सनातन गोस्वामी विविध घटनाएँ

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सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। जब भी इस भूमि पर भगवान अवतार लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं, श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही संत रहे, जिनके साथ हमेशा श्री कृष्ण एवं श्री राधा रानी हैं।
सनातन गोस्वामी के जीवन से सम्बंधित कुछ निम्न घटनाएँ इस प्रकार हैं-

मदनगोपाल की कृपा

नन्दग्राम में जिस कुटी में सनातन गोस्वामी भजन करते थे, वह आज भी विद्यमान है। इसमें रहते समय एक बार मदनगोपाल जी ने उनके ऊपर विशेष कृपा की। यद्यपि वे मदनगोपालजी को वृन्दावन में छोड़कर यहाँ चले आये थे, मदनगोपाल उन्हें भूले नहीं थे। वे छाया की तरह हर समय उनके आगे-पीछे रहते और उनके योग-क्षेम की चिन्ता रखते। सनातन गोस्वामी इस समय लीला-स्मरण में इतना डूबे रहते कि उन्हें खाने-पीने की भी सुधि न रहती। मधुकरी भिक्षा के लिये कहीं जाने का तो प्रश्न ही न था। नन्दग्राम के व्रजवासी उन्हें दूध दे जाया करतें वही उनका आहार होता।

मदनमोहन नाम

भक्तिरत्नाकार के अनुसार उड़ीसा के महाराज प्रतापरुद्र के पुत्र पुरुषोत्तम जाना ने दो राधा-विग्रह गोविन्ददेव और मदनगोपालजी के लिये वृन्दावन भेजे थे। स्वप्नादेश के अनुसार उनमें से छोटे को राधारूप में मदनगोपालजी के बाम भाग में और बडत्रे को उनके दाहिने ललितारूप में स्थापित किया गया। तभी से उनका नाम हुआ मदनमोहन। एक बार दैवयोग से तीन दिन तक कोई दूध लेकर न आया। चौथे दिन एक सुन्दर गोप-बालक आया लोटे में दूध लेकर। बोला-

"बाबा, मइया ने तेरे तई दूध भेज्यौ है, पाय लै।"

मदनगोपालजी की छवि की पहचान

सनातन गोस्वामी बालक के मधुर कण्ठ-स्वर का अपने कर्ण-पात्रों से और उसकी रूप-माधुरी का नयन-अंजलि से कुछ देर पान करते रहे। उसकी घुँघराली, काली अलकों पर लाल पगड़ी बरबस उनके मन-प्राण खींच रही थी। उन्होंने नन्दग्राम में उस बालक को पहले कभी नहीं देखा था। उसे देर तक रोक रखने के लिये उन्होंने उसी की भाषा में उससे एक के बाद एक कई प्रश्न पूछ डाले-

"लाला, तू कौन को है? कहाँ रहे? तेरे मइया-बाप को कहा नाम है? तेरे कै भइया हैं? इत्यादि। बालक ने अपने माँ-बाप का नाम बताया, पता-ठिकाना बताया और कहा-"हम चार भाइया हैं। मैं सबन ते छोटो हूँ।"

दूध देकर बालक चला गया। पर उसकी छबि सनातन गोस्वामी के मन में बसकर रह गई। जब दूध पिया तो उसके अप्राकृत स्वाद और सौरभ से उनकी आँखे खुल गयीं। बालक की छवि में उन्हें अपने ही मदनगोपालजी की छवि भासने लग गयी। उस छलिये का छल अब उनकी समझ में आ गया। फिर भी वे उसके बताये ठिकाने पर जाये बगैर न रह सके। वहाँ जाकर उन्होंने उसे और उसके घरवालों को खोजने की बहुत चेष्टा की। पर वह निरर्थक सिद्ध हुई।

प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है-

रहैं श्रीसनातन जू नन्दगाँव पावन पै,

आब न दिवस तीनि दूध लै कै प्यारियै।

साँवरो किशोर, आप पूछे "किहिं ओर रहो?"

कहे चारि भाई पिता रीति हूँ उचारियै॥

गये ग्राम, बूझी घर, हरि पै न पाये कहुँ,

चहूँ दिसि हेरि हेरि नैन भरि डारियै।

अब के जो आवै, फेर जान नहीं पावै,

सीस लाल पाग भावै, निस दिन उर धारिये॥

जगदानन्द पंडित से हास्य

एक घटना से संकेत मिलता है कि सनातन गोस्वामी महागंभीर और एकान्त भजननिष्ठ महात्मा होते हुए भी हास्य-कौतुक प्रिय थे। नीलाचल से जगदानन्द पंडित आये हुए थे। उन्होंने एक दिन सनातन गोस्वामी को निमन्त्रण दिया। सनातन ने निमन्त्रण स्वकार किया। जगदानन्द की कुटिया पर जाने से पहले सिर से एक गेरूआ वस्त्र बांध लिया। गेरूआ वस्त्र सिर से बंधा देख जगदानन्द को प्रेमावेश हो आया। उन्होंने समझा कि सनातन ने महाप्रभु का प्रसादी वस्त्र सिर से बाँध रखा है।

प्रसन्न हो उन्होंने पूछा'-"यह प्रसादी कहाँ मिली?"

