राहत इंदौरी

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राहत इंदौरी
राहत इंदौरी
पूरा नाम डॉ. राहत इंदौरी
जन्म 1 जनवरी, 1950
जन्म भूमि इंदौर, मध्य प्रदेश
मृत्यु 11 अगस्त, 2020
मृत्यु स्थान इंदौर, मध्य प्रदेश
अभिभावक पिता- रफ्तुल्लाह कुरैशी, माता- मकबूल उन निशा बेगम
पति/पत्नी अंजुम रहबर (1988-1993), सीमा राहत
विषय ग़ज़ल, नज़्म, गीत
भाषा उर्दू
विद्यालय बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल; मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय
शिक्षा एम.ए. (उर्दू साहित्य), पी.एचडी
प्रसिद्धि उर्दू कवि, गीतकार
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी राहत इंदौरी देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर में उर्दू साहित्य के प्राध्यापक भी रहे। वह उर्दू भाषा के पूर्व प्रोफेसर और चित्रकार भी रहे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

डॉ. राहत इंदौरी (अंग्रेज़ी: Dr. Rahat Indori, जन्म: 1 जनवरी, 1950; मृत्यु- 11 अगस्त, 2020) प्रसिद्ध उर्दू शायर और हिन्दी फिल्मों के गीतकार थे। कम ही लोगों को इस बात का इल्म है कि राहत इंदौरी बॉलीवुड के लिए गाने भी लिखा करते थे। वह उर्दू भाषा के पूर्व प्रोफेसर और चित्रकार भी रहे। लंबे अरसे तक श्रोताओं के दिल पर राज करने वाले राहत इंदौरी की शायरी में हिंदुस्तानी तहजीब का नारा बुलंद था।

जीवन परिचय

राहत इंदौरी का जन्म मध्य प्रदेश राज्य के प्रसिद्ध नगर इंदौर में 1 जनवरी, 1950 में कपड़ा मिल के कर्मचारी रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम के यहाँ हुआ। राहत की प्रारंभिक शिक्षा नूतन स्कूल इंदौर में हुई। उन्होंने इस्लामिया करीमिया कॉलेज इंदौर से 1973 में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और 1975 में बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से उर्दू साहित्य में एम.ए. किया। तत्पश्चात् 1985 में मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। राहत इंदौरी, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर में उर्दू साहित्य के प्राध्यापक भी रह चुके थे।

विवाह

राहत इंदौरी उर्फ राहत कुरैशी ने दो शादियां की थीं। उन्होंने पहली शादी 27 मई, 1986 को सीमा राहत से की। सीमा से उनको एक बेटी शिबिल और 2 बेटे जिनका नाम फैज़ल और सतलज राहत हैं, हुए। उन्होंने दूसरी शादी अंजुम रहबर से साल 1988 में की। अंजुम से उनको एक पुत्र हुआ, कुछ सालों के बाद इन दोनों में तलाक हो गया।[1]

संघर्षमय समय

राहत इंदौरी

इंदौर की जमीन से काशिफ इंदौरी और नूर इंदौरी भी पाएदार शायर हुए हैं, लेकिन राहत इंदौरी जैसी शोहरत किसी को नहीं मिली। झंडा चौक दरअसल इंदौर में शायरों का गढ़ माना जाता है। शाम से शुरू होकर देर रात तक शायरों का जमावड़ा यहाँ लगा रहता। रानीपुरा स्थित यह चौक सामिष खाने और शेरो-शायरी के लिहाज से बड़ा मरकज था। यह अभी भी बदस्तूर चालू है। लेकिन झंडा चौक का यह दृश्य बदलकर बहुत पीछे दूसरे विश्वयुद्ध पर इतिहास में जाकर स्थिर हो जाता है। इस युद्ध के बाद यानी वर्ष 1945 से यूरोप की आर्थिक स्थिति बहुत अस्थिर हो गई थी। भारतीय कपड़ा मिलों में जो उत्पादन होता था, वह यूरोप में निर्यात पर ही निर्भर था। यूरोप के खस्ताहाल होने का असर भारतीय मिलों पर होना ही था। इंदौर उस समय कपड़ा मिलों के लिए जाना जाता था। यहाँ भी कई मिलें बंद हो गईं या बड़ी संख्या में कामगारों की छंटनी हो गई। रिफ़अत उल्लाह ऐसे कामगारों में थे, जिनकी नौकरी भी चली गई। मुफलिसी का दौर उनके जीवन में शुरू हो चुका था। वे ऑटो चलाने लग गए थे। ऐसे में वर्ष 1950 के पहले दिन, 1 जनवरी को उनके यहाँ कामिल (राहत इंदौरी) का जन्म होता है, जिसका नाम बाद में बदलकर राहत कर दिया गया था। इंदौर में उस दिन यह भी हुआ था कि होल्कर रियासत ने भारत में विलय होने की सहमति पर दस्तखत किए थे। उस समय के राहत नयापुरा स्थित सरकारी स्कूल में पढ़ते थे और खर्चा-पानी के लिए मजदूरी किया करते थे। पैसा उनके परिजनों की जरूरत थी और वे कमाने की जुगत में लगे रहते थे। मालवा मिल के पास उन्होंने पेंटिंग की एक दुकान खोल ली और ट्रक के पीछे पेंट कर कमाने का हुनर साधने लगे। मोटरसाइकिल और स्कूटरों के नम्बर प्लेट भी पेंट करने लगे।[2]

