शंख लिपि

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शंख लिपि

शंख लिपि प्राचीन लिपियों में से एक है, जो आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। इनमें लिखित अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। भारत तथा जावा और बोर्निया में प्राप्त बहुत से शिलालेख शंख लिपि में हैं। इस लिपि के वर्ण 'शंख' से मिलते-जुलते कलात्मक होते हैं। इसीलिए इसे शंख लिपि कहते हैं।

विस्तार

शंख लिपि को विराटनगर से संबंधित माना जाता है। उदयगिरि की गुफाओं के शिलालेखों और स्तंभों पर यह लिपि खुदी हुई है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। इसलिए इसे शंख लिपि कहा जाने लगा। राजस्थान के जयपुर में स्थित बिजार अथवा बीजक की पहाड़ियों में बड़ी संख्या में ऐसी कंदराएं हैं, जिनमें एक रहस्यमय लिपि उत्कीर्ण है। इस लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। शंख लिपि के नाम से जानी जाने वाली इस लिपि के लेख बड़ी संख्या में बीजक की पहाड़ी, भीम की डूंगरी तथा गणेश डूंगरी में बनी गुफाओं में अंकित हैं। इन लेखों के अक्षर शंख की आकृति के हैं। वैज्ञानिकों को इस लिपि के अभिलेख भारतीय उपमहाद्वीप के भारत, इण्डोनेशिया, जावा तथा बोर्निया आदि देशों से मिले हैं, जिनसे यह धारणा बनती है कि जिस तरह किसी कालखंड में सिंधु लिपि जानने वाली सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुई थी, उसी तरह शंख लिपि जानने वाली कोई सभ्यता किसी काल खण्ड में भारतीय उपमहाद्वीप में फली-फूली। ये लोग कौन थे? इनका कालखंड क्या था? आदि प्रश्नों का उत्तर अभी तक नहीं दिया जा सका है। भारत में शंख लिपि के अभिलेख उत्तर में जम्मू-कश्मीर के अखनूर से लेकर दक्षिण में सुदूर कर्नाटक तथा पश्चिमी बंगाल के सुसुनिया से लेकर पश्चिम में गुजरात के जूनागढ़ तक उपलब्ध हैं। ये अभिलेख इस लिपि के अब तक ज्ञात विशालतम भण्डार हैं।

राजगीर की प्रसिद्ध सोनभंडा की गुफाओं में लगे दरवाजों की प्रस्तर चौखटों पर एवं भित्तियों पर शंख लिपि में कुछ संदेश लिखे हैं, जिन्हें पढ़ा नहीं जा सका है। बिहार में मुण्डेश्वरी मंदिर तथा अन्य कई स्थानों पर यह लिपि देखने को मिलती है। मध्य प्रदेश में उदयागिरि की गुफाओं में, महाराष्ट्र में मनसर से तथा बंगाल एवं कर्नाटक से भी इस लिपि के लेख मिले हैं। इस लिपि के लेख मंदिरों एवं चैत्यों के भीतर, शैल गुफाओं में तथा स्वतंत्र रूप से बने स्तम्भों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।

कालखण्ड

उत्कीर्ण अभिलेखों में लिपि को अत्यंत सुसज्जित विधि से लिखा गया है। कुछ विद्वान इस लिपि को ब्राह्मी लिपि के निकट मानते हैं। विराटनगर से प्राप्त अभिलेखों की तिथि तीसरी शताब्दी ईस्वी मानी गई है। एक लेख में ‘चैल-चैतरा’ पढ़ा गया है, जो संस्कृत का ‘शैल-चैत्य’ माना गया है। इसका अर्थ होता है- ‘पहाड़ी पर स्थित चैत्य।’ इससे अनुमान लगाया जाता है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में यहां कोई पहाड़ी बौद्ध चैत्य था। विराटनगर तीसरी शताब्दी के आसपास तक बौद्ध धर्म का बड़ा केन्द्र था। मौर्य सम्राट अशोक के भब्रू तथा विराटनगर अभिलेख इसी स्थान से मिले हैं। इन पहाड़ियों में अनेक चैत्य एवं विहारों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

