वर्मा मलिक

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वर्मा मलिक
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पूरा नाम बरकत राय मलिक
प्रसिद्ध नाम वर्मा मलिक
जन्म 13 अप्रैल, 1925
जन्म भूमि फ़िरोज़पुर
मृत्यु 15 मार्च, 2009
मृत्यु स्थान मुम्बई, महाराष्ट्र
संतान पुत्र- राजेश मलिक
कर्म भूमि मुम्बई
कर्म-क्षेत्र भारतीय सिनेमा
मुख्य फ़िल्में 'यादगार', 'सावन भादों', 'विक्टोरिया न. 203', 'नागिन', 'चोरी मेरा काम', 'रोटी कपड़ा और मकान'।
पुरस्कार-उपाधि "सबसे बड़ा नादान वही है" और "जय बोलो बेइमान की जय बोलो" गीतों के लिये- फ़िल्मफेयर ट्रॉफ़ी।
अन्य जानकारी वर्मा मलिक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गीत लिखकर कांग्रेस के जलसों और सभाओं में सुनाया करते थे। वह कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए। इसी कारण उन्हें गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया था।
अद्यतन‎

वर्मा मलिक या बरकत राय मलिक (अंग्रेज़ी: Verma Malik, जन्म- 13 अप्रैल, 1925, फ़िरोज़पुर, ब्रिटिश भारत; मृत्यु- 15 मार्च, 2009, मुम्बई, महाराष्ट्र) भारतीय सिनेमा में प्रसिद्ध गीतकार थे। वह पंजाबी और उर्दू के लेखक थे। हिंदी भाषा उन्होंने मुम्बई आकर ही सीखी थी। उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों से अपने कॅरियर की शुरुआत की थी। सर्वप्रथम उन्होंने हंसराज बहल की फ़िल्म में काम किया था।[1]

परिचय

वर्मा मलिक का पूरा नाम बरकत राय मलिक था। उनका जन्म 13 अप्रैल, 1925 को फ़िरोज़पुर, ब्रिटिश भारत में हुआ था। बहुत कम उम्र में ही उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। वो दौर आज़ादी की लड़ाई का था। स्कूल में पढ़ रहे वर्मा मलिक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गीत लिखकर कांग्रेस के जलसों और सभाओं में सुनाया करते थे। वह कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए। इसका अंजाम यह हुआ कि उन्हें गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया, लेकिन कम उम्र होने की वजह से वो जल्द ही रिहा भी कर दिए गए।[1]

फ़िल्मी कॅरियर की शुरुआत

वह अपने गीतों की प्रशंसा और सराहना में मग्न ही थे कि देश का विभाजन हो गया। ख़ौफनाक परिस्थितियों में वर्मा ज़ख्मी हालत में फ़िरोज़पुर से जान बचाकर भागे। विभाजन के हंगामे में उन्हें पैर में गोली लगी। उन्होंने दिल्ली में शरण ली। दिल्ली आकर उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पेट पालने के लिए वो क्या करें। संगीत निर्देशक हंसराज बहल के भाई, वर्मा मलिक के दोस्त थे उनके कहने पर वर्मा ने मुंबई की राह पकड़ी। हंसराज बहल ने वर्मा को पंजाबी फ़िल्म 'लच्छी' में गीत लिखने का काम दिया और देखते देखते वर्मा पंजाबी फ़िल्मों के हिट गीतकार बन गए। इसी समय उनके मित्रों ने उन्हें नाम बदलने की सलाह दी और बरकत राय मलिक, वर्मा मलिक के नाम से फ़िल्मी दुनिया में पहचाने जाने लगे। हंसराज बहल की निकटता में वर्मा ने संगीत की समझ भी विकसित की और यमला जट सहित तीन पंजाबी फ़िल्मों में संगीत भी दिया। बहुमुखी प्रतिभा के मालिक इस शख़्स ने करीब 40 पंजाबी फ़िल्मों में गीत लिखे, दो तीन फ़िल्मों के संवाद लिखे और तीन फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। लेकिन छठा दशक शुरू होते होते मुंबई में पंजाबी फ़िल्मों का बाज़ार ठप्प पड़ गया। नतीजा यह हुआ कि पंजाबी फ़िल्मों के सबसे लोकप्रिय गीतकार वर्मा मलिक बेरोज़ग़ार हो गए।[1]

हिन्दी गीतों का सफ़र

हालांकि 1953 में उन्होंने हिंदी फ़िल्म 'चकोरी' के गीत लिखने का मौक़ा मिला था इसके निर्देशक भी हंसराज बहल थे, लेकिन फ़िल्म हिट नहीं हो सकी कुछ और फ़िल्मों में भी वर्मा ने हिंदी गीत लिखे। फ़िल्म 'दिल और मोहब्बत' के लिए ओ. पी. नैय्यर के संगीत निर्देशन में लिखा गीत 'आंखों की तलाशी दे दे मेरे दिल की हो गयी चोरी' लोकप्रिय भी हुआ, लेकिन वर्मा मलिक को हिंदी फ़िल्मों के गीत लिखने के और मौके नहीं मिले। पंजाबी फ़िल्मों की व्यस्तता की वजह से वर्मा ने भी अधिक भागदौड़ नहीं की। मूल रूप से पंजाबी और उर्दू जानने वाले वर्मा मलिक को मुंबई आते ही हिंदी की अहमियत का एहसास हो गया था। पंजाबी गीत लिखने के दौर में उन्होंने बाक़ायदा हिंदी लिखनी पढ़नी सीखी। उन्होंने इस भाषा को कितनी गहराई से पढ़ा इसका सुबूत फ़िल्म 'हम तुम और वो' के इस गाने से मिलता है। "प्रिये प्राणेश्वरी.. हृदयेश्वरी, यदि आप हमें आदेश करें तो प्रेम का हम श्रीगणेश करें..."। यह इकलौता ऐसा गाना था जिसमें गूढ़ हिंदी शब्दों का प्रयोग किया गया और गाना बेहद हिट हुआ। बेरोज़गारी का दौर लंबा होने लगा तो वर्मा मलिक गुमनाम से हो गए। उन्होंने काफ़ी भागदौड़ की मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। विभाजन के बाद वर्मा मलिक के जीवन का सबसे कड़ा समय खिंचता ही चला गया। हताश होकर उन्होंने फ़ैसला कर लिया कि वो गीत लिखने की तलाश बंद कर अब कोई दूसरा काम शुरू कर देंगे क्योंकि घर का खर्च चलाना नामुमकिन हो गया था।[1]

