रसखान- व्यंजना शक्ति

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व्यंजना-शक्ति शब्द और अर्थ आदि की वह शक्ति है जो अभिधा आदि शक्तियों के शान्त हो जाने पर (अपने-अपने कार्य कर चुकने के बाद क्षीण सामर्थ्य हो जाने पर) एक ऐसे अर्थ का अवबोधन कराया करती है जो वाध्य, लक्ष्यादिरूप अर्थों से सर्वथा एक विलक्षण प्रकार का अर्थ हुआ करता है।[1] रसखान की भाषा पारदर्शी है। शब्दों में निबद्ध भाव अनुभूति को मूर्तता प्रदान करते हैं। नेत्रों के सामने एक सजीव चित्र खिंच जाता है। इसके लिए रसखान ने व्यंजना शक्ति का आश्रय लिया। शक्तिभाव से भरे हुए पदों में भी व्यंजना द्वारा अपने भावों का सुन्दर निरूपण किया है-

कहा रसखानि सुखसंपति सुमार कहा
कहा तन जोगी ह्वै लगाए अंग छार को।[2]

यहाँ यह व्यंजित हो रहा है कि समस्त ऐश्वर्य और बाहरी नियम, व्रत आदि व्यर्थ हैं। अर्थात उनका सेवन नहीं करना चाहिए।

ऐसे ही भए तौ नर कहा रसखानि जौ पै,
चित दै न कोनी प्रीति पीत पटवारे सों॥[3]

व्यंजना द्वारा ध्वनित हो रहा है कि कृष्ण-प्रेम के बिना सब चीज़ें व्यर्थ हैं।

काहे को सोच करै रसखानि कहा करि है रबि नंद बिचारो।
ता खन जा खन राखियै माखन चाखनहारौ सो राखनहारो॥[4]

यहाँ विवक्षितान्य पर वाच्य ध्वनित है। प्रश्नात्मक वाक्य से नकारात्मक ध्वनि यह निकल रही है कि रसखान को सोच करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।

काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ् सौं लै गयौ माखन-रोटी।[5] यह व्यंग्य ध्वनित हो रहा है कि कौवे जैसे छोटे से पक्षी का इतना बड़ा भाग्य है कि वह कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी ले गया। मुझे यह सौभाग्य भी प्राप्त नहीं।

कोऊ न काहू की कानि करै कछु चेटक सो जु कियौ जदुरैया।[6] 'प्रभाव चेटक सौं' मैं है। वास्तव में जादू नहीं किया गया है। अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य द्वारा 'सो' में चमत्कार है।

गौरस के मिस जो रस चाहत सो रस कान्हजू नेकु न पैहौ।[7] उपर्युक्त पंक्तियों में अभिधामूला व्यंजना है। गोरस और जो रस में ऐन्द्रिय सुख भोग, कामरति के आनन्द की व्यंजना है।

हाँसी मैं हार हरयौ रसखानि जू जौ कहूँ नेकु तगा टुटि जैहैं।
एकहि मोती के मोल लला सिगरे ब्रज हाटहि हाट बिकैहैं॥[8]

वाक्य ध्वनि यह है कि यदि हमारा हार टूट गया तो तुम्हारा बड़ा अपमान होगा। नायिका के मन में विद्यमान कृष्ण विषयक प्रेम की भी व्यंजना हो रही है।

करियै उपाय बाँस डारियै कटाय
नाहिं उपजैगो बाँस नाहिं बाजै फेरि बाँसुरी।[9]

यहाँ लोकोक्ति के आधार पर मुरली को समूल नष्ट करने की व्यंजना है।

मोहन के मन भाइ गयौ इक भाइ सौं ग्वालिनैं गोधन गायौ।
ताकों लग्यौ चट, चौहट सौं दुरि औचक गात सों गात छुवायौ।
रसखानि लही इनि चातुरता चुपचाप रही जब लौं घर आयौ।
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।[10]

इस पद में गोपी की बुद्धिमानी की व्यंजना हो रही है। यह कृष्ण की सब चेष्टाओं पर चुप रही, किन्तु घर आने पर उसने नयन नचाकर मुस्करा कर अंगूठा दिखा दिया। यहाँ पर व्यंजना है कि अब कृष्ण इसका कुछ नहीं कर सकते। साथ ही गोपी की शरारत और चातुर्य भी ध्वनित हो रहे हैं।

नवरंग अनंग भरी छबि सौं वह मूरति आँखि गड़ी ही रहै।
बतियाँ मन की मन ही मैं रहै घतिया उर बीच अड़ी ही रहै।
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनीदल बूँद पड़ी ही रहै।
जिय की नहिं जानत हों सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै।[11]

नवरंग में अतिशय सौन्दर्य की जो नित्य नए रूप में दिखाई देता है, व्यंजना हो रही है। 'आंखि ही गड़ी रहै' अर्थात आंख में ऐसी बसी है कि हिलती ही नहीं है। आंख में कोई चीज़ पड़ने से पीड़ा होती है। यहाँ कृष्ण प्रेम के कारण कसक हो रही है। रजनी में एकान्त हो जाने पर सब के सो जाने के उपरान्त अश्रुओं में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़ती। यहाँ नायिका के रोदन के साथ-साथ प्रेम की अतिशयता की व्यंजना है।