"मुकुन्द सरस्वती ने दी है।"

"किसने दी है?"

"मुकुन्द सरस्वती ने।"

"मुकुन्द सरस्वती! महाप्रभु नहीं, मुकुन्द सरस्वती! अन्य संन्यासी का बहिर्वास सिर से!"

कहते हुए जगदानन्द ने क्रोध में भर भात की हाँड़ी उठाई उनके सिर से मारने को। सनातन नत-मस्तक हँसते हुए अविचल खड़े रहे। उनकी भाव भंगी देख जगदानन्द को आभास हुआ कि उस वस्त्र का प्रकृत रहस्य कुछ और है। वे स्तब्ध से सनातन की ओर देखते रहे।

सनातन ने कहा-"इसी को कहते हैं चेतन्य-निष्ठा। पंडितजी, यही देखने को तो मैंने यह नाटक किया था।"

जगदानन्द का क्रोध शांत हुआ। सनातन को गले से लगाकर उन्होंने कहा-"ऐसी हँसी ठीक नहीं, सनातन।"

तब दोनों ने एकसाथ बैठकर आहार किया। आमोद-प्रमोद और आलाप-संलाप में दोनों की चरचा का एक ही विषय-महाप्रभु का गुणगान। दोनों के भाव की एक ही गति-महाप्रभु के विरह में अश्रुविसर्जन।

जीवन ठाकुर का परिवर्तन

सनातन गोस्वामी ने जगजीवन को जैसा अपने ग्रन्थों से प्रभावित किया, वैसा ही अपने आचरण से। उनके त्याग-वैराग्य से जुड़ी हुई है, वर्धमान ज़िले के मानकड़े ग्राम के जीवन ठाकुर की कहानी। जीवन ठाकुर बड़े धर्मात्मा व्यक्ति थे। पर उनका सारा जीवन दरिद्रता से जूझते बीता था। अब वृद्धावस्था में उससे जूझते नहीं बन रहा था। हारकर एक दिन उन्होंने विश्वनाथ बाबा से प्रार्थना की-

"बाबा, अब कृपा करो। दारुण दरिद्रता के थपेड़े झेलने में मैं अब बिलकुल असमर्थ हूँ। ऐसी कृपा करो जिससे दरिद्रता का मुख मुझे और न देखना पड़े।"

विश्वनाथ बाबा ने प्रार्थना सुन ली। स्वप्न में आदेश दिया-

"तू व्रज जाकर सनातन गोस्वामी की शरण ले। उनकी कृपा से तेरा सब दु:ख दूर हो जायेगा।"

जीवन ठाकुर ने व्रज जाकर सनातन गोस्वामी से अपना रोना रोया। सनातन गोस्वामी को उनकी सब बात सुनकर बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे-मैं स्वयं, डौर-कौपीनधारी कंगाल वैष्णव हूँ। एक कंगाल दूसरे कंगाल की क्या सहायता कर सकता है? फिर विश्वनाथ बाबा ने उसे आश्वासन दे मेरे पास क्यों भेजा? हठात् उनके स्मृति-पटल पर जाग गयी एक पुरानी घटना। एक बार भावमग्न अवस्था में जमुनातट पर टहलते समय उनके पैर से टकरा गया था, एक स्पर्शमणि उन्होंने अपने भजन –पथ में विघ्न जान जमुना में फेंक देना चाहा थां पर यह सोचकर कि शायद कभी किसी दरिद्र व्यक्ति के काम आये वहीं एक गुप्त स्थान में रख दिया था। जीवन ठाकुर को उस गुप्त स्थान का संकेत करते हुए उन्होंने कहा-

"तुम जाकर उस मणि को ले लो। तुम्हारा दारिद्रय दूर हो जायेगा।"

जीवन ठाकुर वहाँ गये। स्पर्शमणि को प्राप्त कर उनके आनन्द की अवधि न रही। आनन्दाश्रु से नेत्र भर आये। मन तरह-तरह की उड़ाने भरने लगा। वे अब दरिद्र नहीं रहे। अब वे स्पर्शमणि के सहारे इतना धन प्राप्त कर लेंगे कि राजा भी उनके ईर्ष्या करने लग जायेंगे। मन ही मन विश्वनाथ बाबा की जय बोलते हुए और सनातन गोस्वामी के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हुए, वे आनन्दाम्बुधि में तैरते चले जा रहे थे। हठात् एक नयी तरंग उनके मस्तिष्क से जा टकराई। बिजली-की सी एक करेंट ने उनकी चेतना को झकझोर दिया। विस्मय के साथ लगे सोचने-

