विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू -प्रेमस्वरूप गुप्त

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लेखक- प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त

          संतोष ही करना हो तो यह बात कम नहीं कि हिन्दी विश्व के तीस से अधिक देशों में पढ़ी-पढ़ाई जाती है, लगभग 100 विश्वविद्यालयों में उसके लिए अध्यापन केंद्र खुले हुए हैं। अकेले अमरीका में लगभग 20 केंद्रों में उसके अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है। मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडाड जैसे देशों में भारत मूल के निवासियों की उल्लेखनीय संख्या होने के कारण वहां हिन्दी स्वतः सस्नेह प्रचारित होता है। विश्व के प्रत्येक प्रमुख देश में हमारे दूतावास हैं, जिनसे राजनीतिक संदर्भों के अतिरिक्त यह भी आशा की जाती है कि वे हिन्दी के प्रचार प्रसार की ओर भी ध्यान देंगे और अपने भारत की सामाजिक संस्कृति और भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रतिनिधि समझेंगे। पर यदि यह चित्र उतना ही सच होता जितना रंगीन लग रहा है, तो संतोष करने में कोई बुराई न थी।
          विदेशों में हिन्दी के महत्व, प्रचार एवं प्रसार की स्थिति न सब जगह एक सी है, न ऐसा होना संभव है। मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडाड में हिन्दी के लिए वहां की जनता के एक बड़े भाग में जो आदर और प्रेम है, वह यूरोप या अमेरिका के देशों में कैसे मिल सकता हैघ् इसलिए विदेशों में हिन्दी की स्थिति, प्रचार प्रसार की समस्याओं के भी विविध रूप है, उनके समाधान भी विविध रूपों में खोजने होंगे।
          विदेशों में हिन्दी की स्थिति, प्रचार तथा प्रसार को लेकर दो भिन्न दृष्टियों से विचार करना होगा। एक दृष्टि है जो सरकारी तंत्र से जुड़ी है, दूसरी है जिसका संबंध जन जीवन में है। पहले सरकारी तंत्रों की दृष्टि से विदेशों में हिन्दी की स्थिति का जायजा लिया जाए।
          पहले अपने सरकारी तंत्र की दृष्टि से जहां तक तथ्यगत स्थिति है, हमारे दूतावास सच्चे अर्थों में न तो भारत की सामासिक संस्कृति के संवाहक बन पाए हैं, नही भारत की राष्ट्रभाषा के प्रतिनिधि। उनके लिए अधिकारियों का जो चुनाव होता है उसमें भी इस दृष्टि को अनिवार्यतः केंद्र में नहीं रखा जाता। घर में ही जब हिन्दी का मामला राजनीति के पचड़े में उलझ गया हो, तो हमारे दूतावासें पर उसकी छाया न हो, यह हो भी कैसे सकता हैघ् सामान्यतः उन देशों में जहां कि भारतवंशीय लोगों की संख्या अच्छी ख़ासी है और वहां हिन्दी और भारतीय संस्कृति के लिए ललक भरा अनुराग है, ऐसे ही प्रतिनिधियों और अधिकारियों का चयन होता रहा है, जो भारतीय संस्कृति और हिन्दी के अनुयायी हों, उदाहरण के लिए माॅरिशस में डाॅ. भगवतशरण उपाध्याय जैसे लोगों को भेजा जाना इसी दृष्टिकोण का परिचायक था। किंतु यूरोपीय, अमरीका तथा अरब देशों के लिए प्रतिनिधि भेजने हुए इन बातों की ओर ध्यान रखना अपेक्षित नहीं माना जाता रहा। परिणाम यह रहा है कि इन क्षेत्रों में हमारे दूतावास पश्चिमी रंगों में रंगे, हिन्दी का नाम भी यदा कदा प्रासंगिक रूप में लेते हुए, हिन्दी के प्रचार प्रसार से सर्वथा निःसंग रहे हैं। कहीं कोई अपवाद भले मिल जाए। अतः इस कोटि के दूतावासों में सामान्यतः हिन्दी की प्रतिष्ठा या प्रचार.