बार सिर पर छिड़कना चाहिए। नदी के नीचे की मिट्टी का मंत्र पाठ के साथ लेप करना चाहिए। इस प्रकार स्नान एवं आचमन करके व्यक्ति को बाहर आना चाहिए और दो श्वेत एवं पवित्र वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके उपरान्त उसे तीन लोकों के सन्तोष के लिए देवों, ऋषियों एवं पितरों का यथाविधि तर्पण करना चाहिए।[37] इसके पश्चात सूर्य को नमस्कार एवं तीन बार प्रदक्षिणा कर तथा किसी ब्राह्मण, सोना एवं गाय का स्पर्श कर स्नानकर्ता को विष्णु मंदिर (या अपने घर, पाठांतर के अनुसार) में जाना चाहिए।

यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मत्स्य. (102|2-31) के श्लोक, जिनका निष्कर्ष ऊपर दिया गया है, कुछ अन्तरों के साथ पद्म. (पातालखण्ड 81|12-42 एवं सृष्टिखण्ड 20|145-176) में भी पाये जाते हैं। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृष्ठ 502) में गंगा स्नान के समय के मंत्र दिये हुए हैं।[38]

आठ वसुओं की माँ

गंगा-यमुना के मध्य का समस्त भूभाग ययाति ने पुरु को दिया था। गंगा आठ वसुओं की माँ हैं। वसुओं ने गंगा से कहा था कि शान्तनु से उनके गर्भ धारण करने के उपरान्त उनके जन्मते ही जल में प्रवाहित कर देना। गंगा ने शान्तनु से उत्पन्न सात वसु जल में प्रवाहित कर दिए। आठवें वसु (भीष्म) को शान्तनु ने बचा लिया। [39]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (ऋ. 10, 75, 5-6)
  2. ऋग्वेद (6|45|31)
  3. अधि बृबु: पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्नस्थात्। उरु:कक्षो न गाङग्य:।। ऋ. (6|45|31)। अन्तिम पद का अर्थ है ‘गंगा के तटों पर उगी हुई घास या झाड़ी के समान।’
  4. शतपथ ब्राह्मण (13|5|4|11 एवं 13)
  5. ऐतरेय ब्राह्मण (39, 9)
  6. शतपथ ब्राह्मण (13, 5, 4,11 एवं 13)
  7. महाभारत (अनुशासन. 26|26-103)
  8. पुराण (नारदीय, उत्तरार्ध, अध्याय 38-45 एवं 51|1-48; पद्म. 5|60|1-127; अग्नित्र अध्याय 110; मत्स्य., अध्याय 180-185; पद्म., आदिखण्ड, अध्याय 33-37)
  9. स्कन्द पुराण (काशीखण्ड, अध्याय 33-37)
  10. प्रिमिटिव कल्चर (द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 477)
  11. वनपर्व (अध्याय 85)
  12. (स्रोतसामस्मि जाह्नवी, 10|31)
  13. मनु (8|92)
  14. यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थित:। तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरून्गम:।। मनु (8|92)।
  15. (पद्म पुराण 6|267|47)
  16. वामपादाम्बुजांगुष्ठनखस्रोतोविनिर्गताम्। विष्णोर्बभर्ति यां भक्त्या शिरसाहनिंशं ध्रुव:।। विष्णुपुराण (2|8|109); कल्पतरु (तीर्थ, पृष्ठ 161) ने ‘शिव:’ पाठान्तर दिया है। ‘नदी सा वैष्णवी प्रोक्ता विष्णुपादसमुदभवा।’ पद्म. (5|25|188)।
  17. तथैवालकनंदा च दक्षिणादेत्य भारतम्। प्रयाति सागरं भित्त्वा सप्तभेदा द्विजोत्तम:।। कूर्म. (1|46|31)।
  18. (म. भा., वनपर्व, अध्याय 12, 42, 47, 83-88, 90, 93, 95, 99, 107-109 आदि।)
  19. विष्णुपुराण (2|8|120-121)