"जिस धन के लोभ से काशी से पैदल भागता आया हूँ, उसके प्रति सनातन गोस्वामी की ऐसी उदासीनता! इतने दिन से उसे एक जगह पटककर ऐसे भूल जाना, जैसे वह कोई वस्तु ही नहीं। जिस रत्न का लोभ राजाओं तक को उन्मत्त कर दे, उसका उनके द्वारा ऐसा तिरस्कार! निश्चय ही वे किसी ऐसे धन के धनी हैं, जिसकी तुलना में यह राजवाञ्छित रत्न इतना तुच्छ है। तभी तो वे इतना वैभव और राज-सम्मान त्याग कर करूआ-कंथाधारी त्यागी बाबाजी बने हैं। और एक मैं हूँ, जो उस तुच्छ वस्तु को प्राप्त कर अपने को धन्य मान रहा हूँ। जिस वैषयिक जीवन को त्यागकर वे इस प्रकार आप्तकाम और आनन्दमग्न हैं, उसी में मैं एक विषयकीट के समान और अधिक लिप्त होता जा रहा हूँ। धिक्कार है मुझे और मेरी विषयलिप्सा को। मैंने जब विश्वनाथ बाबा की कृपा से ऐसे महापुरुष का सान्निध्य नाभ किया है, तो क्यों न उनसे उस परमधन को प्राप्त कर अपना जीवन सार्थक करूँ, जिसे प्राप्त कर वे इतना सुखी हैं?"

सनातन गोस्वामी के प्रति आत्म-समर्पण

सनातन गोस्वामी के क्षणभर के संग से जीवन ठाकुर के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। वह अमूल्य रत्न, जो अभी थोड़ी देर पहले उनके मृतदेह में नयी जान डालता लग रहा था, अब उन्हें साँप-बिच्छू की तरह काटने लगा। उसे जमुना में फेंक उन्होंने उस यंत्रणा से अपने को मुक्त किया। फिर तुरन्त सनातन गोस्वामी के पास जाकर उनके प्रति आत्म-समर्पण करते हुए आर्त स्वर से प्रार्थना की-

"प्रभु, आपकी अहैतुकी कृपा से मेरा मोहाधंकार जाता रहा। अब आप मुझे लौकिक धन के बजाय उस अलौकिक धन का धनी बनने की कृपा करें, जिसके आप स्वयं धनी हैं। मैं आज से आपके चरणों में पूर्णरूप से समर्पित हूँ।"

सनातन गोस्वामी से दीक्षा लेकर जीवन ठाकुर ने आरम्भ किया अपने जीवन का एक नया अध्याय और उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलकर प्राप्त किया वह अलौकिक धन। इन्हीं जीवन ठाकुर के वंशज हुए हैं काठ-मागुण के प्रसिद्ध गोस्वामी परिवार के गोस्वामीगण। प्रवाद है कि जीवन ठाकुर ने जब स्पर्शमणि जमुना में फेंक दिया, तो दिल्ली के बादशाह को इसका पता चला। उसने अपने आदमियों को भेजा उसकी खोज करने। उन्होंने हाथियों को जमुना में उतारकर उसकी खोज आरम्भ की। मणि तो उन्हें मिला नहीं। पर दैवयोग से एक हाथी के पैर की जंजीर मणि से टकराकर सोने की हो गयी।

सनातन गोस्वामी और अकबर बादशाह

ग्राउस ने लिखा है कि गौड़ीय गोस्वामियों की द्रुतगति से फैलती हुई ख्याति से आकृष्ट हो अकबर बादशाह ने सन् 1573 में वृन्दावन में उनसे भेंट की। उन्होंने उसे दिव्य वृन्दावन के दर्शन कराये, जिसके उपलक्ष्य में वृन्दावन में गोविन्द देव, गोपीनाथ, जुगलकिशोर और मदनमोहन के मन्दिरों का निर्माण हुआ।[1] सनातन गोस्वामी गौड़ीय गोस्वामियों में श्रेष्ठ थे। संभवत: इसलिये कुछ विद्वानों ने इस घटना को मुख्य रूप से उनसे जोड़ा है।[2] सनातन गोस्वामी से अकबर बादशाह की भेंट को स्वीकार तभी किया जा सकता है, जब 1572 में सनातन गोस्वामी जीवित रहे हों, जिसकी सम्भावना बहुत कम जान पड़ती है। डॉ. सुकुमार सेन[3] श्रीसतीशचन्द्रमित्र[4] और डॉ. जाना का[5] मत है कि सनातन गोस्वामी का तिरोभाव सन् 1554 में हुआ। पर डॉ. दिनेशचन्द्रसेन ने Th: Vaishnava literature of Mediaeval Bengal (p.39) में लिखा है कि उनका तिरोभाव 1591 में हुआ। डॉ. राधागोविन्दनाथ ने भी चैतन्य-चरितामृत की भूमिका (4र्थ सं, पृ0 26) में लिखा है कि उनका तिरोभाव सन् 1591 में हुआ।