प्रसार का वास्तविक रूप उभर ही नहीं पाया हो। हां, रूस जैसे कतिपय साम्वादी देशों में भारत से उसकी अपनी भाषा को अंग्रेजी से वरीयता दिए जाने की अपेक्षा की गइ तो वहां के हमारे दूतावासों ने अवश्य इस ओर जागरुक रहने की आवश्यकता समझी। बात अब फिर शिथिल पड़ गई है और अधिकांशतः कार्य व्यापार अंग्रेजी के माध्यम से ही होता है, हिन्दी के माध्यम से नहीं। कहीं कहीं हिन्दी के अनुवाद साथ मे लगाए जा रहे हैं, पर सीमित रूप में ही।
          हमारे दूतावास जिन देशों में है उनकी सरकारों के साथ कार्य-व्यवहार में हिन्दी का उपयोग करें- यह स्थिति कल्पना से काफ़ी दूर की है। प्रायः यह स्थिति है कि हमार देश से जाने वाले भारतीय लोगों को अपने दूतावासों से संपर्क करने के लिए अंग्रेजी का ही उपयोग करना पड़ता है। इन लोगों में भी ऐसे लोगों की संख्या भी अधिक नहीं होती, जो हिन्दी में काम लेने में गौरव अनुभव करते हों। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अंग्रेजी अच्छी तरह नहीं आती। वे अपने दूतावासों से यदि हिन्दी के माध्यम से संपर्क सहायता चाहें तो उन्हें कठिनाई ही होती है।
          अब इस पहलू पर विचार किया जाए कि विदेशों की विविध सरकारों की ओर से हिन्दी के प्रति कैसा रवैया है, और किन संदर्भों में हिन्दी की क्या स्थिति है। जहां तक सरकारों का भारतीय दूतावासों या भारत के साथ सीधे संपर्क में हिन्दी के प्रयोग की बात है, उन्हें इस बात की अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत ही नहीं होती। उनका काम अधिकांशतः हिन्दी से नहीं अंग्रेजी से चलता है। जो देश अंग्रेजी भावी नहीं हैं, और अपनी भाषा पर बल देते हैं, वे मुख्यतः अपनी भाषा का, साथ मे अंग्रेजी का यदा कदा हिन्दी के अनुवाद के साथ प्रयोग करते हैं। हिन्दी अनुवादों का प्रयोग बहुत ही सीमित मात्रा में, कहिए नगण्य होता है। हां कुछ मामलों में हिन्दी अनुवाद साथ में लगाने का प्रतिबंध है, उन संदर्भों में उसे लगा दिया जाता है।
          भारत के स्वतंत्र होते ही बड़े बड़े देशों ने भी ये अनुभव किया था कि विश्व के इस बड़े भूभाग से संपर्क करने के लिए उन्हें हिन्दी की आवश्यकता होगी। भारतीय संविधान में व्यवस्था की गई थी कि 15 वर्षों में हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले लेगी। अतः उन्हें भी यह आभास हुआ था कि इस देश से निकट संपर्क बनाने के लिए उन्हें हिन्दी की ओर आना पड़ेगा। फलतः विभिन्न प्रमुख देशों की सरकारों ने अपने विश्वविद्यालयों में हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था और सुविधा की ओर ध्यान दिया। अपने छात्रों को छात्रवृत्तियों प्रदान कर हिन्दी पढ़ने के लिए भारत भी भेजा। यहां से भी अध्यापक बुलाए गए या यह सिलसिला कुछ न कुछ अब भी जारी है, पर वह ललक नहीं रही। उन्हें साफ दिखाई दे रहा है कि भारत में वह स्थिति कल्पना से भी दूर, पीछे धकेली जा चुकी है, जिसमें हिन्दी एकमात्र देश की राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा बनेगी। जब अंग्रेजी यहां स्थायी रूप से जमती दिखाई दे रही हो तो कोई राष्ट्र अपने युवकों के श्रम और अपने पैसे को हिन्दी के लिए क्या व्यय करेगा। सीधा सवाल उपयोगिता का है।