प्राचीन बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर में उन 64 लिपियों के नाम गिनाए गए हैं, जो बुद्ध को सिखाई गई थीं। उनमें नागरी लिपि का नाम नहीं है, ब्राह्मी लिपि का नाम है। 'ललित विस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ईस्वी 308 में हुआ था। जैनों के पन्नवणा सूत्र और समवायांग सूत्र में 18 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) लिपि का है। भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभी लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है। यद्यपि इन लिपियों का काल निर्धारण नहीं किया जा सका है, किंतु ये लिपियां महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध के युग में प्रचलन में थीं। शंख लिपि भी उनमें से एक है। इस लिपि के लेख आज तक पढ़े नहीं जा सके हैं।

प्रचलन समय

ब्राह्मी लिपि उत्तर भारत में ईसा से चार सौ साल पहले प्रचलन में आई, किंतु दक्षिण भारत तथा श्रीलंका में यह लिपि ईसा से 600 साल पहले प्रचलन में थी। शंख लिपि का उद्भव भी उसी काल में माना जाना चाहिए। भरहुत स्तम्भों पर मिले इस लिपि के अभिलेख ईसा से 300 वर्ष पुराने हैं। उदयगिरि की गुफाओं में शंख लिपि के लेख गुप्त कालीन हैं, जिनके पांचवीं शताब्दी ईस्वी का होना अनुमानित है। देवगढ़ के स्तम्भों की तिथि पांचवीं शताब्दी ईस्वी की है। अतः इस पर लेखों के उत्कीर्णन की तिथि पांचवीं-छठी शताब्दी ईस्वी की होनी चाहिए। सोलोमन ने गुजरात के पठारी नामक स्थान से शंख लिपि का एक ऐसा शिलालेख ढूंढा था, जिसे प्रतिहार कालीन माना जाता है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि शंख लिपि प्रतिहार काल में भी मौजूद थी।

एक आख्यान के अनुसार गौतम बुद्ध अपने जीवन काल के प्रारम्भ में जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी के शिष्य थे। जब वे महावीर स्वामी से अलग होकर उदयगिरि आए तो महावीर के लिए शंख लिपी में संदेश छोड़कर आए। यह एक आख्यान है, जिसकी विश्वसनीयता अधिक नहीं है।

अक्षर

प्राप्त शिलालेखों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि इस लिपि में 12 अक्षर हैं। इस लिपि के लेखों में बहुत छोटे-छोटे संदेश खुदे हुए हैं। अर्थात् इन लेखों में पवित्र शब्द, ईश्वरीय नाम, ‘शुभास्ते पंथानः संतु’ एवं ‘ऑल दी बैस्ट’ जैसे मंगल कामना करने वाले शब्द उत्कीर्ण हो सकते हैं। सोलोमन नामक एक विद्वान ने सिद्ध किया है कि इस लिपि में उतने अक्षर मौजूद हैं, जिनमें संस्कृत भाषा के समस्त शब्दों को व्यक्त किया जा सके। उत्तर प्रदेश के देवगढ़ में इस लिपि के अक्षरों का आकार ब्राह्मी लिपि के अक्षरों से कुछ ही बड़ा है, जबकि उदयगिरि की गुफाओं में शंख लिपि के अक्षरों को कई मीटर की ऊंचाई वाला बनाया गया है। कुछ विद्वान इस लिपि का काल चौथी से नौंवी शताब्दी ईस्वी निर्धारित करते हैं; किंतु यह काल निर्धारण सही नहीं लगता। इस लिपि को ब्राह्मी लिपि की समकालीन माना जा सकता है।