यदि डॉ. सेन और डॉ. राधागोविन्दनाथ का मत स्वीकार किया जाये तो सनातन गोस्वामी की आयु 120-124 वर्ष के लगभग मान्य होगी। यह असम्भव नहीं है। भजन-निष्ठ महात्माओं की अवसत आयु साधारण लोगों की आय से कही अधिक होती है। लेखक द्वारा प्रणीत 'व्रज के भक्त'[6] पुस्तक से ज्ञात हुआ कि व्रज के अर्वाचीन सिद्ध महात्मा भी दीर्घायु हुए हैं और 100 से अधिक वर्ष की आयु उनमें से कईयों की हुई है। पर सनातन गोस्वामी 120-124 वर्ष तक जीवित रहें इसकी संभावना बहुत कम ही जान पड़ती है। कारण यह है कि 1554 ई. में रचित वृहद वैष्णवतोषणी उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना हैं। यदि वे 1592 तक जीवित रहे होते तो उन्होंने 1554 के पश्चात् भी कुछ ग्रन्थों की रचना अवश्य की होती।

सनातन गोस्वामी का तिरोभाव

रूप गोस्वामी का तिरोभाव सनातन गोस्वामी के तिरोभाव के एक महीने पीछे हुआ, यह सर्वविदित है। आषाढ़ी पूर्णिमा को सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ, श्रावणी शुक्ल द्वादशी को रूप गोस्वामी का। यदि यह माना जाये कि सनातन गोस्वामी का तिरोभाव 1592 में हुआ, तो रूप गोस्वामी का तिरोभाव भी उसी वर्ष मानना होगा। रूप गोस्वामी भी कोई रचना 1514 के बाद की नहीं हैं। यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि दोनों भाई, जिन्होंने 1514 तक अपना सारा जीवन महाप्रभु द्वारा आदिष्ट ग्रन्थ-रचना और तीर्थोद्धार के कार्यों में लगाया 1514 के पश्चात् सहसा इस ओर से उदासीन हो गये और दोनों ने जीवन के शेष 35 वर्षों में कुछ भी न लिखने का संकल्प कर अपनी लेखनी को सदा के लिये विश्राम दे दिया। जीवगोस्वामी के 'माधव महोत्सव' में एक श्लोक है, जिसमें सनातन गोस्वामी के तिरोभाव का वर्णन है। माधव-महोत्सव का रचना काल सन् 1515 है। इससे स्पष्ट है कि उनका तिरोभाव 1554-55 में हुआ। श्लोक इस प्रकार है:-

अंघ्रि युग्ममिह सार-सारसस्पर्द्धि मूर्द्धनि दधातु मामके।

य: सनातनतया स्म विन्दते वृन्दकावनममन्द-मन्दिरम्॥9/3॥

अर्थात् जिन्होंने सनातन-नाम से सुविख्यात हो श्रीमन्महाप्रभु की कृपा से महानिकुंज मन्दिर भूषित श्रीवृन्दावन धाम को चिरवास्तव रूप से प्राप्त किया- वही श्रीसनातन गोस्वामी मेरे सिर पर अपने सुन्दर पद्मविजयी चरण-युगल स्थापित करें।[7]

डॉ. राधागोविन्दनाथ का मत

डॉ. राधागोविन्दनाथ ने इस सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है-"कोई-कोई कहते हैं कि शक सम्वत् 1480 में सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ, परन्तु यह विश्वास योग्य नहीं। कारण शक सम्वत् 1495 में भी वे प्रकट थे, इसका इतिहास साक्षी है। सन् 1573 (शक सम्वत् 1595) में मुग़ल सम्राट अकबर शाह ने वृन्दावन जाकर उनसे साक्षात् किया, यह इतिहास प्रसिद्ध घटना है।"

"पहले ही कहा जा चुका है कि शक सम्वत् 1512 में रूप-सनातन के तत्वावधान में महाराज मानसिंह द्वारा गोविन्ददेव का मन्दिर का निर्माण हुआ। इससे जाना जाता है कि शकाब्द 1512 में वे प्रकट थे और शकाब्द 1514 के वैशाख मास में, जब श्रीनिवास वृन्दावन पहुँचे, तब वे अप्रकट हो चुके थे। इसलिए 1512 और 1514 के बीच ही उनका तिरोभाव हुआ होगा।"