          पर सरकारी संदर्भों से हटकर महत्वपूर्ण एवं विकसित राष्ट्रों में हिन्दी की उपयोगिता कुछ अन्य दृष्टियों से भी है। भारत के स्वतंत्र होने से पहले से ही अनेक राष्ट्र इस देश की संस्कृति और सभ्यता को समझना चाहते रहे हैं। स्वतंत्रता पूर्व के कारण कुछ और थे, अब कुछ और हैं.यह बाद दूसरी है, पर विश्व की जनसंख्या के एक बड़े भाग को समझने की कोशिश विकसित राष्ट्र न करें.यह आज के संदर्भों में सर्वथा असंभव है। आज की राजनीति सीधे सरकारों के बीच भी चलती है, सरकारों और जनता के बीच से भी चलती है। प्रेम, सह संबंध, राजनीतिक संबंध के लिए ही नहीं, लड़ने के लिए भी दूसरे देश की भाषा सीखने की आवश्यकता है। इसका उदाहरण हिन्दी के संदर्भ में चीन का है। भारत-चीन युद्ध के समय यह सामने आया था कि चीन ने अपने अनेक सैनिकों को एक आवश्यक मात्रा में हिन्दी का प्रशिक्षण दिया हुआ था। तो अपने अपने स्वार्थों अर्थों को ध्यान में रखकर विभिन्न विकसित राष्ट्र अपने यहां हिन्दी के पठन पाठन की व्यवस्था करते है। कुछ भारत को समझने के लिए, कुछ भारत से उपयोगी संदर्भों के लिए, कुछ भारत से प्रेम के लिए।
          जिन विदेशी विश्वविद्यालयों मे हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्थाएं हैं, उनकी आर्थिक व्यवस्था भले ही उन देशों की सरकारों की ओर से होती हो, पर अनेकानेक विदेशी हिन्दी विद्वान हिन्दी और भारतीय संस्कृति के अनुराग में इतने रम गए हैं कि उन्होंने अपनी जीवनचर्या को ही हिन्दी के प्रति समर्पित कर लिया है। उनमें इतना सच्चा और गहरा हिन्दी अनुराग है कि ये हिन्दी का काम ही नहीं करते बल्कि जब जब हिन्दी इस देश में बढ़ती है, उनमें प्रसन्नता होती है, जब जब हिन्दी पीछे धकेली जाती है, उन्हें पीड़ा होती है। हिन्दी के इन अनुरागी विदेशी विद्वानों के प्रति यह देश कृतज्ञ है। ऊपर की चर्चित स्थिति अरब राष्ट्रों में नहीं दिखाई देती। उनका झुकाव आवश्यकता की मात्रा के अनुरूप उर्दू की ओर हुआ है, हिन्दी की ओर नहीं। पर इसका लाभ इस देश के उन लोगों को भी बराबर मिलता है, जो इन राष्ट्रों में व्यापार, नौकरी या अन्य संदर्भों से गए हैं। उर्दू स्वरूपतः हिन्दी से दूर होकर भी बहुत दूर नहीं जा पाती, अतः लिखित रूप में चाहे ने सही, बोलचाल के स्तर पर उसका लाभ हिन्दी.उर्दू दोनों के लोगों को वहां समान रूप से मिलता है। तीसरे वर्ग में वे देश आते हैं जहां भारत के मूल निवासी बड़ी संख्या में बसे हुए हैं, जैसे मारिशस, फिजी सूरीनाम, त्रिनिडाड आदि। इन देशों में हिन्दी जो राजकीय आश्रय सीमित रूप में ही प्राप्त हैं। अपनी जनसंख्या के आधार पर भारतीय जितना प्रतिनिधित्व अपने देश की सरकार में ले पाते हैं, उसी अनुपात में ये हिन्दी को उठाने की बात कर पाते हैं। अब राजनीतिक जोड़ तोड़ में भारतवंशियों की यह शक्ति भी बिखर जाती है तो हिन्दी को किसी ऊंचाई तक उठा ले जाना वहां भी संभव नहीं है। सरकारी तंत्र इन देशों में नीचे के स्तर पर हिन्दी शिक्षा की व्यवस्था करता है। उच्च शिक्षा और राजकीय प्रयोग के लिए हिन्दी को ग्रहण किए जाने का अभी सवाल ही पैदा नहीं हुआ।
