राजस्थान के चौहान

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राजस्थान में चौहानों के कई वंश हुए, जिन्होंने समय-समय पर यहाँ शासन किया और यहाँ की मिट्टी को गौरवांवित किया। 'चौहान' व 'गुहिल' शासक विद्वानों के प्रश्रयदाता बने रहे, जिससे जनता में शिक्षा एवं साहित्यिक प्रगति बिना किसी अवरोध के होती रही। इसी तरह निरन्तर संघर्ष के वातावरण में वास्तुशिल्प पनपता रहा। इस समूचे काल की सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने कलात्मक योजनाओं को जीवित रखा। चित्तौड़, बाड़ौली तथा आबू के मन्दिर इस कथन के प्रमाण हैं।

चौहानों की शाखाएँ

चौहान वंश की शाखाओं में निम्न शाखाएँ मुख्य थीं-

  1. सांभर के चौहान
  2. रणथम्भौर के चौहान
  3. जालौर के चौहान
  4. चौहान वंशीय हाड़ा राजपूत

सांभर के चौहान

चौहानों के मूल स्थान के संबंध में मान्यता है कि वे सपादलक्ष एवं जांगल प्रदेश के आस-पास रहते थे। उनकी राजधानी 'अहिच्छत्रपुर' (नागौर) थी। सपादलक्ष के चौहानों का आदिपुरुष वासुदेव चौहान था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को सांभर झील का निर्माता माना गया है। इस प्रशस्ति में चौहानों को 'वत्सगौत्रीय' ब्राह्मण बताया गया है। प्रारंभ में चौहान प्रतिहारों के सामन्त थे, परन्तु गुवक प्रथम, जिसने 'हर्षनाथ मन्दिर' (सीकर के पास) का निर्माण कराया, स्वतन्त्र शासक के रूप में उभरा।

अजयराज चौहान ने 1113 ई. में अजमेर की स्थापना की। उसके पुत्र अर्णोराज (आनाजी) ने अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाकर जनोपयोगी कार्यों में भूमिका अदा की। चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ का काल "सपादलक्ष का स्वर्ण युग" कहलाता है। उसे 'वीसलदेव' और 'कवि बान्धव' भी कहा जाता था। उसने ‘हरकेलि’ नाटक और उसके दरबारी विद्वान् सोमदेव ने 'ललित विग्रहराज’ नामक नाटक की रचना करके साहित्य स्तर को ऊँचा उठाया। विग्रहराज ने अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया, जिस पर आगे चलकर क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने 'अढाई दिन का झोंपड़ा' नामक मस्जिद का निर्माण करवाया। विग्रहराज चतुर्थ एक विजेता था। उसने तोमरों को पराजित कर 'ढिल्लिका' (दिल्ली) को जीता।

रणथम्भौर के चौहान

रणथम्भौर के चौहान वंश की स्थापना पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविन्दराज ने की थी। यहाँ के प्रतिभा सम्पन्न शासकों में हम्मीर का नाम सर्वोपरि है। दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन ख़िलजी ने हम्मीर के समय रणथम्भौर पर असफल आक्रमण किया था। अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1301 में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। इसका मुख्य कारण हम्मीर द्वारा अलाउद्दीन ख़िलजी के विरुद्ध मंगोल शरणार्थियों को आश्रय देना था। क़िला न जीत पाने के कारण अलाउद्दीन ने हम्मीर के सेनानायक रणमल और रतिपाल को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। हम्मीर ने आगे बढ़कर शत्रु सेना का सामना किया, पर वह वीरगति को प्राप्त हुआ। हम्मीर की रानी रंगादेवी और पुत्री ने 'जौहर व्रत' द्वारा अपने धर्म की रक्षा की। यह राजस्थान का प्रथम जौहर माना जाता है। हम्मीर के साथ ही रणथम्भौर के चौहानों का राज्य समाप्त हो गया। हम्मीर के बारे में प्रसिद्ध है- "तिरिया-तेल, हम्मीर हठ, चढे न दूजी बार"।