शायरी के दीवाने

वरिष्ठ चित्रकार अनीस नियाजी के अनुसार- 'राहत भाई के फानी हो जाने के सदमे ने कुछ कुंद दरवाजो को खोल दिया है। इंदौर में नयापुरा नाम की एक बस्ती है। यहाँ अंसार जमात की बहुतायत है। यह लोग बुनकर हुआ करते हैं। वहाँ मेरी फुफ्फो (बुआ) रहा करती थीं। मैं अक्सर उनके यहाँ खेलने चले जाया करता था। उनके घर के सामने एक नीली रंग की टेम्पो खड़ी रहा करती थी। हम बच्चे दिन भर उस टेम्पो में धमाचौकड़ी मचाए रहा करते थे। वह टेम्पो वाली आपा राहत साहब की वालेदा हुआ करती थीं तथा टेम्पो उनके वालिद की आमदनी का जरिया थी। जब वे 9वीं कक्षा में नूतन हायर सेकंडरी स्कूल में पढ़ते थे, तब स्कूल में एक मुशायरा हुआ। राहत की ड्यूटी शायरों की खिदमत करने के लिए लगा दी गई। उस मुशायरे में जाँनिसार अख्तर भी आए थे। छात्र राहत ने उनका आटोग्राफ लिया और पूछ लिया- ‘मैं भी शेर पढ़ना चाहता हूँ, इसके लिए क्या करना होगा।’ अख्तर साहब बोले, ‘पहले कम से कम एक हजार शेर याद कर लो।’ इस पर राहत बोल पड़े, ‘इतने तो मुझे अभी याद है।’ अख्तर साहब ने जवाब दिया, ‘तो फिर इस शेर को पूरा करो।’ यह कहकर जब उन्होंने लिखा- ‘हमसे भागा न करो, दूर गजालों की तरह’ यह पढ़कर राहत बोल दिए- ‘हमने चाहा है तुम्हें, चाहने वालों की तरह।’ मतलब स्पष्ट है कि अपने स्कूली जीवन से वे शायरी के दीवाने हो गए थे। अब दृश्य इंदौर से भोपाल आ जाता है। बरकतउल्ला यूनिवर्सिटी से राहत उर्दू में एमए करते हैं और भोज यूनिवर्सिटी से पीएचडी। थोड़े समय इंदौर में अध्यापन करने के साथ ही उनकी शायरी परवान चढ़ने लगी। यह वह दौर था, जब वे शौहरत की सीढ़ियों पर अपने पांव जमाते हुए मशहूर होने की तरफ बढ़ रहे थे।"

हिंदी सिनेमा में योगदान

मुंबई में उनकी जोड़ी अनु मलिक के साथ हिट रही थी। 'नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम' और 'तुमसा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है' जैसे उनके लिखे अनगिनत गाने अनु मलिक के साथ के ही हैं। उन्होंने 'मुन्ना भाई एमबीबीएस', 'सर', 'मीनाक्षी', 'जानम', 'खुद्दार', 'मिशन कश्मीर', 'करीब', 'मर्डर', 'मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी', 'हमेशा', 'हनन', 'जुर्म' इत्यादि कई फिल्मों के लिए गीत लिखे। लेकिन उनका मन बॉलीवुड में रम नहीं पाया। वे अपना सम्पूर्ण वक़्त शायरी को देना चाहते थे। यह उनका सपना नहीं, उनका जीवन था। मुंबई से फिर हमेशा के लिए वे इंदौर आ गए और खालिस शायर का मुकम्मल जीवन जीने लगे।[2]