  20. श्रुताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता। या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने।। गंगा गंगेति यैनमि योजनानां शतेष्वपि। स्थितैरुच्चारितं हन्ति पापं जन्मत्रयार्जितम्।। विष्णुपु. (2|8|120-121); गंगा वाक्यावली (पृष्ठ 110), तीर्थचि. (पृष्ठ 202), गंगाभक्ति. (पृष्ठ 9)। दूसरा श्लोक पद्म. (6|21|8 एवं 23|12) एवं ब्रह्मा. (175|82) में कई प्रकार से पढ़ा गया है, यथा-गंगा........यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।। पद्य. (1|31|77) में आया है......शतैरपि। नरो न नरकं याति किं तया सदृशं भवेत्।।
  21. दर्शनार्त्स्शनात्पानात् तथा गंगेति कीर्तनात्। स्मरणदेव गंगाया: सद्य: पापै: प्रमुच्यते।। भविष्य. (तीर्थचि. पृष्ठ 198; गंगावा पृष्ठ 12 एवं गंगाभक्ति पृष्ठ 9)। प्रथम पाद अनुशासन. (26|64) एवं अग्नि. (110|6) में आया है। गच्छंस्तिष्ठञ् जपन्ध्यायन् भुञ्जञ् जाग्रत स्वपन् वदन्। य: स्मरेत् सततं गंगां सोऽपि मुच्येत बन्धनात्।। स्कन्द. (काशीखण्ड, पूर्वार्ध 27|37) एवं नारदीय. (उत्तर, 39|16-17)।
  22. सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।। तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवा:।। मत्स्य. (106|54); कूर्म. (1|37|34); गरुड़. (पूर्वार्ध, 81|1-2); पद्म. (5|60|120)। नारदीय. (40|26-27) में ऐसा पाठान्तर है-‘सर्वत्र दुर्लभा गंगा त्रिषु स्थानेषु चाधिका। गंगाद्वारे.......संगमे।। एषु स्नाता दिवं.......र्भवा:।।’
  23. (मत्स्य. 107|4)
  24. तिस्र: कोट्योर्धकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत्। दिवि भुव्यन्तरिक्षे च तत्सर्व जाह्नवी स्मृता।। कूर्म. (1|39|8); पद्म. (1|47|7 एवं 5|60|59); मत्स्य. (102|5, तानि ते सन्ति जाह्नवि)।
  25. किं यज्ञैर्बहुवित्ताढ्यै: किं तपोभि: सुदुष्करै:। स्वर्ग्मोक्षप्रदा गंगा सुखसौभाग्यपूजिता।। पद्म. (5|60|39); किमष्टांगेन योगेन किं तपोभि: किमध्वरै:। वास एव हि गंगायां सर्वतोपि विशिष्यते।। नारदीय. (उत्तर, 38|38); तीर्थचि. (पृष्ठ 194, गंगायां ब्रह्मज्ञानस्य कारणम्); प्रायश्चित्ततत्त्व (पृष्ठ 494)।
  26. मत्स्य पुराण (104|14-15)
  27. वराहपुराण (अध्याय 82)
  28. पद्मपुराण(सृष्टि खण्ड, 60|64-65)
  29. पद्मपुराण (सृष्टि. 60|65)
  30. नारद पुराण (उत्तर, 43|119-120)
  31. तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते। तीरं वसेत्क्षेत्रे तीरे वासो न चेष्यते।। एकयोजनविस्तीर्णा क्षेत्रसीमा तटद्वयात्। नारद पुराण (उत्तर, 43|119-120)। प्रथम को तीर्थचि. (पृष्ठ 266) ने स्कन्दपुराण से उदधृत किया है और व्याख्या की है-‘उभयतटे प्रत्येकं कोशदयं क्षेत्रम्।’ अन्तिम पाद को तीर्थचि. (पृष्ठ 267) एवं गंगावा. (पृष्ठ 136) ने भविष्य. से उदधृत किया है। ‘गव्यूति’ दूरी या लम्बाई की माप है जो सामान्यत: दो क्रोश (कोस) के बराबर है। लम्बाई के मापों के विषय में कुछ अन्तर है। अमरकोश के अनुसार ‘गव्यूति’ दो क्रोश के बराबर है, यथा-‘गव्यूति: स्त्री क्रोशयुगम्।’ वायु. (8|105 एवं 101|122-123) एवं ब्रह्माण्ड. (2|7|96-101) के अनुसार 24 अंगुल=एक हस्त, 96 अंगुल=एक धनु (अर्थात् ‘दण्ड’, ‘युग’ या ‘नाली’); 2000 धनु (या दण्ड या युग या नालिका)=गव्यूति एवं 8000 धनु=योजन। मार्कण्डेय. (46|37-40) के अनुसार 4 हस्त=धनु या दण्ड या युग या नालिका; 2000 धनु=क्रोश, 4 क्रोश=गव्यूति (जो योजन के बराबर है)। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 3, अध्याय 5।