जालौर की चौहान शाखा

जालौर की चौहान शाखा का संस्थापक कीर्तिपाल था। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम 'जाबालिपुर' और क़िले का 'सुवर्णगिरि' मिलता है, जिसको अपभ्रंश में 'सोनगढ़' कहते हैं। इसी पर्वत के नाम से चौहानों की यह शाखा ’सोनगरा’ कहलाई। इस शाखा का प्रसिद्ध शासक कान्हड़देव चौहान था। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने जालौर को जीतने से पूर्व 1308 में सिवाना पर आक्रमण किया। उस समय चौहानों के एक सरदार, जिसका नाम सातलदेव था, दुर्ग का रक्षक था। उसने अनेक स्थानों पर तुर्कों को छकाया। इसलिए उसके शौर्य की धाक राजस्थान में जम चुकी थी। परन्तु एक राजद्रोही भावले नामक सैनिक द्वारा विश्वासघात करने के कारण सिवाना का पतन हो गया और अलाउद्दीन ने सिवाना जीतकर उसका नाम 'खैराबाद' रख दिया। इस विजय के पश्चात् 1311 ई. में जालौर का भी पतन हो गया और वहाँ का शासक कान्हड़देव वीरगति को प्राप्त हुआ। वह शूरवीर योद्धा, देशाभिमानी तथा चरित्रवान व्यक्ति था। उसने अपने अदम्य साहस तथा सूझबूझ से क़िले के निवासियों, सामन्तों तथा राजपूत जाति का नेतृत्व कर एक अपूर्व ख्याति अर्जित की थी।

हाड़ा राजपूत

वर्तमान हाड़ौती क्षेत्र पर चौहान वंशीय हाड़ा राजपूतों का अधिकार था। प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर मीणाओं का अधिकार था। ऐसा माना जाता है कि बून्दा मीणा के नाम पर ही बूँदी का नामकरण हुआ। कुंभाकालीन राणपुर के लेख में बूँदी का नाम ‘वृन्दावती’ मिलता है। राव देवा ने मीणाओं को पराजित कर 1241 में बूँदी राज्य की स्थापना की थी। बूँदी के प्रसिद्ध क़िले तारागढ़ का निर्माण बरसिंह हाड़ा ने करवाया था। तारागढ़ ऐतिहासिक काल में भित्ति चित्रों के लिए विख्यात रहा है। बूँदी के सुर्जनसिंह ने 1569 में अकबर की अधीनता स्वीकार की थी। बूँदी की प्रसिद्ध चौरासी खंभों की छतरी शत्रुसाल हाड़ा का स्मारक है, जो 1658 में सामूगढ़ के युद्ध में औरंगज़ेब के विरुद्ध शाही सेना की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था। बुद्धसिंह के शासन काल में मराठों ने बूँदी रियासत पर आक्रमण किया था।

प्रारम्भ में कोटा बूँदी राज्य का ही भाग था, जिसे शाहजहाँ ने बूँदी से अलग कर माधोसिंह को सौंपकर 1631 ई. में नए राज्य के रूप में मान्यता दी थी। कोटा राज्य का दीवान झाला जालिमसिंह इतिहास चर्चित व्यक्ति रहा है। कोटा रियासत पर उसका पूर्ण नियन्त्रण था। कोटा में ऐतिहासिक काल से आज तक कृष्ण की भक्ति का प्रभाव रहा है। इसलिए कोटा का नाम नन्दग्राम भी मिलता हैं। बूँदी-कोटा में सांस्कृतिक उपागम के रूप में यहाँ की चित्र शैलियाँ विख्यात रही हैं। बूँदी में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ अंकन हुआ है, वहीं कोटा शैली शिकार के चित्रों के लिए विख्यात रही है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संदर्भ- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की राजस्थान अध्ययन की पुस्तक

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