शायरी की बेबाक़, बुलंद आवाज़

राहत इंदौरी

युवा शायर और बॉलीवुड के बेहतरीन फ़िल्म लेखक संजय मासूम के अनुसार- 'राहत इंदौरी साहब का जाना, शायरी की एक बेबाक़, बुलंद आवाज़ का ख़ामोश हो जाना है। अपनी शायरी के शुरुआती दिनों में जिन शायरों को सुनकर, पढ़कर ग़ज़लें कहने का हौसला बढ़ा, उनमें राहत साहब भी थे। मुझे याद है इलाहाबाद की एक रात। अखिल भारतीय मुशायरा था। ज़्यादातर शायर तरन्नुम से पढ़ रहे थे और लोगों की तालियाँ बटोर रहे थे। श्रोताओं में बैठा मैं, हतोत्साहित हो रहा था। क्योंकि ग़ज़लें तो मैं कहने लगा था, लेकिन तरन्नुम न मेरे पास था और न ही हो पाने की कोई संभावना थी। तभी मंच पर ग़ज़ल पढ़ने आये राहत इंदौरी साहब। उन्होंने तहत में जिस अंदाज़ में अपनी ग़ज़ल पढ़ी, पूरा माहौल देर तक तालियों से गूंजता रहा। राहत साहब ने मुझे कहीं न कहीं एक राहत दी थी। हालाँकि उनकी तरह शेरों-ग़ज़लों की अदायगी सबके बस की बात नहीं। अपनी तरह से पढ़ने वाले वो अकेले शायर थे। उन्होंने ग़ज़लों को एक नयी धार, एक नयी चमक दी। उनकी रचनाएँ हम सबकी अमूल्य धरोहर हैं। उस रात इलाहाबाद में पढ़ी गयी उनकी ग़ज़ल का एक शेर-

'हमसे पूछो कि ग़ज़ल माँगती है कितना लहू,
सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है।'

प्रतिष्ठित चित्रकार अखिलेश ने राहत इंदौरी को अलहदा अंदाज़में याद कहा- 'जब दुबई जाने का तय हुआ एक सुबह बाबा (एम. एफ. हुसैन) का फ़ोन आया कि आप आ रहे हैं तो अपनी पसन्द के कुछ कवियों की कविताएँ लेते आयें। बहुत दिनों से हिन्दी कविता की नयी पीढ़ी का कुछ सुना नहीं है। जल्दी में मैंने शिरीष ढोबले, उदयन वाजपेयी, व्योमेश शुक्ल, राकेश श्रीमाल और एकाध और कवि की कविता संग्रह या फ़ोटो कॉपी ली और चला गया। दूसरे दिन उन्हें कविताएँ पढ़कर सुनाई, जिसे सुनकर बाबा का मन प्रसन्न हुआ और वे तारीफ़ करते रहे। फिर उन्होंने आग्रह किया कि मैं दुबई में एक कवि सम्मेलन का आयोजन उनकी गैलरी की मदद से करूँ। जिसमें हिन्दी के पाँच कवि हों और उर्दू में कोई अच्छा शायर है या नहीं। यह पूछा, फिर ख़ुद ही कहा राहत इन्दोरी को ज़रूर बुलाना। अच्छी शायरी कर रहे हैं इन दिनों। पाँच हिन्दी के कवि हों। दो शायर और यहाँ से मैं पाँच अरबी के शायर चुनूँगा। गैलरी वाली भी साथ थी लेकिन उसी की अरुचि के कारण यह आयोजन न हो सका। दूसरा मौक़ा था बाबा के इन्तक़ाल के बाद उनकी स्मृति में इंदौर की गैलरी रिफ़लेक्शन के सुमित भाई ने एक शाम मुझे और राहत भाई को बोलने के लिए आमन्त्रित किया। राहत भाई ने बड़ी संजीदगी और आत्मीयता से बाबा को याद किया और उनसे जुड़े क़िस्सों को सुनाया। जिसमें एक वह भी था जब बाबा ने उनसे अगली फ़िल्म के गीत लिखने को कहा और वह काम पूरा न हो सका।'[2]

युवा चित्रकार सीरज सक्सेना कहते हैं- 'हर शहर की एक पहचान होती हैं ये पहचान वहां की मिट्टी, व्यवहार, भाषा और उस शहर के चरित्र से बनती हैं। देश विदेश में प्रसिद्ध इंदौर के शायर दिलदार राहत इंदौरी नहीं रहे।