निवासाचार्य का वृन्दावन आगमन

सन् 1573 में अकबर ने सनातन गोस्वामी से भेंट की, इसके प्रमाण में डॉ. राधागोविन्दनाथ ने ग्राउस का सहारा लिया है। ग्राउस ने कहीं यह नहीं लिखा कि अकबर ने सनातन गोस्वामी से भेंट की। इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा है, उसे हमने ऊपर उद्धृत किया है। उसमें उन्होंने केवल यह कहा है कि अकबर ने गौड़ीय गोस्वामियों से भेंट की। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि रूप-सनातन के अप्रकाट्य के पश्चात् उसने लोकनाथ गोस्वामी, भूगर्भ गोस्वामी और जीव गोस्वामी आदि से भेंट की, जो उस समय प्रकट थे। गोविन्ददेव के मन्दिर का मानसिंह द्वारा निर्माण रूप-सनातन के रहते उनके सत्वावधान में किया गया, इसे भी राधागोविन्दनाथ ने मुख्य रूप से इतिहास-प्रसिद्ध घटना के रूप में ही लिया है। प्रमाण में भक्तिरत्नाकर और प्रेम विलास के आधार पर केवल यह कहा है कि श्रीनिवासाचार्य की जीव गोस्वामी से प्रथम भेंट गोविन्ददेव के मन्दिर में हुई सनातन गोस्वामी के अप्राकट्य के कुछ ही महीने बाद और मन्दिर का निर्माण हुआ सन् 1590 में, जिसका अर्थ यह होता है कि 1590 के बाद और श्रीनिवासाचार्य के वृन्दावन आगमन के पूर्व तक सनातन गोस्वामी जीवित रहे। श्रीनिवासाचार्य 1590 के बाद ही वृन्दावन गये, क्योंकि गोविन्ददेव का नया मन्दिर बन जाने के बाद उस मन्दिर में जीव गोस्वामी से भेंट हुई। श्रीनिवासचार्य की गोविन्ददेव के नये मन्दिर में ही भेंट हुई इसका उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। भक्तिरत्नाकर में गोविन्ददेव मन्दिर में इस भेंट का उल्लेख है, पर भेंट नये मन्दिर में हुई या पुराने में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है।

यदि यह मान भी लिया जाय कि सनातन गोस्वामी सन् 1573 के बाद तक जीवित थे और अकबर बादशाह से उनकी भेंट हुई, तो यह विश्वसनीय नहीं जान पड़ता कि उन्होंने अकबर को दिव्य वृन्दावन दर्शन कराये। इस प्रकार की एक किंवदंती श्रीहरिदास गोस्वामी के सम्बन्ध में भी प्रचलित है। कहां जाता है कि अकबर ने जब स्वामीजी से कोई सेवा स्वीकार करने का आग्रह किया तो उसे बिहारीघाट ले गये, जहाँ उसे दिव्य वृन्दावन के घाट के दर्शन कराने। घाट की प्रत्येक सीढ़ी एक ही विशाल रत्न की बनी थी। एक सीढ़ी में थोड़ा नुक्स दिखाते हुए उन्होंने अकबर से उसे बदलवा देने को कहा। पर यह अकबर बादशाह की सामर्थ्य के बाहर था।[8]दोनों के सम्बन्ध में यह किंवदंतियाँ काल्पनिक ही कही जा सकती हैं, क्योंकि ये भक्ति-सिद्धानत के विपरीत हैं। भक्ति-सिद्धान्त के अनुसार वृन्दावन धाम स्वरूपत: धामी श्रीकृष्ण से अभिन्न है और उसके दर्शन प्रेम-चक्षु से ही किये जा सकते हैं, जो अकबर के पास नहीं थे। यदि माना जाय कि इन महाप्ररुषों ने अपनी शक्ति से उसे प्रेम-चक्षु प्रदान किये, तो उसके व्यक्तित्व में तत्काल आमूल परिवर्तन हो जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ।

भागवत-धर्म का पुनरोद्धार

प्राचीन भक्तिशास्त्रों का संग्रह और नये ग्रन्थों के निर्माण का कार्य भी सनातन गोस्वामी बड़ी लगन के साथ करते रहे। धीरे-धीरे रूप गोस्वामी के अतिरिक्त श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथदास गोस्वामी, श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी और श्रीजीव गोस्वामी भी उनसे आ मिले और जुट गये उनके साथ तीर्थों और भक्ति-शास्त्रों को पुनर्जीवित करने के महान् प्रयास में। इनमें से प्रत्येक त्याग, तितिक्षा, वैराग्य शास्त्रज्ञान और भक्ति- साधना का महान् आदर्श था। इनके सहयोग से सनातन गोस्वामी उत्तर भारत के आध्यात्मिक जीवन में एक नयी क्रान्ति लाने में समर्थ हुए। उन्होंने स्वयं तो महत्त्वपूर्ण आकर-ग्रन्थों की रचना की ही, इनके द्वारा अपनी देख-रेख में बहुत से भक्ति-ग्रन्थों की रचना करवाकर वैष्णव-साहित्य की जैसी अभिवृद्धि की वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। वैष्णव-धर्म के पुनरोद्धार में और उसकी भक्ति को आगे के लिए सुदृढ़ करने में गौड़ीय गोस्वामियों का सबसे बड़ा हाथ है। यह कार्य कितना दुष्कर था, इसका अनुमान वैष्णव इतिहास के गवेषक श्री सतीशचन्द्र मित्र के इस वक्तव्य से लगाया जा सकता है-