खोज और नामकरण

शंख लिपि एक प्राचीन लिपि है जो पहले पूरी तरह से अज्ञात थी। इसको पढ़ना पुरातत्वविदों, पुरालेखविदों, इतिहासकारों और देश के लिये एक महत्त्वपूर्ण घटना है क्योंकि यह देश के प्राचीन इतिहास और सांस्कृतिक योगदान की व्याख्या के लिये नये आयाम खोलती है। भारत में कलकत्ता टकसाल के परखकर्ता जेम्स प्रिसप ने 1837 में, सबसे पहले ब्राह्मी लिपि को समझा था। इस खोज ने अशोक के शिलालेखों को पढ़ने को प्रेरणा दी, जो पूरे देश में अशोक स्तम्भों, चट्टानों और गुफ़ाओं पर अंकित थे। इस खोज से न केवल मौर्यकालीन भारत के इतिहास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पुनर्लेखन हुआ, बल्कि क्षेत्रीय आधार पर ब्राह्मी लिपि के सम्पूर्ण विकास की खोज करने का आधार बना, जिससे बाद में देश की अन्य लिपियों की समझ विकसित हुई और प्राचीन भारत के इतिहास का पुनर्लेखन नये सिरे से हुआ, जिसमें साहित्यिक और अन्य स्रोतों द्वारा उपलब्ध आँकड़ों को ध्यान में रखा गया।[1]

जेम्स प्रिंसेप ने एक और महत्त्वपूर्ण प्राचीन भारतीय लिपि खरोष्ठी की व्याख्या करने में भी योगदान दिया। उन्हें एक और प्रारम्भिक भारतीय अज्ञात लिपि को प्रकट करने का श्रेय जाता है। 1936 में उन्हें वर्तमान उत्तरकाशी ज़िले के बाराहाट में एक पीतल के त्रिशूल पर अज्ञात वर्णों में लिखा हुआ एक अभिलेख देखा था। 1837 में उन्होंने ‘आदिम लेखन शैली’ में उत्कीर्ण उस जैसे दो और लघु शिलालेखों का उल्लेख किया। बाद में अपनी और खोजों से उन्होंने उसे शंख लिपि का नाम दिया क्योंकि शिलालेख के सभी वर्ण शंख के आकार जैसे लग रहे थे। इस नाम को एम किट्टो, जे डी बेगलर, कनिंघम, सी एम प्लीटे, ब्रैंड्स, एच केर्न, जे पी वोगेल, के पी जायसवाल, बी सी छबड़ा, सी शिवराममूर्ति, डी सी सिरकार, एच बी सरकार, आर सोलोमन और बी एन मुखर्जी जैसे प्रख्यात विद्वानों ने भी स्वीकार कर लिया।

पूरे मध्य प्रदेश में इस तरह के कई शिलालेखों को देखा गया। इसका नामकरण अभी तक चल रहा है क्योंकि लिपि का मूल नाम अभी तक अज्ञात है, नीचे दिये गए कुछ नये सुझावों के बावजूद। इस विषय पर शोध अभी भी जारी है। गूढ़ लिपि की व्याख्या के सम्बंध में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर बी एन मुखर्जी का नवीनतम सिद्धांत कई विवादों एक बावजूद लगभग सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत है।

भौगोलिक वितरण

तथाकथित शंख लिपि के ज्ञात शिलालेखों की संख्या ठीक-ठाक बड़ी है। ये उत्तर में अखनूर (जम्मू और कश्मीर) से लेकर दक्षिण में सदूंर (बेल्लारी ज़िला, कर्नाटक) तक और पूर्व में जूनागढ़ (गुजरात) से पश्चिम में सुसुनिया (बांकुरा ज़िला, पश्चिम बंगाल) तक भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में शंख लिपि के अवशेष मिले हैं। इसीलिए इस लिपि को 'अखिल भारतीय लिपि' माना जा सकता है। इसके कुछ शिलालेख उपमहाद्वीप के बाहर भी मिले हैं- इंडोनेशिया में चार, जावा में तीन और बोर्निया में एक।[1]