राहत इंदौरी

उनका पढ़ने का अंदाज़ निराला और आकर्षक था। हम सब इंदौर वाले, उनसे उम्र में छोटे हों या बड़े, उन्हें राहत भाई कह कर ही बुलाते थे। हालाँकि वे थे पिता की उम्र के और उन्हें हम वैसी ही मुहब्बत करते थे और करते रहेंगें। रिफ्लेक्शंस आर्ट गैलरी इंदौर में मेरी एकल छापा कला प्रदर्शनी “इन ब्रीफ़” (वर्ष 2018) का उद्घाटन उन्हीं के हाथों हुआ। ये वही हाथ थे जिन्होंने अपने जीवन सफर की शुरुआत ब्रश से की थी। पचहत्तर के दौर में शहर के मालवा मिल इलाके में उनकी एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी जहां वे साइन बोर्ड पेंट किया करते थे। वे उस समय राहत पेंटर के नाम से मशहूर थे और उनकी दूकान “पेंटर वाली दुकान” के नाम से उस इलाके में पहचान पाने लगी थी। वस्त्र भण्डार, भोजनालय, किराना स्टोर आदि छोटी बड़ी दुकानों और शोरूम के साइन बोर्ड लिख कर वे अपना जीवन यापन करते थे। रोज़ शाम उस दुकान में अपनी मंडली के साथ (जब पेन्टरी का काम ख़त्म हो जाता था) शेरो-शायरी में रमे रहते थे। यह वही दौर था जब राहत “इंदौरी” बन रहे थे। प्रदर्शनी में दिखाए गए मेरे ग्राफिक प्रिंट्स को देख उन्होंने देर तक बात की। चित्रों में लकीरों के बारे में बात करते हुए उन्होंने अपनी बात ग़ालिब के एक शेर से की– 'देखना तक़रीर की लज्ज़त कि जो उसने कहा / मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में हैं।' सीरज सक्सेना ने वह भी बताया जो राहत इंदौरी ने कहा- 'कार्डियोग्राम लकीरें होती हैं उसे हर आदमी नहीं समझता हैं। दिल का मरीज़, जिसकी लकीरें हैं वह खुद भी नहीं समझता। लेकिन उन लकीरों की अहमियत और कीमत क्या हैं, यह सब को महसूस होता हैं। अगर ये लकीरें इधर उधर हो जाए तो शायद हम भी इधर उधर हो जाएंगें।'

एम. एफ. हुसैन से मित्रता

सीरज सक्सैना आगे बताते हैं कि- लॉकडाउन[3] में भी जब मैंने अपने मित्र शुभाशीष चक्रबर्ती के साथ झारखंड के बच्चों के लिए 'रंग जोहार' नामक एक चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित की। तब भी हमारे आग्रह पर राहत इंदौरी ने इस आयोजन व बच्चों की हौसला अफजाई करते हुए एक वीडियो बनाकर खुद को हम सभी के पास भेजा था। बच्चों को उन्होनें अपने विडियों संदेश में रंगों की सोहबत के महत्व के बारे में आसान और प्रभावी भाषा में बताया। भाषा में व्यक्त उनका सम्प्रेषण सहज और सरलता से अपनाने की ताक़त रखता है। मेरी पहली किताब “सिमिट सिमिट जल” (कवि पीयूष दईया के साथ एक संवाद) के लोकार्पण के समय भी उन्होंने अपनी उपस्थिति को एक वीडियो के ज़रिए साझा किया था। हुसैन साहब और उनकी दोस्ती गहरी थी। राहत इंदौरी जब मुंबई पहुंचे तो हुसैन साहब ने ही उनके रहने का बंदोबस्त किया और राहत भाई के यह कहने पर कि घर तो ठीक है। फर्नीचर भी पर्याप्त हैं। बस दीवारें सूनी हैं। जल्द ही हुसैन साहब ने अपना एक चित्र राहत भाई को उस दीवार के लिए दिया, जो आज भी राहत भाई के इंदौर के घर की दीवार पर है। हुसैन साहब और उनकी दोस्ती उन्हें केरल भी ले गई, जहाँ दोनों ने खूब रचनात्मक समय बिताया।'

