सेनापति

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सेनापति अनूपशहर के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम 'गंगाधार', पितामह का 'परशुराम' और गुरु जी का नाम 'हीरामणि दीक्षित' था। सेनापति का जन्मकाल संवत 1646 के आसपास माना जाता है। अन्य प्राचीन कवियों की भाँति सेनापति का जीवनवृत संदिग्ध है।

  • सेनापति भक्ति काल एवं रीति काल के सन्धि युग के कवि हैं। इनकी रचनाओं में हिन्दी साहित्य की दोनों धाराओं का प्रभाव पड़ा है जिसमें भक्ति और श्रृंगार दोनों का मिश्रण है।
  • इनके ऋतु वर्णन में प्रकृति वर्णन है जो साहित्य में अद्वितीय है। सेनापति बहुत सहृदय कवि थे। इनके समान 'ऋतु वर्णन' किसी श्रृंगारी कवि ने नहीं किया है। इनके 'ऋतु वर्णन' में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण पाया जाता है।
  • सेनापति का पद विन्यास भी ललित है। कहीं कहीं विरामों पर अनुप्रास का निर्वाह और यमक का चमत्कार भी अच्छा है।
  • ये अपने समय के बहुत ही भावुक और निपुण कवि थे। रीतिकालीन कवियों में सेनापति का ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है। सेनापति नाम से बोध होता है कि यह वास्तविक नाम न होकर उपनाम ही रहा होगा। सेनापति का वास्तविक नाम अब तक ज्ञात नहीं हो पाया है।[1] अपना परिचय इन्होंने स्वयं इस प्रकार दिया है -

दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम,
जिन कीन्हें जज्ञ, जाकी विपुल बड़ाई है।
गंगाधार पिता गंगाधार के समान जाके,
गंगातीर बसति 'अनूप' जिन पाई है
महा जानमनि, विद्यादान हू में चिंतामनि,
हीरामनि दीक्षित तें पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दै सुनत कविताई है

  • इनकी गर्वोक्तियाँ खटकती नहीं, उचित जान पड़ती हैं। अपने जीवन के अंतिम समय में ये संसार से कुछ विरक्त हो चले थे। मुस्लिम दरबारों में भी इनका अच्छा मान रहा, क्योंकि अपनी विरक्ति की झोंक में इन्होंने कहा है -

केतो करौ कोइ, पैए करम लिखोइ, तातें,
दूसरी न होइ, उर सोइ ठहराइए।
आधी तें सरस बीति गई है बरस, अब
दुर्जन दरस बीच रस न बढ़ाइए
चिंता अनुचित, धारु धीरज उचित,
सेनापति ह्वै सुचित रघुपति गुन गाइए।
चारि बर दानि तजि पायँ कमलेच्छन के,
पायक मलेच्छन के काहे को कहाइए

  • 'शिवसिंह सरोज' में लिखा है कि बाद में इन्होंने सन्न्यास ले लिया था। इनके भक्तिभाव से पूर्ण अनेक कवित्त 'कवित्त रत्नाकर' में मिलते हैं -

महा मोहकंदनि में जगत जकंदनि में,
दिन दुखदुंदनि में जात है बिहाय कै।
सुख को न लेस है, कलेस सब भाँतिन को;
सेनापति याहीं ते कहत अकुलाय कै
आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं,
डारौं लोकलाज के समाज विसराय कै।
हरिजन पुंजनि में वृंदावन कुंजनि में,
रहौं बैठि कहूँ तरवर तर जाय कै

  • इस कवित्त में वृंदावन का नाम आया है, पर इनके उपास्य राम ही जान पड़ते हैं क्योंकि स्थान स्थान पर इन्होंने 'सियापति', 'सीतापति', 'राम' आदि नामों का ही स्मरण किया है। 'कवित्त रत्नाकर' इनका सबसे बाद का ग्रंथ जान पड़ता है क्योंकि उसकी रचना संवत 1706 में हुई है। उन्होंने स्वयं ही लिखा है -

संवत् सत्रह सै छ में, सेइ सियापति पाय।
सेनापति कविता सजी सज्जन सजौ सहाय

  • इनका एक ग्रंथ 'काव्यकल्पद्रुम' भी प्रसिद्ध है।
  • इनकी कविता बहुत ही मर्मस्पर्शी, प्रौढ़ और प्रांजल है। जहाँ एक ओर इनमें पूरी भावुकता थी वहीं दूसरी ओर चमत्कार लाने की पूरी निपुणता भी थी। श्लेष का ऐसा उदाहरण शायद ही और कहीं मिले -

नाहीं नाहीं करै, थोरो माँगे सब दैन कहै,
मंगन को देखि पट देत बार बार है
जिनके मिलत भली प्रापति की घटी होति,
सदा सुभ जनमन भावै निराधार है
भोगी ह्वै रहत बिलसत अवनी के मध्य,
कन कन जोरै, दानपाठ परवार है
सेनापति वचन की रचना निहारि देखौ,
दाता और सूम दोउ कीन्हें इकसार है

