विहार पंचमी

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विहार पंचमी अथवा विवाह पंचमी हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी श्री बांकेबिहारी के प्रकट होने की तिथि भी है। त्रेता युग में सीता-राम का विवाह इसी दिन हुआ था। मिथिलाचंल और अयोध्या में यह तिथि 'विवाह पंचमी' के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रजमंडल में यह 'विहार पंचमी' के नाम से विख्यात है। मान्यता है कि श्री बांकेबिहारी रात्रि में निधिवन में प्रतिदिन विहार करते हैं। निधि वन में जहां श्री बांकेबिहारी प्रकट हुए थे, विहार पंचमी के दिन उस स्थान का सुबह दूध से अभिषेक होता है। बिहारी जी के मन्दिर में भव्य सजावट होती है। दोपहर में स्वामी हरिदास की सवारी निधि वन से श्री बांकेबिहारी के मंदिर बड़ी धूमधाम से पधारती है। बांकेबिहारी के भक्तों के लिए विहार पंचमी का महत्त्व जन्माष्टमी के समान है। श्रीबांकेबिहारी के दर्शन से राधा-कृष्ण दोनों का ही साक्षात्कार होता है। इसीलिए कहा गया है-
एकै तन-मन-प्राण हैं, दोऊ रस प्रतिपाल।
श्रीबंकविहारिनि लाड़ली,
श्रीबंकबिहारीलाल॥

प्राक्टय कथा

स्वामी हरिदास जी, वृन्दावन
Swami Haridasa, vrindavan

रसिकों के परम आराध्य श्रीबांकेबिहारी के प्राक्टय की कथा अद्भुत है। माना जाता है कि आज से लगभग पांच शताब्दी पूर्व राधा रानी की सखी ललिता ने स्वामी हरिदास के रूप में अवतार लिया। स्वामी हरिदास वृन्दावन के निधि वन के एकांत में अपने दिव्य संगीत से प्रिया-प्रियतम(राधा-कृष्ण) को रिझाते थे। मान्यता है कि संगीत की तान पर उन लोगों की रासलीला आरम्भ हो जाती थी। इस लीला का प्रत्यक्ष दर्शन उनके शिष्य नहीं कर पाते थे। स्वामी हरिदास के प्रिय शिष्य और भतीजे विठ्ठल विपुलदेव ने अपनी जन्मतिथि मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी के दिन उनसे कुंजबिहारी और विहारिणी जू के सगुण-साकार रूप का दर्शन करवाने का अनुरोध किया। इस पर स्वामी हरिदास ने अपने तानपूरे पर तान छेड़ी, तो प्रिया प्रियतम प्रकट हो गये। उनके अलौकिक तेज़ के तीव्र प्रकाश को उनकी आँखें सहन नहीं कर पा रही थी। तब स्वामी हरिदास ने प्रार्थना की-
सहज जोरी प्रगट रहति नित।
जु रंग की गौर-स्याम,घन-दामिनि जैसे।
प्रथम हुं हुते , अब हूं, आगे हूं रहिहै,
न टरिहै तैसे॥
अंग-अंग की उजराई,सुघराई,चतुराई,
सुंदरता ऐसे।
हरिदास के स्वामी, स्यामा-कुंजबिहारी,सम
वैसे वैसे॥
स्वामी हरिदास के आग्रह पर श्यामाजू श्यामसुंदर में ऐसे लीन हो गईं, जैसे बिजली चमकने के बाद मेघ में लीन हो जाती है। इस प्रकार प्रिय-प्रियतम का युगल स्वरूप श्रीबांकेबिहारी के रूप में सामने आया।

युगल छवि के दर्शन

श्री राधा और कुंजबिहारी का सम्मिलित स्वरूप होने के कारण श्रीबांकेबिहारी हर दृष्टि से अतुलनीय हैं। यह श्रीविग्रह हमें श्यामा-श्याम का एक साथ साक्षात्कार करा देता है। ध्यान से देखने पर ठाकुर जी के वाम अर्ध्दांग में श्री जी (राधा रानी ) के श्रृंगार का दर्शन होता है। युगल स्वरूप होने के कारण ही श्रीबांकेबिहारी के मंदिर में भगवती राधा की पृथक् मूर्ति स्थापित नहीं है। यहाँ राधारानी की गद्दीसेवा है। आचार्य श्री श्यामबिहारी गोस्वामी 'श्रीकेलिमाल' की टीका करते हुए स्वामी हरिदास भाव व्यक्त करते हैं-
यह जोरी प्रिया-पिय का नित है,
रस-रंग में डूबे रहैं अति दोऊ।
घन-दामिनी रंग लजै, इन अंग
सजे रति-केलि ही में अति दोऊ।
दोऊ आगे हुते अबहूँ ह्वै रहैंगे
टरैंगे न ये, जु टरैं सब कोऊ।
अंग ऊजरे बाँके बने, अति चंचल
षोडस,वेष धरैं सम दोऊ॥
इससे स्पष्ट है कि निधि वन में कुंजबिहारी और किशोरी जू के नित्य मिलन से ही श्रीबांकेबिहारी आविर्भाव हुआ।

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