विशिष्ट कथन

शायरी के भारतीय परिदृश्य में निदा फाजली के बाद राहत इंदौरी का नहीं रहना एक ऐसे शून्य की निर्मिति कर गया है, जिसे भरने के लिए ना मालूम कितने लंबे वक़्त की जरूरत होगी। वे किसी विचारधारा के नहीं, बल्कि जन-शायर थे। अपनी आँखों में नमी और होंठो पर चिंगारियों को लिए यह शायर अपनी तरह के अलग और विशिष्ट कहन के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। उन्होंने एक अखबार से पिछले वर्ष कहा था- 'मैं सोचता हूँ कि ऐसी दो लाइनें नहीं लिख पाया, जो मुझे 100 साल बाद भी जिंदा रख सकें। जिस दिन मेरी रुखसत की खबर आए, आप देखिएगा मेरी जेब, मैं वादा करता हूँ कि वो दो मुकम्मल लाइनें आपको मिल जाएंगी।'[2]

दिलकश शैली के शायर

राहत इंदौरी की शायरी का अंदाज़ बहुत ही दिलकश होता था। वे अपनी लोकप्रियता के लिये कोई ऐसा सरल रास्ता नहीं चुनते थे, जो शायरी की इज़्ज़त को कम करता हो। राहत जब ग़ज़ल पढ़ रहे होते तो उन्हें देखना और सुनना दोनों एक अनुभव से गुज़रने जैसा होता था। राहत के भीतर का एक और राहत इस वक़्त महफ़िल में नमूदार होता। वह एक तिलिस्म सा छा जाता। राहत मुशायरों के ऐसे हरफनमौला रहे जिन्हें आप किसी भी क्रम पर खिला लें, वे बाज़ी मार ही लेते थे। उनका माईक पर होना ज़िन्दगी का होना होता था। यह अहसास सुनने वाले को बार-बार मिलता कि राहत रूबरू हैं और अच्छी शायरी सिर्फ़ और सिर्फ़ इस वक़्त सुनी जा रही है।

प्रसिद्ध फ़िल्मी गीत

राहत इंदौरी ने लगभग दो दर्जन फ़िल्मों में गीत लिखे। उनके प्रसिद्ध हिन्दी फ़िल्म गीत कुछ इस प्रकार हैं-

  • आज हमने दिल का हर क़िस्सा (फ़िल्म- सर)
  • तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है (फ़िल्म- खुद्दार)
  • खत लिखना हमें खत लिखना (फ़िल्म- खुद्दार)
  • रात क्या मांगे एक सितारा (फ़िल्म- खुद्दार)
  • दिल को हज़ार बार रोका (फ़िल्म- मर्डर)
  • एम बोले तो मैं मास्टर (फ़िल्म- मुन्नाभाई एमबीबीएस)
  • धुंआ धुंआ (फ़िल्म- मिशन कश्मीर)
  • ये रिश्ता क्या कहलाता है (फ़िल्म- मीनाक्षी)
  • चोरी-चोरी जब नज़रें मिलीं (फ़िल्म- करीब)
  • देखो-देखो जानम हम दिल (फ़िल्म- इश्क़)
  • नींद चुरायी मेरी (फ़िल्म- इश्क़)
  • मुर्शिदा (फ़िल्म - बेगम जान)

प्रसिद्ध ग़ज़ल

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

मृत्यु

मशहूर शायर राहत इंदौरी का निधन 11 अगस्त, 2020 को इंदौर, मध्य प्रदेश में हुआ। भोपाल से स्थानीय पत्रकार शुरैह नियाज़ी के मुताबिक़, 70 वर्षीय राहत इंदौरी को कोरोना और सांस लेने में दिक्कत की वजह से भर्ती कराया गया था। उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई। इंदौर के श्री ऑरविंदो अस्पताल के डॉक्टर विनोदी भंडारी ने बताया कि "मंगलवार को उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा और उन्हें बचाया नहीं जा सका। उन्हें 60 प्रतिशत निमोनिया था"।

राहत इंदौरी ने मंगलवार सुबह ही ट्विटर पर अपने कोरोना संक्रमित होने की जानकारी दी थी। मंगलवार को इसी एकाउंट से उनकी मृत्यु की सूचना दी गई। शुरैह नियाज़ी के मुताबिक़़ संभवतः राहत इंदौरी के बेटे ने ये ट्वीट किया था। इस ट्वीट में लिखा था- "राहत साहब का Cardiac Arrest की वजह से आज शाम 05:00 बजे इंतेक़ाल हो गया है... उनकी मग़फ़िरत के लिए दुआ कीजिये..."।[4]


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