"षोडश शताब्दी के प्रथम भाग में गौड़ीय गोस्वामियों ने धर्म को लेकर जो देशव्यापी तुमुल आन्दोलन छेड़ा, उसका प्रवाह के शताब्दी के बाद हो पाता, कौन जाने? कारण बंगदेश के शक्ति शाली और समृद्धशाली लोग और बंगीय समाज में कुलीन कहलाने वाले लोग-ब्राह्मण, कायस्थ, वैद्य प्रभृति अधिकतर शाक्त-मतावलम्बी और गौड़ीय-वैष्णवमत के घोर शत्रु थे। जो ब्राह्मणगण पांडित्य-प्रतिभा और वंश- परम्परा के कारण सर्वत्र ख्याति-सम्पन्न थे और जिनका धर्म साधना की अपेक्षा आचार-निष्ठा में अधिक आग्रह था, वे सभी इस नवीन मत को अनाचरणीय और अशास्त्रीय कह कर इसकी उपेक्षा करते थे।"

विशुद्ध भक्ति-धर्म का उपदेश

महाप्रभु जानते थे कि शास्त्रों में आस्था रखने वाले और शब्द प्रमाण को ही सर्वोच्च मानने वाले पंडितों के इस देश में किसी धर्म की स्थापना तब तक नहीं की जा सकती, जब-तक उस धर्म का विरोध करने वाले व्यक्तियों के धर्मध्वजी नेताओं को शास्त्रार्थ में परास्त न किया जाय। वे यह भी जानते थे कि केवल भाव की भित्ति पर खड़ा किया गया धर्म बहुत दिन टिक नहीं सकता। उसके लिए चाहिए शास्त्र-प्रमाण और तर्कसंगत युक्तियों की सृदृढ़ भित्ति। पहला काम तो उन्होंने सव्यं ही किया। सार्वभौम भट्टाचार्य और प्रकाशानन्द सरस्वती जैसे देशविख्यात वेदान्तियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर अपने धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। उसे शास्त्र-सम्मत सिद्ध करने का काम अपने रूप-सनातन जैसे योग्य भक्तों पर छोड़ दिया। उन्हें विशुद्ध भक्ति-धर्म का उपदेश कर तदनुसार ग्रन्थों की रचना का आदेश दिया। साथ ही यह आज्ञा दी कि वे जो कुछ लिखे, उसकी पुष्टि शास्त्र वाक्यों से अवश्य करें। ऐसा कुछ भी न लिखें, जिसकी प्रामणिकता वे शास्त्र-वाक्यों के आधार पर सिद्ध न कर सकें। विशेष रूप से उन्होंने श्रीमद्भागवत को सर्वश्रेष्ठ प्रमाण मानकर उसी का अनुसरण करने का उपदेश किया, क्योंकि उनके अनुसार श्रीमद्भागवत वेदव्यास के ब्रह्मसूत्र का अपना ही भाष्य था और इसलिए सब शास्त्रों का सार था।

सच तो यह है कि महाप्रभुने स्वतंत्र रूप से किसी धर्म का प्रचार नहीं किया। उन्होंने श्रीमद्भागवत के धर्म को ही अपना धर्म माना[9] और उसी के श्लोक उद्धृत करते हुए विशुद्ध भागवत धर्म का अपने धर्म के रूप में प्रचार करने का रूप-सनातन को आदेश दिया। रूप-सनातन ने जिस दक्षता के साथ इस कार्य को सम्पन्न किया, वह अतुलनीय है। डोर-कौपीनधारी परम विरक्त साधु के रूप में एकान्त-भजन में रत रहते हुए भी उन्होंने राशि-राशि ग्रन्थों की रचना और टीका, व्याख्यादि द्वारा गौड़ीय-वैष्णव धर्म को सुदृढ़ भित्तिपर स्थापित कर इसकी विजय-पताका फहराई। सनातन गोस्वामी के ग्रन्थों का परिचय हम आगे देंगे। यहाँ उनके जीवन से सम्बन्धित कुछ विशेष घटनाओं का उल्लेख करेंगे।