मनोज कुमार से भेंट

अब सवाल ये था कि वे क्या काम करें इसी उधेड़ बुन में भटकते हुए के दिन वर्मा फेमस स्टूडियो के सामने से गुज़रे तो उन्हें अपने मित्र मोहन सहगल की याद आयी। उनसे मिलने के दौरान ही कल्याणजी आनंदजी का ज़िक्र हुआ और गीत लिखने के मौके की तलाश में वर्मा कल्याणजी के घर जा पहुंचे। उस समय मनोज कुमार कल्याणजी के साथ बैठे हुए थे। मनोज कुमार वर्मा मलिक को जानते थे और उनके पंजाबी गीतों के प्रशंसक भी थे। मनोज कुमार ने वर्मा मलिक से पूछा कि क्या नया लिखा है वर्मा ने उन्हें तीन चार गीत सुनाए जिसमें एक गीत यह भी था "रात अकेली, साए दो हुस्न भी हो और इश्क भी हो तो फिर उसके बाद इकतारा बोले तुन तुन" मनोज को यह गीत पसंद आ गया और उन्होंने अपनी फ़िल्म 'उपकार' के लिये गीत चुन लिया, लेकिन बदकिस्मती से उपकार में इस गीत की सिचुएशन नहीं निकल पायी।

मनोज कुमार न ये गीत भूले न ही वर्मा मलिक को भूल पाए। उन्होंने अपनी अगली फ़िल्म 'यादगार' के लिये इस गाने को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में लिखने को कहा तो वर्मा मलिक ने गीत को इस तरह बदल दिया बातें लंबीं मतलब गोल, खोल न दे कहीं सबकी पोल तो फिर उसके बाद इकतारा बोले तुन तुन, फ़िल्म 'यादगार' हिट हुई और ये गाना भी। फ़िल्मों में एक हिट से किस्मत बदल जाती है। वर्मा मलिक के साथ भी ऐसा ही हुआ। इसके बाद वर्मा के हाथ में काम ही काम आ गया। सफलता और लोकप्रियता के उजाले ने निराशा और हताशा के अंधेरे को खत्म कर दिया।

प्रमुख गीत

रेखा की पहली फ़िल्म 'सावन भादों' में वर्मा के लिखे इस गीत ने कई साल तक धूम मचाए रखी 'कान में झुमका चाल में ठुमका कमर पे चोटी लटके हो गया दिल का पुर्जा पुर्जा लगे पचासी झटके', हो तेरा रंग है नशीला अंग-अंग है नशीला'। यह गीत काफ़ी लोकप्रिय रहा। इसके बाद 'पहचान', 'बेईमान', 'अनहोनी', 'धर्मा', 'कसौटी', 'विक्टोरिया न. 203', 'नागिन', 'चोरी मेरा काम', 'रोटी कपड़ा और मकान', 'संतान', 'एक से बढ़कर एक', जैसी फ़िल्मों में हिट गीत लिखने वाले वर्मा मलिक जिंदगी को भरपूर अंदाज़ में जीने लगे।

पुरस्कार

  • फ़िल्म 'पहचान' के गीत "सबसे बड़ा नादान वही है" के लिए- फ़िल्मफेयर ट्रॉफ़ी
  • फ़िल्म 'बेइमान' के गीत "जय बोलो बेइमान की जय बोलो" के लिये- फ़िल्मफेयर ट्रॉफ़ी

अंतिम समय

आठवें दशक में फ़िल्म संगीत में बहुत बदलाव आना शुरू हो गया था। इसी समय वर्मा मलिक की जीवन संगिनी की मौत हो गयी। इस घटना ने वर्मा मलिक पर ऐसा असर डाला कि उनकी जिंदगी से दिलचस्पी खत्म हो गयी। ऐसे में गीत लिखने का सिलसिला भी रूक गया। धीरे-धीरे वो फ़िल्मी दुनिया से ही नहीं पूरी दुनिया से कटकर अपने कमरे में सिमट गए। उनके पुत्र राजेश मलिक असिस्टेंट डायरेक्टर हैं लेकिन उनके बहुत कहने पर भी वर्मा मलिक ने कलम नहीं उठायी।

निधन

वर्मा मलिक ने 15 मार्च, 2009 को मुम्बई, महाराष्ट्र में बहुत ख़ामोशी से दुनिया से विदा ले ली। इतनी ख़ामोशी से कि उनके मरने का ज़िक्र अगले दिन किसी अख़बार में भी नहीं हुआ।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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