  • कोउ रही पुतरी सी खरी कोउ घाट डरी कोउ बाट परी जू।[12] यहाँ गोपियों के किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने की व्यंजना है।
  • पै कहा करौ वा रसखानि बिलौकि हियौ हुलसै हुलसै हुलसै।[13] नायिका के प्रेमावशीभूत होने की व्यंजना है।
  • लखि नैन की कोर कटाछ चलाइ कै लाज की गांठन खोलत है।[14] यहाँ लज्जा के बंधनों को तोड़ देने की व्यंजना है। उसके कटाक्ष के प्रभाव से लज्जा के बंधन टूट गए हैं। लज्जा की पराकाष्ठा की हृदयस्पर्शी अभिव्यंजना हैं।

भटू सुन्दर स्याम सिरोमनि मोहन जोहन में चित चोरत है।
अवलोकन बंक बिलोकन मैं ब्रजबालन के दृग जोरत है।[15]

यहाँ प्रेम के वशीभूत होने की व्यंजना है।

मोहनी मोहन सौं रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।
जेठ की घाम भई सुखधाम अनन्द ही अंग ही अंग समाहीं।
जीवन को फल पायौ भटू रसबातन केलि सौं तोरत नाहीं।
कान्ह को हाथ कंघा पर है मुख ऊपर मोरकिरीट की छाहीं॥[16]

प्रिय की निकटता के कारण कष्टदायक वस्तुओं के सुखद प्रतीत होने की व्यंजना द्वितीय पंक्ति में है। जेठ की धूप इसलिए सुखद प्रतीत हो रही है कि गर्मी में कोई वन में नहीं घूमता। इससे नायक-नायिका को एकान्त में मिलने की सुविधा प्राप्त है। 'अंग ही अंग समाही' में प्रगाढ़ आलिंगन से उत्पन्न अतिशय सुख की अभिव्यक्ति है। रूपक और श्लेष अलंकार के द्वारा रति के अतिशय आनन्द को किसी भी प्रकार बाधित नहीं करना चाहतीं। सुख की पराकाष्ठा पर पहुंची हुई प्रेयसी के रति आनन्दातिरेक की व्यंजना हो रही है।

पिचका चलाई और जुवती भिजाइ नेह,
लोचन नचाइ मेरे अंगहि नचाइ गौ।
सामहिं नचाइ भौरी नन्दहि नचाइ खोरी
बैरिन सचाइ गौरी मोहि सकुचाइ गौ।[17]

चंचल नेत्रों का प्रभाव इतना अधिक था कि सात्विक भावों का उदय होने लगा। 'बैरिन सचाइ' में पिछले बैर का बदला निकालने की व्यंजना है। पहले कभी गोपी ने कृष्ण-प्रेम की अवहेलना की होगी। 'सकुचाने' में यह व्यंजना है कि लोग देखकर भांप गए कि उसके मन में प्रेम है। रसखान के काव्य का अवलोकन करने पर यह भली-भांति विदित हो जाता है कि रसखान ने व्यंजना शब्दशक्ति के आश्रय से उत्तम कोटि के ध्वनि काव्य की रचना की। रसखान द्वारा 'व्यंजना' के बहुधा प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। रसखान प्रसूत लाक्षणिक प्रयोगों और ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना शैली की सम्यक प्रतीति न होने के कारण ही हिन्दी के एक आलोचक ने उनके काव्य को अभिधाकाव्य माना है।[18] उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है।

रसखान के काव्य में प्रयुक्त शब्द शक्तियों के उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने स्थान-स्थान पर काव्य चमत्कार को उत्कर्ष प्रदान करने वाली लक्षणा और व्यंजना का उपयुक्त प्रयोग किया है। उनकी भाषा के धारावाहिक और प्रसाद-गुण पूर्ण बाह्य रूप के कारण अनेक आलोचकों को यह भ्रांति हो गई है कि वे अविधा के कवि हैं। तत्वत: अभिधा और प्रसाद में कोई विरोध नहीं है। जटिलता न होते हुए भी रसखान की रचनाओं में उपर्युक्त शब्द-शक्तियों का चमत्कार असंदिग्ध है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विरतास्वभिधाद्यासु ययाऽर्थों बोध्यते पर: सा वृत्तिव्यंजना नाम शब्दस्यार्थादिकस्य च॥ साहित्यदर्पण, पृ0 75
  2. सुजान रसखान,9
  3. सुजान रसखान
  4. सुजान रसखान, 18
  5. सुजान रसखान, 21
  6. सुजान रसखान, 24
  7. सुजान रसखान, 42
  8. सुजान रसखान, 45
  9. सुजान रसखान, 54
  10. सुजान रसखान,101
  11. सुजान रसखान,127
  12. सुजान रसखान, 142
  13. सुजान रसखान, 143
  14. सुजान रसखान, 157
  15. सुजान रसखान, 171
  16. सुजान रसखान, 185
  17. सुजान रसखान, 194
  18. 'रसखान का काव्य अभिधा का काव्य है'।

बाहरी कड़ियाँ

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