सप्तपदी

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सप्तपदी

सप्तपदी हिन्दू धर्म में विवाह संस्कार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसमें वर उत्तर दिशा में वधु को सात मंत्रों के द्वारा सप्त मण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है। इस क्रिया के समय वधु भी दक्षिण पाद उठाकर पुन: वामपाद मण्डलिकाओं में रखती है। विवाह के समय सप्तपदी क्रिया के बिना विवाह कर्म पक्का नहीं होता है। अग्नि की चार परिक्रमाओं से यह कृत्य अलग है। जिस विवाह में सप्तपदी होती है, वह 'वैदिक विवाह' कहलाता है। सप्तपदी वैदिक विवाह का अभिन्न अंग है। इसके बिना विवाह पूरा नहीं माना जाता। सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है।

अनिवार्य कर्म

हिन्दू धर्म में विवाह के समय फेरे इत्यादि समस्त आवश्यक कार्य पूर्ण हो जाने पर भी, जब तक कन्या वर के वाम भाग में नहीं आती, तब तक विवाह कार्य सम्पन्न नहीं होता तथा कन्या भी तब तक कुमारी ही कहलाती है। 'सप्तपदी' वैदिक विवाह का अभिन्न अंग है। इसके बिना विवाह पूरा नहीं माना जाता। सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है-

"यावत्कन्या न वामांगी तावत्कन्या कुमारिका"

जब तक कन्या वर के वामांग की अधिकारिणी नहीं होती, उसे कुमारी ही कहा जाएगा। चाहे माता-पिता कन्यादान भी कर दें, भाई लाजा होम भी करवा दें, पाणिग्रहण संस्कार भी हो जाए, लेकिन जब तक सप्तपदी नहीं होती, तब तक वर और कन्या पति-पत्नी नहीं बनते। वैदिक विवाह में अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया गया है। जब तक सप्तपदी के सातों वचन पूरे नहीं हो जाते और कन्या वर के वाम अंग में नहीं बैठ जाती, तब तक विवाह पूरा माना ही नहीं जाएगा। आधुनिक विचारधारा के लोग चाहे इसे दिखावा ही क्यों न कहें, लेकिन उन्हें भी ये जान कर हैरानी होगी कि इसमें दोनों बराबर हैं और सातवें पद के बाद दोनों सखा बन जाते हैं। दुनिया की किसी विवाह पद्धति में ऐसा बराबर का रिश्ता नहीं है।

सात वचन

विवाह एक ऐसा अवसर होता है, जब दो इंसानों के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। भारतीय विवाह में विवाह की परंपराओं में सात फेरों का भी एक चलन है, जो सबसे मुख्य रस्म होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिन्दू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी जीवन भर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही 'हिन्दू विवाह' की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं।[1]

सप्तपदी में सात फेरे

प्राचीन काल से ही भारत में विवाह के समय सात वचनों का हिन्दू समाज में बहुत अधिक प्रभाव रहा है। यह सात वचन वर-वधू को सुखी दाम्पत्य जीवन की ओर प्रेरित करते हैं। कन्या का विवाह करते समय किसी भी माता-पिता के मन में यह आशंका तो रहती ही है कि विवाह के पश्चात् उनकी पुत्री का जीवन कैसा व्यतीत होगा? ससुराल में उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? माता-पिता की इसी आशंका को दूर करने के लिए ही युगों पूर्व ऋषि-मुनियों द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई, जिससे विवाह के पश्चात् भी कन्या को किसी कष्ट का सामना न करना पडे।[2]वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं। प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है। भले ही माता-पिता कन्या दान कर दें, भाई लाजा होम कर दे, किंतु विवाह की पूर्णता 'सप्तपदी' के पश्चात् तभी मानी जाती है, जब वर के साथ सात कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है। इसके लिए कन्या पति के वामांग में आने से पूर्व उससे निम्नलिखित सात वचन माँगती है-

पहला वचन

तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।

यहाँ कन्या वर से कहती है कि "यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान देना। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" हिन्दू धर्म में किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।

दूसरा वचन

पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम॥

कन्या वर से दूसरा वचन यह माँगती है कि "जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अक्सर देखने को मिलता है कि गृ्हस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्नहोने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।[2]