प्रमुख विशेषताएँ

इन शिलालेखों को एक नज़र देखने पर निम्नलिखित विशेषताएँ दिखती हैं-

  • ये शिलालेख पत्थर की सतहों, चित्रित शैल आश्रयों, संरचना की दीवारों, स्तम्भों, सीढ़ियों और मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं।
  • अधिकांश शिलालेख बहुत अधिक अलंकृत हैं जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। हालांकि हर जगह ऐसा नहीं है। विदिशा में किये गये अंवेषण में उदयगिरि पहाड़ियों की गुफ़ा संख्या पाँच में मिला शंख लिपि का शिलालेख बिना किसी अलंकरण या सुलेख का था। जबलपुर ज़िले के तिगोवा में कंकाली देवी मंदिर में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख भी ऐसा ही था।
  • कभी-कभी अक्षरों की आकृतियाँ विलक्षण या विचित्र हैं।
  • वर्ण प्रवाहलेखन शैली में लिखे गये हैं। कहीं-कहीं जोड़ी गई अनावश्यक लकीरें अस्पष्टता बढ़ाने के लिये हैं।
  • वर्णों को आमतौर पर उनकी ऊर्ध्वाधर स्थिति से दक्षिणावर्त या वामवर्त तिरछा खींचा गया है। तिरछेपन का कोण 60 डिग्री से 90 डिग्री तक हो सकता है।
  • अक्षरों को अक्सर वृत्त और/ या सजावटी पैटर्न के भीतर लिखा गया है। अलंकरण बढ़ाने के लिये अक्सर विशिष्ट चिह्न जोड़े गये हैं। विस्तारित विशिष्ट चिह्नों के अलग-अलग खंडों में यहाँ-वहाँ अतिरिक्त रेखाएँ और जोड़ी गई हैं। इसके अलावा, अतिरिक्त पंक्तियाँ और डिज़ाइन भी जिनका वर्णों के साथ कोई स्वाभाविक जोड़ नहीं बैठ रहा और जो छलावरण बढ़ाने के लिये जोड़ी गई हैं।
  • शंख लिपि शिलालेख हमेशा संक्षिप्त होते हैं। अब तक अखिल भारतीय स्तर पर नौ से अधिक वर्णों के शिलालेख नहीं मिले हैं। हालांकि विदिशा ज़िले में कई ऐसे शिलालेख मिले हैं जिनमें पंद्रह वर्ण हैं। इसी तरह के पश्चिम बंगाल के बांकुरा ज़िले में सुसुनिया पहाड़ियों पर मिले हैं।
  • अब तक प्रोफ़ेसर मुखर्जी द्वारा व्याख्या किये गए शिलालेखों से पता चलता है कि शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा ज़्यादातर संस्कृत या संस्कृत और प्राकृत मिश्र भाषा है।[1]

कालखंड

शंख लिपि के उपयोग का ज्ञात कालखंड पहली शताब्दी ईसा पूर्व/ ई. से 8वीं ई. शताब्दी तक माना जाता है। प्रोफ़ेसर बी एन मुखर्जी अनेक अप्रत्यक्ष संदर्भों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। विदिशा ज़िले के अहमदपुर में अंवेषणों ने इसके सर्वप्रथम उपयोग के संदर्भ में प्रोफ़ेसर मुखर्जी के सिद्धान्त की पुष्टि की है, जहाँ मिले पुरातात्विक साक्ष्य इस ओर पहले के कालखंड तक ले जाते हैं। अहमदपुर में शैलाश्रय संख्या ए-9 में पहली शताब्दी ई.पूर्व/ई. का एक लम्बा ब्राह्मी शिलालेख मिला, जो शंख लिपि के शिलालेख के ऊपर उत्कीर्ण है। इससे यह सिद्ध होता है कि शंख लिपि का उपयोग पहली शताब्दीई.पू./ई. से पहले से हो रहा था।

लिपि व्याख्या में प्रगति

जैसा की ऊपर कहा जा चुका है, 1836 में जेम्स प्रिंसेप द्वारा इस लिपि की खोज के बाद भी इन शिलालेखों की व्याख्या नहीं की जा सकी थी। हाल के वर्षों के दौरान इस लिपि की व्याख्या के लिए एक संतोषजनक तरीका तैयार किया गया है। 1976 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग के सेंटर फ़ॉर एडवॉस्ट स्टडीज़ ने प्रोफ़ेसर बी एन मुखर्जी के निर्देशन में ‘शंख लिपि शिलालेख’ पर एक परियोजना शुरू की थी, जिसे यूएसए के एक अध्येता रिचर्ड सोलोमन ने निष्पादित किया था। डॉ. सोलोमन के शोध परिणाम 1980 में उनकी प्रारम्भिक रिपोर्ट ‘शंख शिलालेख’ में, कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित किये गए थे। डॉ. सोलोमन ने देश में अभी तक के ज्ञात शंख शिलालेखों पर एक सुव्यवस्थित प्रलेखन रिपोर्ट तैयार करके इस विषय के शोध की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। लिपि के विभिन्न पहलुओं के बारे में उनका अवलोकन मात्र अस्थाई अथवा अप्रमाणित था और लिपि की व्याख्या के संदर्भ में कोई संतोषजनक प्रमाण देने में वह सफल नहीं हुये।

