व्यास जी

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व्यास जी का पूरा नाम 'हरीराम व्यास' था और ये ओरछा के रहनेवाले सनाढय शुक्ल ब्राह्मण थे। ओरछा नरेश 'मधुकरशाह' के ये 'राजगुरु' थे। पहले ये 'गौड़ संप्रदाय' के वैष्णव थे, बाद में हितहरिवंश जी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए। इनका काल संवत् 1620 के आसपास है। पहले ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे और सदा शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार रहते थे। एक बार वृंदावन में जाकर गोस्वामी हितहरिवंश जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। गोसाईं जी ने नम्र भाव से यह पद कहा -

यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौनै सचु पायो।
जहँ तहँ बिपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायो

  • यह पद सुनकर व्यास जी चेत गए और हितहरिवंश जी के अनन्य भक्त हो गए। उनकी मृत्यु पर इन्होंने इस प्रकार अपना शोक प्रकट किया -

हुतो रस रसिकन को आधार।
बिन हरिबंसहि सरस रीति को कापै चलिहै भार?
को राधा दुलरावै गावै, बचन सुनावै कौन उचार?
वृंदावन की सहज माधुरी, कहिहै कौन उदार?
पद रचना अब कापै ह्वैहै? निरस भयो संसार।
बड़ो अभाग अनन्य सभा को, उठिगो ठाट सिंगार
जिन बिन दिन छिन जुग सम बीतत सहज रूप आगार।
व्यास एक कुल कुमुद चंद बिनु उडुगन जूठी थार

  • जब हितहरिवंश जी से दीक्षा लेकर व्यास जी वृंदावन में ही रह गए तब महाराज 'मधुकर साह' इन्हें ओरछा ले जाने के लिए आए, पर ये वृंदावन छोड़कर न गए और अधीर होकर इन्होंने यह पद कहा -

वृंदावन के रूख हमारे माता पिता सुत बंधा।
गुरु गोविंद साधुगति मति सुख, फल फूलन की गंधा
इनहिं पीठि दै अनत डीठि करै सो अंधान में अंधा।
व्यास इनहिं छोड़ै और छुड़ावै ताको परियो कंधा

रचनाएँ

इनकी रचना परिमाण में भी बहुत विस्तृत है और विषयभेद के विचार से भी अधिकांश कृष्ण भक्तों की अपेक्षा व्यापक है। ये श्रीकृष्ण की बाललीला और श्रृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच बीच में संसार पर भी दृष्टि डाला करते थे। इन्होंने तुलसीदास जी के समान खलों, पाखंडियों आदि का भी स्मरण किया है और रसगान के अतिरिक्त तत्व निरूपण में भी ये प्रवृत्त हुए हैं। प्रेम को इन्होंने शरीर व्यवहार से अलग 'अतन' अर्थात् मानसिक या आध्यात्मिक वस्तु कहा है। ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों पर बहुत से पद और साखियाँ इनकी मिलती हैं। इन्होंने एक 'रासपंचाध्यायी' भी लिखी है, जिसे लोगों ने भूल से सूरसागर में मिला लिया है। -

आज कछु कुंजन में बरषा सी।
बादल दल में देखि सखी री! चमकति है चपला सी।
नान्हीं नान्हीं बूँदन कछु धुरवा से, पवन बहै सुखरासी
मंद मंद गरजनि सी सुनियतु, नाचति मोरसभा सी।
इंद्रधानुष बगपंगति डोलति, बोलति कोककला सी
इंद्रबधू छबि छाइ रही मनु, गिरि पर अरुनघटा सी
उमगि महीरुह स्यों महि फूली, भूली मृगमाला सी।
रटति प्यास चातक ज्यों रसना, रस पीवत हू प्यासी

सुघर राधिका प्रवीन बीना, वर रास रच्यो,
स्याम संग वर सुढंग तरनि तनया तीरे।
आनंदकंद वृंदावन सरद मंद मंद पवन,
कुसुमपुंज तापदवन, धुनित कल कुटीरे
रुनित किंकनी सुचारु, नूपुर तिमि बलय हारु,
अंग बर मृदंग ताल तरल रंग भीरे
गावत अति रंग रह्यो, मोपै नहिं जात कह्यो,
व्यास रसप्रवाह बह्यो निरखि नैन सीरे

(साखी)
व्यास न कथनी काम की , करनी है इक सार।
भक्ति बिना पंडित वृथा , ज्यों खर चंदन भार
अपने अपने मत लगे , बादि मचावत सोर।
ज्यों त्यों सबको सेइबो , एकै नंदकिसोर
प्रेम अतन या जगत में , जानै बिरला कोय।
व्यास सतन क्यों परसि है , पचि हारयो जग रोय
सती, सूरमा संत जन , इन समान नहिं और।
आगम पंथ पै पग धारै , डिगे न पावैं ठौर


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 5”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 136।

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