तीसरा वचन

जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं॥

उपरोक्त तीसरे वचन में कन्या वर से कहती है कि "आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं- 'युवावस्था', 'प्रौढावस्था', 'वृ्द्धावस्था' में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।"

चौथा वचन

कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं॥

चौथे वचन में कन्या वर से माँगती है कि- "अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह के बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।" इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति उसका ध्यान आकृ्ष्ट करती हैं। विवाह के पश्चात् कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृ्हस्थी भला कैसे चल पाएगी? इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वह अपने पैरों पर खडा हो और पर्याप्त मात्रा में धनार्जन और घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी उठाने की क्षमता रखता हो।[2]

पाँचवाँ वचन

स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या॥

इस वचन में कन्या वर से जो कहती है, वह आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। कन्या कहती है कि- "अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत-से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नि से सलाह करना भी आवश्यक नहीं समझते। यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नि से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नि का सम्मान तो बढता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।

छठा वचन

न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम॥

इस वचन में कन्या कहती है कि- "यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ, तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह के पश्चात् कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा-जरा सी बात पर सबके सामने पत्नि को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नि का मन आहत होता है। यहाँ पत्नि चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डाँटे, किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वह किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।[2]

सातवाँ वचन

परस्त्रियं मातृ्समां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या॥

इस अन्तिम वचन के रूप में कन्या वर माँगती है कि- "आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार नहीं बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" विवाह के पश्चात् यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध कर पगभ्रष्ट हो जाता तो उसकी गृहस्थी बर्बाद हो जाती है। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।

ईश्वर को साक्षी मानकर किए गए इन सप्त संकल्प रूपी स्तम्भों पर सुखी गृ्हस्थ जीवन का भार टिका हुआ है। यही सातों वचन दाम्पत्य सम्बन्धों को सुदृड आधार प्रदान करते हैं। कभी जिस समय यह व्यवस्था बनाई गई होगी, उस युग में पुरुष दिए गए वचनों को पूरी तरह से निभाने को संकल्पशील होता होगा। विवाह के पश्चात् पत्नि की समस्त आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ उसकी अस्मिता तथा गरिमा की रक्षा का दायित्व भी पति का ही होता है। इसलिए सभी सातों वचन भी पति से ही लिए जाते हैं ताकि वह पत्नि का पूर्ण रूप से ध्यान रख सके। पति भी जी जान से अपने वचनों को निभाता है। इस कारण दाम्पत्य सम्बंधों में भी मधुरता, प्रेम, अनुराग, समर्पण आदि देखने को मिलता है।[2]

संख्या सात ही क्यों

हिन्दू विवाह में 'सप्तपदी' के समय अग्नि के सात फेरे तथा वर-वधु द्वारा सात वचन ही क्यों निर्धारित किए गए हैं? इनकी संख्या सात से कम या अधिक भी हो सकती थी। ध्यान देने योग्य बात है कि 'भारतीय संस्कृति' में सात की संख्या मानव जीवन के लिए बहुत विशिष्ट मानी गई है। वर-वधु सातों वचनों को कभी न भूलें और वे उनकी दिनचर्या में शामिल हो जाएँ। ऐसा माना जाता है, क्योंकि वर्ष एवं महीनों के काल खंडों को सात दिनों के सप्ताह में विभाजित किया गया है। सूर्य के रथ में सात घोड़े होते हैं, जो सूर्य के प्रकाश से मिलने वाले सात रंगों में प्रकट होते हैं। आकाश में इंद्रधनुष के समय वे सातों रंग स्पष्ट दिखाई देते हैं। दांपत्य जीवन में इंद्रधनुषी रंगों की सतरंगी छटा बिखरती रहे, इस कामना से 'सप्तपदी' की प्रक्रिया पूरी की जाती है। 'मैत्री सप्तपदीन मुच्यते' अर्थात 'एक साथ सिर्फ़ सात कदम चलने मात्र से ही दो अनजान व्यक्तियों में भी मैत्री भाव उत्पन्न हो जाता है।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सप्तपदी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 30 मई, 2013।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 सुखी दाम्पत्य जीवन का आधार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 30 मई, 2013।

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