स्वर्णकिरण -सुमित्रानन्दन पंत

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स्वर्णकिरण -सुमित्रानन्दन पंत
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कवि सुमित्रानन्दन पंत
मूल शीर्षक स्वर्णकिरण
प्रकाशन तिथि 1947 ई.
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकार काव्य संकलन
विशेष इसमें 38 रचनाएँ संग्रहीत हैं। इन रचनाओं में अंतिम दो रचनाओं 'स्वर्णोदय' और 'अशोकवन' का आधुनिक हिन्दी काव्य में अपना निश्चित स्थान है।

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स्वर्णकिरण सुमित्रानन्दन पंत का आठवाँ काव्य संकलन है, जिसका प्रकाशन 1947 ई. में हुआ था। स्वर्णकिरण में 38 रचनाएँ संग्रहीत हैं। इन रचनाओं में अंतिम दो रचनाओं 'स्वर्णोदय' और 'अशोकवन' का आधुनिक हिन्दी काव्य में अपना निश्चित स्थान है। दोनों लम्बी रचनाएँ हैं। 'स्वर्णोदय' मानव-शिशु के जन्म, विकास, प्रौढ़त्व और अवसान की सम्पूर्ण जीवनगाथा है। इसे उत्तर रचनाओं में वही स्थान प्राप्त होना चाहिये, जो किशोर रचनाओं में 'परिवर्त्तन' को प्राप्त है। 'अशोकवन' में 19 प्रगीत हैं, जिनमें अधिकांश सम्बोधिगीत कहे जा सकते हैं। इन प्रगीतों में रामकथा के माध्यम से चेतनावाद की प्रतीकात्मक व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। शेष रचनाओं को हम कई वर्गों में रख सकते हैं। सच तो यह है कि यह संकलन उत्तर पंत के व्यक्तित्व का अन्य संकलनों की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर रूप में प्रतिनिधित्व करता है। सुविधा की दृष्टि से संकलन की रचनाओं को चेतनावादी (अरविन्दवादी), प्रकृतिवादी, प्रशस्तिमूलक और व्यंग्य रचनाओं के शीर्षक दे सकते हैं। परंतु सभी रचनाओं में कवि की नूतन जीवन दृष्टि, उसका नया अध्यात्मवाद और नवीन जीवनोल्लास दृष्टिगत होता है। छन्दों की भूमि प्रयोगात्मक न होकर भी नयी भावाभिव्यंजना में समर्थ है।

चेतनावादी रचनाएँ

चेतनावादी रचनाओं की शीर्षमणि 'श्री अरविन्द दर्शन' शीर्षक रचना है। इस रचना में कवि योगी अरविन्द के साक्षात्कार से उत्पन्न व्यक्तिगत प्रभाव को ऊर्ध्व चेतना का रूप दे देता है। उन्हें दिव्य जीवन का दूत मानकर कवि तन, मन, प्राण, हृदय समर्पित करता है। उसके अनुसार युग-युग के पूजन-आराधन, जप-तप और शास्त्र अरविन्द की साधना और वाणी के कृतार्थ हो उठे हैं। वह उनमें अवतारी दैवत्व की कल्पना करता है और उन्हें ब्रह्मविद्या का ज्योतिस्तम्भ मानकर उनकी प्रशस्ति गाता है।