व्रज-परिक्रमा

सन 1533 में महाप्रभु के अप्राकट्य के पश्चात् रघुनाथदास गोस्वामी और बहुत-से भक्त गौड़ और उड़ीसा से आकर वृन्दावन में रहने लगे। उनके सहयोग से वैष्णव-धर्म के प्रचार का काम और भी तेज़ गति से चलने लगा। सनातन गोस्वामी ने चौरासी कोस व्रज की परिक्रमा की प्रा आरम्भ की। वे प्रति वर्ष सदलबल चौरासी कोस व्रज की परिक्रमा को जाया करते। उनका एक उद्देश्य होता गांव-गांव में जाकर भक्ति-धर्म का प्रचार करना। उनके असाधारण त्याग, वैराग्य, पांडित्य और मदनगोपाल के विशेष कृपा भाजन होने की ख्याति तो चारों ओर फैली थी ही, वे गौड़ीय-वैष्णव धर्म के प्रधान नेता और संरक्षक के रूप में भी भलीभाँति परिचित थे। वे जिस गाँव में भी जाते, वहाँ के लोग उनके आगमन का संवाद सुन पागल की तरह उनके पास दौड़े चले आते। उनके लिए तरह –तरह की खाद्य सामग्री लाकर उनकी सेवा करते। उनके दर्शन कर और उनके उपदेश सुन कृतार्थ होते। उनके आगमन के उपलक्ष्य में महोत्सवों का आयोजन करते। सनातन गोस्वामी अपनी मधुर-मूर्ति, मधुर-वचन और मधुर व्यवहार से सबके मन-प्राण हर लेते। वे सब जैसे सदा के लिए उनके हाथ बिक जाते। सनातन इस प्रकार विजयी सम्राट के समान परिक्रमा करते हुए लोगों के हृदय क्षेत्र पर अधिकार कर अपने साम्राज्य का विस्तार करते रहते। उनके द्वारा चलाई प्रतिवर्ष व्रज-परिक्रमा करने की परिपाटी गौड़ीय-वैष्णव समाज में आज तक चली आ रही है।

राधा-कृपा

नन्दगाँव के निकट कदम्बटेर है। वहाँ एक सुरम्य सरोवर के तटपर रूप गोस्वामी की भजन कुटी आज भी विद्यमान है। उसमें रहते समय एक बार उन्हें क्षोभ हुआ कि भजन करते-करते इतने दिन बीत गये, फिर भी राधारानी की कृपा न हुई। क्षोभ बढ़ता गया, विरहाग्नि तीव्र होती गयी। खाना-पीना दूभर हो गया। मधुकरी को जाना भी बन्द हो गया। संवाद मिला कि सनातन गोस्वामी आ रहे हैं उन्हें देखने। तब उनके मन वासना जागी कि कहीं से दूध मिलता तो खीर का भोग लगाकर उन्हें खिलाते। पर किसी से कुछ माँगने का तो उनका नियम था नहीं। खीर बनती कैसे? यह देख राधारानी का हृदय आलोड़ित हुआ। रूप गोस्वामी को दो दिन हो गये थे बिना अन्न-जल के। उन्हें सांत्वना देकर कुछ खिलाना था ही उन्हें। साथ ही पूर्ण करनी थी सनातन गोस्वामी को खीर खिलाने की उनकी वासना। एक साथ अपने दो प्रिय भक्तों की सेवा करने का अवसर उन्हें और कब मिलता? वे स्वयं आयीं व्रज-बालिका के रूप में रूप गोस्वामी के पास दूध लेकर और उनसे उसे ग्रहण करने का आग्रह किया।

दूध से जो खीर बनी उसके अप्राकृत स्वाद और गन्ध से सनातन गोस्वामी को कौतूहल हुआ। पूछने पर जब उन्हें सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, तब उन्होंने रूप से कहा-

"तुमने स्वयं निराहार रहकर और मुझे खीर खिलाने की वासना मन में लाकर राधारानी को कष्ट दिया। भक्त को कभी किसी प्रकार की वासना मन में न लाना चाहिए, न ही अकारण अनाहार करना चाहिए। दोनों अवस्थाओं में इष्ट को दु:ख होता। वह न भक्त की वासना पूर्ण किये बिना रह सकता है, न अनाहार को दूर किये बिना ऐसा करने के लिए उसे स्वयं कष्ट करना पड़ता है।"

चाटुपुष्पाञ्जलि की रचना

इस घटना का हमने यहाँ संकेत भर किया है। इसका विस्तार से वर्णन करेंगे रूप गोस्वामी के चरित्र में। राधारानी की सनातन गोस्वामी पर कितनी कृपा थी एक और घटना भी प्रकट है। श्रीरूप गोस्वामी ने 'चाटुपुष्पाञ्जलि' की रचना की। उसका प्रथम श्लोक देखकर सनातन गोस्वामी को कुछ संदेह हुआ। श्लोक इस प्रकार है-

नवगौरोचना गौरी प्रवरेन्दीवराम्बरां।

मणि स्तव कविद्योतिवेणी व्यालांगनाफणां॥[10]

"सनातन गोस्वामी को लगा कि श्लोक में राधारानी की वेणी की तुलना नागिन से करना ठीक नहीं। महाभावमय राधारानी के केश भी सच्चिदानन्द-स्वरूप और महाभावमय हैं। उनकी तुलना नागिन से करना अमृत की तुलना विषसे करना जैसा है। उसी दिन मधुकरी-भिक्षा से लौटते समय उन्होंने देखा कि राधासर के किनारे एक वृक्षपर झूला पड़ा है। उस पर आकाश में चंचल विद्युत के समान एक बालिका झूल रही है, सखियां झूला रही हैं। सहसा उसकी पीछ की ओर देखकर वे चीख पड़े-"लाली सांप, सांप, तेरी पीठ पर।"