इसके तीन साल बाद, 1983 में प्रोफ़ेसर बी एन मुखर्जी लिपि की व्याख्या का सूत्र समझाने में सफल रहे। जब वह अपनी लखनऊ यात्रा में कैसरबाग़ संग्रहालय का रिज़र्व संग्रह देखने गये, तब उन्होंने गुप्त काल का एक आदमकद पत्थर का घोड़ा देखा जो मूल रूप से तत्कालीन नार्थ वेस्ट फ़्रंटियर प्रॉविंस (अब उत्तर प्रदेश) के खैरीगढ़ में मिला था। इसकी पीठ पर एक शंख लिपि शिलालेख उत्कीर्ण था जो पूँछ के सिरे से शुरू हुआ था और पूरी पीठ से होते हुए कंधों से नीचे की ओर झुके सिरे तक उत्कीर्ण था। उन्होंने कई दिनों के लिये कई कोणों से शिलालेख को परखा और पाया कि शिलालेख में कई ब्राह्मी अक्षर थे जो अति अलंकृत रेखाओं के साथ प्रवाहमय शैली में लिखे गये थे और कुछ अक्षर अपनी सामान्य अवस्थिति से 69 से 90 डिग्री तक के कोण पर विस्थापित या स्थानान्तरित (वामावर्त) थे। अंतत: लिपि को पूरा पढ़ने में सफलता मिली जिसमें ‘श्री महेन्द्रादित्य’ उत्कीर्ण थ। प्रोफ़ेसर मुखर्जी ने इस ऐतिहासिक तथ्य के माध्यम से अपने सिद्धांत की पुष्टि की कि एक घोड़े की स्मृतिस्वरूप प्रतिकृति थी जिसकी बलि गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (414/5-455/56) ने दी थी। जिन्हें महेंद्रादित्य की उपाधि मिली थी।[1]

घोड़े की गर्दन पर पठनीय ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एक छोटे शिलालेख से उनके पढ़े गए शब्दों की और अधिक पुष्टि हुई। उन्होंने अपने निष्कर्षों को एक मोनोग्राफ़ में प्रकाशित किया है ‘डेसीफ़ॅर्मेट ऑफ़ शेल स्क्रिप्ट, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ, 1983। इसके बाद प्रोफ़ेसर मुखर्जी ने देश भर में मिले शंख लिपि शिलालेखों को पढ़ने में सफलतापूर्वक अपना सिद्धांत लागू किया। उनमें से कुछ हैं- देवगढ़ में एक मंदिर में एक स्तम्भ पर ‘श्री गोविंदा’, उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध लाला भगत स्तम्भ पर ‘बा (या वा) लापयादित्य’, भरहुत स्तूप के एक स्तम्भ की रेलिंग पर उत्कीर्ण ‘सवचारे 90 फुवा फुचवा’ (सम्वत्सर 90 पूर्व उत्सव), जो अब भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता में संरक्षित है। उन्होंने अपने अनेक लेखन कार्यों और भारत और विदेशों में अपने भाषणों में शंख लिपि की व्याख्या की अपनी प्रणाली के बारे में बताया है और उनका सिद्धांत अब विश्व भर के विद्वानों ने स्वीकार कर लिया है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने भी इस प्रणाली के आधार पर शंख लिपि शिलालेख की व्याख्या के लिए एक परियोजना शुरू की थी।