          इस प्रकार प्रशाासकीय स्तरों पर विदेशों में हिन्दी की जो भी व्यवस्था है उसका अधिकांश हर देश की अपनी अपनी नजर के उपयोगिता के कारण हैं। उसमें भारत सरकार और भारतीय दूतावासों का योगदान बहुत ही सीमित है। हां, मारिशस, फिजी आदि देशों में भारतीय प्रशासन और दूतावासों के हिन्दी प्रोत्साहन विषयक योगदान को अवश्य ध्यान रखना होगा।
          यहां इस बात का विवेचन भी आवश्यक है कि प्रशासकीय माध्यमों से हिन्दी के अध्यापकों और विद्यार्थियों का जो आदान प्रदान होता है, उसकी क्या स्थिति है घ् विभिन्न देश कुछ अन्य अध्यापकों, कुछ विद्यार्थियों अपने व्यय पर हिन्दी सिखवाने के लिए भारत भेजते हैं। कुछ विद्यार्थी भारत की छातवृत्तियों पर विनिमय योजनाओ के भीतर भी आते हैं। ऐसे हिन्दी अध्येताओं का हिन्दी शिक्षण अधिकांशतः शिक्षा के केंद्रीय हिन्दी संस्थान के माध्यम से दिया जाता है, कुछ को कतिपय विश्वविद्यालय मे आवंटित कर दिया जाता है। कुछ देश कुछ निश्चित अवधि के लिए भारत से हिन्दी अध्यापकों का चयन करके आमंत्रित करते हैं और अपने यहां हिन्दी शिक्षण की व्यवस्था कराते है। भेजे जाने वाले हिन्दी अध्यापको के चयन की प्रक्रियाएं शासकीय तंत्र से गुजरती हुई ऐसी बन गईं है। कि जो लोग जाते हैं, उनमें ष्मिशनरी स्पिरिटष् बहुत कम और विदेश जाने का चांस पाने की ललक अधिक काम करती है। सही क्षमताओ के लागों का चयन आज वैसे ही कठिन हो गया है। अब रही उन लोगों की बात जो हिन्दी सीखने भारत आते हैं, इनमें से जो विश्वविद्यालयों से भेजे जाते हैं, उनमें सही शिक्षा इसलिए नहीं पहुंच पाती कि विश्वविद्यालयों में हिन्दी को आधुनिक वैज्ञानिक प्रणालियों से द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ाने की पद्धतियों का सही विकास नहीं हुआ। और केंन्द्रीय हिन्दी संस्थान इसलिए सही उत्तरदायित्व का वहन नहीं कर पाता कि वह शिक्षण प्रशिक्षण प्रणाली की आभासी वैज्ञानिकता में उलझ गया है। पर जो भी है, यही एक मात्र व्यवस्थित संस्था है जहां वैज्ञानिक पद्धति से विदेशियों को भारत में हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था आयोजित है।
          सब मिलकर प्रशासकीय संदर्भों के साथ जुड़कर हिन्दी की दशा विदेशों में उतनी उत्साहवर्धक नहीं, उतनी संतोषजनक नहीं, जितनी होनी चाहिए। भारत में संवैधानिक और शासकीय स्तर पर हिन्दी की जो स्थिति है, उसमें जो शैथिल्य है या जो उत्साह है। दोनों की छाया विदेशों के प्रशासकीय तंत्र से विकसित होने वाली हिन्दी स्थिति पर पड़ना अस्वाभाविक नहीं है।
