लोई का ताना -रांगेय राघव

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
लोई का ताना -रांगेय राघव
'लोई का ताना' उपन्यास का आवरण पृष्ठ
लेखक रांगेय राघव
प्रकाशक राजपाल एंड सन्स
ISBN 81-7028-368-x
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकार उपन्यास

'लोई का ताना' प्रसिद्ध साहित्यकार, कहानीकार और उपन्यासकार रांगेय राघव द्वारा लिखा गया उपन्यास है। इस उपन्यास को 'राजपाल एंड संस' प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया था। प्रस्तुत ग्रन्थ में कबीर की झाँकी है। लोई का ताना' डॉ. रांगेय राघव द्वारा लिखा चौथा जीवन चरित्रात्मक उपन्यास है। यह सन् 1954 ई. में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के नायक हिन्दी साहित्य के महान् समाज सुधारक कवि व दार्शनिक संत कबीर की जीवन कहानी है। 'लोई' कबीर की पत्नी है और कबीर ब्राह्मण विधवा से जन्मे थे तथा जुलाहा जाति दंपति से इनका पालन-पोषण हुआ था। 'लोई' कपास की लट्ठी होती है। जिसकी सहायता से ताना बुनकर कपड़ा तैयार करते हैं। इसका शीर्षक 'प्रतीकात्मक' है।

'लोई का ताना' एक ऐसा उपन्यास है जिसके माध्यम से कबीर के जीवन द्वारा उस युग की विद्रोहात्मक सामाजिक चेतना का चित्रण किया है। कबीर के जीवन-संबंधी तथ्य अधिक नहीं मिलते। फिर भी उनके साहित्य को पढ़कर जिन निष्कर्षों पर पहुंचे है, वह प्रशंसनीय है। उपन्यासकार ने जीवनी, इतिहास और आलोचना के त्रिभुज द्वारा कबीर के जीवन का चित्रण किया है-

जाति जुता हा मति को धीर।
हरषि हरिष गुण रमे कबीर॥

डॉ. रांगेय राघव जी ने 1950 ई. के पश्चात् कई जीवनी प्रधान उपन्यास लिखे हैं, इनका पहला उपन्यास सन् 1951-1953 ई. के बीच प्रकाशित हुआ। 'भारती का सपूत' जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवनी पर आधारित है। तत्पश्चात् विद्यापति के जीवन पर 'लखिमा के आँखेंं', बिहारी के जीवन पर 'मेरी भव बाधा हरो', तुलसी के जीवन पर 'रत्ना की बात', कबीर- जीवन पर 'लोई का ताना' और 'धूनी का धुंआं' गोरखनाथ के जीवन पर कृति है। 'यशोधरा जीत गई है', गौतम बुद्ध पर लिखा गया है। देवकी का बेटा कृष्ण के जीवन पर आधारित है।[1]

  • रांघेय राघव ने पुस्तक के प्रारम्भ में लिखा है-
  • वैसे कबीर के जीवन सम्बन्धी तथ्य अधिक नहीं मिलते। मैं उनके साहित्य को पढ़कर जिन निष्कर्षों पर पहुँचा हूँ उन्हीं को मैंने उनके जीवन का आधार बनाया है। कबीर पहले निम्नजातीय हिन्दू बनकर रहना चाहते थे। पर रामानन्द की दीक्षा के बाद वे जात-पाँत की ओर से संदिग्ध हो गए। वे पहले 'अवतारवाद' मानते थे। फिर वे निर्गुण की ओर झुके। फिर योगियों के रहस्यवाद और षड्चक्र साधना आदि की ओर। बाद में वे सहज साधना में चमत्कारवाद से आगे बढ़ गए। अन्त में तो वे एक नई भूमि पर पहुँच गए जिसका वर्णन यहाँ मैंने किया है। कबीर को लोगों ने गलत समझा है। कबीर में सूफीमत, वेदान्त, रहस्यवाद, नारीनिन्दा तथा अनेक बातें हैं जैसे संसार की असारता पर जोर, मायावाद आदि का वर्णन, पर ये अनेक विकास की मंजिलें हैं। वे धीरे-धीरे आगे बढ़ गए हैं। वे कितने बढ़ गए थे यह समझना तब और भी अधिक आश्चर्य देता है जब हम सोचते हैं कि वे आज से सैकड़ों बरस पहले थे। कबीर के चेलों ने ब्राह्मणों की नकल की। कबीर के विद्रोह और सत्य को दबा दिया गया। कबीर इतिहास में एक उलझन बन गया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ब्राह्मणवादी आलोचक थे। उन्होंने कबीर को 'नीरस निर्गुणिया' कह दिया। वे कह गए हैं कि कबीर ने राह नहीं दिखाई। कबीर ज्ञान को रहस्य में डुबाता था। साधारण जनता कबीर को समझ नहीं सकी।

यह सब ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण है अत: त्याज्य है। अवैज्ञानिक है।