प्रोफ़ेसर मुखर्जी ने इस श्रेणी के किसी शिलालेख की व्याख्या करने में पुरालेखविदों को बहुत सावधान रहने की चेतावनी दी है। उनके अनुसार, किसी को सभी सम्भावित कोणों से शिलालेख की जाँच करनी चाहिए, क्योंकि मूल अक्षर असामान्य स्थितियों में लिखे हो सकते हैं। एक शोधकर्ता बहुत करीब से छानबीन करने पर एक या दो से अधिक अक्षरों को पहचानने में सक्षम हो सकेगा, जिनके स्वरूप या विविध रूप, उसे उनके अलंकृत या अतिरिक्त परिवर्धन को हटाकर समझना होगा और उनकी तुलना उसी ऐतिहासिक काल के और उस क्षेत्र के ब्राह्मी लिपि वर्णों से करनी होगी, जहाँ से वह शिलालेख मिला हो। पुरालेखविद को शंख शिलालेख के अक्षरों की तुलना उस क्षेत्र और अवधि के ब्राह्मी अक्षरों के रूपों से करने की कोशिश करनी चाहिए और उसमें मौजूद अलंकृत रेखाओं और पैटर्न को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।

शंख लिपि के नामकरण के सम्बंध में भी प्रोफेसर मुखर्जी के कुछ नये सुझाव हैं। प्राचीन भारत की दो प्रसिद्ध लिपियाँ ब्राह्मी और खरोष्ठी हैं। इसके साथ ही पहली/दूसरी शताब्दी ई. के बौद्ध ग्रंथ, ललितविस्तार में एक लिपि ‘अवमूर्ध-लिपि’ का उल्लेख है जिसमें ‘लिपि के ऊपरी हिस्सों के सिरे’ मुड़े हुये हैं या ‘नीचे लटकते’ हुये बने हैं। इसी तरह एक अन्य बौद्ध ग्रंथ ‘महावस्तु अवदान’ का उदाहरण है, जिसमें एक ऐसी लिपि का उल्लेख है जिसे ‘व्यत्यास्त लिपि’के नाम से जाना जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘उलटी लिपि’ है। इन दोनों लिपियों के उदाहरण से शंख लिपि की विशिष्टता को अच्छी तरह से समझा जा सकता है। जैसे मूल अक्षरों का सामान्य ऊर्ध्वाधर स्थिति से क्षैतिज या अर्ध-क्षैतिज स्थिति में विस्थापन। डॉ. मुखर्जी ने मौजूदा शंख लिपि का नाम उपर्युक्त दो ग्रंथों में वर्णित दो नामों में से एक करने का सुझाव दिया है जो पहली/दूसरी शताब्दी ई. के हैं, जब तथाकथित शंख लिपि प्रचलन में थी। डॉ. मुखर्जी मानते हैं कि उनके द्वारा प्रस्तावित सिद्धांत ‘शंख लिपि’ से सम्बंधित सभी समस्याओं को हल नहीं कर सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से इस रहस्यमयी लिपि को समझने की दिशा में एक सफल कदम है।[1]

मध्य भारत में शंख शिलालेख

मध्य भारत में शंख शिलालेखों जो इस तरह के शिलालेखों वाले देश का सबसे समृद्ध क्षेत माना जाता है, को ढूँढने और वैज्ञानिक रूप से उनका प्रलेखन करने के प्रयास में मध्य प्रदेश के सरकार के पुरातत्त्व विभाग, सागर विश्वविद्यालय और जबलपुर विश्वविद्यालय के सहयोग से 1989 में अंवेषण किये गए। इस क्षेत्र में वर्तमान छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के आसपास के ज़िले शामिल हैं। इस अंवेषण में टीम को 303 शंख लिपि शिलालेख मिले। इनकी एक सुव्यवस्थित रिपोर्ट जल्द ही लेखक द्वारा प्रकाशित किये जाने का प्रस्ताव है। इनमें से कुछ का विवरण नीचे दिया गया है।