          यह रूप 'विश्व हिन्दी' का कहा जा सकता है, पर व्यवहार के क्षेत्र में हिन्दी की एक अपनी दुनिया है, जो अपने आत्म बल पर विकसित हो रही है। भाषा की सही शक्ति सरकार नहीं होती, उसकी बोलने वाली जनता होती है। आइए हिन्दी की इस दुनिया का, 'विश्व हिन्दी' का नहीं, अपितु 'हिन्दी विश्व' का रूप देखें।
          भारत में हिन्दी बोलने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। इस दृष्टि से उर्दू भाषी लोग भी हिन्दी विश्व की परिधि में ही आते हैं। भारत में हिन्दी चाहे सरकारी स्तर पर एकमात्र संपर्क भाषा न बन पाए, पर उन प्रसंगों पर जहां देश के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न प्रकार के वर्गों के लोग जुड़ते हैं, वहां यह स्थिति देखने को मिलती है। यदि यह उच्चवर्गीय लोगों का सम्मेलन है तो प्रायः अंग्रेजी संपर्क भाषा के रूप में काम करती है, स्वल्प सा प्रयोग हिन्दी का चलता है, पर यदि मिलन लोक जीवन से जुड़े लोगों का हुआ तो हिन्दी अपने आप संपर्क भाषा का रूप ले लेती है। भारत के किसी भी भाग में जाइए, यदि मिलने वाले लोग उच्चवर्गीय या उच्चाभासीवर्गीय नहीं हैं तो एक भाषाभाषी से अन्य भाषाभाषियों के मिलन की संपर्क भाषा प्रायः हिन्दी मिलेगी। सैनिक जीवन में, रेल यात्राओं मे, तीर्थ स्थानों में, छात्र सम्मेलनों में, प्राकृतिक ऐतिहसिक दर्शनीय स्थलों में, बाज़ारों में आपको इस हिन्दी विश्व की क्षमता और उपयोगिता का पता चल सकेगा। यह स्थिति निरंतर विकसित हो रही है। भारत में हिन्दी बोलने वालों की, हिन्दी समझने वालो की, और हिन्दी को व्यावहारिक जीवन में उपयोग करने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है।
          यही विकासशील स्थिति हिन्दी के लिए विदेशों से भी है। विदेशों में हिन्दी का उपयोग मुख्यतः भारतवंशियों के द्वारा होता है। इस दृष्टि से विदेशों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है। पहला वर्ग वह जिसमें भारतीय, फिजी सूरीनाम, त्रिनिडाड जैसे देश रखे जा सकते है, जहां भारतवंशीय लोग भारी तादाद मे बस रहे हैं। वे लोग कामकाज को लेकर इन देशों में गए थे, इनमे भारत की संस्कृति और भारत की हिन्दी से सच्चा अनुराग है, उससे जुडे़ रहने की ललक है। ये लोग जो हिन्दी बोलते हैं, प्रयोग में लाते हैं, वह खड़ी बोली हिन्दी नहीं है। पर लिखाई पढ़ाई के लिए वे मानक हिन्दी की ओर ही बढ़ रहे हैं।
          दूसरे वर्ग में वे देश है जहां की भाषा उर्दू है या जहाँ उर्दू भाषी जनता की पहुंच है। इन क्षेत्रों में यदि भारतीय हिन्दी भाषी मिलते हैं तो जो भाषा संपर्क-भाषा के रूप में माध्यम बनती है, उस हिन्दी से भिन्न नहीं कहा जा सकता। अरब राष्ट्रों में भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के काम धामी लोग गए हैं। इनकी पारस्परिक संपर्क भाषा प्रायः हिन्दी होती है।
