श्राद्ध का विशद वर्णन

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श्राद्ध विषय सूची
श्राद्ध का विशद वर्णन
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
अन्य नाम पितृ पक्ष
अनुयायी सभी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
अनुष्ठान श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके 'पिण्ड' बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
संबंधित लेख पितृ पक्ष, श्राद्ध के नियम, अन्वष्टका कृत्य, अष्टका कृत्य, अन्वाहार्य श्राद्ध, श्राद्ध विसर्जन, पितृ विसर्जन अमावस्या, तर्पण, माध्यावर्ष कृत्य, मातामह श्राद्ध, पितर, श्राद्ध और ग्रहण, श्राद्ध करने का स्थान, श्राद्ध की आहुति, श्राद्ध की कोटियाँ, श्राद्ध की महत्ता, श्राद्ध प्रपौत्र द्वारा, श्राद्ध फलसूची, श्राद्ध वर्जना, श्राद्ध विधि, पिण्डदान, गया, नासिक, आदित्य देवता और रुद्र देवता
अन्य जानकारी ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है।

श्राद्ध संबंधी साहित्य विशाल है। वैदिक संहिताओं से लेकर आधुनिक टीकाओं एवं निबन्धों तक में श्राद्ध के विषय में विशद वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में श्राद्ध के विषय में सहस्रों श्लोक हैं। वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मण ग्रन्थों, गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों से लेकर आरम्भिक स्मृतिग्रन्थों यथा मनु एवं याज्ञवल्क्य की स्मृतियों तक, तदनन्तर प्रतिनिधि पुराण एवं मेधातिथि, विज्ञानेश्वर तथा अपरार्क की टीकाओं द्वारा उपस्थित विवेचनों से लेकर मध्यकालिक निबन्धों तक का वर्णन है। पौराणिक काल में कतिपय शाखाओं की ओर संकेत मिलते हैं।[1] स्मृतियों एवं महाभारत[2] के वचनों तथा सूत्रों, मनु, याज्ञवल्क्य एवं अन्य स्मृतियों की टीकाओं के अतिरिक्त श्राद्ध सम्बन्धी निबन्धों की संख्या अपार है। इस विषय में केवल निम्नलिखित निबन्धों की (काल के अनुसार व्यवस्थित) चर्चा होगी–श्राद्धकल्पतरु, अनिरुद्ध की हारलता एवं पितृदयिता, स्मृत्यर्थसार, स्मृतिचन्द्रिका, चतुर्वर्गचिन्तामणि (श्राद्ध प्रकरण), हेमाद्रि[3], रुद्रधर का श्राद्धविवेक, मदनपारिजात, श्राद्धसार (नृसिंहप्रसाद का एक भाग), गोविन्दानन्द की श्राद्धक्रियाकौमुदी, रघुनन्दन का श्राद्धतत्व, श्राद्धसौख्य[4], विनायक उर्फ नन्द पण्डित की श्राद्धकल्पलता, निर्णयसिन्धु, नीलकण्ठ का श्राद्धमयूख, श्राद्धप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक भाग), दिवाकर भट्ट की श्राद्धचन्द्रिका, स्मृतिमुक्ताफल (श्राद्ध पर), धर्मसिन्धु एवं मिताक्षरा की टीका–बालभट्टी। श्राद्धसम्बन्धी विशद वर्णन उपस्थित करते समय, कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार सामान्य विचार भी उपस्थित किये जायेंगे।