  32. प्रायश्चित्ततत्त्व (पृष्ठ 497-498)
  33. अद्यामुके मासि अमुकपक्षे अमुकतिथौ सद्य:पापप्रणाशपूर्वकं सर्वपुण्यप्राप्तिकामोगंगाया स्नानमहं करिष्ये। गंगावा. (पृष्ठ 141)। और देखिए तीर्थचि. (पृष्ठ 206-207), जहाँ गंगास्नान के पूर्वक लिंक संकल्पों के कई विकल्प दिये हुए हैं।
  34. मत्स्यपुराण (102)
  35. मत्स्यपुराण (अध्याय 102)
  36. स्मृतिचन्द्रिका (1, पृष्ठ 182) ने मत्स्य. (102) के श्लोक (1-8) उदधृत किये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने वहीं गंगा के 12 विभिन्न नाम दिए हैं। पद्म. (4|81|17-19) में मत्स्य. के नाम पाये जाते हैं। इस अध्याय के आरम्भ में गंगा के सहस्र नामों की ओर संकेत किया जा चुका है।
  37. तर्पण के दो प्रकार हैं-प्रधान एवं गौण। प्रथम विद्याध्ययन समाप्त किये हुए द्विजों द्वारा देवों, ऋषियों एवं पितरों के लिए प्रतिदिन किया जाता है। दूसरा स्नान के अंग के रूप में किया जाता है। नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं स्नानमुच्यते। तर्पणं तु भवेत्तस्य अंगत्त्वेन प्रकीर्तितम्।। ब्रह्म. (गंगाभक्ति., 162)। तर्पण स्नान एवं ब्रह्मयज्ञ दोनों का अंग है। इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 17। तर्पण अपनी वेद शाखा के अनुसार होता है। दूसरा नियम यह है कि तर्पण तिलयुक्त जल से किसी तीर्थस्थ्ल, गया में, पितृपक्ष (आश्विन के कृष्णपक्ष) में किया जाता है। विधवा भी किसी तीर्थ में अपने पति या सम्बन्धी के लिए तर्पण कर सकती है। संन्यासी ऐसा नहीं करता। पिता वाला व्यक्ति भी तर्पण नहीं करता। किन्तु विष्णुपुराण के मत से वह तीन अंजिली देवों, तीन ऋषियों को एवं एक प्रजापति (‘देवास्तुप्यन्ताम्’ के रूप में) को देता है। एक अन्य नियम यह हे कि एक हाथ (दाहिने) से श्राद्ध में या अग्नि में आहुति दी जाती है, किन्तु तर्पण में दोनों हाथों से जल स्नान करने वाली नदी में डाला जाता है या फिर भूमि पर छोड़ा जाता है-‘श्राद्धे हवनकाले च पाणिनैकेन दीयते। तर्पणे तूभयं कुर्यादिष एव विधि:स्मृत।। नारदीय. (उत्तर, 57|62-63)’ यदि कोई विस्तृत विधि से तर्पण न कर सके तो वह निम्न मंत्रों के साथ (जो वायुपुराण, 110|21-22 में दिये हुए हैं) तिल एवं कुश से मिश्रित जल की तीन अंजलियाँ दे सकता है-‘आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त देवर्षिपितृमानवा:। तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय:।। अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मयुभ-नाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्।।’
  38. विष्णुपादाब्जसम्भूते गंगे त्रिपथगामिनि। धर्मव्रतेति विख्याते पापं में हर जाह्नवी।। श्रद्धया भक्तिसम्पन्ने श्रीमातर्देवि जाह्नवि। अमृतेनाम्बुना देवि भागीरथी पुनीह माम्।। स्मृति. (1|131); प्रा. तत्त्व. (502); त्वं देव सरितां नाथ त्वं देवि सरितां वरे। उभयो: संगमे स्नात्वा मुञ्चामि दुरितानि वै।। वही। और देखिए पद्मत्र (सृष्टिखण्ड, 60|60)
  39. (म. भा., आदिपर्व, अध्याय 2, 3, 61, 63, 67, 70, 87, 95-10।)