          तीसरे वर्ग में यूरोप अमरीका आदि वे विकसित राष्ट्र रखे जा सकते हैं, जहां बहुत बड़ी संख्या में भारत के लोग बस भी गए हैं और अस्थायी रूप में जा भी रहे हैं। इन लोगों में यदि किसी प्रांत विशेष या क्षेत्र विशेष के लोग परस्पर मिलते है। तो अपनी क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करते हैं। पर यदि विभिन्न भारतीय भाषाभाषी मिलते हैं तो संपर्क भाषा प्रायः हिन्दी होती है। उदाहरण मे तौर पर अमरीका, कनाडा में गुजराती-भाषी काफ़ी संख्या में बसे हैं। यदि गुजराती लोग परस्पर मिलेंगे तो आरंभिक संपर्क अंग्रेजी में होने के बाद संपर्क और बातचीत की भाषा गुजराती हो जाएगी। पर यदि गुजराती और तमिल भाषी या गुजराती और मलयालम भाषी मिलेंगे या एकाधिक भारतीय भाषाओं के बोलने वाले मिलेंगे तो व्यक्तिगत संपर्क भाषा अधिकांशतः हिन्दी बन जाएगी। भारत में अंगे्रेजी ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में उतनी नहीं, जितनी प्रतिष्ठाभास की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। यही स्थिति विदेशों में भारतीय के पारस्परिक मिलन के समय भी कुछ कुछ उभर आती है। पर इस आभास से मुक्ति मिलते ही संपर्क भाषा हिन्दी बनती है। यही बात भारत पाकिस्तान के लोगों के पारस्परिक मिलन पर होती है। प्रतिष्ठाभासी स्तर पर अंग्रेजी चलने के बाद आत्मीय सम्मिलन उस हिन्दी में होता है जो भारत और पाकिस्तान की वास्तविक बोली है, जिसमें संस्कृत अरबी फारसी की असहज रूप में ठूंसी नहीं जाती, सहज शब्दावली सहज रूप में बोली समझी जाती है।
          भारत में उच्च और उच्चभासी वर्गों की संपर्क भाषा अंग्रेजी है जिनकी संख्या 3 प्रतिशत से अधिक नहीं है। लोक जीवन अपनी अपनी प्रांतीय क्षेत्रीय भाषाओं में चलता है, वास्तविक लोक संपर्क हिन्दी के माध्यम से चलता है। इसी प्रकार विदेशों में भारत और पाकिस्तान के निवासियों के पारस्परिक मिलन प्रसंगों में उच्च और उच्चाभासी वर्गों के लोगों के मिलन पर अंग्रेजी चलती है, एक भाषी संपर्कों में क्षेत्रीय भाषा, एकाधिक भाषी संपर्कों में हिन्दी कुल मिलाकर 20 से अधिक अंग्रेजी का उपयोग ये लोग नहीं करते। हिन्दी जानने वाले व्यक्ति को इस फैली हुई हिन्दी की दुनिया में, अंग्रेजी न जानने पर भी, कोई कठिनाई नहीं होती। सैकड़ों लोग भारत से किसी भी प्रदेश की भाषा के बोलने वाले, विकसित देशों में कहीं काम के लिए चले जा रहे हैं। हिन्दी उनके लिए माध्यम का काम कर रही है और वे अपना काम कर रहे हैं।
          हिन्दी की इस दुनिया की, इस 'हिन्दी विश्व' की जनसंख्या कम नहीं है। विश्व में इस दृष्टि से हिन्दी का स्थान तीसरा है। पर इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा तथा उन मुस्लिम बाहुल्य देशों में जहां उर्दू बोली समझी जा सकती है, हिन्दी के बोलने समझने में अधिक कठिनाई नहीं आती। इस दृष्टि से 'हिन्दी विश्व' की दृष्टि में उर्दू हिन्दी का ही एक रूप बनती है और हिन्दी विश्व की स्थिति अंग्रेजी के बाद आती है। उर्दू का व्याकरणिक ढांचा, उसकी आधारभूत शब्दावली और उसकी मुहावरे दानी हिन्दी विश्व की सीमा के बाहर की न थी, न अभी है।
          यह विशाल हिन्दी विश्व विभिन्न देशों में फैला हुआ है, पर बिखरा पड़ा है। इसकी शक्ति क्षीणा पड़ी है। इसे संजोना होगा।