  • मध्य प्रदेश में सबसे ज़्यादा शिलालेख वाला क्षेत्र विदिशा है। ज़िले में स्थित शंख शिलालेखों की कुल संख्या 158 है, जिनमें से 92 अहमदपुर के चित्रित शैल-आश्रयों में पाये गए। गुफ़ा मासेर के शैल-आश्रयों में 31 शिलालेख मिले। उदयगिरी पहाड़ियों के स्मारकों में 32 ऐसे शिलालेख पाये गए। इससे पहले विदिशा में 1913-1914 के दौरान किये गए पुरातात्विक उत्खनन में ऐसे तीन शिलालेखों का पता चला था।
  • रायसेन विदिशा से सटा ज़िला इसके बाद का महत्त्वपूर्ण स्थल है। भीमबेटका के चित्रित शैल-आश्रयों में 33 प्रामाणिक शंख शिलालेख मिले। इस स्थान पर कुछ जाली शिलालेख भी हैं। ठेन-का-तालाब शैल-आश्रयों में 8 और मकोरिया आश्रयों की दीवारों और छत पर 2 शंख शिलालेख चित्रित मिले। साँची के अशोक स्तम्भ में एक सुंदर नक्काशीदार शंख शिलालेख है। इस प्रकार रायसेन ज़िले में कुल 54 शिलालेख खोजे गये।
  • भोपाल शैल-आश्रयों में चित्रित 30 शिलालेख और एक-एक शिलालेख पत्थर के एक खम्भे और पत्थर की एक पटिया पर उत्कीर्ण मिले।
  • सागर ज़िले में महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल एरण में विभिन्न स्मारकों पर 18 सुंदर शंख शिलालेख उत्कीर्ण हैं। ये शिलालेख विभिन्न अवधियों के हैं।
  • सतना ज़िले के भरहुत के स्तूप के अवशेषों से तीन शंख शिलालेख मिले थे जो अब भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में संरक्षित हैं।
  • जबलपुर ज़िले के तिगोवा में कंकाली देवी मंदिर में दो अच्छी तरह से संरक्षित शिलालेख हैं। पहला एक स्तम्भ पर और दूसरा मंदिर की दीवार पर।
  • छत्तीसगढ़ के दुर्ग ज़िले में कंवर पलारी में एक शंख शिलालेख है जो नरसिंहनाथ मंदिर में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है।
  • उत्तर प्रदेश के झाँसी ज़िले में, देवगढ़ में दशावतार मंदिर, वराह मंदिर और सिद्ध की गुफ़ा में उत्कीर्ण छ: शंख शिलालेख मिले हैं।
  • उत्तर प्रदेश के बाँदा ज़िले के कालिंजर क़िले में जल्दबाज़ी में किये गए अंवेषण में तीन सुंदर शंख शिलालेख उत्कीर्ण मिले। शंख शिलालेखों के दृष्टिकोण से इस स्थल के समृद्ध होने की सम्भावना है।
  • मध्य प्रदेश से सटे महाराष्ट्र के नागपुर ज़िले में, कल्हान नदी पर बने महादेव घाट पर एक शंख शिलालेख होने की जानकारी मिली है। रामटेक तालुका के मनसर से भी ऐसे ही कुछ शिलालेखों की जानकारी मिली है, जो विकृत अवस्था में हैं।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि मध्य प्रदेश में देश भर के शंख शिलालेखों का खजाना है।[1]

उद्देश्य

एक स्वाभाविक प्रश्न जो हर किसी के मन में उठता है कि ऐसे छोटे शिलालेखों को लिखने का उद्देश्य क्या था जिनमें केवल कुछ अक्षर लिखे गये हैं, जो या तो किसी का नाम हैं या कोई धार्मिक उत्सव हैं। प्रोफ़ेसर मुखर्जी आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि क्या पुरालेखों को अस्पष्ट तरीके से इसीलिए लिखा या उत्कीर्ण किया गया ताकि सम्बंधित वस्तु को अधिक पवित्र मानते हुए दर्शक इसे श्रद्धापूर्वक देखने के लिए मजबूर हो सके और तुरंत उसे पढ़ या समझ न सकें। इस तरह लिखने के पीछे यह इच्छा थी कि किसी नाम, घटना, अभिलेख या मंत्र को सामान्य लोगों की भीड़ से छिपाया जा सके, जो कि प्राचीन भारत में एक सामान्य बात थी। यह उम्मीद की जा रही है कि इस गुप्त लिपि का पता लगाने और उसकी व्याख्या करने में भविष्य के उन्नत शोध फलदायक परिणाम देंगे और कई अन्य दिलचस्प पहलुओं को उजागर करेंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 1.5 इन्टैक विरासत, जुलाई-दिसंबर, 2020 |प्रकाशक: भारतीय सांस्कृतिक निधि की समाचार पत्रिका |पृष्ठ संख्या: 71 |

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