इतना कह वे सांप को हटाने के लिए जैसे ही बालिका की ओर दौड़े बालिका उन्हें देखकर मुसकाई और सखियों सहित अन्तर्धान हो गयी। सनातन गोस्वामी समझ गये कि बालिका स्वयं राधारानी ही थीं। उन्होंने उन्हें यह अनुभव कराने को दर्शन दिये थे कि रूप गोस्वामी ने उनकी चोटी की उपमा नागिन से ठीक ही थी। सांप की तरह लफलफाती उनकी बेणी का दृश्य वे भूल नहीं पा रहे थे। उसमें जैसा आकर्षण था। उसे देख उन्हें बोध हो रहा था कि निश्चय ही उसे देख रसिकशेखर श्यामसुन्दर के मन में उनसे मिलने की व्याकुलता उन्हें विषधर सर्प के दर्शन का सा अनुभव कराती होगी।

उसी समय वे गये रूप गोस्वामी के पास। उनकी परिक्रमा और उनके चरणों की वन्दनाकर अपनी भूल स्वीकार करते हुए बोले-"रूप, तुम धन्य हो। राधारानी की तुम पर बड़ी कृपा है। तुम्हारे काव्य में कल्पनाका लेश भी नहीं है। तुम जो देखते हो उसी का वर्णन करते हो।"[11]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. -"On their arrival at Brindaban the first shrine which the Gossains erected was one in honour of eponymous Goddess Brinda Devi. Of this no Traces now remain, if (as some say) it stood in Seva Kunja, which is now a farge walled garden with a masonary tank near the Ras Mandal. Their fame spread so rapidly that in 1573 the Emperor Akbar was induced to pay them a visit and was taken blindfold into the secred inclosure of the Vrindavan, where such a marvellous vision was revealed to him that he was fain to acknowledge the place as indeed holy ground. The four temples, commenced in honour of this event, still remain, though in a ruinous and hitherto neglected condition. They bear the titles of Govinda Deva, Gopinath, Jugal Kishore and Madan Mohan” (District memoir of Mathura, 3rd Ed. p. 241
  2. मुरारीलाल अधिकारी वैष्णव दिग्दर्शनी, पृ0 97 हरिदास दास: गौड़ीय वैष्णव साहित्य, परिशिष्ट, पृ0 10
  3. बाला साहित्येर इतिहास, प्रथम खण्ड पूर्वाध, 3य सं, पृ0 286
  4. सप्तगोस्वामी, पृ0 128
  5. वृन्दावनेर छय गोस्वामी, पृ0 65
  6. यह ग्रन्थ श्रीकृष्ण-जन्मस्थान-सेवा संस्थान से 5 खण्डों में प्रकाशित है।
  7. पक्षान्तर में इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है- जिन्होंने सनातन-रूप से (सदा के लिए) सुमहान (निंकुज) मन्दिर-मण्डित वुन्छावन लाभ किया है, (अर्थात् जो वृन्दावन त्यागकर कभी कही नहीं जाते) वही श्रीकृष्ण मेरे मस्तक पर अपने अत्युकृष्ट कमल-विनिन्दी पादमद्म स्थापित करें। पर स्पष्ट है कि यह श्लोक का सरल और सीधा अर्थ नहीं है।
  8. इस किंवदंती को ग्राउस ने श्रीस्वामी हरिदास के किसी अनुयायी द्वारा लिखित 'भक्ति-सिन्धु' नामक ग्रन्थ से अपने Mathura Memoir (p.220) में उद्धृत किया है।
  9. भगवते कहे मोर तत्त्व अभिमत।(चैतन्य-भागवत 2/21/17
  10. -हे वृन्दावनेश्वरी! मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ। तुम अभिनव गोरोचन के समान गौरांगी हो। सुन्दर नीलपद्म के समान तुम्हारे वस्त्र हैं। तुम्हारी लम्बी बेणी, जिसके ऊपर मणिरत्न खचित कवरी बन्ध है, फणयुक्त नागिन के समान लगती है।
  11. भक्तिरत्नाकर, पंचम तरंग, 754-765 प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है- कही व्याली रूप बैनी, निरखि सरूप नैन,
    जानी श्रीसनातन जू काव्य अनुसारिये।
    'राधासागर' तीर दुम डार गहि झूलैं,
    फूलै देखत लफलफात गति मति बारिये॥
    आये यों अनुज पास, फिरै आस-पास।
    देखि भयौ अति त्रास, गहे पाऊँ उर धारियै॥
    चरित अपार उभै भाई हितसार पगे,
    जगे जग माहिं, मति मन मैं उचारियै॥ (भक्ति-रस-बोधिनी, 363

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