          हिन्दी का इतिहास बताता है कि सरकारी मशीन की भाषा बनकर विकसित वहीं हुई, लोक जीवन की भाषा बनकर बढ़ी है। उसका सही संबल लोक है, उसकी सही जड़ें लोक में हैं। प्रशासन से हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने की मांग करते समय हिन्दी के तथाकथित प्रेमी यह बात भूल जाते हैं। अपनी निष्क्रियता और हिन्दी के लिए आत्मत्याग की कमी को छिपाने के लिए इससे अच्छा नुस्खा और कोई नहीं होगा कि हिन्दी की उन्नति का सारा जिम्मा सरकार पर डाल दिया जाए और संविधान की धाराओं की रट लगाई जाए। ष्विश्व हिन्दी8 को इसकी ज़रूरत होगी, ष्हिन्दी विश्वष् को इसकी ज़रूरत नहीं। उसे तो निश्छल लोककल्याण कामी महात्माओं की ज़रूरत है।
          हिन्दी मानवीय मूल्यों की भाषा के रूप में विकसित हुई है। उसके विकास के मूल में लोक के जीवंत तत्वों को प्रस्फुरित करने और लोक मंगल के विरोधी तत्वों से संघर्ष करने की आग रही है। उसमें मानवीय संस्कृति के उदार मूल्यों और प्रेम, करुणा और उदारता के गीत गाने की वृत्ति रही है। जिन वीरों और संतों ने, जिन भक्तों और महात्माओं ने इसे पनपाया और फैलाया है, उनमें देश के हर भाग के लोग थे, हर मजहब के लोग थे, हर जुबान के लोग थे। धर्म, जाति, प्रांत, ऊंच-नींच, पूंजी, प्रशासन सबकी छाया से मुक्त उदात्त चेतनाओं ने हिन्दी को खड़ा किया, एक भाषा खड़ी करने के लिए नहीं उदात्त मानवीय मूल्यों के रूपायन के लिए, मानवीय चेतना को मानव जीवन के हर पहलू से जूझने के लिए, हिन्दी में आज भी वह शक्ति आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित है। मानवता के कल्याण के लिए उसका प्रचार प्रसार आज अकेले भारत के लिए नहीं, विश्व के अपने हित में है।
          हिन्दी को उठाने की मांग करते समय लोलों के मन में यह कामना रहती है कि हिन्दी के राजभाषा बनते ही हिन्दी वालों को प्रशासकीय तंत्र में विशेष अधिकार स्थान मिल जाएंगे, तभी उसका विरोध होता है। तब प्रतिष्ठाकामी प्रतिष्ठा के लिए अंगे्रजी को पकड़ना है। हिन्दी हेयता की, हीन भावना की संवाहिका बनकर रह जाती है। हिन्दी विश्व, भारत में ही नहीं, विदेशों में भी, इस हीन स्थिति का शिकार है। आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी विश्व को संजोया जाए, उसे यह अनुभव कराया जाए कि हिन्दी एक प्रतिष्ठा की भाषा है, इसलिए नहीं कि वह शासन प्रशासन की भाषा है, अपितु इसलिए कि वह उदात्त मानव मूल्यों की संवाहिका भाषा है। मूल्यों के गिरते बाज़ार में विश्व को अच्छे मूल्यों की चीज देने की क्षमता हिन्दी में है, और हिन्दी विश्व इस उत्तरदायित्व की भाषा का संयोजन है, इस आत्म गौरव को जगाने की आज सबसे बड़ी आवश्यकता है। आत्मगौरव की अनुभूति से संपन्न हिन्दी विश्व हिन्दी की मानव मूल्यों के लिए आत्म त्यागवाली वृत्ति को अपनाया हुआ विश्व कल्याण के क्षेत्र में भारी योग दे सकेगा। अतः विश्व हिन्दी की इस भावना को भारत में भी विकसित करना होगा और विदेशों में भी। विदेशों में हिन्दी के प्रचार प्रसार की बात करते समय इस बात की ओर प्रमुख ध्यान देकर चलना होगा।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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