बहिर्विवाह

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बहिर्विवाह का तात्पर्य किसी जाति के एक छोटे समूह से तथा निकट संबंधियों के वर्ग से बाहर विवाह का नियम है। समाज में अंतर्विवाह को असगोत्रता का तथा बहिर्विवाह को असपिंडता का नियम कहते हैं। असगोत्रता का अर्थ है कि वधू वर के गोत्र से भिन्न गोत्र की होनी चाहिए। असपिंडता का आशय समान पिंड या देह का अथवा घनिष्ठ रक्त का संबंध न होना है। हिंदू समाज में प्रचलित सपिंडता के सामान्य नियम के अनुसार माता की पाँच तथा पिता की सात पीढ़ियों में होने वाले व्यक्तियों को संपिड माना जाता है, इनके साथ वैवाहिक संबंध वर्जित है। प्राचीन रोम में छठी पीढ़ी के भीतर आने वाले संबंधियों के साथ विवाह निषिद्ध था। 1215 ई. की लैटरन की ईसाई धर्म परिषद् ने इनकी संख्या घटाकर चार पीढ़ी कर दी। अनेक अन्य जातियाँ पत्नी के मरने पर उसकी बहिन के साथ विवाह को प्राथमिकता देती हैं किंतु कैथोलिक चर्च मृत पत्नी की बहिन के साथ विवाह वर्जित ठहराता है। इंग्लिश चर्च में यह स्थिति 1907 तक बनी रही। कुछ जातियों में स्थानीय बहिर्विवाह का नियम प्रचलित है। इसका यह अर्थ है कि एक गाँव या खेड़े में रहने वाले नर-नारी का विवाह अर्जित है। छोटा नागपुर के ओरावों में एक ही ग्राम के निवासी युवक युवती का विवाह निषिद्ध माना जाता है, क्योंकि सामान्य रूप से यह माना जाता है कि ऐसा विवाह वर अथवा वधू के लिए अथवा दोनों के लिए अमंगल लाने वाला होता है।

विद्वानों की व्याख्या

असपिंडता तथा असगोत्रता के नियमों के प्रादुर्भाव के कारणों के संबंध में समाजशास्त्रियों तथा नृवंशशास्त्रियों में बड़ा मतभेद है। एक ही गाँव में रहने वाले अथवा एक गोत्र को मानने वाले समान आयु के व्यक्ति एक दूसरे को भाई बहिन तथा नजदीकी रिश्तेदार मानते हैं और इनमें प्राय: सर्वत्र विवाह वर्जित होता है। किंतु यहाँ यही प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह निषेध समाज में क्यों प्रचलित हुआ? सर हेनरी मेन, मोर्गन आदि विद्वानों ने यह माना है कि आदिम मनुष्यों ने निकट विवाहों के दुष्परिणामों को शीघ्र ही अनुभव कर लिया था तथा जीवनसंघर्ष में दीर्घजीवी होने की दृष्टि से उन्होंने निकट संबंधियों के घेरे से बाहर विवाह करने का नियम बना लिया। किंतु अन्य विद्वान्‌ इस मत को ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि आदिम मनुष्यों में अंतर्विवाह के दुष्परिणामों जैसी जटिल जीवशास्त्रीय प्रक्रिया को समझने की बुद्धि स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता। वैस्टरमार्क और हैवलाक एलिस ने इसका कारण नजदीकी रिश्तेदारों के बचपन से सदा साथ रहने के कारण उनमें यौन आकर्षण उत्पन्न न होने को माना है। अन्य विद्वानों ने इस व्याख्या को सही नहीं माना। ब्रैस्टेड ने यह बताया है कि प्राचीन मिस्र में समाज के सभी भागों में भाई बहिन के विवाह प्रचलित थे। बहिर्विवाह (एक्सोगेमी) शब्द को अंग्रेज़ी में सबसे पहले प्रचलित करने वाले विद्वान्‌ मैकलीनान ने यह कल्पना की थी कि आरंभिक योद्धा जातियों में बालिकावध की दारुण प्रथा प्रचलित होने के कारण विवाह योग्य स्त्रियों की संख्या कम हो गई और दूसरी जनजातियों की स्त्रियों को अपहरण करके लाने की पद्धति से बहिर्विवाह के नियम का श्रीगणेश हुआ। किंतु इस कल्पना में बालिकावध एवं अपहरण द्वारा विवाह का अत्यधिक अतिरंजित और अवास्तविक चित्रण है। बहिर्विवाह का नियम प्रचलित होने के कुछ अन्य कारण ये बताए जाते हैं-दूसरी जातियों की स्त्रियों को पकड़ लाने में गर्व और गौरव की भावना का अनुभव करना, गणविवाह (एक समूह में सब पुरुषों का सब स्त्रियों का पति होना) की काल्पनिक दशा के कारण दूसरी जातियों से स्त्रियाँ ग्रहण करना। अभी तक कोई भी कल्पना इस विषय में सर्वसम्मत सिद्धांत नहीं बन सकी।

बहिर्विवाह के नियम

बहिर्विवाह के नियम के अनुसार हर व्यक्ति को अपने समूह के बाहर विवाह करना होता है। यद्यपि अंतर्विवाह एवं बहिर्विवाह के नियम प्रत्यक्ष रूप में विराधी दिखाई पड़ते हैं परन्तु दोनों नियम एक - दूसरे के पूरक है तथा दो स्तरों पर व्यवहारित होते हैं। हिंदू समाज में बहिर्विवाह के दो रूप पाये जाते हैं:-

सगोत्र बहिर्विवाह

एक गोत्र से जुड़े व्यक्ति सगोत्रीय कहलाते हैं। गोत्र एक वंश समूह (क्लान) या परिवार समूह है, जिसके सदस्य आपस में विवाह करने से प्रतिबंञ्ति होते हैं। यह मान्यता है कि सभी सगोत्रीय एक ही पूर्वज की संतान होते हैं और उन सभी में रक्त संबंध होता है। सगोत्र बहिर्विवाह के नियम को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ने अप्रभावी बना दिया है।

सपिण्ड बहिर्विवाह

सपिण्ड लोग एक दूसरे के रक्त संबंधी होते हैं। पिता की ओर से सात एवं माता की ओर से पांच पीढ़ियों तक जुड़े रक्त संबंध सपिण्ड कहलाते हैं। एक व्यक्ति अपने जीवन साथी का चुनाव सपिण्ड समूह के अंतर्गत नहीं कर सकता। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 सामान्यत: सपिण्ड अन्तर्विवाह की इजाजत नहीं देता, परन्तु दक्षिण भारत में प्रचलित ममेरे-फुफेरे भाई बहनों को भी प्रथागत रूप में अपवाद स्वरूप स्वीकार करता है। सपिण्ड बहिर्विवाह का नियम सपिण्ड रिश्तेदारों में विवाह का निषेध करता है। जीवित व्यक्ति और उसके मरे हुए पुरखों के बीच संबंध को सपिण्ड संबंध कहते हैं। सपिण्ड का अर्थ है वे जिनके शरीर का पिण्ड एक समान हैं तथा वे जो मृत पूर्वज को एक साथ पिण्ड दान करते हैं। हिंदू स्मृतिकार सगोत्र की अलग-अलग परिभाषा देते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 पिता की तरफ से पांच पीढ़ियों एवं माता की तरफ से तीन पीढ़ियों तक सपिण्ड संबंध से जुड़े व्यक्तियों के बीच वैवाहिक संबंध की स्वीकृति नहीं देता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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