  • कबीर निर्गुण के परे थे। कबीर ने जो राह दिखाई वह मानवता को कल्याण की ओर ले जाने वाली थी। वे भारतीय संस्कृति के नाम पर भेदभाव वाले ब्राह्मणवाद को नहीं मानते थे। वे इस्लाम का विरोध करके भी उससे घृणा नहीं करते थे, और उसे मुक्ति का पथ भी नहीं समझते थे। कबीर ने जनता का दलित जीवन देखा था, तुलसीदास की भाँति नहीं एक जुलाहे की भाँति। वे सगुण ईश्वर को मानकर ब्राह्मणवाद के नियमों में बंध नहीं सके। पर उनका रहस्य भी ऐसा न था कि वे संसार को छोड़ देते। घर में पत्नी थी, पुत्र था। पर पत्नी और पुत्र के ही लिए डूबे रहकर दूसरों का गला काटना वे माया कहते थे। कबीर ने कहा कि इन्सान को किसी रुढ़ि की ज़रूरत नहीं, वह ईश्वर के लिए झगड़े, यह व्यर्थ की बात है। ईश्वर रहस्य इसीलिए है कि मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि से उसे जान नहीं सकता, जो जानकार बनते थे उनको उन्होंने झूठा कहा। कबीर ने ही कहा था कि प्यारे आसमान पर ताकना छोड़ दे। मन की कल्पना और भरमना छोड़ दे।

ये क्या शून्यवादी के शब्द हैं ?

  • कबीर ने दूसरों के बल पर खानेवाले साधुओं का घोर विरोध किया था। वे तो मेहनत का खाना चाहते थे। साधारण जनता ने कबीर को समझा था। उसी ने कबीर को मुल्ला, पंडित, जोगी आदि के पुरोहित वर्ग और सत्ताधारियों से बचाया था। पर बाद में कबीर पंथियों ने कबीर को मिटा दिया। परवर्तियों में कबीर को चमत्कारों से ढक दिया गया।
  • कबीर ने हिन्दू-मुसलमानों दोनों को नितान्त निम्नजाति के आदमी की आँखों से देखा था। पर चेले पढ़े-लिखे थे। उस समय मुसलमान शासकों की शक्ति भी बढ़ गई थी। सारी भारतीय जातियों का संगठन हो रहा था। निम्नजातीय जनता के रूप में कबीर के अनुयायी भी दलित थे। शासन मुस्लिम था। अतः इस्लाम पर अत्याचारों के नाम चढ़ते थे। उस समय 'कबीर पंथ' 'हिन्दू मत' ही बन गया था।
  • कबीर ने तो भारत के सांस्कृतिक जन जागरण की नींव डाली है। उसके युग के बन्धन थे, और उनकी उस पर छाप है। वह धीरे-धीरे विकास करके कितना आगे आ गया था !
  • भाषा में उसने क्रान्ति की। बिल्कुल जन भाषा बोली। तुलसी की भाँति वक्त बेवक्त की बैसाखियाँ नहीं लगाईं। तुलसी के देवता आखिर संस्कृत बोलते थे। कबीर ने जनता के उपमान लिए और जीवन के अच्छे आचरण पर सामाजिक आचरण पर जोर दिया। जहाँ तुलसीदास सारे अनाचार की जड़ कलि को मानते थे, कबीरदास कलि का नाम नहीं लेते। वे तो मोह-लोभ-दम्भ और धन को ही इस माया और अनाचार का मूल मानते हैं।
  • कबीर का मुख्य सन्देश प्रेम का है।

पुस्तक के बारे में

  • अब प्रस्तुत पुस्तक के बारे में कुछ और बातें साफ़ कर दूँ। - कबीर पढ़े-लिखे न थे। कविता लिखते नहीं थे। वे तो फौरन सुनाने वालों में थे। लोग लिखा करें, उन्हें इससे बहस नहीं थी। वे तो कह देते थे। इसी से मैंने उनकी कविताएँ उनके मुँह से परिस्थितियों के बीच में सुनवाई हैं।
  • दूसरी बात है कमाल के द्वारा कथा कहलवाना। कमाल कबीर का पुत्र था। कमाल के बारे में प्रसिद्ध है-

बूडा बंस कबीर का,
जब उपजा पूत कमाल।

  • परन्तु यह विद्वानों द्वारा कबीर की पंक्ति नहीं मानी गई। 'कमाल' के बारे में किंवदन्ती है कि कबीर के बाद जब उसने पिता के नाम पर पंथ चालू करने से इंकार कर दिया तो कबीर के चेलों ने इसे ऐसा नाम दे दिया। कबीर की पत्नी 'लोई' थी। कबीर की कविताओं में उसका नाम है। तथ्यों के अभाव में कबीर के जीवन का पूरा चित्र देने में कमाल ने सहायता दी है। पहले कमाल उपसंहार में अपनी परिस्थिति बताता है। तब कबीर मर चुका है और पंथ बन गया है। ‘उपसंहार से पहले’ में कबीर की मृत्यु के बाद गुरु की कविताओं को सुनाकर आपस में लड़नेवाले चेलों का वर्णन है। फिर ‘आरम्भ’ तक कबीर के विशेष रूप हैं। 'मरजीवा' वाला अध्याय कबीर की महानता, नया पथ और उसके चिन्तन को स्पष्ट करने को है। अन्तिम अध्याय में कबीर के जीवन के मोड़ हैं।
  • कमाल ही बोलता है। मैं नहीं बोलता। अपने युग के बंधनों में रहकर जो कमाल कह सकता है वह कहता है, बाकी मैं भूमिका में कहे दे रहा हूँ। कबीर निस्संदेह तत्कालीन जीवन में क्रान्ति का बीज था। दुर्भाग्य से बाद में फिर वह वर्गसंघर्ष जातिसंघर्षों में दब गया। तब 'वर्गसंघर्ष' का मतलब 'वर्णसंघर्ष' ही था।[2]



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जीवनीपरक साहित्यकारों में डॉ. रांगेय राघव (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।
  2. लोई का ताना (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख