विजयादशमी

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विजयादशमी
दशहरा, रामलीला मैदान, मथुरा
अन्य नाम दशहरा, विजय दशमी
अनुयायी हिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी
उद्देश्य यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत के लिए मनाया जाता है। इसमें अपराजिता देवी की पूजा होती है।
प्रारम्भ पौराणिक काल
तिथि आश्विन शुक्ल दशमी
धार्मिक मान्यता हिन्दू धर्म के अनुसार इस दिन राम ने रावण का वध किया था। रावण राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लंका ले गया था। भगवान राम युद्ध की देवी माँ दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिनों तक माँ दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन लंका नरेश रावण का वध किया।
संबंधित लेख नवरात्र, रामलीला, राम, रावण, रामायण, सीता, हनुमान
अन्य जानकारी इस दिन दशहरा या विजयादशमी से सम्बंधित वृत्तियों के औज़ारों या यंत्रों की पूजा भी होती है।

विजय दशमी / विजयादशमी / दशहरा (अंग्रेज़ी: Vijaya Dashami Or Dussehra) आश्विन शुक्ल दशमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यह भारत का 'राष्ट्रीय त्योहार' है। रामलीला में जगह–जगह रावण वध का प्रदर्शन होता है। क्षत्रियों के यहाँ शस्त्रों की पूजा होती है। ब्रज के मन्दिरों में इस दिन विशेष दर्शन होते हैं। इस दिन नीलकंठ का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। यह त्योहार क्षत्रियों का माना जाता है। इसमें अपराजिता देवी की पूजा होती है। यह पूजन भी सर्वसुख देने वाला है। दशहरा या विजया दशमी नवरात्रि के बाद दसवें दिन मनाया जाता है। इस दिन राम ने रावण का वध किया था। रावण राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लंका ले गया था। भगवान राम युद्ध की देवी माँ दुर्गा के भक्त थे, उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिनों तक माँ दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन दुष्ट रावण का वध किया। इसके बाद राम ने भाई लक्ष्मण, भक्त हनुमान, और बंदरों की सेना के साथ एक बड़ा युद्ध लड़कर सीता को छुड़ाया। इसलिए विजयादशमी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है। इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद के पुतले खुली जगह में जलाए जाते हैं। कलाकार राम, सीता और लक्ष्मण के रूप धारण करते हैं और आग के तीर से इन पुतलों को मारते हैं जो पटाखों से भरे होते हैं। पुतले में आग लगते ही वह धू धू कर जलने लगता है और इनमें लगे पटाखे फटने लगते हैं और जिससे इनका अंत हो जाता है। यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।

दशहरा उत्सव की उत्पत्ति

दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई कल्पनायें की गयी हैं। भारत के कतिपय भागों में नये अन्नों की हवि देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टाँगने तथा गेहूँ आदि को कानों, मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। सम्भवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से सम्बंधित है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। शमी पूजा भी प्राचीन है। वैदिक यज्ञों के लिए शमी वृक्ष में उगे अश्वत्थ (पीपल) की दो टहनियों (अरणियों) से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। अग्नि शक्ति एवं साहस की द्योतक है, शमी की लकड़ी के कुंदे अग्नि उत्पत्ति में सहायक होते हैं।[1] जहाँ अग्नि एवं शमी की पवित्रता एवं उपयोगिता की ओर मंत्रसिक्त संकेत हैं। इस उत्सव का सम्बंध नवरात्र से भी है क्योंकि इसमें महिषासुर के विरोध में देवी के साहसपूर्ण कृत्यों का भी उल्लेख होता है और नवरात्र के उपरांत ही यह उत्सव होता है। दशहरा या दसेरा शब्द 'दश' (दस) एवं 'अहन्‌‌' से ही बना है।[2]

शास्त्रों के अनुसार

आश्विन शुक्ल दशमी को विजयदशमी का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसका विशद वर्णन हेमाद्रि [3], सिंधुनिर्णय[4], पुरुषार्थचिंतामणि[5], व्रतराज[6], कालतत्त्वविवेचन[7], धर्मसिंधु [8]आदि में किया गया है।[2]

  • कालनिर्णय [9] के मत से शुक्ल पक्ष की जो तिथि सूर्योदय के समय उपस्थित रहती है, उसे कृत्यों के सम्पादन के लिए उचित समझना चाहिए और यही बात कृष्ण पक्ष की उन तिथियों के विषय में भी पायी जाती है जो सूर्यास्त के समय उपस्थित रहती हैं।[10]
  • हेमाद्रि[11] ने विद्धा दशमी के विषय में दो नियम प्रतिपादित किये हैं-
  1. वह तिथि, जिसमें श्रवण नक्षत्र पाया जाए, स्वीकार्य है।
  2. वह दशमी, जो नवमी से युक्त हो।

किंतु अन्य निबंधों में तिथि सम्बंधी बहुत से जटिल विवेचन उपस्थित किये हैं। यदि दशमी नवमी तथा एकादशी से संयुक्त हो तो नवमी स्वीकार्य है, यदि इस पर श्रवण नक्षत्र ना हो।

  • स्कंद पुराण में आया है- 'जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी की पूजा दशमी को उत्तर पूर्व दिशा में अपराह्न में होनी चाहिए। उस दिन कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता पूजा होनी चाहिए।[12]
  • यह द्रष्टव्य है कि विजयादशमी का उचित काल है, अपराह्न, प्रदोष केवल गौण काल है। यदि दशमी दो दिन तक चली गयी हो तो प्रथम (नवमी से युक्त) अवीकृत होनी चाहिए। यदि दशमी प्रदोष काल में (किंतु अपराह्न में नहीं) दो दिन तक विस्तृत हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी स्वीक्रत होती है। जन्माष्टमी में जिस प्रकार रोहिणी मान्य नहीं है, उसी प्रकार यहाँ श्रवण निर्णीत नहीं है। यदि दोनों दिन अपराह्न में दशमी ना अवस्थित हो तो नवमी से संयुक्त दशमी मान ली जाती है, किंतु ऐसी दशा में जब दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र हो तो एकादशी से संयुक्त दशमी मान्य होती है। ये निर्णय, निर्णय सिंधु के हैं। अन्य विवरण और मतभेद [13] भी शास्त्रों में मिलते हैं।

शुभ तिथि

Blockquote-open.gif "मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये; राजा के लिए - " मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"। इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और 'साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार' एवं 'उमा को नमस्कार' कहना चाहिए। इसके उपरांत "अपराजितायै नम:, जयायै नम:, विजयायै नम:, मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को जा सकती हैं। राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है। राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए - 'वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे,' Blockquote-close.gif

- धर्मसिंधु[14]

विजयादशमी वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं - चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की दशमी और कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा। इसीलिए भारतवर्ष में बच्चे इस दिन अक्षरारम्भ करते हैं[15], इसी दिन लोग नया कार्य आरम्भ करते हैं, भले ही चंद्र आदि ज्योतिष के अनुसार ठीक से व्यवस्थित ना हों, इसी दिन श्रवण नक्षत्र में राजा शत्रु पर आक्रमण करते हैं, और विजय और शांति के लिए इसे शुभ मानते हैं।[2]

प्रमुख कृत्य

इस शुभ दिन के प्रमुख कृत्य हैं- अपराजिता पूजन, शमी पूजन, सीमोल्लंघन (अपने राज्य या ग्राम की सीमा को लाँघना), घर को पुन: लौट आना एवं घर की नारियों द्वारा अपने समक्ष दीप घुमवाना, नये वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण करना, राजाओं के द्वारा घोड़ों, हाथियों एवं सैनिकों का नीराजन तथा परिक्रमणा करना। दशहरा या विजयादशमी सभी जातियों के लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण दिन है, किंतु राजाओं, सामंतों एवं क्षत्रियों के लिए यह विशेष रूप से शुभ दिन है।

  • धर्मसिंधु[16] में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है‌- "अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए, संकल्प करना चहिए - "मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये; राजा के लिए - " मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्‌यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"। इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और 'साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार' एवं 'उमा को नमस्कार' कहना चाहिए। इसके उपरांत "अपराजितायै नम:, जयायै नम:, विजयायै नम:, मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को जा सकती हैं। राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है। राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए - 'वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे,' इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए। शमी की पूजा के पूर्व या या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर राम और सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजा का विस्तार से वर्णन हेमाद्रि[17],तिथितत्त्व [18]में वर्णित है। निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं।[19] यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।[2]

पौराणिक मान्यताएँ

इस अवसर पर कहीं कहीं भैंसे या बकरे की बलि दी जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों में, यथा बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे और हौदों से युक्त हाथी दौड़ते तथा उछ्लकूद करते हुए घोड़ों की सवारियाँ राजधानी की सड़कों पर निकलती थीं और जुलूस निकाला जाता था। प्राचीन एवं मध्य काल में घोड़ों, हाथियों, सैनिकों एवं स्वयं का नीराजन उत्सव राजा लोग करते थे।

  • कालिदास [20]ने वर्णन किया है कि जब शरद ऋतु का आगमन होता था तो रघु 'वाजिनीराजना' नामक शांति कृत्य करते थे।
  • वराह ने वृहत्संहिता [21] में अश्वों, हाथियों एवं मानवों के शुद्धियुक्त कृत्य का वर्णन विस्तार से किया है।
  • निर्णयसिंधु ने सेना के नीराजन के समय मंत्रों का उल्लेख यूँ किया है‌- 'हे सब पर शासन करने वाली देवी, मेरी वह सेना, जो चार भागों (हस्ती, रथ, अश्व एवं पदाति) में विभाजित है, शत्रुविहीन हो जाए और आपके अनुग्रह से मुझे सभी स्थानों पर विजय प्राप्त हो।'
  • तिथितत्त्व में ऐसी व्यवस्था है कि राजा को अपनी सेना को शक्ति प्रदान करने के लिए नीराजन करके जल या गोशाला के समीप खंजन को देखना चाहिए और उसे निम्न मन्त्र से सम्बोधित करना चाहिए, "खंजन पक्षी, तुम इस पृथ्वी पर आये हो, तुम्हारा गला काला एवं शुभ है, तुम सभी इच्छाओं को देने वाले हो, तुम्हें नमस्कार है।[22]"
  • तिथितत्त्व[23] ने खंजन के देखे जाने आदि के बारे में प्रकाश डाला है।
  • वृहत्संहिता [24] ने खंजन के दिखाई पड़्ने तथा किस दिशा में कब उसका दर्शन हुआ आदि के विषय में घटित होने वाली घटनाओं का उल्लेख किया है।[2]
  • मनुस्मृति [25] एवं याज्ञवल्क्य स्मृति[26] ने खंजन को उन पक्षियों में परिगणित किया है जिन्हें नहीं खाना चाहिए[27]

विजयादशमी के दस सूत्र

रावण दहन, रामलीला, मथुरा
Ravana Dahan, Ramlila, Mathura
  1. दस इन्द्रियों पर विजय का पर्व है।
  2. असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है।
  3. बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय का पर्व है।
  4. अन्याय पर न्याय की विजय का पर्व है।
  5. दुराचार पर सदाचार की विजय का पर्व है।
  6. तमोगुण पर दैवीगुण की विजय का पर्व है।
  7. दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की विजय का पर्व है।
  8. भोग पर योग की विजय का पर्व है।
  9. असुरत्व पर देवत्व की विजय का पर्व है।
  10. जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।

वनस्पति पूजन

विजयदशमी पर दो विशेष प्रकार की वनस्पतियों के पूजन का महत्त्व है-

  • एक है शमी वृक्ष, जिसका पूजन रावण दहन के बाद करके इसकी पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को ससम्मान प्रदान किया जाता है। इस परंपरा में विजय उल्लास पर्व की कामना के साथ समृद्धि की कामना करते हैं।
  • दूसरा है अपराजिता (विष्णु-क्रांता)। यह पौधा अपने नाम के अनुरूप ही है। यह विष्णु को प्रिय है और प्रत्येक परिस्थिति में सहायक बनकर विजय प्रदान करने वाला है। नीले रंग के पुष्प का यह पौधा भारत में सुलभता से उपलब्ध है। घरों में समृद्धि के लिए तुलसी की भाँति इसकी नियमित सेवा की जाती है

मेला

रावण का पुतला

दशहरा पर्व को मनाने के लिए जगह जगह बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है। यहाँ लोग अपने परिवार, दोस्तों के साथ आते हैं और खुले आसमान के नीचे मेले का पूरा आनंद लेते हैं। मेले में तरह तरह की वस्तुएँ, चूड़ियों से लेकर खिलौने और कपड़े बेचे जाते हैं। इसके साथ ही मेले में व्यंजनों की भी भरमार रहती है।

रामलीला

दशहरा उत्सव में रामलीला भी महत्त्वपूर्ण है। रामलीला में राम, सीता और लक्ष्मण की जीवन का वृत्तांत का वर्णन किया जाता है। रामलीला नाटक का मंचन देश के विभिन्न क्षेत्रों में होता है। यह देश में अलग अलग तरीक़े से मनाया जाता है। बंगाल और मध्य भारत के अलावा दशहरा पर्व देश के अन्य राज्यों में क्षेत्रीय विषमता के बावजूद एक समान उत्साह और शौक़ से मनाया जाता है। उत्तरी भारत में रामलीला के उत्सव दस दिनों तक चलते रहते हैं और आश्विन माह की दशमी को समाप्त होते हैं, जिस दिन रावण एवं उसके साथियों की आकृति जलायी जाती है। इसके अतिरिक्त इस अवसर पर और भी कई प्रकार के कृत्य होते हैं, यथा हथियारों की पूजा, दशहरा या विजयादशमी से सम्बंधित वृत्तियों के औज़ारों या यंत्रों की पूजा।[2]

नवदुर्गा

शक्ति की उपासना का पर्व शारदेय नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्री रामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की। तभी से असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाता है। आदिशक्ति के हर रूप की नवरात्र के नौ दिनों में अलग-अलग पूजा की जाती है। माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियाँ देने वाली हैं। इनका वाहन सिंह है और कमल पुष्प पर ही आसीन होती हैं। नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। नवदुर्गा और दस महाविधाओं में काली ही प्रथम प्रमुख हैं। भगवान शिव की शक्तियों में उग्र और सौम्य, दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविधाएँ अनंत सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दसवें स्थान पर कमला वैष्णवी शक्ति हैं, जो प्राकृतिक संपत्तियों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं। देवता, मानव, दानव सभी इनकी कृपा चाहते हैं, इसलिए आगम-निगम दोनों में इनकी उपासना समान रूप से वर्णित है। सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व इनकी कृपा के लिए उपासना रत रहते हैं।

सावधानियाँ

दशानन रावण, रामलीला, मथुरा
Ravana, Ramlila, Mathura
  • सावधान और सजग रहें। असावधानी और लापरवाही से मनुष्य बहुत कुछ खो बैठता है। विजयादशमी और दीपावली के आगमन पर इस त्योहार का आनंद, ख़ुशी और उत्साह बनाये रखने के लिए सावधानीपूर्वक रहें।
  • पटाखों के साथ खिलवाड़ न करें। उचित दूरी से पटाखे चलाएँ।
  • मिठाइयों और पकवानों की शुद्धता, पवित्रता का ध्यान रखें ।
  • भारतीय संस्कृति के अनुसार आदर्शों व सादगी से मनायें। पाश्चात्य जगत का अंधानुकरण ना करें।
  • पटाखे घर से दूर चलायें और आस-पास के लोगों की असुविधा के प्रति सजग रहें।
  • स्वच्छ्ता और पर्यावरण का ध्यान रखें।
  • पटाखों से बच्चों को उचित दूरी बनाये रखने और सावधानियों को प्रयोग करने का सहज ज्ञान दें।


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वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अथर्ववेद, 7/11/1 ; तैत्तिरीय ब्राह्मण, 1/2/1/16 एवं 1/2/1/7
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे “भाग 4”, धर्मशास्त्र का इतिहास (हिंदी)। उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 70-73।
  3. हेमाद्रि व्रत, भाग1, पृ. 970 - 973
  4. सिंधुनिर्णय, पृ. 69 -70
  5. पुरुषार्थचिंतामणि, पृ. 145-148
  6. व्रतराज, पृ. 359-361
  7. कालतत्त्वविवेचन, पृ. 309-312
  8. धर्मसिंधु, पृ. 96
  9. कालनिर्णय, पृ. 231 - 233
  10. तथा च मार्कण्डेय:। शुक्लपक्षे तिथिर्ग्राह्या यस्यामभ्युदितो रवि:। कृष्णपक्षे तिथिर्ग्राह्या यस्यामस्तमितो रवि: इति। ....तत्पूर्वोत्तरविद्ध्योर्द्दशम्यो: पक्षाभेदेन व्यवस्था द्रष्टव्या। कालनिर्णय, पृ. 231 - 233
  11. हेमाद्रि व्रत, भाग1, पृ. 973
  12. हेमाद्रि व्रत, भाग1, पृ. 973, पुराणसमुच्चय का उद्धरण, निर्णय सिंधु, पृ. 189
  13. हेमाद्रि व्रत, भाग 1, पृ. 973, निर्णय सिंधु, पृ. 129, धर्मसिंधु, पृ. 96-97, मुहूर्तचिंतामणि, पृ. 11/74
  14. धर्मसिंधु, पृ. 96
  15. सरस्वती पूजन
  16. धर्मसिंधु, पृ. 96
  17. हेमाद्रि व्रत, भाग1, पृ. 970-71
  18. तिथितत्त्व, पृ. 103
  19. तथा भविष्यते। शमी शमयते पापं शमी लोहितकष्टका। धारिण्यर्जुनबाणानां रामस्य प्रियवादिनी॥ करिष्यमाणयात्रायां यथाकालं सुखं मया। तत्र निर्विघ्नकर्त्री त्वं भव श्रीरामपूजिते॥ (निर्णय सिंधु, पृ. 190। विराट पर्व में आया है कि जब पाण्डवों ने विराट की राजधानी में रहना चाहा तो उन्होंने अपने अस्त्र शस्त्र, यथा प्रसिद्ध गाण्डीव धनुष एवं तलवारें एक श्मशान के पास पहाड़ी पर स्थित शमी वृक्ष पर रख दिये थे। ऐसा भी परिकल्पित है कि राम ने लंका पर आक्रमण दशमी को ही किया था, जब श्रवण नक्षत्र था।
  20. रघुवंश, 4/24-25
  21. वृहत्संहिता, अध्याय 44, कर्न द्वारा सम्पादित
  22. कृत्वा नीराजनं बालवृद्ध्यै यथा बलम्‌। शोभनं खंजनं पश्येज्जलगोगोष्ठसंनिधौ॥ नीलग्रीव शुभग्रीव सर्वकामफलप्रद्। पृथिव्यामवतीर्णोसि खंजरीट नमोस्तुते ते॥ तिथितत्त्व, पृ. 103; निर्णय सिंधु पृ. 190;
  23. तिथितत्त्व,पृ. 103
  24. वृहत्संहिता, अध्याय 45, कर्न द्वारा सम्पादित
  25. मनुस्मृति, 5/14
  26. याज्ञवल्क्य स्मृति, 1/174
  27. सम्भवत: यह प्रतिबंध इसीलिए था कि यह पक्षी शकुन या शुभ संकेत बताने वाला कहा जाता रहा है।

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