सेनापति का ऋतु वर्णन अद्वितीय है -
वसंत ऋतु

बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु है।
बंदी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसंत रितुराज कहियतु है॥

ग्रीष्म ऋतु का वर्णन

वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥
सेनापति नैकु दुपहरी के ढरत, होत
धमका विषम, जो नपात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों
घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥

वर्षा ऋतु का वर्णन

दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की घमक अति घोर घनघोर तै।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित-तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै॥
सेनापति आवन कह्यों हैं मनभावन, सु
लाग्यो तरसावन विरह-जुर ज़ोर तै।
आयो सखि सावन, मदन सरसावन
लग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तै॥

शरद ऋतु का वर्णन

कातिक की रति थोरी-थोरी सियराति,
सेनापति है सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं॥
उदित विमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम कैसो जस अध-ऊरध गगन है।
तिमिर हरन भयो, सेत है बरन सबु,
मानहु जगत छीर-सागर मगन है॥

शिशिर ऋतु का वर्णन

सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहज गुनी,
रजनी की झाँईं वासर में झलकति है॥
चाहत चकोर सूर ओर दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होत मोद है कुमुदिनी को,
ससि संक पंकजनी फूलि न सकति है॥[2]

  • भाषा पर ऐसा अच्छा अधिकार कम कवियों का देखा जाता है। इनकी भाषा में बहुत कुछ माधुर्य ब्रजभाषा का ही है, संस्कृत पदावली पर अवलंबित नहीं। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पाई है। इनके 'ऋतुवर्णन' के अनेक कवित्त बहुत से लोगों को कंठस्थ हैं। रामचरित्र संबंधी कवित्त भी बहुत ही ओजपूर्ण हैं। -

बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ,
धरत बहुत भाँति अरथ समाज को।
संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामैं,
राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को
सुनौ महाजन! चोरी होति चार चरन की,
तातें सेनापति कहै तजि उर लाज को।
लीजियो बचाय ज्यों चुरावै नाहिं कोउ, सौंपी
वित्ता की सी थाती में कवित्तन के ब्याज को

वृष को तरनि, तेज सहसौ करनि तपै,
ज्वालनि के जाल बिकराल बरसत है।
तचति धारनि जग झुरत झुरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत है
सेनापति नेक दुपहरी ढरकत होत
धामका विषम जो न पात खरकत है।
मेरे जान पौन सीरे ठौर को पकरि काहू
घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है

सेनापति उनए नए जलद सावन के
चारिहू दिसान घुमरत भरे तोय कै।
सोभा सरसाने न बखाने जात कैहूँ भाँति
आने हैं पहार मानो काजर के ढोय कै
घन सों गगन छप्यो, तिमिर सघन भयो,
देखि न परत मानो रवि गयो खोय कै।
चारि मास भरि स्याम निसा को भरम मानि,
मेरे जान याही तें रहत हरि सोय कै

दूरि जदुराई सेनापति सुखदाई देखौ,
आई ऋतु पावस न पाई प्रेमपतियाँ।
धीर जलधार की सुनत धुनि धारकी औ,
दरकी सुहागिन की छोहभरी छतियाँ
आई सुधि बर की, हिए में आनि खरकी,
सुमिरि प्रानप्यारी वह प्रीतम की बतियाँ।
बीती औधि आवन की लाल मनभावन की,
डग भई बावन की सावन की रतियाँ

बालि को सपूत कपिकुल पुरहूत,
रघुवीर जू को दूत धरि रूप विकराल को।
युद्ध मद गाढ़ो पाँव रोपि भयो ठाढ़ो,
सेनापति बल बाढ़ो रामचंद्र भुवपाल को

कच्छप कहलि रह्यो, कुंडली टहलि रह्यो,
दिग्गज दहलि त्रास परो चकचाल को।
पाँव के धारत अति भार के परत भयो,
एक ही परत मिलि सपत पताल को

रावन को बीर, सेनापति रघुबीर जू की
आयो है सरन, छाँड़ि ताहि मदअंधा को।
मिलत ही ताको राम कोप कै करी है ओप,
नाम जोय दुर्जनदलन दीनबंधा को।
देखौ दानवीरता निदान एक दान ही में,
दीन्हें दोऊ दान, को बखानै सत्यसंध को।
लंका दसकंधार की दीनी है विभीषन को,
संका विभीषन की सो दीनी दसकंधा को

सेनापति जी के भक्ति प्रेरित उद्गार भी बहुत अनूठे और चमत्कारपूर्ण हैं। आपने करम करि हौं ही निबहौंगे तौ तौ हौं ही करतार, करतार तुम काहे के? वाला प्रसिद्ध कवित्त इन्हीं का है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रीतिकाल के कवि सेनापति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 5 मई, 2011।
  2. सेनापति का ऋतु वर्णन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 5 मई, 2011।

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