श्राद्ध करने की योग्यता

उपनयन
Upanayana

यह ज्ञातव्य है कि कुछ धर्मशास्त्र ग्रन्थों (यथा–विष्णुधर्मोत्तर) ने व्यवस्था दी है कि जो कोई मृतक की सम्पत्ति ले लेता है, उसे उसके लिए श्राद्ध करना चाहिए, और कुछ ने ऐसा कहा है कि जो भी कोई श्राद्ध करने की योग्यता रखता है अथवा श्राद्ध का अधिकारी है, वह मृतक की सम्पत्ति ग्रहण कर सकता है। शान्तिपर्व[5] में वर्णन आया है कि इन्द्र ने सम्राट मान्धाता से कहा कि किस प्रकार यवन, किरात आदि आनार्यों (जिन्हें महाभारत में दस्यु कहा गया है) को आचरण करना चाहिए और यह भी कहा गया है कि सभी दस्यु पितृयज्ञ (जिससे उन्हें अपनी जाति वालों को धन देना चाहिए) कर सकते हैं और ब्राह्मणों को धन भी दे सकते हैं।[6] वायु पुराण[7] ने भी म्लेच्छों को पितरों के लिए श्राद्ध करते हुए वर्णित किया है। गोभिलस्मृति[8] ने एक सामान्य नियम दिया है कि पुत्रहीन पत्नी को (मरने पर) पति द्वारा पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, पिता द्वारा पुत्र को तथा बड़े भाई के द्वारा छोटे भाई को भी पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिए निमि ने अपने मृत पुत्र का श्राद्ध किया था, किन्तु उन्होंने आगे चलकर पश्चाताप किया, क्योंकि वह कार्य धर्मसंकट था। यह बात भी गोभिलस्मृति के समान ही है।[9] अपरार्क[10] ने षटत्रिशन्मत का एक श्लोक उद्धृत कर कहा है कि पिता को पुत्र का एवं बड़े भाई को छोटे भाई का श्राद्ध नहीं करना चाहिए। किन्तु बृहत्पराशर[11] ने कहा है कि कभी-कभी यह सामान्य नियम भी नहीं माना जा सकता। बौधायन एवं वृद्धशातातप[12] ने किसी को स्नेहवश किसी के लिए भी श्राद्ध करने की, विशेषत: गया, में अनुमति दी है। ऐसा कहा गया है कि केवल वही पुत्र कहलाने योग्य है, जो पिता की जीवितावस्था में उसके वचनों का पालन करता है, प्रति वर्ष (पिता की मृत्यु के उपरान्त) पर्याप्त भोजन, (ब्राह्मणों) को देता है और जो गया में (पूर्वजों) को पिण्ड देता है।[13] एक सामान्य नियम यह था कि उपनयनविहीन बच्चा शूद्र के समान है और वह वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकता।[14] किन्तु इसका एक अपवाद स्वीकृत था, उपनयनविहीन पुत्र अन्त्येष्टि कर्म से सम्बन्धित वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर सकता है। मेधातिथि[15] ने व्याख्या की है कि अल्पवयस्क पुत्र भी, यद्यपि अभी वह उपनयनविहीन होने के कारण वेदाध्ययनरहित है, अपने पिता को जल तर्पण कर सकता है, नवश्राद्ध कर सकता है और 'शुन्धन्तां पितर:' जैसे मंत्रों का उच्चारण कर सकता है, किन्तु श्रौताग्नियों या गृह्यग्नियों के अभाव में वह पार्वण जैसे श्राद्ध नहीं कर सकता। स्मृत्यर्थसार[16] ने लिखा है कि अनुपनीत (जिनका अभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ है) बच्चों, स्त्रियों तथा शूद्रों को पुरोहित द्वारा श्राद्धकर्म कराना चाहिए या वे स्वयं भी बिना मंत्रों के श्राद्ध कर सकते हैं किन्तु वे केवल मृत के नाम एवं गोत्र या दो मंत्रों, यथा–'देवेभ्यो नम:' एवं 'पितृभ्य: स्वधा नम:' का उच्चारण कर सकते हैं। उपर्युक्त विवेचन स्पष्ट करता है कि पुरुषों, स्त्रियों एवं उपनीत तथा अनुपनीत बच्चों को श्राद्ध करना पड़ता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्कन्दपुराण (नागरखण्ड, 215|24-25) में आया है–दृश्यन्ते बहवो भेदा द्विजानां श्राद्धकर्मणि। श्राद्धस्य बहवो भेदा: शाखाभेदैर्व्यवस्थिता:।।
  2. यथा–अनुशासनपर्व, अध्याय 87-92
  3. बिब्लिओथिका इण्डिका माला, 1716 पृष्ठों में
  4. टोडरानन्द का एक भाग
  5. शान्तिपर्व (65|13-21
  6. यवना: किराता गान्धाराश्चीना: शबरबर्बरा:। शकास्तुषारा: ककाश्च पल्लवाश्चान्ध्रमद्रका:।।...
    कथं धर्माश्चरिष्यन्ति सर्वे विषयवासिन:। मद्विधैश्च कथं स्थाप्या: सर्वे वै दस्युजीविन:।।....
    मातापित्रोहि शुश्रुषा कर्तव्या सर्वदस्युभि:।....पितृयज्ञास्तया कूपा:प्रपाश्च शयनानि च। दानानि च कथाकालं द्विजेभ्यो विसृजेत्सदा।।....
    पाकयज्ञा महाहश्चि दातव्या: सर्वदस्युभि:। शान्तिपर्व (65|13-21)।
    इस पर शूद्रकमलाकर (पृष्ठ 55) ने टिप्पणी की है–'इति म्लेच्छादीनां श्राद्धविधानं तदपि सजातीयभोजनद्रव्यदानादिपरम्।'

  7. वायु पुराण (83|112
  8. गोभिलस्मृति (3|70 एवं 2|104
  9. और देखिए अनुशानपर्व (91)।
  10. अपरार्क (पृष्ठ 538
  11. बृहत्पराशर (पृष्ठ 153
  12. स्मृतिच., श्राद्ध, पृष्ठ 337
  13. जीवतो वाक्यकरणात् प्रत्यब्दं भूरिभोजनात्। गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभि: पुत्रस्य पुत्रता।। त्रिस्थलीसेतु (पृष्ठ 319)।
  14. आपस्तम्ब धर्मसू्त्र 2|6|15219; गौतम 2|4-5; वसिष्ठ 2|6; विष्णु. 28|40 एवं मनु 2|172
  15. मनु 2|172
  16. स्मृत्यर्थसार (पृष्ठ 46

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