प्रकृतिवादी रचनाएँ

संकलन की दूसरी कोटि प्रकृतिवादी रचनाओं की है, जहाँ कवि की प्रकृतिचेतना 'पल्लव', गुंजन' और 'ग्राम्या' की तीन संस्थानक भूमियों को छोड़कर नयी आध्यात्मिक भूमि पर संचरण करती है। फलतः प्राकृतिक सौन्दर्य उसके लिए आत्मिक सौन्दर्य का प्रतिनिधि और भविष्यकल्पी समाजचेतना तथा जीवन-संस्कार का प्रतीक बन जाता है। इन रचनाओं में न गहरे ऐन्द्रिक रंगों की चटुलता है, न मंगलाकांक्षी आत्मा की प्रसन्नचेतना मात्र, न विवरणात्मक वस्तुचित्रण, जो बौद्धिक चेतना का प्रसार हो। इसके विपरित इन प्राकृतिक रचनाओं में आत्म और परकी सीमाएँ नष्ट हो गयी हैं और प्रकृति तथा मानव एक ही दैवी चेतना से ओतप्रोत अधिमानसी भूमिका मात्र जान पड़ते हैं। इन रचनाओं की शब्दावली और भाव-चयन पर कवि के वैदिक अध्ययन, प्रमुखतः उषा सबन्धी ऋचाओं का प्रभाव भी लक्षित है। कवि बार-बार 'पल्लव' की प्रचुर कल्पना और भावपूर्ण सौन्दर्य भूमि की ओर लौटता है, जिससे वायवीय और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक होने पर भी इन रचनाओं में पर्याप्त मांसलता आ गयी है। 'हिमाद्रि' शीर्षक रचना इस संकलन की सर्वश्रेष्ठ प्रकृति-कविता कही जा सकती है क्योंकि उसमें हिमालय का वस्तु-सौन्दर्य कवि की चेतना के भाव-सौन्दर्य और अतिमानवीय सजगता का प्रतिरूप बन गया है। 'पूषण' 'चन्द्रोदय', 'मत्स्यगन्धाएँ' इत्यादि रचनाएँ प्राकृतिक सन्दर्भों को लेकर एक नये अतीन्द्रिय भाव-जगत् की सृष्टि करती हैं, जहाँ सभी सुन्दर, आत्मिक तथा अतिमानसीय बनकर चमत्कारी हैं।

प्रशस्तिमूलक रचनाएँ

प्रशस्तिमूलक रचनाएँ नोआखाली के महात्मा जी और पण्डित जवाहर लाल नेहरू के प्रति हैं, जिन्हें कवि ने अपनी नवीन चेतना से सम्बद्ध किया है। 'कौवे के प्रति' रचना कवि के उस समरसभाव की ओर संकेत करती है, जो निन्दनीय से भी रसग्रहण कर सकता है। इस रचना में कवि ने पक्षपात को कामना का मूल कहा है, जो समस्त दुखों का कारण है और काककण्ड में संतुलन और समरसत्त्व का पाठ पढ़ा है।

सर्वश्रेष्ठ रचना 'स्वर्णोदय'

'स्वर्णोदय' को कवि ने 'जीवन-सौन्दर्य' उपशीर्षक दिया है। मानव-जीवन के विकासमान आयामों में चिरंतन सौन्दर्य की अभिव्यंजना पाना ही रचना में कवि का उद्देश्य है। इसीलिए कवि बालक के जन्म से लेकर उसके पितामही जीवन तक सारा मनस्तत्त्व बड़ी सूक्ष्म और पैनी दृष्टि से पकड़ता है और वर्द्धमान जीवन चेतना के उस धाराप्रवाह को रूपायित करता है, जो विविध जीवनस्थितियों में अंतरंगी मणिसूत्र की तरह पिरोया हुआ है। यह अकेली रचना आधुनिक हिन्दी कविता की प्रौढ़ता का प्रतिनिधित्त्व कर सकती है। पंत की रचनाओं में इसका स्थान सर्वश्रेष्ठ रहेगा। प्रौढ़ जीवनानुभूति, संतुलित जीवनदर्शन और दार्शनिक ऊहा की समर्थ, काव्यमय तथा व्यंजक अभिव्यक्ति इस रचना का प्रथम पंक्ति देती है। बदलती हुई मनोवृत्तियों का ऐसा छाया प्रकाशमय विशद चित्र अन्यत्र दुर्लभ है। बीच-बीच में अवस्थानुरूप भावपरिवर्तन को प्राकृतिक ऋतु-परिवर्तन की प्रतीक रचना द्वारा मूर्त्त किया गया है। रचना के अंत में प्रौढ़ और वृद्ध के मनः प्रवाह में आधुनिक जीवन के परिष्कार की जो योजनाएँ और वितर्कनाएँ हैं, उनमें स्वयं कवि की प्रौढ़ विचारणा प्रतिध्वनित है। मानव-जीवन की उद्दाम जिजीविषा को अध्यात्मोन्मुख का अंत में कवि अमृत्य के मृत्य-पर्यटन की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत करता है। जीवन के चरम लक्ष्य और कृताशीः मानव की हुताशनी चित्रबेला का अपूर्व उद्गान इस रचना में मिलेगा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 661-662।

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